स्वयं प्रकाशित तेजपुंज

शिवाजी पार्क के मैदान पर सुनाई देनेवाले ओजपूर्ण आह्वान ‘शिवतीर्थ पर एकत्रित हुए मेरे हिंदु भाइयों, बहनों और माताओं’ अब सुनाई नहीं देगा। शिवाजी पार्क की मिट्टी को भीड़ का गणित सिखाने वाला एक औलिया नेता अब हमारे बीच नहीं रहा। शिवाजी पार्क ने कई सभाएं देखीं, परंतु शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की सभा ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये। शिवसेना और बाल ठाकरे एक ही सिक्के के दो पहलू थे। शिवाजी पार्क पर यह सिक्का खूब चमकता था। रणभूमि में जैसे तलवार कड़कती है, वैसे ही बाल ठाकरे शिवाजी पार्क पर अपने भाषण के दौरान कड़कते थे। अन्य किसी भी राजनेता के जिस भाषा में बोलना और अपने विरोधियों पर प्रहार करना कठिन हो, बाल ठाकरे उस भाषा का उतनी ही सरलता से उपयोग करते थे। 46 वर्ष इस एक स्तंभ पर शिवसेना टिकी थी। बाल ठाकरे ने शिवसेना को आगे बढ़ाया। उसे सत्ता तक पहुंचाया और सत्ता से दूर बैठे भी देखा। अपनी प्रतिमा को चोट पहुंचानेवाले निर्णय, जैसे- संजय दत्त, प्रतिभा पाटिल और प्रणव मुखर्जी को सहयोग दिया, परंतु उनकी प्रतिमा बिगड़ नहीं सकी। उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। प्रबोधनकार ठाकरे जैसे समाजसुधारक के संस्कार बाल ठाकरे पर पड़े। स्वतंत्रता के बाद आकार लेने वाली मुंबई में मराठी लोगों के हक को नजरअंदाज किया जा रहा था। इसी भूमिका को लेकर बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना की। मराठी लोगों के हक और न्याय के लिये लडनेवाली शिवसेना बाल ठाकरे की आक्रमक शैली और संगठन के कौशल के कारण लोकप्रिय होने लगी।

शिवसेना का विकास क्यों हुआ? इस प्रश्न के उत्तर का विचार करते समय बाल ठाकरे जैसे नेता के साथ-साथ शिवसेना ने अपने संगठन का जो जाल बुना, उसे भी याद रखना होगा। लोगों की समस्याओं को खुद सुनना, समझना और विभिन्न स्थानों पर खडी की गई शाखाओं के माध्यम से उन समस्याओं का निराकरण करने की कोशिश करना, कार्य न करनेवाले अधिकारियों को शिवसेना की खास शैली में दंडित करना इत्यादि कारणों से शिवसेना लोकप्रिय हुई।

भाषण के दौरान अपनी पहली ही पंक्ति पर तालियों की गूंज सुनने वाला नेता स्वयं में बहुत निराला था। गठबंधन की सरकार विजयी होने पर शिवसेना मुख्यमंत्री और भाजपा के उपमुख्यमंत्री ने अपना पदभार संभाला। बाल ठाकरे ने अत्यंत तटस्थ भाव से यह सारा नजारा देखा। उन्होंने स्वयं कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा।

जब सेना के कार्यकारी अध्यक्ष पद पर उन्होंने उद्धव ठाकरे को बैठाया, तो शिवसेना में एक बवंडर उठा, जो कि राज ठाकरे के शिवसेना से निकलकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाने के बाद ही शांत हुआ। कई बार राज ठाकरे पर बाल ठाकरे ने टिप्पणी भी की। उस समय के चुनावों के दौरान उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का आमने-सामने आना बाल ठाकरे के लिये अत्यंत क्लेशकारक था। इस उम्र में भी उन्हें शिवसेना को संभालने का कार्य करना पड़ा। नारायण राणे और राज ठाकरे दोनों ही शिवसेना छोड़कर जा चुके थे। उस परिस्थिति में भी बाल ठाकरे ने अपना करिश्मा दिखाया। इसी करिश्में के कारण मुंबई महापालिका के दो चुनावों में गठबंधन की सरकार विजयी हुई। तमाम तथाकथित राजकीय विश्लेषक कहलानेवाले अनेक लोगों ने उन चुनावों को पानीपत का युद्ध कहा था। मुंबई और ठाणे दोनो ही जगहों पर चुनाव प्रचार के अंतिम चरणों में बाल ठाकरे मैदान में उतरे और शिवसेना ने बाजी मार ली। दोनों ही जगहों पर उन्होंने एक-एक बार ही सभा की। सामान्य जनता का किसी राजकीय नेता पर विश्वास करने का क्या अर्थ होता है, इस चुनाव ने साबित कर दिया। जहां शिवसैनिक भी इस बात से आशंकित थे कि कहीं राज ठाकरे की सभाओं के कारण शिवसेना की विजय के अवसर धूमिल न हो जायें, वहीं बाला साहब ठाकरे की एक सभा ने सारा नजारा पलट दिया।

भुजबल, नाईक, राणे और राज जैसे शिवसेना के नेताओं ने शिवसेना छोड दी, परंतु उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी एक जगह बनाई। राज को ठाकरे परिवार से मिली खानदानी पहचान को छोडकर अन्य सभी लोग परिश्रम से ही आगे आये थे। शिवसेना जैसे जागरूक संगठन में कार्य करने का अनुभव उनके पास था। स्वतंत्रता के बाद की विभिन्न गतिविधियों और आंदोलनों में जिस संगठन की पहुंच आम लोगों तक थी, उनमें शिवसेना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है बाल ठाकरे इसके संस्थापक थे। उनके जाने के बाद शिवसेना तो अनाथ हुई ही, परंतु मुंबईवासियों ने भी अपने हक और न्याय के लिये लडनेवाला सेनापति खो दिया। बाल ठाकरे जैसे नेता बार-बार जन्म नहीं लेते। इस स्वयं प्रकाशित तेजपुंज तारे को हिंदी विवेक का आखरी प्रणाम।

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