समाज को नवदधीचियों की जरूरत

मुंबई सेन्ट्रल के गोपाल कृष्ण क्रीडा मंडल ने एक जनजागृति शोभायात्रा का आयोजन किया था, जिसका उद्देश्य था लोगों को देहदान के संदर्भ में जानकारी देना। इसी प्रकार के एक गणेशोत्सव मंडल ने भी ऐसे ही कार्यक्रम का आयोजन किया था। यह पढ़कर मन आश्चर्यजनक रूप से प्रसन्न हुआ।

हमने बचपन से अन्नदान, वस्त्रदान, धनदान आदि विविध प्रकार के दानों के संबंध में कई कथायें पढ़ीं है। रक्तदान और नेत्रदान का भी धीरे-धीरे लोगों को परिचय हो रहा है। परंतु आज समय की मांग बन चुके ‘देहदान’ से अभी भी लोग अपरिचित हैं। देह अर्थात अनेक अवयवों का समूह और उसका दान अर्थात अवयवों का दान। यह दान उन मरीजों को दिया जाता है, जिन्हें जीवित रहने के लिये इनकी आवश्यकता होती है। रक्तदान और नेत्रदान की संकल्पनाओं ने समाज में अपनी जड़ें फैलानी शुरू कर दी है। इनका प्रचार सभी प्रसार माध्यमों, समाचार पत्रों और विविध चर्चा सत्रों से हो रहा है। इनके कारण ही समाज में इन विषयों को लेकर जागृति फैली है। जिसके कारण आपदा के समय, बम विस्फोट के समय, भूकंप के समय रोगियों को मानवता के दृष्टिकोण से रक्तदान किया जाता है। अगर ऐसा ही सहयोग समाज के सुशिक्षितों डाक्टरों और विचारकों द्वारा देहदान के संदर्भ में किया जाये तो….।

हमारी दिनचर्या सतत् चालू रहती है और अधिक से अधिक सुखी करने का प्रयत्न भी हम निरंतर करते रहते हैं। परंतु एक दिन यह सब रुक जाता है और मानव देह सुख-दुख, भाग-दौड से परे निकल जाता है। इससे बाद शरीर को चाहे जलाया जाये या गाड़ा जाये पर आत्मा अमर होती है। यह हुआ तत्वज्ञान, परंतु मानव की भावना उसी शरीर से बंधी होती है। इस तरह लोगो को शरीर का नश्वरत्व समझाकर मृत शरीर को श्मशान भूमि की जगह चिकित्सकीय महाविद्यालय मेें पहुंचाने की उपयोगिता सिद्ध करनी होगी। ‘देहदान’ परंपरा विरुद्ध हो सकता है, परंतु धर्म विरुद्ध नहीं है। इन्द्र ने वृत्तासुर का वध करने, के लिये दधीचि ऋषि की अस्थियां मांगी थी। समाज के कल्याण के लिये उन्होंने तुरंत अपनी तप शक्ति से प्राण त्याग दिये।

मृत्यु पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता, यह सत्य है। परंतु आज चिकित्सकीय क्षेत्र में हो रहे नित नवीन अनुसंधानों से रोगियों की आयु अवश्य बढ़ाई जा सकती है। किसी दूसरे व्यक्ति के शरीर के अंग को निकालकर रोगी के शरीर में प्रत्यारोपित करना आज संभव हो गया है। दुर्भाग्य से भारत में देहदान बहुत कम किया है। भारत में धार्मिक प्रथाओं का प्रभाव बहुत है। शरीर के अंग का दान करने पर अगले जन्म में कष्ट होना, स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होगी इत्यादि कई भ्रांतियां फैली हैं, जिसके कारण देहदान के बारे में समाज उदासीन है। परिणामत: विकसित चिकित्सकीय क्षेत्र में भी दान किये गये शरीरों की कमी महसूस कर रहा है और अंग न मिलने के कारण जान गंवाने वाले रोगियों की संख्या बढ़ रही है।

भारत में तमिलनाडु ऐसा प्रान्त है जहां देहदान के लिये लोग जागरूक हैं। वहां 600 से अधिक मानवीय अंगों का दान किया गया है। दूसरे क्रमांक पर मुंबई है। विदेशों में स्पेन ऐसा देश है जिसकी जनसंख्या केवल, चार करोड है, परंतु वहां प्रतिवर्ष 1,300 मृतशरीरों का दान प्राप्त होता है। ‘मरने के बाद हमारा शरीर अगर किसी का जीवन बचा सकता है, तो उससे बढ़कर कोई पुण्य नहीं है।’ भारतीय समाज के द्वारा भी महर्षि दधीचि के जीवन से प्रेरणा लेकर इस विचार को स्वीकार करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही सरकार द्वारा देहदान के विषय में समाज में जनजागृति फैलाने की भी आवश्यकता है। और साथ ही आवश्यकता है अत्याधुनिक तंत्रज्ञान द्वारा मानवीय अंगों को सुरक्षित उन लोगों तक पहुंचाने की, जिन्हें उनकी आवश्यकता है।

आज यह दुर्लक्षित विषय समाज के सामने लाने वाले और उनका महत्व समझानेवाले कार्यक्रम आयोजित करनेवाले मंडल के सदस्यों का अभिनंदन। हमारे समान ने रक्तदान और नेत्रदान को स्वीकार किया है। अधिक प्रयासों से देहदान की संकल्पना भी समाज स्वीकारे और मानवीय अंग उपलब्ध न होने की वजह किसी की मृत्यु न हो यही सदिच्छा।

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