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गरीब विरोधी आर्थिक फैसला

गरीब विरोधी आर्थिक फैसला

by उमेश सिंह
in आर्थिक, जनवरी- २०१३, सामाजिक
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सरकार ने वैश्विक निवेशकों के लिए खुदरा क्षेत्र को खोलने का निर्णय लिया है। इस नीति के तहत विदेश की बड़ी-बड़ी कंपनियां मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र में 51 फीसदी और सिंगल ब्रांड खुदरा क्षेत्र में 100 फीसदी निवेश कर सकेंगी। इसका मतलब यह हुआ कि मल्टी ब्रांड में वे किसी भारतीय कंपनी के साथ मिलकर स्टोर चला सकेंगी जिसमें उनकी 51 फीसद हिस्सेदारी होगी। जबकि सिंगल ब्रांड में विदेशी कंपनियां पूर्ण स्वामित्व वाले स्टोर खोलने में सक्षम होंगी।

आखिरकार केंद्र सरकार ने संसद के दोनों सदनों में खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने के अपने फैसले के पक्ष में मुहर लगवा ली। दोनों सदनों में केंद्र सरकार को यह सफलता सपा-बसपा के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन के सहारे मिली। खुदरा व्यापार एफडीआइ का प्रबल विरोध करने के बावजूद जहां सपा-बसपा ने लोकसभा से बहिर्गमन कर सरकार की राह आसान की वहीं राज्यसभा में बसपा ने सरकार के पक्ष में मतदान कर विपक्ष के उस प्रस्ताव को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की जिसमें सरकार से अपना फैसला वापस लेने के लिए कहा गया था। सपा और बसपा के इस रुख ने देश की संसदीय प्रणाली को लेकर कुछ नए सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या इससे अधिक विचित्र और कुछ हो सकता है कि कोई दल सदन के बहिष्कार अथवा अपने मत का इस्तेमाल करके या फिर न करके ऐसे किसी प्रस्ताव को जानबूझकर पारित होने दे जिसका वह खुलकर विरोध कर रहा हो? सपा और बसपा अपने फैसले का चाहे जो आधार बताएं, उनकी कथनी-करनी का भेद खुलकर सामने आ गया है।

सत्तारूढ़ दल का मूल उद्देश्य है कि आने वाले चुनाव में वह दोबारा सत्ता पर काबिज हो सके। वोट खरीदने के लिए सरकार को पैसा चाहिए, जैसे नकद सब्सिडी हस्तांतरण योजना के लिए। वर्तमान में केंद्र सरकार की वित्तीय हालत बिगड़ रही है। भ्रष्टाचार जनित रिसाव से केंद्र सरकार का खजाना खाली हो रहा है। अर्थव्यवस्था ठीक उसी प्रकार सुस्त पड़ रही है जैसे व्यक्ति के शरीर से खून निकाल लिया जाए तो वह सुस्त हो जाता है। ऐसे में सरकार को दो कार्यों के लिए धन जुटाना है- गरीब को रोटी देने के लिए और भ्रष्टाचार के रिसाव को जारी रखने के लिए। मंद पड़ रही अर्थव्यवस्था में ऋण लेकर धन एकत्रित करना कठिन हो रहा है, क्योंकि ब्याज दर ऊंची है। इसके अलावा यदि सरकार ने भारी मात्रा में ऋण लिए तो मूडीज और फिच जैसी अंतरराष्ट्रीय रैकिंग एजेंसियां भारत के रैंक को घटा देंगी। रैंक घटने से विदेशी निवेश की आवक कम होगी, अर्थव्यवस्था में तरलता में कमी होगी और ब्याज दरों में और वृद्धि होगी।

सरकार के दावे

* खुदरा क्षेत्र में भारी निवेश से एग्रो प्रोसेसिंग, सार्टिंग-मार्केटिंग, लॉजिस्टिक मेनेजमेंट और फ्रंट एंड खुदरा व्यापार क्षेत्रों में रोजगार के मौके सृजित होंगे।

* बिचौलियों की समाप्ति से किसानों को उनके उत्पादों की उचित कीमत सुनिश्चित होगी।

* विदेशी कंपनियां सप्लाई चेन सुनिश्चित करेंगी कोल्ड चेन, रेफ्रीजेरेशन, ट्रांसपोर्टेशन, पैकिंग, सार्टिंग और प्रोसेसिंग तैयार करने की बाध्यता से कृषि उत्पादों के नुकसान में कमी आएगी।

* सप्लाई चेन की दक्षता और उत्पादों की बर्बादी पर रोक से खाद्य वस्तुओं की महंगाई कम होगी।

* कुटीर और लघु उद्योगों से 30 फीसदी खरीदारी का प्रावधान मैन्युफॅक्चरिंग क्षेत्र को प्रोत्साहन मिलेगा।

* किसी भी एंटी प्रतिस्पर्धी कार्य के लिए प्रतिस्पर्धा आयोग (कंपटीशन कमीशन) के रूप में हमारे पास कानूनी ढ़ांचा मौजूद है।

* चीन में खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश लागू किए जाने के बाद वहां के खुदरा और थोक कारोबार में प्रभावकारी वृद्धि देखी गई है। थाईलैंड के कृषि प्रसंस्करण उद्योग में अप्रत्याशित वृद्धि दिखी है।

इस समस्या का हल सरकार ने खुदरा व्यापार में एफडीआई को छूट देकर निकाला है। एफडीआइ को खोलने से विदेशी कंपनियों को भारत में प्रवेश करने का अवसर मिलेगा। वे अपने साथ पूंजी लाएंगी। अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ेगी। ब्याज दर में वृद्धि नहीं होगी और सरकार के लिए ऋण लेना आसान हो जाएगा। साथ ही टैक्स की वसूली में भी कुछ वृद्धि होगी, क्योंकि विदेशी कंपनियां अपने मेगा स्टोर बनाएंगी। दूसरी विदेशी कंपनियां भी देखा-देखी प्रवेश करेंगी। इनके आने से विकास दर में वृद्धि होगी और टैक्स की वसूली बढ़ेगी। एफडीआइ से ऊपरी मध्यम वर्ग को विदेशी माल एक छत के नीचे आसानी से उपलब्ध हो जाएगा। इस वर्ग के पास पैसा है, परंतु पटरी पर बिक रहे सस्ते माल को खरीदने का समय नहीं है। उन्हें मेगा स्टोर जाकर महंगा माल खरीदना सुविधाजनक लगता है। यही वर्ग मीडिया पर प्रभावी है। यह वर्ग मीडिया एवं टीवी चैनलों के माध्यम से देश में एफडीआइ के पक्ष में वातावरण बनाने में मदद करता है। गरीब समझने लगता है कि एफडीआइ सही नीति है, जबकि यह सच है कि एफडीआइ के कारण किराना दुकानों का धंधा मंद पड़ जाएगा, बेरोजगारी बढ़ेगी, परंतु संपूर्ण अर्थव्यवस्था पर इस बेरोजगारी का नकारात्मक प्रभाव कम ही पड़ेगा। जैसे घास पर पैदल चलने से बगीचे का सौंदर्य कम नहीं होता है और माली प्रसन्न रहता है उसी प्रकार गरीब कुचला जाएगा, परंतु अर्थव्यवस्था चलती रहेगी। सरकार प्रसन्न रहेगी। एफडीआइ खोलकर सरकार एक साथ कई उद्देश्य हासिल करना चाह रही है- भ्रष्टाचार जारी रखना, ऊपरी मध्यम वर्ग को अपने पक्ष में करना और गरीब को रोटी बांटना।
एफडीआइ के विरोधियों का कहना है कि भ्रष्टाचार रोकें तो विदेशी निवेश से मिलने वाली रकम की जरूरत नहीं रह जाएगी। रोटी बांटना भी जरूरी नहीं रह जाएगा। किराना दुकान को जीवित रखें तो भी जनकल्याण हासिल होगा। दुर्भाग्यवश इस नीति से सत्तारूढ़ मंत्रियों के उद्देश्य पूरे नहीं होते हैं। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने से मंत्रियों और उच्चाधिकारियों को नुकसान होगा। ऊपरी मध्यम वर्ग नाराज होगा। यह वर्ग मीडिया में सत्ता के विरुद्ध बोलेगा। गरीब को रोटी बांटकर वोट नहीं मिलेगा। पिछले चुनाव में मनरेगा और ऋण माफी की छाया तले कांग्रेस ने सत्ता पुन: हासिल की थी।

विपक्ष के तर्क

* इससे रोजगार समाप्त होंगे। अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताता है कि सुपरमार्केट से छोटे खुदरा व्यापारी खत्म हो जाते है। विकसित देश इसके गवाह है। भारत में दुकानों का घनत्व दुनिया में सर्वाधिक है। यहां एक हजार लोगों पर 11 दुकाने हैं। 1.2 करोड़ दुकानों में चार करोड़ से ज्यादा लोग रोजगार कर रहे है।

* मनमानी कीमतों के दम पर विदेशी खुदरा कंपनियां अपना एकाधिकार स्थापित कर लेंगी।

* छोटे-छोटे हिस्सों वाला बाजार उपभोक्ता के लिए बड़े विकल्प का माध्यम है। एकीकृत बाजार उपभोक्ता को संकुचित कर देता है। विदेशी खुदरा व्यापार कंपनिया यहां अतिरिक्त बाजार नहीं सृजित करेंगी बल्कि मौजूद बाजार पर कब्जा करेंगी।

* मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र ठप हो जाएगा। विदेशी कंपनियां घरेलू की जगह बाहरी माल खरीदती हैं।

* भारत चीन की तुलना संगत नहीं है। मैन्यूफैक्चरिंग में चीन पहले से स्थापित अर्थव्यवस्था है। कम लागत और कीमत वाले उत्पादों के बूते यह वॉलमार्ट और अन्य विदेशी खुदरा कंपनियों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है।

एफडीआइ का लाभ मुख्यत: ऊपरी मध्यम वर्ग को मिलेगा। कमजोर मध्यम वर्ग एवं गरीब के लिए मेगा स्टोर के ऊंचे दाम अदा करना और दूर जाने के लिए बस का किराया देना तथा अपना समय लगाना संभव नहीं होगा। इसलिए एफडीआइ आने से प्रलय नहीं होने वाली है। यूं भी एफडीआइ की तुलना में देश की मंडियां एवं पटरी के बाजार कुशल हैं। इनमें हर स्तर पर माल को छाटा जाता है जैसे मंडी में दुकानदार को सेब को बड़े और छोटे, ताजे और पुराने, लाल और पीले के वर्गों में छांटते देखा जा सकता है। इसके सामने एफडीआइ अकुशल है। अत: हमारी मंडियां और पटरी बाजार जीवित रहेंगे। एफडीआइ खोलने से एक और लाभ हो सकता है। संभव है कि इस चुनौती से हमारे मेगा स्टारों द्वारा अपने को सुधार लिया जाए और ये स्वयं दूसरे देशों में एफडीआइ करने लगें, जैसे बिग बाजार अमेरिका में अपना स्टोर खोल दे। अत: एफडीआइ से अर्थव्यवस्था पर विशेष अंतर नहीं पड़ेगा। यह मामला आर्थिक विकास का नहीं है। एफडीआइ खोलने से ऊपरी मध्यम वर्ग को लाभ होगा, जबकि गरीब को सरकार द्वारा दी गई रोटी खाकर जीना होगा। एफडीआइ रोकने से ऊपरी मध्यम वर्ग नाराज होगा, जबकि गरीब को सम्मानपूर्वक जीविकोपार्जन का अवसर मिलेगा।

इस परिप्रेक्ष्य में बसपा और सपा द्वारा एफडीआइ को समर्थन देना दुखद और आश्चर्यजनक है। ये पार्टियां अपने को दलितों और कमजोर वर्ग का साथी बताती है। एफडीआइ इन्ही वर्गों के लिए हानिप्रद है। भाजपा का विरोध तर्कसंगत है, क्योंकि इस पार्टी को छोटे व्यापारियों का समर्थन प्राप्त है। ममता बनर्जी का विरोध तर्कसंगत है और तृणमूल के मूल जनकल्याण के उद्देश्य के अनुरूप है। स्पष्ट होता है कि राजनीतिक समीकरणों से एफडीआइ पर पार्टियों का रुख तय नहीं हो रहा है। प्रतीत होता है कि एफडीआइ के पक्ष और विपक्ष का विभाजन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर टिका हुआ है। एफडीआइ के आने से मंत्रियों एवं अधिकारियों को रिसाव के अवसर उपलब्ध रहेंगे। इसलिए कुछ पार्टियां इस नीति को समर्थन दे रही हैं, जबकि इससे उनके ही समर्थकों को नुकसान होगा।

 

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