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बदलती संस्कृति

बदलती संस्कृति

by आर. पी मित्तल
in अप्रैल -२०१३, कहानी
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सूर्य अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर चुका था। गोबरा बैल ढील कर पगडंडी पर आ चुका था। अकस्मात वेगवती हवा बहने लगी। आकाश में काले और सफेद बादल घिरने लगे। पश्चिम की ओर से सफेद बादल अपने दल-बल के साथ गंतव्य की ओर तीव्र गति से बढ़ रहे थे। पूर्व की ओर से सघन घन काले-काले राक्षस दल के सदृश्य अपने-अपने झुंड में भागे चले आ रहे थे, मानो देवासुर संग्राम अभी-अभी छिड़ने वाला है। हुआ भी वही, घड़-घड़-घड़ सभी आपस में टकरा गये। घोर ध्वनि के साथ नगाड़ा और दुदुंभी आकाश में बजने लगी। वायु और वेगवती हो ताण्डव करने लगी।

आकाश में दोनों मिलकर एकाकार हो गये। देव और असुर का कोई अलग अस्तित्व नहीं रहा गया। घोर कोलाहल और ताण्डव के बीच इन्द्र ने अपना अस्त्र चला दिया। ताड़ित दामिनि की भांति वन धमक-उठा पृथ्वीवासी डर से कांपने लगे। तभी राक्षस रूपी काले घनों का दल छिन्नमस्ता होकर बिखरने लगा। अतिवृष्टि के रूप में उनका श्रम बिन्दु पृथ्वी पर भरने लगा।

आकस्मिक वृष्टि से गोबरा और उसके बैल भीग गये। खेत से थोड़ी दूर वट वृक्ष के घनी छाया में होने के पश्चात भी गोबरा का वस्त्र उसके तन से चिपक गया था। दोनों बैल अपने मेरुदंड हिला-हिलाकर वर्षा बूंद हटा रहे थे। वर्षा रुक गयी, आकाश निर्मल और स्वच्छ हो गया। गोबरा ने भी अपने बैलों के साथ घर की ओर पग बढ़ा दिये।

गोबरा का परिवार बड़ा था, खेत बहुत ही थोड़े फिर भी परिवार के सभी लोग खुश और मस्त थे। सभी कठिन परिश्रम से खेती करते, बाकी समय मेहनत करके अपनी जीविका अर्जित करते। सावां-मकई जो भी मिलता आपस में बांटकर खाते और चैन से रहते थे, वे गांव के लोगों के समय पर काम आते, किसी के लेने-देने में नहीं पड़ते उन सभी के दिन आराम से कट रहे थे।

गोबरा के घर का रास्ता पंचायत घर से होकर जाता था। अभी वह पंचायत घर से दूर ही था कि उसके कानों में एक सुमधुर गीत, ‘चढ़ी जवानी हाय राम का करौं।’ सुनायी दिया। उसने अपना सिर उचका-उचका कर इधर-उधर ताका-फाका, दूर-दूर तक उसे कोई नही दिखायी दिया। कान लगाकर सुनने से उसे आभास हुआ कि आवाज पास पंचायत घर की तरफ से आ रही है। वह तेज कदमों से उधर लपका।

पंचायत घर में आज ही रंगीन टी.वी. लगी थी, गांव के बहुत से लोग वहां इकट्ठे थे। गोबरा भी आया और बैल तथा जुआ एक ओर रख टी. वी. देखने लगा। लोग बड़े कौतूहल से उचक-उचककर टी. वी. का कार्यक्रम देख रहे थे। उस गांव में पहली बार टी. वी. जो लगा था, कौतूहल होना स्वाभाविक था।

दृश्य बदला, गोबरा की आंख स्क्रीन पर गयी, एक षोड़शी नृत्य करती प्रकट हुई। कोमल मध्यम तथा द्रुत गति से सभी तालों पर वह नाच रही थी। चपल चितवन और संकेत मात्र से अकथन को कथन रूप में प्रस्तुत कर रही थी। घुंघरुओं की झंकार लोगों के हृदय में ज्वार-भाटा उत्पन्न कर रहे थे। नुपूर-शोभित लाल कमल से चरण श्वेत प्रस्तर पर उधम मचा रहे थे। उसका कुन्दन केश वायु में लहराकर उसके नृत्य का अनुकरण कर रहे थे। गोबरा के मन में फुर-फुरी सी होने लगी, क्यों? वह यह तो नहीं जान सका। बैलों के सानी-पानी का समय हो रहा था, अपने कर्तव्य का ध्यान कर उसने घर की ओर प्रस्थान किया।

टी. वी. का प्रोग्राम खत्म होते ही गांव के सभी लोग अपने-अपने
घरों को चले गये। बच गये बूढ़े सरपंच और गांव के कुछ अन्य बूढ़े जिन्हें अपनी भारतीय संस्कृति और परम्परा की फिक्र थी, वे सभी बूढ़े सरपंच से बोले, ‘भाई सरपंच जी क्या टी. वी. में गांव की भलाई का कोई कार्यक्रम नहीं आता। सरपंच उनके इशारे को समझ गया था, वह भी जो आज हुआ उसके लिए चिन्तित था। परन्तु वह भी क्या करते टी. वी. लगाया जा रहा था, गांव के लोग इकट्ठे होने लगे थे, उनके शोर-शराबे के बीच टी. वी. वाले ने अपने समय से चैनल सेट कर एक चैनल लगा दिया और चला गया। सरपंच सभी से बोले, ठीक कह रहे हैं। कल टी. वी. वाले को बुला कर केवल कृषि और गांव की भलाई वाला चैनल लगवा कर बाकी सब बन्द करवा देगें। हां भैया अवश्य, नाहीं गउना मुंबई बन जाई और युवक-युवतियां नचनिया। सरपंच को सलाह देते हुए सभी बूढ़े अपने-अपने घर चले गये।

घर पहुंच उसने बैल खूंटे से बांध दिये, जुआ एक ओर रखकर ओसारे में पड़ी बसोला खाट पर बैठ गया, उसकी मां एक लोटा पानी और गुड़ दे गयी। गोबरा ने हाथ मुंह धोकर गुड़ खाया और गटा-गट एक लोटा पानी चढ़ाया तब उसके जान में जान आयी।

आकाश स्वच्छ था। तारे अपनी-अपनी जगह टिमटिमाने लगे थे। अंधेरा गहरा गया था। घरों में ढेबरी जलायी जा चुकी थी। चांद की दुधिया रोशनी में पूरा गांव नहाया था। पंछी जाने कब अपने-अपने घोसलों में वापस लौट गये थे। सभी के जानवर कुछ रमाने लगे थे, कुछ जमीन पर बैठ सोने का उपक्रम कर रहे थे। बसवारी तेज हवा से चरर-चरर, चर-चट की आवाज करती झूल रही थी।

पड़ोस में रहने वाली फुलवा जो रिश्ते में गोबरा की भौजाई लगती थी, कुआं से पानी भरने निकली।
फुलवा को गोबरा हमेशा देखा करता था, उठते-बैठते उसके पड़ोस में जो थी। परन्तु आज फुलवा को इस तरह देख उसका मन अस्थिर हो गया। गोबरा की आवाज सुनते ही फुलवा मारे शर्म के वहीं जमीन पर बैठ गयी और उसकी आंखों में अपनी आंखें गड़ाते हुए बोली, ‘देवर जी लागत है, तुम्हें टी. वी. हो गयी है, ऐसी टी. वी. जो तुम्हें खोखला तो करेगी ही, समाज को खोखला कर देगी। फुलवा का रौद्र रूप देख गोबरा पानी-पानी हो गया, सामाजिक मर्यादा का ध्यान आते ही उसकी जबान पिघल गयी और शर्म से उसकी गर्दन झुक गयी। आत्मग्लानि से ग्रसित गोबरा का मन दौड़कर फुलवा के पैर छूकर क्षमा मांगने का हो रहा था, परन्तु तब तक फुलवा वहां से जा चुकी थी।
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