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वस्त्र एवं कपड़ा आधारित आन्दोलन

वस्त्र एवं कपड़ा आधारित आन्दोलन

by डॉ. प्रवेश कुमार
in दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२०, सामाजिक
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ब्रिटिश काल में ब्रिटिश सरकार ने अपने हितों के लिए कई ऐसी नीतियां और कानून बनाए, जिसके अंतर्गत वस्त्र एवं कपड़ा उद्योग से जुड़े लोगों के हितों पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा। इसमें 1813 एक्ट के तहत भारत में मुक्त व्यापार की नीति लागू की गई। इस नीति के तहत अब न सिर्फ ईस्ट इंडिया कंपनी बल्कि अन्य बाहरी कंपनियां भी भारत में व्यापार कर सकती थीं।

हिंदुस्तान में अंग्रेजों के आने और उनका तेज़ी से हमारे काम-धंधों पर एकाधिकर करने ने जहां भारत में शोषण को बढ़ाया वहीं भारत के जनमानस में अंग्रेज़ी शासन के प्रति विरोध के स्वर भी उठे। धीरे-धीरे ही सही पर सम्पूर्ण भारत के जनमानस को अपने हाथों से जाते रोज़गार के अवसर और अपनी आर्थिक बदहाली के ख़िलाफ़  समाज जागरण के माध्यम से आंदोलन भी खड़े करने पडे, जिसमें स्वदेशी का आंदोलन बड़ा कारगर आंदोलन था। इसने हिंदुस्तान के ख़ास और आम दोनों ही अवामों के भीतर जागरण का कार्य किया। इस स्वदेशी आंदोलन में महत्वपूर्ण शस्त्र वस्त्र ही थे, आज़ादी की लड़ाई में विदेशी वस्त्रों की होली और स्वदेशी हस्तनिर्मित वस्तुओं का प्रयोग इसको लेकर बड़े अभियान चले। लोकमान्य तिलक, डॉ. हेडगेवार, बाबू गेनु, महात्मा गांधी, वीर सावरकर, भगिनी निवेदिता आदि ने इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया।

आइए अब भारत में वस्त्र एवं कपड़ा आधारित आंदोलन को समझते हैं। भारत का वस्त्र उद्योग प्राचीन समय से आत्मनिर्भर एवं लोकप्रिय रहा है। वैदिक काल, वैदिक काल से मध्य काल, हड़प्पा सभ्यता और आधुनिक समय में भी भारत ने तमाम चुनौतियों के बावजूद इस क्षेत्र में काफी तेजी से प्रगति की। लेकिन ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय बुनकरों और कपडा व्यवसाय से जुड़े लोगों को बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश काल में ब्रिटिश सरकार ने अपने हितों के लिए कई ऐसी नीतियां और कानून बनाए, जिसके अंतर्गत वस्त्र एवं कपडा उद्योग से जुड़े लोगों के हितों पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा। इसमें 1813 एक्ट के तहत भारत में मुक्त व्यापार की नीति लागू की गई। इस नीति के तहत अब न सिर्फ ईस्ट इंडिया कंपनी बल्कि अन्य बाहरी कंपनियां भी भारत में व्यापार कर सकती थीं। पहले जो व्यापार ईस्ट इंडिया कंपनी तक ही सीमित था, अब सब बे-रोकटोक हो गया। इसके अलावा अब भारतीयों से कम कीमत पर कच्चा माल ख़रीदा जाने लगा। वहीं विदेशी माल महंगे दामों पर भारत में बेचा जाने लगा। मशीनों से बना कपड़ा भारत की मंडियो में बड़ी तेज़ी से प्रचलन में आ गया, जिसने हमारे लाखों लोगों का रोज़गार छीन लिया। बुनकर, जुलाहे, धोबी एवं दर्जी आदि का रोज़गार छीन गया। कच्चा माल हमारे ही देश का और हम ही सबसे बड़े ख़रीदार भी, बड़ी अजीब सी बात थी। आज भी हम ही दुनिया में सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। इसीलिए दुनिया के देश भारत में अपना माल बेचना चाहते हैं, लेकिन 90 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी द्वारा प्रारंभ किया गया स्वदेशी आंदोलन इन कंपनियों के भारत में अपनी शर्तों पर व्यापार करने की मंशा में बड़ी बाधा बन कर खड़ा है और देश के हस्त एवं छोटे उद्योगों का इसके कारण बचाव भी हुआ है। भारत में अंग्रेज़ी व्यापार नीति के कारण न सिर्फ भारत गरीब होता गया बल्कि भारतीय बुनकरों और कपडा व्यवसाय से जुड़े लोगों का भी जबरदस्त शोषण हुआ, इसका सबसे अधिक प्रभाव दलित समुदाय पर पड़ा जो की परम्परागत कपडे और चमड़े के व्यवसाय से जुड़े थे, भारतीय बुनकरों के अंगूठे तक काट दिए गए ताकि वे बुनकारी का कार्य न कर सकें। ये सब अंग्रेज़ क्यों कर रहे थे? उसका का कारण यहा था कि अंग्रेजों को अपने नील के बगान में खेती के लिए भारतीय किसानों के साथ मजदूरों की आवश्यकता थी। इसके लिए बागान मालिक रैयतों के साथ समझौता करते, इसके लिए वो अनुबंध पर किसानों के जबरदस्ती दस्तखत कराकर खेती करवाते थे।

इस सारी व्यवस्था का सबसे ज्यादा विरोध 1905- 06 के बंग- भंग के दौरान देखने को मिला जब लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। इस दौरान विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और स्वदेशी को अपनाने पर अधिक ज़ोर दिया गया। इस आन्दोलन का प्रभाव पूरे भारत वर्ष में था लेकिन बंगाल-महाराष्ट्र के इलाकों में बहुत ज्यादा था। अनेकों सामाजिक और राजनितिक संघटनों ने इस आन्दोलन में हिंसा लिया जिसमें अनुशीलन समिति, रामकृष्ण मिशन शामिल थे। सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी, अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, वीर सावरकर, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक,  बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, भगिनी निवेदिता और लाला लाजपत राय ने भी इस स्वदेशी आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इसी आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरू हुई। अनुशीलन समितियां बनीं जो दबाये जाने के कारण क्रान्तिकारी समितियों में परिणत हो गयीं। भारत में बंग-भंग के विरोध में सभाएं तो हो ही रही थीं। अब विदेशी वस्तु बहिष्कार आन्दोलन ने भी बल पकड़ा। अश्विनी कुमार दत्त, रजनीपामदत और दादा भाई नोरोजी ने अपनी रचनाओं में बताया कि किस प्रकार अंग्रेज भारत से धन निकासी कर रहे हैं, जिसके कारण भारत और अधिक गरीब होता जा रहा है और ब्रिटेन और अधिक धनी होता जा रहा है। तिलक और गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे भी कलकत्ता पहुंचे और महाराष्ट्र के बाद बंगाल में भी शिवाजी उत्सव का प्रवर्तन किया गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी इस आन्दोलन का समर्थन किया और इसी अवसर पर ’शिवाजी’ शीर्षक से प्रसिद्ध कविता लिखी। इसका प्रभाव 1905 के कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में देखने को मिला, जिसमें स्वदेशी और आर्थिक बहिष्कार के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया। इसके बाद यह आन्दोलन निम्नलिखित तीन मुद्दों पर केन्द्रित हो गया- (1) विदेशी वस्तु और कपड़ों का बहिष्कार (2)अंग्रेजी में बातचीत करना बंद और स्थानीय भाषा में बातचीत को प्रोत्साहन (3) सरकारी पदों और कौंसिल की सीटों से त्यागपत्र, शामिल थे। संक्षेप में देशप्रेम और राष्ट्रीयता का तीव्र प्रसार करने में स्वदेशी आंदोलन को अपार सफलता मिली। यह आंदोलन विदेशी शासन के विरुद्ध जनता की भावनाओं को जागृत करने का अत्यंत शक्तिशाली साधन सिद्ध हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन में अब राजनीति से पृथक रहने वाले अनेक वर्गों यथा- छात्रों, महिलाओं तथा कुछ ग्रामीण व शहरी जनसंख्या ने भी  सक्रिय रूप से भाग लिया। आंदोलन का प्रभाव-क्षेत्र राजनीतिक जगत तक ही सीमित नहीं रहा अपितु साहित्य, विज्ञान एवं उद्योग जगत पर भी इसका प्रभाव पड़ा। इसके आलावा स्वदेशी आंदोलन ने उपनिवेशवादी विचारों एवं संस्थाओं की वास्तविक मंशा को लोगों के समक्ष अनावृत कर दिया जिससे लोगों में चेतना आई तथा वे साहसिक राजनीतिक भागीदारी एवं राजनीतिक कार्यों में एकता की महत्ता से परिचित हुए। साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन के सभी प्रमुख माध्यमों जैसे- उदारवाद से राजनीतिक अतिवाद, क्रांतिकारी आतंकवाद से प्रारंभिक समाजवाद तथा याचिका एवं प्रार्थना-पत्रों से असहयोग एवं सत्याग्रह का अस्तित्व इस आंदोलन से उभरकर सामने आया। आन्दोलन का प्रभाव हमे दिल्ली दरबार (1911) में देखने को मिला जिसमे बंग-भंग रद्द कर दिया गया,पर स्वदेशी आन्दोलन नहीं रुका। अपितु वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में परिणित हो गया। यह आन्दोलन 1905 से 1911 तक चला। यह महत्मा गांधी जी के भारत में पदार्पण के पूर्व सभी सफल आन्दोलनों में से एक था तथा  आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया तथा स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन से जो राजनीतिक चेतना एवं राष्ट्रवादी लहर पैदा हुई कालांतर में उसने भारत की आज़ादी की रूपरेखा तैयार की।

 

 

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