मैगसेसे पुरस्कार विजेता- नीलिमा मिश्रा

बहादरपुर की सामाजिक कार्यकर्ता और रैमन मैग्सेसे अवार्ड विजेता नीलिमा मिश्रा ने बचत गट के माध्यम से आर्थिक कांती की और महिला स्वावलंबन के कार्यों को उच्च शिखर तक पहुंचाया। उनके इन कार्यों की ओर अधिक प्रकाश तब डाला गया जब 25 जनवरी 2013 को राष्ट्रपति भवन से पद्म पुरस्कारों की घोषणा की गई। बहादरपुर की महिलाओं को स्वावलंबी बनानेवाली नीलिमा दीदी को जब पद्मश्री पुरस्कार के लिये नामांकित किया गया तो बहादरपुर में खुशी की लहर दौड गई। अबालवृद्धों ने आतिषबाजी करके इसे उत्सव के रुप में मनाया। एशिया का नोबल पुरस्कार कहा जानेवाला रैमन मैग्सेसे पुरस्कार नीलिमा दीदी को 2011 में दिया गया था। यह पुरस्कार पाने वाली वे सबसे कम उम्र की महिला हैं।

जलगांव जिले के पारोला तहसील की चार हजार जनसंख्या वाले बहादरपुर गांव ने जो मिसाल देशभर में कायम की है वह केवल नीलिमा मिश्रा के कारण ही है। इस गांव को पहले नीलिमा मिश्रा के पूर्वजों द्वारा स्थापित बद्रीनारायण मंदिर के कारण ‘श्रीक्षेत्र’ के नाम से जाना जाता था परंतु आज इस गांव को मेगसेसे पुरस्कार विजेता नीलिमा मिश्रा के नाम से जाना जाता है।

बहादरपुर गांव की रचना के लिये यह पुरस्कार दिया गया है। इस गांव में आर्थिक स्वावलंबन के साथ ही स्वच्छता को भी उतना ही महत्व दिया जाता है। यहां बचत गटों की स्थापना विपणन व्यवस्था, उद्योजगता के साथ-साथ शौचालय बांधने पर भी जोर दिया गया। विवाह न कर स्वयं को पूर्ण रुप से गांव और गांववासियों के विकास के लिये नीलिमा मिश्रा ने स्वयं को झोक दिया।

मिश्रा परिवार मूलत: उत्तर भारत का है, परंतु अपनी आठ पीढ़ियों से वे बहादरपुर में ही स्थायी निवास कर रही है। उनके पूर्वज खेती किया करते थे और एक प्रतिष्ठित परिवार के रुप में लोग उनका आदर करते थे। शिक्षक चंद्रशेखर और गृहिणी निर्मला की संसार रुपी बेल पर 1 जून 1972 को नीलिमा मिश्रा के रुप में एक कली खिली। नीलिमा का बचपन बहादरपुर में ही बीता। इस समय शिक्षा से वंचित महिलाओं और बालिकाओें की समस्याओं को उन्होंने नजदीक से देखा। उन्होंने समझा कि ये सारी समस्याएं पैसे और शिक्षा की कमी के कारण उत्पन्न हो रही हैं। अपने शालेय जीवन से वे यही विचार करती रहती थीं कि किस प्रकार इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। उन्होंने सोचा कि परिस्थितियों से लड़ने के लिये पहले स्वयं शिक्षित होना आवश्यक है। अत: प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को पूरा कर उच्चशिक्षा के लिये वे पूना गई। आर्थिक परिस्थिती होने के बावजूद भी उस समय में लडकियों को उच्च शिक्षा के लिये पूना भेजना बहुत बडा प्रश्न था। उनके माता-पिता प्रगत विचारों के थे, परंतु अकेली बेटी को पूना भेजने में वे भी घबरा रहे थे। नीलिमा ने उन दोनों को समझाबुझाकर पूना भेजने हेतु राजी किया। उन्होंने अपनी शिक्षा का भार माता-पिता के कंधों पर न डालकर स्वयं ही धन आर्जित किया। पढ़ाई और नौकरी का समतोल बनाकर उन्होंने क्लीनिक सायकॉलजी में एम. ए. किया। शिक्षा के साथ ही वे डा. कलबाग के विज्ञान आश्रम में कार्यरत थीं। यहीं काम करते समय उन्हें दिशा और प्रेरणा मिली। वे सामाजिक कार्य करने का निश्चय कर चुकी थी अत: अपने अनुभवों को साथ लेकर वे बहादरपुर वापिस लौट आईं।

उन्होंने सन् 2000 में भगिनी निवेदिता ग्रामीण विज्ञान निकेतन की स्थापना की। डा. कलबाग के साथ उन्होंने सात साल काम किया। इसी दौरान उनके मार्गदर्शन में नीलिमा ने अपना ध्येय निश्चित किया। शुरु में संस्था की मजबूती के लिये उन्होंने कंप्यूटर बनाये। फिर बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की। किसानों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उन्होंने पहले बचत गट की नींव रखी। इस बचत गट के लिये उन्होंने महिलाओं को एकत्रित करके उनके धन से पारोला से कच्चा माल खरीदा और उससे बरी-पापड तैयार करवाया। इन वस्तुओं को बेचने के लिये उन्होंने प्रदर्शनी आयोजित की। इस प्रदर्शनी में खडे रहने के लिये गांव की एक भी महिला तैयार नहीं हुई। उन्हे लगा ऐसा करने से गांव का शिष्टाचार भंग होगा। इस स्थिती में नीलिमा दीदी ने बचत गट को बंद करने का प्रस्ताव रखा। उनके प्रस्ताव रखते ही सारी महिलाएं प्रदर्शनी में खडे रहने को तैयार हो गईं और प्रदर्शनी को भरपूर प्रसिद्धी मिली। एक दिन महिलाओं के जमावडे में से एक महिला ने पूछ कि मुझे रजाई सिलने के अलावा कुछ नहीं आता। तो मै क्या करुं? नीलिमा दीदी ने उसे रजाई सिलने की सलाह दी और देखते ही देखते बहदारपुर की रजाई अल्पावधि, में ही भारत में ही नहीं सात समन्दर पार भी प्रसिद्ध हो गई। और इसके साथ-साथ लोग बहादर पुर को भी जानने लगे।

नीलिमा दीदी की ग्राम विकास की स्वत: की एक कल्पना है। इस कल्पना के विषय में जानकारी देते हुए वे कहती है कि ‘‘दरिद्रता भले ही सबसे बडा शत्रु है फिर भी पैसा बांटने वाली सरकारी योजनाओं के पीछे नहीं भागना है। सुख-सुविधायें देकर मानसिक दुर्बलता बढ़ाने वाली बातों तक ही रुकना नहीं है। प्रत्यक्ष कार्य और सहभाग के माध्यम से विकास किया जाना चाहिये। मेरा मत है कि सरकारी योजनाओं से मिलनेवाली मदद को अपना हक समझकर काम करने की इच्छा को गंवा बैठे लोगों को समाज से लढने के लिये प्रेरित करना ही सबसा बडा आव्हाहन था।’’

पिछले दस वर्षों की कालावधी में महाराष्ट्र के लगभग 200 गावों में बचत गटों का कार्य हो रहा है। यह बात बताने में जितनी आसान लगती हैं। करने में उतनी ही कठिन हैं। इस कार्य को करने के लिये लोगों की वर्षों पुरानी मानसिकता बदलना आवश्यक था। इसके लिये वे गांव के लोगों के प्रति कृतज्ञता दर्शाती हैं कि लोग बदलने के लिये तैयार हो गये। वे बताती हैं कि वहां काम करना आसान नहीं था। गांव वासियों की अनेक समस्याएं थीं। संगठन बनाकर या आंदोलनों से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता था। इनपर विजय पाने के लिये इनके कारणों की जड तक पहुंचना आवश्यक था। अत: विकास की बडी-बडी कल्पनाओं को लादने की जगह छोटी-छोटी कोशिशें से मार्ग ढूंढे गये। गावों के तरुणों से बात कर उन्हें भी अपने रास्ते का हमसफर बनाया गया।

स्व-मददगटों की निर्मिती का कारण बताते हुए वे कहती हैं कि किसी संस्था की मदद से या शासना का गांव की ओर ध्यान जायेगा इस झूठी आशा पर इन गांववालों को छोडना नहीं था। इसलिये उन्होंने स्व-मदद गटों की शुरुवात की। स्त्रियों को खाद्योत्पादन, रजाई कुरते, नकली जेवर इत्यादि बनाने का प्रशिक्षण दिया। उन्होंने जब बचत गटों की शुरुवात की तब उनके साथ 14 स्त्रियां थी। आज इनकी संख्या हजारों में है। इन स्त्रियों को उन्होंने नवनिर्माण, आर्थिक ज्ञान और विज्ञापन, मार्केटिंग का प्रशिक्षण दिया। कंप्यूटर का ज्ञान भी दिया। अपनी घर की दहलीज के बाहर कदम भी न रखनेवाली महिलाओं के हाथों में पैसा खेलता देखकर घर के पुरुषों को भी अचंभा हुआ। धीरे-धीरे इन पुरुषों ने भी बचत गटों में सहभागी होना शुरु कर दिया। इस योजना को स्वीकार किया जाने लगा। कई गांव टइससे स्वावलंबी बने। गांववालों के द्वारा किये गये कार्यों के कार्यों से ही लोगों को कर्ज प्राप्त होने लगे। इससे उन्हें साहूकारों के पंजों से छुटकारा मिल गया।

धूप में सुखाक रबनाये गये वर्ष भर चलनेवाले बरी-पापड जैसे पदार्थों की विक्री बचत गटों का पहला उद्योग था। नीलिमा दीदी ने शुरु किये हुए ‘भगिनी निवेदिता ग्रामीण विज्ञान निकेतन’ का गावों को स्वावलंबी बनाने की ओर यह पहला कदम था। स्थानीय बाजारों में मिलने वाला कच्चा माल, गावों की महिलाओं की पारंपरिक कुशलता और नजदीक के शहरों के बाजार इन तीनों के उपयुक्त मेल से यह उपक्रम यशस्वी हुआ। इसके बाद विभिन्न खाद्यपदार्थों का निर्माण, रजाइयां बनाना, सिलाई-कढ़ाई, संगणक प्रशिक्षण इत्यादि अनेक उपक्रमों में महिलाएं सक्रिय होने लगी। इससे उनमें सिर उठाकर आत्मविश्वास से जीवन यापन करने का साहस बढ़ा।

एक बार संस्था की रजाइयों का एक बडा आर्डर माल पसंद न आने के कारण अस्वीकृत कर दिया गया। इससे महिलाओं में निराशा फैल गई थी। उन्हें फिर से काम करने के लिये उद्यत करने के अनुभव ने नीलिमा दीदी को बहुत कुछ सिखाया। इस समय अना ग्राडफ्रे नामक एक विदेशी महिला डिजायनर ने उन महिलाओं को रजाई बनाने का प्रशिक्षण दिया। अब ‘भगिनी निवेदिता ग्रामीण विज्ञान निकेतन’ की रजाइयां उसके नाम से जगप्रसिद्ध हो रही हैं। इस संस्था द्वारा बनाये जा रहे मालों की विक्री की व्यवस्था भी स्थानीय महिलाओं के माध्यम से ही होती है। महिलाओं में विक्रेता के गुणों को भी प्रोत्साहित किया गया। यह महिला व्यापारी संगठन आज अनेक शहरों में फैल गया है। अलग-अलग उत्पादन बनानेवाले विभिन्न संयंत्र अशिक्षित महिलाओं द्वारा चलाये जाते हैं।

जलगांव, धुले, नंदुरबार और नासिक जिले में नीलिमा दीदी ने लगभग 1800 बचत गट शुरु किये हैं। इनसे लगभग एक करोड़ रुपयों की वार्षिक बचत होती है और 20 करोड रुपयों का वार्षिक व्यवसाय होता है। महिलाओं को रोजगार दिलाने के बाद उन्होंने किसानों को कम ब्याज पर कर्ज दिलवाये। इससे कई किसान साहूकारों और बैंकों के कर्ज से मुक्त हो गये। वे महिलाओं को कंप्यूटर और उनकी कला के आधार पर स्वावलंबी बना रही है। उन्होंने संस्था और बचत गटों की सारी जानकारी कंप्यूटर में सुरक्षित रखी है।

आर्थिक तंगी से जूझ रहे विदर्भ के किसानों की आत्महत्या करने की हवा बहादरपुर तक पहुंच चुकी थी। समस्या बहुत गंभीर थी। आकंठ कर्ज में डूबे किसानों को कोई भी फिर से कर्ज देने को तैयार नहीं था। नीलिमा दीदी ने ऐसे किसानों का एक संगठन बनाया। प्रत्येक किसान से केवल एक रुपया लेकर बचत गट प्रारंभ किया। खेती करने की उनकी पद्धति का निरीक्षण करने पर नीलिमा दीदी ने पाया कि एक ही तरह का अनाज उगाने के कारण भूमि की जैव विविधता खत्म हो गई है और रासायनिक खादों का अधिक उपयोग होने के कारण नुकसान ही अधिक हो रहा है। अत: किसानों को बिना ब्याज का कर्ज उपलब्ध करवाते समय नीलिमा दीदी ने उन्हें भिन्न-भिन्न खाद्यान्नों की खेती और सेंद्रीय खेतों के बारे में भी समझाया। किसानों के साथ-साथ आदिवासी, धुले के झोपडपट्टी वासियों तक नीलिमा दीदी के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ। एक और समस्या पर उनका ध्यान गया कि गांव की महिलाओं के खून में हिमोग्लोबिन का स्तर बहुत कम है। इसके लिये उन्होंने एक युक्ति निकाली। उन्होंने नियम बनाया कि किसी भी पुरुष के बचत गट में शामिल होने के लिये उनकी पत्नी का हिमोग्लोबिन स्तर उपयुक्त होना जरुरी है। इस नियम के कारण सभी पुरुषों ने अपनी पत्नियों के लिये पोषक अन्न, जिनमें लौहतत्व इत्यादि शामिल थे की व्यवस्था की ओर स्वयं ध्यान देना शुरु किया। इस तरह महिलाओं के आरोग्य की समस्या भी उन्होने चुटकी में सुलझाई। इससे उनकी विचार करने की क्षमता को समझा जा सकता है।

मुंबई के केयरिंग फ्रैन्ड्स, ल्युपिन फाऊंडेशन, गजानन महाराज संस्थान-शेगाव, लेट्स ड्रीम इत्यादि संस्थाओं के साथ रमेश भाई कचोलिया, डॉ. जगन्नाथ वाणी, जैन इरिगेशन के संस्थापक अध्यक्ष भंवरलाल जैन इत्यादि मान्यवरों की सहायता के कारण नीलिमा दीदी स्वावलंबी गांवों के स्वप्न देख रही हैं। उन्होंने हृदय की गहराई से गांवों के लिये किया, लोगो का विश्वास जीता, गरीबी पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा दी। किसी चमत्कार की रह उन्होंने इन लोगों के आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्तर में परिवर्तन किया।

पैसा भले ही मानव कल्याण का उद्देश्य न हो परंतु प्राथमिक स्तर पर किसी कार्य को शुरु करने के लिये उसकी आवश्यकता होती ही है। स्वयंरोजगार का मार्ग मिलने के बाद पैसा और अच्छे कार्यों में से कौन क्या चुनता है यह सबका अपना-अपना निर्णय होता हैं। अपने द्वारा कुछ सत्कर्म हों इस उद्देश से नीलिमा दीदी ने कार्यों की शुरुवात की थी। इस सफर में पद्म श्री. भंवरलाल जैन, डा. जगन्नाथ वाणी और मुंबई के कई अपरिचित लोगों ने भी उनका साथ दिया। मां की बचाई हुई कुछ रकम और पिताजी की पेंशन के बल पर वे सबकुछ कर सकीं। इन बात को वे स्वयं स्वीकार करती है।

नीलिमा दीदी के यश के पीछे उनका संघर्ष मय जीवन और अपयशों को पचाकर आगे बढ़ने की जिद ही है। कार्य करते रहने के अपने दृढ़ निश्चय के कारण ही वे अपना अलग रास्ता बना सकीं। इसी से उन्होंने महिलाओं में आत्मविश्वास निर्माण करके उन्होंने महिलाओं को स्वयंरोजगार के लिये प्रेरित किया। अपने प्रयत्नों का बोलबाला उन्होंने कभी नहीं किया। बचत गटों के माध्यम से विभिन्न वस्तुएं बनाना आसान है परंतु उन्हें बेचना मुश्किल है। वे अपनी सबसी बडी उपलब्धी यही मानती हैं कि वस्तु विक्रय का तंत्रज्ञान और आत्मविश्वास वे बचत गटों में निर्माण कर सकीं। उन्होंने एक-दो नहीं बल्की 27 वर्षों का प्लान तैयार कर रखा है। ऐसी दूरदृष्टि रखनेवाली महिला का आदर्श हर स्त्री को सामने रखना चाहिये।

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