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राजस्थान के मुख्य दुर्ग

राजस्थान के मुख्य दुर्ग

by विशेष प्रतिनिधि
in पर्यटन, मई २०१३, सामाजिक
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वर्तमान राजस्थान पूर्व में अनेकों रियासतों में विभक्त था। रियासतों की सुरक्षा हेतु सभी शासकों ने अपने-अपने क्षेत्रों में किलों का निर्माण करवाया। ठीक इसी प्रकार ठिकानेदारों ने भी अपनी आवश्यकता के अनुरूप किलों का निर्माण करवाया था। यहां कुछ मुख्य दुर्गों का विवरण दिया गया है।

चित्तौड़गढ़

चित्तौड़ के किले का स्वर्णिम इतिहास, वैभव और स्थापत्य प्रसिद्ध है। यह चित्तौड़गढ़ जंक्शन से 4 कि.मी. दूर गम्भीरी एवं बेड़च नदियों के संगम के पास एक विशाल पर्वत पर बना हुआ है, जो 2 कि.मी. चौड़ाई और 8 कि.मी. लम्बाई के क्षेत्र में फैला हुआ है। सुदृढ़ दीवारों, उन्नत और विशाल बुर्जों तथा सात अभेद्य प्रवेश द्वारों के कारण यह अनूठा है। इस किले पर मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश का ही अधिकांशत: अधिकार रहा। कुछ काल के लिए मौर्य, प्रतिहार, परमार, सोलंकी, खिलजी, सोनगरे चौहान और मुगल शासकों ने भी इस किले पर आधिपत्य रखा।

चित्तौड़ किले का प्रमुख आकर्षण विजय स्तम्भ राज महल है। इन दोनों का निर्माण महाराणा कुंभा ने किया था। इनके अतिरिक्त पुराने महल के अनेक देव मन्दिर, बावड़ियां, अन्न भण्डार और सुरंगें मुख्य हैं।

रणथम्भौर

सवाई माधोपुर से लगभग 6 कि.मी. दूर अरावली श्रंखला पर रणथम्भौर किला है। यह अलग-अलग सात पहाड़ियों के बीच स्थित है। पहाड़ियों को मिलाकर बनायी गई इसकी छवि पहाड़ियों में समायी प्रतीत होती है। मालवा और मेवाड़ के निकट स्थित होने तथा दिल्ली से निकटता के कारण इस दुर्ग का सामरिक महत्व अत्यधिक रहा है। रणथम्भौर का वास्तविक नाम अन्त:पुर अर्थात रण की घाटी में स्थित नगर था। रण घाटी इस किले के पास है तथा थंब घाटी पर यह बना हुआ है, अत: रण-स्तम्भ-पुर से रणस्तम्भपुर नाम दिया गया, जो कालान्तर में रणथम्भौर हो गया।

किले के नौलखा दरवाजा, हाथी पोल, गणेश पोल, सूरज पोल और त्रिपोलिया प्रमुख प्रवेश द्वार हैं। त्रिपोलिया को अन्धेरी दरवाजा भी कहा जाता है, क्योंकि इसके पास से एक सुरंग महलों तक गयी है। इसके अतिरिक्त हमीर महल, रानी महल, हमीर की कचहरी, सुपारी महल, बादल महल, जौरां-भौरां, बत्तीस खम्भों की छतरी, रनिहाड तालाब, पीर सदरुद्दीन की दरगाह, लक्ष्मी नारायण मन्दिर और जैन मन्दिर प्रमुख स्थल हैं। पूरे देश में प्रसिद्ध गणेश जी का ‘रणतभंवर गजानन मन्दिर’ भी इसी किले में है।

कुम्भलगढ़

इस किले का निर्माण दुर्गों के निर्माता, पराक्रमी महाराणा कुम्भा ने करवाया था। कुम्भा के नाम पर ही इसका नामकरण कुम्भलगढ़ किया गया। इस किले का निर्माण वि. सं. 1505 से 1515 तक लगभग 10 वर्ष चला।

यह राजस्थान का सबसे दुर्गम दुर्ग है। नीचे से तो यह कतई दिखायी नहीं देता। इस पर विजय पाना प्रत्येक आक्रमणकारी के लिए टेढ़ी खीर रही है। विपत्ति काल में शरण स्थली के रूप में भी यह बहुत उपयोगी रहा है। इस किले की विशाल दीवारें कई मीलों लम्बी तथा अत्यधिक चौड़ाई लिये हुए हैं। विशाल बुर्जें और ऊं चे प्रवेश द्वार इस किले को अत्यधिक सुरक्षित बनाते हैं। कुम्भलगढ़ से अनेक दर्रे (पहाड़ी रास्ते) मारवाड़, मेवाड़ तथा अन्य स्थानों को जाते हैं, जिनका विशेष सामरिक महत्व रहा है।

लोहागढ़ (भरतपुर)

भरतपुर के यशस्वी शासक महाराजा सूरजमल ने भरतपुर का किला बनवाया था। इस किले का निर्माण 1733 ई. में प्रारम्भ हुआ। दुर्ग को बनने में लगभग 8 वर्ष का समय लगा तथा निर्माण कार्य बाद में भी चलता रहा।भरतुपर के किले की प्रमुख विशेषता इसके चारों ओर बनी मिट्टी की दीवारें एवं नहरें हैं। बाहरी दीवार चौड़ी और ऊंची होने तथा मिट्टी की बनी होने के कारण तोप के गोलों का असर किले पर नहीं होता था। अत: यह अभेद्य किला बन गया। इसी कारण इसका नाम ‘लोहागढ़’ रखा गया। राजस्थान के अन्य किले विशाल पर्वतों पर स्थित है, जबकि लोहागढ़ मैदान में स्थित होकर भी शत्रु के आक्रमणों को विफल करता रहा।

मेहरानगढ़ (जोधपुर)

जोधपुर के संस्थापक यशस्वी शासक राव जोधा ने मेहरानगढ़ का निर्माण करवाया था। इससे पहले मारवाड़ की राजधानी मंडोर थी। वि. सं. 1515 ज्येष्ठ सुदी 11 शनिवार को इस किले की नींव रखी गयी थी। यह दुर्ग एक विशाल पहाड़ी पर है। इस किले के चारों ओर जोधपुर शहर बसा है। मेहरानगढ़ भूमि तल से लगभग 400 फीट ऊंचा है। किले के चारों तरफ परकोटा (ंऊंची दीवार) है, जो लगभग 20 फीट से 120 फीट तक ऊं चा और 12 से 20 फीट चौड़ा है। किला लगभग 500 गज लम्बा और 250 गज चौड़ा है। इसकी दीवारों में विशाल बुर्जें बनी हुई हैं। बुर्जों एवं मोटे और ऊंचे परकोटे के कारण यह किला अभेद्य है। इस किले के दो बाहरी प्रवेश द्वार उत्तर-पूर्व में जय पोल और दक्षिण पश्चिम में फतेह पोल हैं। अन्य प्रवेश द्वारों में ध्रुव पोल, सूरज पोल, इमरत पोल तथा भैरो पोल प्रमुख हैं।

स्थापत्य की दृष्टि से मेहरानगढ़ विशेष पहचान लिये है। लाल पत्थरों से निर्मित जालियां व झरोखे इस किले को स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण बनाते हैं। मोती महल सजीव चित्रांकन और अलंकरण के लिए प्रसिद्ध है। फूल महल पत्थर पर बारीक खुदाई के लिए प्रसिद्ध है। किले के मन्दिरों में चामुण्डा माता, मुरली मनोहर जी तथा आनन्द घन जी एवं राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची के मन्दिर उल्लेखनीय हैं। किले में लम्बी दूरी की मारक क्षमता वाली किलकिला, शम्भुबाणा और गजनीखां तोपें हैं। मेहरानगढ़ में एक संग्रहालय भी है जिसमें युद्धों के स्मृति चिह्न, विभिन्न आयुध, राजसी और सैनिक परिधान, धार्मिक चित्र एवं अन्य दुर्लभ वस्तुएं संग्रहित हैं।

जोधपुर किले पर अनेक आक्रमण हुए। 1544 ई. में. शेरशाह सूरी ने किले पर अधिकार करके उसमें एक मस्जिद भी बनवा दी। लेकिन शेरशाह की मृत्यु के बाद मालदेव ने पुन: किले पर अधिकार कर लिया। 1565 ई. में मुगल सूबेदार हसन खां ने इस किले पर अधिकार कर लिया। 1674 ई. में औरगंजेब ने जोधपुर पर मुगल खालसा बैठा दिया। किन्तु वीर दुर्गादास की स्वामिभक्ति और उनके नेतृत्व में राठौड़ों के संघर्ष और प्रयासों से महाराजा अजीत सिंह ने जोधपुर पर फिर से राठौड़ों का आधिपत्य स्थापित किया।

सोनारगढ़ (जैसलमेर)

जैसलमेर का किला थार मरूस्थल के मध्य स्थित है। पीले पत्थरों से निर्मित होने के कारण यह सूर्य की किरणों से स्वर्ण आभा युक्त प्रतीत होता है। इसी कारण इसे सोनारगढ़ या सोनगढ़ कहा जाता है। रावल जैसल द्वारा 1155 ई. में इस किले की नींव रखी गयी। रावल जैसल की मृत्यु के बाद उसके पुत्र शालिवाहन द्वितीय उत्तराधिकारी बने। किले का अधिकांश निर्माण उन्हीं के काल खण्ड में हुआ।

जैसलमेर किले के साथ भाटी वीरों के पराक्रम की गाथाएं जुड़ी हैं। इस किले में भी इतिहास प्रसिद्ध साके हुए हैं। पहला साका अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण तथा आठ वर्ष तक घेरा डाले रहने के बाद हुआ। दूसरा साका फिरोजशाह तुगलक के शासन के प्रारम्भिक वर्षो में हुआ। तीसरा अर्द्ध साका कन्धार के अमीर अली को शरण देने और उसके द्वारा विश्वासघात के कारण हुआ।

सोनार किले का स्थापत्य अनूठा है। पत्थरों को बिना चूने की सहायता के जोड़कर इस किले का निर्माण किया गया है। इसमें 66 बुर्जें हैं तथा क्षेत्रफल सवा लाख वर्ग फीट है। ऊं चाई 250 फीट है। किले की विशाल बुर्जों को परकोटे से अभेद्य रूप में जोड़कर पूर्ण सुरक्षा कवच का निर्माण किया गया है। दुर्ग का परकोटा दोहरा है, जो कमरकोट कहलाता है। किले का मुख्य द्वार अक्षय पोल कहलाता है। सूरज पोल, गणेश पोल और हवा पोल भी सुदृढ़ और विशाल द्वार हैं। किले में बने भव्य महलों में शीश महल, रंग महल और मोती महल, बादल महल, गज विलास और जवाहर विलास प्रमुख हैं।

मारवाड़ के किले

उक्त ऐतिहासिक दुर्गों के अतिरिक्त प्रदेश के विभिन्न भागों में कई महत्वपूर्ण तथा दुर्जेय दुर्ग बने हैं। मारवाड़ के किलों में जोधपुर के अतिरिक्त तारागढ़ (अजमेर), सोनगढ़ (जालौर), सिवाणा, नागौर, सोजत और कुचामन के दुर्ग भी उल्लेखनीय हैं। तारागढ़ अजमेर के पहाड़ों में 80 एकड़ में फैला हुआ, विशाल दीवारों और बुर्जों वाला प्राचीनतम किला है। जालौर का सोनगढ़ जोधपुर से 75 मील दक्षिण में सूकड़ी नदी के किनारे विशाल पर्वत पर है। सिवाणा का किला जोधपुर से लगभग 60 मील दक्षिण में पर्वत पर स्थित है। जालौर से यह 30 मील दूर है। नागौर का किला वीर अमर सिंह राठौड़ की शौर्य गाथाओं के कारण प्रसिद्ध है। सोजत का किला सूकड़ी नदी के मुहाने पर जोधपुर से 110 कि. मी. दूर है। मारवाड़ और मेवाड़ के मध्य में होने के कारण इसका सामरिक महत्व रहा है।

मेवाड़ क्षेत्र

चित्तौड़ और कुम्भलगढ़ के अतिरिक्त मेवाड़ में अचलगढ़, भैेंसरोड़गढ़ एवं मांडलगढ़ के किले भी महत्त्वपूर्ण हैं। अचलगढ़ का किला आबू से लगभग 13 कि.मी. अरावली की उत्तुंग शिखर पर है। महाराणा कुंभा ने इस किले का पुनर्निर्माण करवा कर नया रूप दिया। भैंसरोड़गढ़ का दुर्ग चम्बल और बामनी नदियों के संगम स्थल पर उदयपुर से लगभग 120 मील दूरी पर है। मांडलगढ़ किला बनास, बेड़च और मेनाल नदियों के त्रिवेणी संगम के पास स्थित है, जो उदयपुर से लगभग 100 मील उत्तर-पूर्व में है।

हाड़ौती

हाड़ौती क्षेत्र में गागरोन, बूंदी और शेरगढ़ के दुर्ग प्रमुख हैं। गागरोन किला झालावाड़ से 4 कि.मी. की दूरी पर है। यह कालीसिंध और आहू नदियों के संगम स्थल पर एक पहाड़ी पर बना है। गागरोन का सर्वाधिक पराक्रमी शासक भोज का पुत्र अचलदास हुआ है, जो मेवाड़ के महाराणा मोकल का दामाद था। यह किला स्थापत्य की दृष्टि से अच्छा है। बूंदी का किला तारागढ़ नाम से भी जाना जाता है। हाड़ा राजपूतों के अप्रतिम शौर्य और वीरता का प्रतीक यह तारागढ़ नैसर्गिक सौन्दर्य से भी ओत-प्रोत है। शेरगढ़ का किला कोटा से 145 कि. मी. दक्षिण पूर्व में परवन नदी के किनारे कोशवर्धन पर्वत शिखर पर स्थित है। इसका पुराना नाम कोशवर्द्धन किला था। शेरशाह ने मालवा अभियान के दौरान इस पर अधिकार करके इसका नाम शेरगढ़ कर दिया।

ढूंढाड़

इस क्षेत्र में जयपुर के जयगढ़ आम्बेर के अतिरिक्त दौसा, माधोराजपुरा और चौमू का किला प्रमुख है। जयपुर के पास आम्बेर का किला कछवाहों की राजधानी रहा है तथा यहां शिला माता का प्रसिद्ध मन्दिर है। इसके पास ही प्रसिद्ध एवं अभेद्य किला जयगढ़ है, जहां एशिया प्रसिद्ध तोप ढालने का कारखाना तथा जयवाण तोप हैं। दौसा का किला जयपुर से लगभग 54 कि.मी. पूर्व में है, जिसे कछवाहों की प्रथम राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। जयपुर से 56 कि.मी. दक्षिण में फागी से 6 कि.मी. दूरी पर माधोराजपुरा का किला है तथा जयपुर से 33 कि.मी. उत्तर में चौमू का किला है।

 

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