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नया सवेरा

नया सवेरा

by लता अग्रवाल
in अक्टूबर २०२०, कहानी
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“सुबह सूरज ने अपनी पहली दस्तक दे दी थी, रोशनदान से हल्की सुनहरी किरण छनकर लाजो को चेहरे पर बिखरी थी, मानो सहला रही थी, एक नया सवेरा उसे जिंदगी के संघर्ष के लिए हौसला देना चाहती हो। लाजो ने उठकर खिड़की खोली तो देखा दूर आसमान पर सूरज अपनी थकान मिटाकर फिर से नई शक्ति के साथ अपने साम्राज्य को विस्तार दे रहा है।”

कोहरे की चादर ने पूरे त्रिपांची गांव को अपनी धुंधली चादर में समेट लिया था। हाथ को हाथ न सूझता था। ऐसे में भला कौन घर से बाहर निकलने की गुस्ताखी करता। चारों ओर गहरा सन्नाटा पसरा था। लगता था पूरा गांव दरवाजा बंद कर रजाइयों में दुबक गया है। मगर ऐसे कंपकंपाते मौसम में भी एक घर था जहां जिंदगी की सुगबुगाहट सुनाई दे रही थी। क्योंकि लगातार उस घर से एक नन्हें बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी। इतनी ठिठुरती सर्दी में एक बच्चा भला क्यों इस तरह लगातार रोए जा रहा है…? संभवत: वह भूखा है….हां, शायद यही वजह है….? यह गांव के एक किसान सतनामसिंह का कच्चा सा मकान था जहां बिजली की रोशनी तो नहीं थी मगर अंधेरे से लड़ता हुआ एक पुराना सा टिमटिमाता लैंप जरूर जल रहा था। ऐसा लग रहा था वह भी उम्र के ढ़लते पढ़ाव पर है। उसकी ज्योति का तेल चुक रहा है और वह जलने- बुझने की जद्दोजहद में था ठीक उसी तरह जिस तरह इस घर में तीन जिंदगियंँ हैं। जिंदा होकर भी जिंदगी से दूर….।

तभी एक थकी-थकी सी आवाज आई…

“पुत्तर बच्चा रो र्या है….देख उनू दूध के वास्ते रो र्या लगता है।” ये सतनाम है। उसके सिलवटों से भरे चेहरे को देखकर लगता है वक्त की लकीरें अपनी गंभीर छाप छोड़ चुकी है उस पर। सतनाम काफी देर से अपने दो माह के पोते को रोते देख रहा है। बहू पास ही बैठी है मगर शायद कहीं खोई है….।

ससुर की बात सुनकर लाजो ने बच्चे को उठाकर अपनी छाती से चिपका लिया, मगर वह जानी थी कि उसकी छाती में इतना दूध कहां जो बच्चे की भूख को शांत कर सके। पिछले एक माह में उसने कुछ गिने चुने निवाले ही निगले होंगे…..उसका बस चलता तो वह भी नहीं खाती। वो तो तीन जिंदगियों को जिंदा रखने की खातिर जीना उसकी लाचारी बन गई है। वरना जीने की परवाह किसे है।

हादसा ही कुछ ऐसा गुजरा है उसकी जिंदगी में जीने की सारी तमन्ना ही छीन ले गया। गांव का नेक दिल सीधा-सादा किसान सतनाम उसकी बीवी परमिंदर तथा एक बेटा कुलजीते बस गिने चुने तीन लोगों का ही तो परिवार था। डेढ़ बीघा जमीन थी पास; मगर उसी में सुकून से गुजारा कर रहे थे खुश थे तीनों ही।

मगर तभी एक दिन डाकिया एक सरकारी ख़त लाया सतनामसिंह तो पढ़ा लिखा था नहीं सो बेटे के आने पर उसे पकड़ा दिया-

“पुत्तर देख तो यह सरकारी ख़त ….भला किसने भेजा है…?

ख़त पढ़ते ही कुलजीते खुशी से उछल पड़ा, पापाजी! पिछले महीने हम गांव के चार-पांच लड़के शहर गए थे ना!

“हां ! पुत्तर की हुया?”

“वहां फौजियों की भर्ती हो रही थी, हम उसी के लिए गए थे और आज ये चिट्ठी आई है कि मुझे फौज में नौकरी मिल गई है।

“तो क्या पुत्तर तू फौज विच जाएगा? तभी बात सुन कर भीतर से परमिंदर भी आ गई।

“पुत्तर तू ही तो हमारा इकलौता सहारा है, तू ही परदेस चला जाएगा तो हम किसके सहारे रहेंगे? हमारी सेवा कौन करेगा? ना जा  पुत्तर मैं कैंदी है तू मना कर दे इस नौकरी वास्तेे, नई चइए साड्डी नौकरी हम ते थोड़े ई में गुजारा करलेवेंगे।”

“मां! ये क्या कह रही हो….? अरे तुम्हें तो गर्व होना चाहिए कि तुम्हारा बेटा फौज में चुना गया है। अब मैं भी देश के लिए कुछ कर सकता हूं। कुलदीप के बार-बार समझाने, देशप्रेम की दुहाई देने पर भी परमिंदर यही कहती रही,

“ मैं कोई देश प्रेम-शेम नी जाण्णा मैनु तो अपना पुत्तर अपणी अँख्या सामणे चाइये अहो,”

किन्तु सतनाम समझ गए थे कि अब कुलदीप को समझाना बहुत मुश्किल है। बेटे की इच्छा देखकर सतनाम ने पत्नी को समझाया-

“सरदारनी ना रोक इसे एक नेक काम करने वास्ते जा र्या है तेरा पुत्तर, वाहे गुरू पर भरोसा रख वो सब भली करेंगे बेटा देश की सेवा करन नाल जा रया है।’

   माता पिता का आशीर्वाद ले कुलजीत फौज में भर्ती होने चला तो गया मगर बूढ़े माता पिता का मन उदास हो गया आखिर कुलजीते के रूप में ही तो उनके घर जिन्दगी मुस्कुराती थी। शाम को खेत से आने पर मां उसके पसंद का खाना बनाती। घर में उसके यार दोस्तों से रौनक रहती, घर-घर सा लगता था मगर अब वही घर खाने को दौड़ता है, घर की चार दीवारी खाली-खाली लगती। अजीब सा सन्नाटा पसर गया था घर में। कहां तो परमिंदर सोच रही थी कि अब बेटा बड़ा हो गया है, उसकी शादी होगी बहू आएगी फिर बच्चे ….उसका भी घर भरा-भरा होगा।

धीरे-धीरे समय कट रहा था। अब छ: माह बाद उसकी वापसी होनी थी। सो दोनों बड़ी बेताबी से एक-एक दिन काट रहे थे। कभी सरदारनी बड़ी अधीर हो जाती तो कहती बस बहुत हो गई देश की सेवा….अबके आया तो फिर नइ जाण देणे की अपने पुत्तर नू ……..देखते-देखते जुदाई का समय भी बीत गया। एक दिन वह भी आया जब डाकिया करतारे की चिट्ठी लेकर आया हर बार की तरह डाकिया पढ़कर बोला,

“मुबारक हो पापाजी! कुलजीते घर आ रहा है। वह भी दो महीने के लिए उसकी छुट्टी मंजूर हो गई है। अब जल्दी से मुंह मीठा करा दो चाईजी! हां-हां क्यों नहीं पुत्तरजी तू बैठ मैं अभी पकौड़ियां ले आती हूं और मीठी लस्सी भी बड़ी चंगी खबर सुनाई है तूने मेरा पुत्तर आ रहा है। हे! वाहे गुरू सब तेरी मर्जी है, सच तरस गई ये अंखियां अपने पुत्तर नू देखण वास्ते’

घर में मानो फिर से प्राण लौट आए हों, रात को परमजीत अपने पति से बोली,

“सुणोजी सरदारजी! अबके करतारे घर लौट के आ रहा है क्यों न अच्छी सी कुड़ी देखकर साड्डा ब्याह कर दें घर नाल बहू आएगी तो रौनक रहेगी। दो महीने बाद जब कुलजीते वापस जाएगा तो बहू तो रहेगी पास, हमारा सुख दुख बांटने की खातिर।’ सरदारजी को बात जम गई बोले-

‘बात तो तूने बिलकुल मेरे मन की करी है सरदारनी, मगर इतनी जल्दी कोई अच्छी कुड़ी कहां से लावांगे…..? अब ऐसी वैसी कुड़ी नाल ब्याह तो करने से रहे, हमें तो सीधी-सादी और कुलीन कुढ़ी चइए जो कुलजीते के नौकरी पर जाने के बाद भी हमारे साथ खुश रहे, हमारा ख्याल रखे।”

“तूसी चिंता ना करो ऐसी एक कुढ़ी है मेरी नजर में। अपने दलजीते के यहां ब्याह विच देखी थी मैंने। बड़ी ही सोणी कुणी है। थोड़ी पढ़ी लिखी भी है। मां- बाप तो हैं नइ बिचारी नाल चाचा ताऊ विच रई है तो जरूर समझदार होयगी। मेनु भरोसा है घर सम्हाल लेवेगी। तुसी कहो तो मैं दलजीते से कह कर बात चलाऊं?’

“पर एक बार कुलजीते से भी पूछ लें…वो की केंदा है?”

“अजी कुडी है ही इन्नी सुदंर मेनु पता है कुलजीते देखते ही खुश हो जाएगा।”

“हां! तो तुसी पता कर राखो फेर कुलजीते के आते ही हम उससे पूछकर ब्याह की तारीख पक्की देवेंगे।”

परमिंदर तो मानो उधार ही बैठी थी। उसने दूसरे ही दिन लाजो के बारे में पूरी तफतीश कर ली। लड़की में कोई एब नहीं बल्कि बहुत सुशील और गुणी है लाजो, सभी कीे उसके पक्ष में यही राय थी। लड़की वाले एक पैर पर राजी थे। बस कुलजीते के आने का इंतजार था। दो दिन बाद कुलजीत आया। पूरे छ: महीने बाद देख रही थी परमिंदर अपने बेटे कोे देखते ही रूंआसी हो गई।

“किन्ना काला हो गया पुत्तर। क्या हालत हो गई मेरे लाल की। पता नहीं खाने को भी ठीक से मिलता था कि नहीं।”

“अरे मां! बहुत अच्छा खाना मिलता है, देख कैसा तगड़ा हो गया है तेरा बेटा।”

“क्या मां के हाथ से अच्छा?”

“अब मां तेरे हाथ की बराबरी भला कौन कर सकता है?”

“अब आ रही है बराबरी करने वाली।”

“मतलब? पुत्तर अबके मैैं तेनू ऐसे नई जाण देवांगी। तेरे पापाजी और मैं ये सोच्या है कि सड्डा व्याह करवांगा। घर में बहू आएगी। कुछ हमारी भी सेवा करेगी। अब तूने तो देस की सेवा नाल व्रत ले रख्या है, तो हमने भी अपनी चिंता करनी है।”

“वो तो ठीक है मां मगर कुड़ी? तूसी उसकी चिंता ना कर मैं कुड़ी देख्या सी। बस तेरी हां करण वास्ते बात रोक रक्खी है।”

“मां-पापाजी मेनू भला आप दोनों की बात से क्या इंकार हो सकता है आप जैसा चाहे….।”

“हाय! मैं वारी जाऊँ अपने सरवन पुत्तर पर। मैं न कहती थी कि मेरे पुत्त्र ने कोई एतराज नइ होवेगा। कैसा आज्ञाकारी पुत्तर है मेरा , पर पुत्तर मैंने भी तेरे नाल वो कुडी देखी है कि तू भी कहेगा…… ”

फिर क्या था- अगले ही दिन परमिन्दर और सरदारजी कुलजीत को लेकर दलजीते के घर जा पहुंचे। गोर वर्ण, नाजुक सी, सुंदर लाजो ने तो मानो पहली नजर में ही कुलजीते पर जादू कर दिया। हफ्ते भर में ब्याह हो गया। परमिंदर का आंगन भी खुशियों से महक उठा …..मानो जिंदगी ने केनवास पर सारे रंग उतार दिए हों। परमिंदर इन खूबसूरत पलों को बड़े ही जतन से सहेजकर अपने आंचल में समेट रही थी। लाजो जैसी सुघड़ ओर खूबसूरत बहू घर आई थी। दोनों पति-पत्नी वाहे गुरू का धन्यवाद करते नहीं थकते थे। घर की काया ही पलट दी उसने, अपनी मधुर मुस्कान से कुलजीते के साथ सबका दिल जीत लिया था उसने। सुख के दिन थे कब सुबह हो जाती देखते ही देखते रात का सिरा हाथ में आ जाता। बहुत सोचती वह कि काश वक्त यहीं ठहर जाए। मन भी कितना बावरा था- एक ओर सोचता किसी तरह कैद कर लूं समय को दूसरी ओर सोचती कुलजीते के सुखी संसार को जल्दी से बढ़ते देखूं, मगर ये भूल गई कि वक्त के करवट लिए बिना ये कैसे संभव है…..?

डेढ़ माह आंख झपकते ही बीत गए।

कुलजीते की छुट्टियां खत्म हो गईं। उसे वापस जाना था और वह चला गया। इस बार उसे भी लाजो से दूर जाने का मन नहीं कर रहा था आखिर सात फेरों का बंधन जो था। इस बार सरदारजी और सरदारनी को बेटे के जाने का दुख तो था मगर बहू को देख उन्होंने सब्र कर लिया। यह खुशी तब और दुगनी हो गई जब पता चला कि लाजो पेट से है। अब तो घर में हर दिन उत्सव होता। परमिंदर लाजो के लाड चाव में कोई कमी ना रखती। वह क्या खाएगी, कब डॉक्टर को दिखाना है, समय से दवाइयों की चिंता……मन कितना लोभी है जो भी मिलता है उसकी चाहत उससे और आगे निकल जाती है। अब उनके कान बच्चे की किलकारी सुनने को बेताब थे। जल्दी से वह दिन आए, वहीं यह खबर जब लाजो ने कुलजीते को दी तो उसने लंबी चौड़ी चिट्टी भेजी। उसमें लाजो के लिए भी एक हिदायत भरा पत्र था ठीक से खाना, ज्यादा बोझ मत उठाना, समय पर पोलियो, खसरा, टिटनेस का टीका लगवा लेना आदि….। मैं जल्दी ही आऊंगा।’

लाजो को भी बड़ी बेताबी से पति का इंतजार था। आखिर वह भी चाहती थी कि दोनों पति पत्नी मिलकर इस खुशी को महसूस करें। पेट में जब-जब भी बच्चा हलचल करता उसे लगता काश! कुलजीते होता तो कान लगाकर सुनता, सुख के ये दुर्लभ क्षण वह अपने पति के साथ बांटना चाहती थी। रात में जब उसकी बैचेनी बढ़ती तो लगता काश कुलजीते होता तो उसके कंधे पर सिर रखकर अपनी बैचेनी दूर कर लेती। मगर फौजी पति को कम से कम छ: माह से पहले तो अवकाश मिलने से रहा फिर यही सोचकर तसल्ली कर लेती कि चलो बच्चे के जन्म के समय तक तो कुलजीते को छुट्टी मिल ही जाएगी। धीरे-धीरे प्रसव का वक्त नजदीक आ रहा था। लाजो की घबराहट बढ़ रही थी। वह बार-बार चिट्टी से, मोबाइल से कुलजीते को शिकायत करती, मगर कुलजीते विवश था। वह प्यार से लाजो को समझाता-

“लाजो! तेरी तरह में भी चाहता हूं कि इस वक्त हम दोनों साथ रहें। तेरे गर्भ में आकार लेते अपने अंश को पल-पल बढ़ते देखूं, तेरी पीड़ा, तेरी एहसास बांटू, मगर क्या करूं? नौकरी के प्रति भी मेरी जिम्मेदारी है। किन्तु लाजो! तू चिंता ना कर मैं बच्चे होने से 8-10 दिन पहले ही आ जाऊंगा। मैंने छुट्टी की एप्लीकेशन लगा दी है फिर हम दोनों मिलकर एक साथ बच्चे के होने की खुशी मनाएंगे।

समय तेजी से गुजर रहा था अब तो बच्चे होने का वक्त भी आ गया। कुलजीते न आ सका। उसका एक टेलीग्राम आया कि अचानक पालमपुर चौकी पर दुश्मनों ने धावा बोल दिया है और उसे वहां इमरजेसी में तैनाती दी गई है। सो अभी उसका आना टल गया है। जल्द ही दुश्मनों को ढ़ेर कर आऊंगा अब तभी अपने पुत्तर का मुंह देखूंगा। लाजो का मन बुझ गया। वो चाहती थी कि अपने प्यार के अंश को दोनों एक साथ देखें। मगर वाहे गुरू को ये मंजूर न था। इधर लाजो को दर्द शुरू हो गए ….. सतनाम और परमिंदर ने वाहे गुरू के आगे मथ्था टेका, अरदास रक्खी….वाहे गुरू तेरा ही आसरा है मेरी बच्ची ज्यादा दुख न पावे। अरदास मंजूर हो गई, दाई ने जल्द ही बेटे के होने की खबर सुनाई। थाली बजाई गई। परमिंदर और सतनाम दोनों ने वाहे गुरू का शुक्रिया अदा किया जो ऐसा बड़ा दिन दिखाया है घर में खुशियां छा गईं मगर कुलजीते की कमी खल रही थी।

बिरादरी वाले घर में बधाई देने आते, मगर शगुन अभी कुलजीते के आने तक रोक रखा था। बस उसके इंतजार में एक-एक दिन गुजरते जा रहे थे। कभी-कभी परमिंदर अपने पति से शिकायत करती,

“देखो जी! मैं इसी वास्ते कियासी पुत्तर नू मत भेजो फौज विच, पर मेरी एक ना सुन्यासी, कभी पोते को गोद में लेकर बडबडाती आण दे तेरे बाप नू दोनों मिलके लड़ेंगे बहुत इंतजार कराया सी।’

बेटा डेढ़ माह का होने को आया मगर लड़ाई खत्म नहीं हुई। अब तो लाजो को भी कुलजीत से शिकायत होने लगी। वह फोन आने पर सास ससुर के सामने तो कुछ न कह पाती मगर रात को कमरे में फोन ले जाकर पति से जी भरकर शिकायत करती -‘तुम कब आओगे जी? किन्ना इंतजार कराते हो? बेटा भी याद करने लगा है और फोन पर बच्चे के किलकने की आवाज वह उसे सुनाती। ये कैसी नौकरी है जी जो अपनों के बीच रोड़ा बनी है।’

उधर से फौजी की आवाज आती- सब्र कर ओ राझिंए तू एक फौजी की बीबी है। हिम्मत रख मैं अपना काम पूरा करते ही झट चला आऊंगा तेरे पास।

मगर कहते हैं ना बुरा वक्त कभी दस्तक देकर नहीं आता, शायद परमिंदर के इस घर को किसी की नजर लग गई। गांव के स्कूल में फोन आया कि पालमपुर चौकी पर दुश्मनों से लड़ते हुए ‘कुलदीपसिंह शहीद हो गए। कृपया यह सूचना उनके घर तक पहुंचा दी जाय। उनका शव पूरे सम्मान के साथ परसों उनके निवास पर लाया जाएगा।’

गांव के प्रधान और मास्टरजी पर यह जिम्मा था कि यह सूचना सतनाम तक पहुंचा दी जाय। बड़ा ही चुनौतीपूर्ण काम था कैसे….क्या कहेंगे सतनाम से। अभी तो वह अपने पोते की खुशियां भी पूरी तरह नहीं मना पाया है। बेटे की आस में एक-एक दिन गिन रहा है…..पुत्तर के आते ही जश्न मनाएगा। मगर ये अचानक कैसी परीक्षा में ड़ाल दिया भगवान तूने….। वह मासूम सी लाजो ….उसने तो अपने पति के साथ अभी एक बसंत भी ठीक से नहीं देखा और जीवन भर का पतझड़ उसके तकदीर में लिख दिया। खैर! घटना की जानकारी तो देनी ही थी। उन्होंने बड़े धीरे से समझाते हुए यह घटना सतनाम को सुनाई। साथ ही यह भी कि अभी यह बात घर की दोनों महिलाओं को ना बताई जाय क्योंकि शव को आने में दो दिन का समय बाकी है। इन दो दिनों में घर की दोनों महिलाओं को सम्हालना कितना मुश्किल होगा….सच सतनाम के लिए कितनी मुश्किल घड़ी थी। पहाड़ सा दुख सिर पर आ गिरा और उफ तक करने की इजाजत नहीं। दो दिनों में अन्न-जल लगभग त्याग सा दिया था उसने। परमिंदर कहती रही,

“तुसी क्या हुआ जी! लगदा है तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है…..। लाजो पुत्तर ! तू कल ही कुलजीते को फोन लगाकर बोल बस अब बहुत हो गई देश की सेवा….अब हमें उसकी जरूरत है। झट-पट लौट आ।”

कुलजीते आया मगर इस तरह….. किसी ने नहीं सोचा था। उसका पार्थिव शरीर फौज की सेना के साथ दरवाजे के सामने था। उसके आते ही गांव भर में हड़कंप मच गया। बेटे को इस रूप में देख परमिंदर तो ऐसी खामोश हुई कि उसके होंठ के साथ-साथ उसकी आंखों के आंसू भी सूख गए। वो एक टक कुलजीते की पार्थिव देह को देखती रही। गांव की महिलाएं उसे बार-बार रूलाने का प्रयास कर रही थीं। उन्हें डर था कि अगर जो परमिंदर न रोई तो उसके दिमाग पर असर हो सकता है। मगर परमिंदर मानो चेतना शून्य हो चुकी थी।

राष्ट्रीय धुन के साथ तिरंगे में लिपटा, फूलों से लदा कुलजीते का पार्थिव शरीर गर्व से लेटा था। इतना तो वह अपनी शादी में भी नहीं सजा था। उसके पीछे-पीछे सैनिक लिबास में कदम ताल करते सेना के जवान चल रहे थे, साथ ही सेना के बड़े अफसर भी। उन कदमों के संग जा रहे थे बूढ़े माता-पिता के टूटे सपनों की अर्थी…..एक बेवा के बिखरे अरमानों की डोली…, एक मासूम बच्चे के सर से धराशाही हुए साये का जनाजा…. गांव अभी तक तो कुलजीते के ब्याह के जश्न को नहीं भूला था और आज उसके मातम का जश्न मन रहा है। हां! मातम का जश्न ही तो था….एक देशभक्त ने अपनी जान की परवाह न कर देश की आन-बान और शान को कायम रखने के लिए अपनी शहादत दे डाली। ऐसे सपूत पर एक मां थी जो बारी जा रही थी; वहीं दूसरी मां ग़म के सागर में पूरी तरह डूब चुकी थी। जनाजा गांव की जिस गली से निकलता गांव की महिलाएं छत पर से कुलजीते पर फूलों की वर्षा करने लगतीं। चाची, ताई, भाभी हर आंखें नम और सिर सम्मान में झुका हुआ था। बच्चे, बूढे और जवान तो अर्थी के साथ चल रहे थे। पूरे तीन घंटे शवयात्रा गांव की गलियों में घूमते हुए चक्री घाट पर पहुंची जहां राजकीय सम्मान के साथ तोपों की सलामी देते हुए कुलजीते के शरीर को अग्नि के हवाले कर दिया गया।

सभी अपनी जिंदगियों में लौट गए मगर जिन्दगी जाने क्यों सतनाम, परमिंदर और लाजो से रूठ गई। लगा खुशियां मानो कुछ समय के लिए अतिथि बन उनके आंगन में आईं और अपनी ही मर्जी से चली भी गईं। जहां परमिंदर जिंदा लाश बन चुकी थी तो सतनाम और लाजो कौन से जीवित थे….? फर्क सिर्फ इतना था कि परमिंदर जड़ हो गई थी और ये दोनों चलते फिरते नजर आ रहे थे। जुबान तो फिर भी खामोश थी। बस आंसू से ही व्यापार चल रहा था। यही जिंदगी का सच था जिसे सतनाम और लाजो को स्वीकार करना था।

एक महीने के भीतर सेना से खबर आई कि सेना के दो अफसर कुलजीते की बीमा आदि की राशि के बारे में कार्यवाही करने गांव आ रहे हैं। कुछ कागजात पर सतनाम और लाजो के दस्तख़त भी लेने हैं। वे लाजो से मिलना चाहते थे। अपने चेहरे को नीचे तक दुपट्टे से ढ़के डरी-सहमी लाजो गोद में नन्हें हरप्रीत को थामे जब फौजी अफसर के सामने आई। संवेदना दिखाते हुए वह अफसर बोले जा रहा था,

“मिसेज कौर! आपके पति ने देश की रक्षा में अपनी शहीदी दी है। उनकी जांबाजी को हमारी फोर्स हमेशा याद रखेगी। हम इस दुख में आपके साथ हैं। कुलजीत का कुछ पैसा है…..अफसर कहे जा रहा था मगर लाजो …..उसकी जिंदगी तो घटनाओं के बीच मानो विराम बनकर रह गई थी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था वह क्या कहे? मगर सतनाम की अनुभवी आंखें भांंप रही थीं कि अफसर की आंखें बार-बार लाजों के घूंघट के भीतर झांकने को आतुर है। तब सतनाम ने ही टोका,

“साहब जी ! बच्चा परेशान हो रहा है। जल्दी बता दें कहां दस्तख़त करना है।”

“हां! मिसेस कौर! ये लीजिए पेन और दस्तख़त कर दें लगभग चौंकते हुए बोला अफसर।”

आज सतनाम ने उस आबरू पर मंडराते खतरों को पहचान लिया। फौज के अफसर अपनी कार्यवाही पूरी कर चले गए ….छोड़ गए चिंता सतनाम के लिए। वह सोचने पर विवश हो गया कि अभी सारी उम्र पड़ी है लाजो के सामने…..और चारों और भूखे भेडिए हैं। किस-किस से बचाएगा वह लाजो को….? वैसे भी दोनों मौत के मुहाने पर बैठे हैं उस पर बेटे का ग़म जाने कब गहरी नींद आ जाए…? फिर क्या होगा लाजो का…..बचपन से मां-बाप के आंचल से महरूम रही, रब से पति का सुख भी न देखा गया। इतनी बड़ी दुनिया में कैसे उसे अकेला छोड़ दें…..? यह दर्द सतनाम को भीतर ही भीतर खाए जा रहा था….परमिंदर भी अब इस काबिल न रही कि उससे कुछ सलाह-मश्वरा ले सके।

एक शाम हिम्मत कर सतनाम ने ही लाजो से कहा,

“पुत्तर तेरे नाल एक गल करनी है।”

“बोलो पापाजी! पुत्तर तुझे नहीं पता ये दुनिया उतनी भली नहीं है जितनी हम समझते हैं, इसमें बहुत छल है। अभी तेरे आगे पूरी जिंदगी पड़ी है पुत्तर, हम दोनों चाहते थे कि बिन मां-बाप की बच्ची को इतना प्यार देंगे कि उसका जीवन में कोई कमी न रहे। मगर पुत्तर वाहे गुरू की मर्जी के आगे किसकी चली है। मगर मैं ये भी नहीं चाहता कि तेरे जीवन में और कांटे आ जाएं।”

“मैं समझी नहीं पापाजी…?”

“पुत्तर …..मैं…. के रिया सी….. कि तू किसी के नाम की चादर ओढ़ ले…..बड़ी मुश्किल से सतनाम के हलक से ये लब्ज निकले। कम से कम दुनिया की बुरी नजरों से तो बची रहेगी। देख पुत्तर तू राजी हो तो तेरे घर वालों से मैं बात कर लेता हूं …?”

“पापाजी! मैंने उस आदमी के नाम की चादर ओढ़ी है जिसने तिरंगे को ओढ़ा है, अब किसी और के नाम के चादर ओढ़कर मैं उस तिरंगे की शान को मैला करना नहीं चाहती।”

“पर पुत्तर तेरा ये दुख…ये अकेलापन देखा नहीं जाता मुझसे।”

“पापाजी! मुझे थोड़ा सा वक्त दीजिए। मैं उबरने की कोशिश करूंगी। अब उनकी सारी जिम्मेदारी मेरी है और एक फौजी की बीबी को इतना मजबूत तो होना ही चाहिए ना कि वो अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभा सके। आप चिंता न करें मैं ठीक हूं।”

लाजो रात देर तक सोचती रही। आखिर क्या होगा जिंदगी का, अब वो अकेली नहीं उस पर अपने बेटे के साथ-साथ अपने बूढ़े मां-बाप की भी जिम्मेदारी है। पापाजी की उम्र रही नहीं कि खेत में काम करें….. मां तो खुद बेआसरा हो गई हैं ऐसे में अब उसे दुनिया की परवाह किए बिना खुद ही जिंदगी की लड़ाई लड़नी होगी। कल से वो ही खेत की जिम्मेदारी सम्हालेगी, और घर की भी। सोचते-सोचते जाने कब उसकी आंख लग गई…..सुबह सूरज ने अपनी पहली दस्तक दे दी थी, रोशनदान से हल्की सुनहरी किरण छनकर लाजो को चेहरे पर बिखरी थी, मानो सहला रही थी, एक नया सवेरा उसे जिंदगी के संघर्ष के लिए हौसला देना चाहती हो। लाजो ने उठकर खिड़की खोली तो देखा दूर आसमान पर सूरज अपनी थकान मिटाकर फिर से नई शक्ति के साथ अपने साम्राज्य को विस्तार दे रहा है। लाजो ने जल्दी से घर के काम करे, मां और हरप्रीत को तैयार किया। खाना बनाकर सतनाम से बोली,

“पापाजी! आप एक-दो बार मुझे खेत चलकर काम समझा दें मैं जल्द ही सीख जाऊंगी।”

“मगर पुत्तर तू बाहर कैसे जाएगी……?  बहुत कोहरा है।”

“नहीं पापाजी! कोहरा मिट गया है, अब बादल पूरी तरह साफ है।

———-

 

 

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