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स्मारकों की भारतीय राजनीति

स्मारकों की भारतीय राजनीति

by अमोल पेडणेकर
in जनवरी- २०१३, राजनीति
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जातीय, प्रांतीय, पार्टी की अस्मिता, पुतलों को लेकर वाद-विवाद, स्मारक बनाने जैसे मुद्दों पर हंगामा मचाने वाले अतिरंचित विषयों पर देश की राजनीति व्यर्थ ही बर्बाद हो रही है। देश के राजनेता अपना पूरा समय व्यर्थ ही बर्बाद कर रहे हैं। लगभग सभी राजनीतिक दल, राजनेता, जाति-पाति को बढ़ावा देने वालों में अग्रणी लोग अस्मिता को आधार बनाकर अपनी राजनीति चमकाते हैं। वे यह मानकर चलते हैं कि इन सबके बगैर राजनीति में टिकना मुश्किल है, इसलिए ‘अस्मिता’ का अधिकाधिक उपयोग करके उसका राजनीतिक फायदा कैसे किया जाए? इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं।

‘अस्मिता’ को महत्त्व देने वाले लोग अपने मुद्दे को दृढ़ता से समाज में रखते हैं। इस कारण देश का, समाज का भला होगा, इसकी संभावना नगण्य ही लगती है। जो पार्टी ऐसे मुद्दे को लेकर राजनीति करती है, उसका ही उससे लाभ होता है। इसलिए ये राजनीतिक दल ‘अस्मिता’ जैसे मुद्दे को लगातार जीवित रखते हैं।

कोई भाषा के आधार पर, कोई जाति, कोई प्रांत के आधार पर कोई नेताओं के आधार पर ‘अस्मिता’ का हवाला देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस कारण यह आभास होता है कि देश की मुख्य समस्याओं की ओर जानबूझ कर ध्यान नहीं दिया गया। सकुंचित अस्मिता की अधिकता देश को अस्थिर करके उसे आराजकता की ओर ले जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में हुई घटनाओं को देखकर इस बात का पता चलेगा कि अस्मिता की रक्षा के नाम पर देश में आराजकता ही फैलाई गई है। तमिलनाडु का ही उदाहरण लें। श्रीलंका में तमिल शेरों की स्थिति विकट है, ऐसी स्थिति को बदलने के लिए भारत को हस्तक्षेप करना चाहिए। यह मुद्दा भी तमिल अस्मिता से ही जुड़ा हुआ है। मौका मिलने पर द्रमुक के नेता एल. टी. टी. ई. का भी समर्थन करते नजर आते रहे हैं। एल. टी. टी. ई. नामक संस्था तमिलों पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाती रही है, इसलिए इस संगठन के प्रति उनकी भावना काफी सकारात्मक रही हैं। श्रीलंका में शांति प्रतिस्थापित हो, ऐसी भावना रखना अलग है और भारत-श्रीलंका संबंधों में अस्मिता की राजनीति का मुद्दा बिलकुल पृथक है। जिस आतंकवाद ने भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की, उसी आतंकवाद का समर्थन करने तक पहुंचने वाली अस्मितावादी राजनीति कितनी घातक साबित होगी, इसका जीवंत प्रमाण तमिलनाडु की हाल ही में हुई राजनीति को देखा जा सकता है।

परप्रांतीय और गैर मराठी के बारे में द्वेष की भावना लोगों में इतनी कूट-कूट कर भरी गई थी कि मुंबई की गली-कूचों से रास्तों तक भाषा विवाद के दृश्य दिखाई देने लगे थे। उत्तर भारत, बिहार, मध्य भारत तक की राजनीति इसी कारण प्रभावित हुई दिखाई देने लगी थी। महाराष्ट्र की राजनीति को भाषाई विवाद का जामा पहनाकर उसे भाषाई राजनीति का स्वरूप देकर अब तक दो बार के चुनाव को इस विवाद के कारण प्रभावित किया गया। विकास, भ्रष्टाचार, निर्मूलन, शिक्षा जैसे समाज हितों के मुद्दे स्वाभाविक रूप से पीछे होते चले जा रहे हैं। प्रतिभावान व्यक्तियों के लिए भाषा एक प्रभावी राजनीतिक हथियार बन गया है। लेकिन राष्ट्रभाषा हिंदी दूसरी किसी भाषा का रंचमात्र भी नुकसान नहीं कर रही। यह बात भाषा की अस्मिता का जतन करने के लिए राजनीति करने वाले तथाकथित पुरोधाओं को कौन बताएगा? अपनी भाषा का जतन कैसे किया जाए, यह बात जापान, वियतनाम, क्यूबा, चीन समेत विश्व के अन्य कई यूरोपियन देशों से सीखा जा सकता है। देशी भाषाओं को जब तक हम लोग विद्यालयीन स्तर पर संरक्षित करके उच्च शिक्षा में उसे वरीयता नहीं देंगे, तब तक देशी भाषाओं के प्रति सम्मान नहीं बढ़ेगा। दैनिक व्यवहार की भाषा के स्वरूप में देशी भाषा को स्थान तभी मिलेगा, जब उसका अधिकाधिक उपयोग किया जाएगा। भाषा का रिश्ता जब तक रोजगार उद्योग से जोड़ा नहीं जाएगा, तब तक भाषा तथा संस्कृति की रक्षा करने की बात कहना सिर्फ बकवास ही माना जाएगा। दुर्भाग्य से भाषा के विकास के बारे में जो ध्यान देने वाली बात है, उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। भाषाभिमान के नाम पर प्रांतीय दुराभिमान की राजनीति खेली जा रही है।

शेक्सपियर के ‘रोमियो जुलियट’ नामक नाटक में एक संवाद है- ‘नाम में क्या रखा है’ गुलाब को किसी भी नाम से पहचानिए, उनकी सुंदरता तथा सुंगध वही रहती है, ऐसा लगता है कि भारत की राजनीति भी शेक्सपियर के इसी संवाद से प्रभावित है। इसी कारण जब-जब अवसर मिलता है, तब-तब शहर, अस्पताल, मार्ग के नाम बदलने के लिए वातावरण गरम किया जाता है और उसके माध्यम से राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति की जाती है।

जातीय राजनीति में ही खुद का अस्तित्त्व खोजने वाले नेताओं के कारण उत्तर प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री मायावती शीर्ष पर है। नोयडा के दलित प्रेरणा स्थलों में अनेक महान संत तथा महान विभूतियों की मूर्तियां बनाई गई हैं। इन मूर्तियों में कुमारी मायावती ने अपने पिता प्रभुदास और मां रामरति के बीच खुद का भी पुतला बनवाया था। स्मारक के इस आग्रह के कारण मायावती ने पूरे देश को आश्चर्य में डाल दिया था। सरकारी निधि से अपनी तथा अपने माता-पिता की मूर्ति बनवाकर वे किसकों और कौन सी प्रेरणा देने वाली थीं, यह तो अभी तक रहस्य के गर्त में ही है।

गांधी परिवार ने दिल्ली में यमुना नदी के पश्चिम भाग में पंडित जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, संजय गांधी और राजीव गांधी की भव्य समाधि स्थल बनाकर एक तरह से उस स्थल को अपने परिवार के नाम ही कर रखा है। उसी का उत्तर मायावती ने यमुना नदी के पूर्व तट पर दलित विभूतियों के स्मारक बनवा कर दिया है। मायावती को प्रतीकों तथा स्मारकों के बूते कैसे राजनीति की जाती है, इसका विशेष ज्ञान है। स्मारकों के रुप में महापुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व को समाज के सामने निश्चित रूप से लाना चाहिए। एक वैचारिक-सामाजिक शक्ति के तौर इन महापुरुषों के कार्य किस तरह के थे, यह बात भावी पीढ़ी को पता चलेगी। नई पीढ़ी महापुरुषों के विचारों से बोध लें। ऐसा चित्र आज भले ही दिखाए जा रहे हों, पर सच तो यह है कि आज के राजनेता महापुरुषों के बोध को नई पीढ़ी को दे पाने में पूरी तरह से विफल रहे है। संत कबीर, ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, पेरियर, रामास्वामी, बिरसा मुंडा, भीमराव आंबेडकर ऐसे महान संत- विभूतियों के पुतलों के साथ ही साथ खुद का तथा अपने माता-पिता के पुतले बनाने वाले नेताओं से बहुत ज्यादा उम्मीद कौन करेगा? पुतलों की, स्मारकों की राजनीति की एक सीमा है। जब अपने आदर्शों का आधार लेकर खुद को ही देवता के समान कहने की कोशिश राजनीतिक दलों के जुड़े लोगों की ओर से किया जाता है, ऐसे राजनीतिक लोगों-को अपनी कमजोरी को पहचाननी चाहिए। सामाजिक समर्थन एवं श्रद्धा का उपयोग कही विचारधारा और जनाधार के हितों के खिलाफ तो नहीं हो रहा, यह जानना भी बहुत जरूरी है। करोड़ों दलितों के हित के लिए बाबासाहेब आंबेडकर ने जो कार्य किए, उससे समस्त दलितों को बाबा साहेब मुक्तिदाता जैसे लगते हैं। दलितों ने उन्हें देवता जैसा स्थान दिया है। बाबासाहेब को देवतुल्य मानने के कारण ही उनका प्रतीकात्मक-भव्य स्मारक बनाया जाए, ऐसी दलितों की भावना तैयार होना स्वाभाविक ही है। दलितों की तरह ही अन्य समाज के लोगों की भी इसी तरह की इच्छा होती है।

डा. बाबासाहेब आंबेडकर का स्मारक बनाने के लिए मुंबई की इंदु मिल की जगह महाराष्ट्र सरकार को देने की घोषणा केन्द्र सरकार की ओर से की गई है। इस सब घटनाओं की ओर देखने पर यह प्रतीत होता है कि इनमें डा. बाबासाहब आंबेडकर का स्मरण करने से ज्यादा राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। यह निर्णय लेने की सरकार की जल्दबाजी यही दर्शा रही है कि यह सब लोकसभा के आगामी चुनावों के मद्देनजर किया गया है। स्पर्धात्मक राजनीति की धारा जिस तरह इन दिनों तेज हुई है। दलितों का वोट बैंक मजबूत करने के लिए हर राजनीतिक दल अपनी-अपनी तरह से कोशिशें करने लगे हैं। दलितों की भक्ति भावना को प्रोत्साहन देकर उनको वास्तविकता से दूर करने की कोशिशें की जा रही हैं। दलित समाज की समस्याओं का निराकरण करने के लिए गुटों-गुटों में विभाजित दलित नेता एक मंच पर नहीं आ सके, तो भला इन दलितों की समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे? शोषितों के हितों के लिए अथक प्रयत्न करने वाले, समस्या मुक्त जीवन जीने का सपना दिखाने वाले डा. आंबेडकर का सपना क्या धुंधला सा होता दिखाई नहीं दे रहा, ऐसे प्रश्न मन में उपस्थित रहते हैं, इस कारण मानवता को एक दृष्टि देने वाले, देश का हित सोचने वाले, सर्वोच्च मानवता के वाहक ऐसे महामानव बाबासाहब आंबेडकर का स्फूर्तिदायक स्मारक बनाते समय राजनीतिक स्वार्थ श्रेय लेने की होड़ तथा संकुचित स्वार्थ की प्रवृत्ति को दूर करना जरूरी है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के निधन के बाद उनका राजकीय सम्मान के साथ दादर स्थित शिवाजी पार्क पर अंतिम सम्मान किया गया, इसके बाद सिर्फ चौबीस घंटे के अंतराल पर शिवसेना के वरिष्ठ नेता मनोहर जोशी ने कहा कि शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे का शिवाजी पार्क में स्थायी तौर पर स्मारक बनाया जाना चाहिए, इसके बाद मराठी दैनिक सामना के कार्यकारी संपादक संजय राऊत ने तो यहां तक कहा था कि जिस स्थान पर बालासाहेब का अंतिम संस्कार किया गया है, वह स्थान रामजन्मभूमि जैसी हो गई है। अंतिम संस्कार के बाद शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के स्मारक को लेकर शिवसेना के नेताओं ने जो-जो बयान दिए, उस बयान को पूर्णता प्रदान करने के लिए अपने प्राणों को गंवाने की तैयारी दर्शाने वाली अन्य शिवसेना नेताओं की घोषणाओं के कारण तनाव की स्थिति पैदा हो गई। बाला साहेब के स्मारक बनाने की घोषणा चूंकि मनोहर जोशी और संजय राऊत जैसे वरिष्ठ शिवसेना नेताओं ने की थी, इस कारण शिवसैनिक इस मुद्दे को लेकर जरा ज्यादा ही गंभीर हो गए हैं। शिवसेना की मुंबई में जो ताकत है, उसे ध्यान में रखते हुए एक नया संघर्ष इस मुद्दे को लेकर उपस्थित होगा? ऐसी चर्चाएं सर्वत्र होनी शुरू हुई, इससे भय का वातावरण भी निर्माण हुआ।

स्मारक के मुद्दे को लेकर स्थिति न बिगड़े, इस बात को ध्यान में रखते हुए शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने रास्ता निकाला। उन्होंने सभी शिवसैनिकों से आग्रह किया कि वे इस विषय को ज्यादा तूल न दें। उन्होंने स्पष्ट किया कि स्मारक का निर्माण करना शिवसेना की अधिकृत घोषणा नहीं है। स्मारक बनाने को लेकर संभावित तनाव को देखते हुए उद्धव ठाकरे के इस आह्रवान की जितनी प्रशंसा की जाए, कम होगी, लेकिन उद्धव ठाकरे के आह्वान के बावजूद स्मारक निर्माण को लेकर जो हो-हंगामा, यह लेख लिखने तक हुआ, वह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। स्मारक, पुतले, भाषा, प्रांतीय, अस्मिता यह सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करते हैं, इसके माध्यम से सामाजिक भावना को भड़काया जा सकता हैं। यह बात किसी भी राज्य, शहर या गांव स्तर पर अनुभव भी की जा सकती है।
सार रूप में कहा जाए तो श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा दी गई शिक्षा आज के दौर में भी लागु है, इसलिए हमें उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग को आधार बनकर खुद के सामाजिक व्यवहार में कुछ सुधार तो करना ही चाहिए। किसी विषय को लेकर हंगामा मचाकर समाज में तनाव की स्थिति पैदा करना ठीक नहां है। प्रसिद्ध व्यक्तियों को अपनी स्वार्थ की चौखट में बैठाने की कोशिश में हम लोग जाने-अजाने में अपनी संकुचित प्रवृत्ति का दर्शन ही करा रहे हैं। इस पर विचार करने का वक्त अब आ गया है।

देशभर में जातीय, प्रांतीय, भाषा, पुतलों जैसे विविध विषयों पर अस्मिता के मुद्दे को लेकर आंदोलन होते रहते हैं। इन आंदोलनों का समाज के सभी स्तर तक के व्यक्तियों पर गहरा असर होता है। इन सभी मुद्दों के मद्देनजर दिनों दिन कश्मीर, ईशान्य भारत में आतंकी गतिविधियों में वृद्धि होती जाती है और नक्सलवादियों की लाल पताका देश भर में फैल रही है, ऐसी स्थिति में राजनीतिक नेता एवं उनके वहाब में बहने वाले उनके समर्थकों ने परिपक्वता पूर्ण व्यवहार करना जरूरी है।

अमरीका में चुनाव किन मुद्दों को लेकर होते हैं, इसे टीवी चैनलों पर देखने के बाद इस मसले पर व्यापक चर्चा करने वाले भारतीय लोगों को इस मुद्दे पर विचार करना होगा कि अपने भारत देश में विकास के प्रश्नों को लेकर चुनाव नहीं होते। शायद इन भारतीयों को इस बात का पता नहीं कि देश में होने वाले चुनाव में विकास के किन मुद्दों को रखा गया है, अगर इन्हें इसका ज्ञान होता तो उनमें चुनाव को लेकर इतनी उदासीनता नहीं होगी।

जिस देश में करोड़ों लोग भूखे पेट सोते हैं, लाखों लोग शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं से कोसों दूर हैं। हजारों गांवों में आज तक पेयजल उपलब्ध नहीं है, ऐसी स्थिति में इन सभी समस्याओं का सकारात्मक उत्तर खोजना राष्ट्र हित में होगा।

सम्पूर्ण भारतीय लोगों के हितों एवं देश की राष्ट्रीय अस्मिता के मुकाबले जाति- पाति, भाषा- प्रांत, नेताओं की अस्मिता ज्यादा प्रभाव दिखा रही है, साथ ही साथ इसका राजनीतिकरण धारदार तरीके से किया जा रहा है, जो देश के साथ समाज के लिए भी घातक है, जो विघटन के साथ सामाजिक आराजकता की स्थिति पैदा करने वाला है, ऐसी स्थिति में सर्तक रहना बहुत जरूरी है।
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