स्वतंत्रता संग्रम में अग्रणी रहा है राजस्थान

राजस्थान वीरों की भूमि है। यूरोप के लोग ईसा से पांच शताब्दी प्ाूर्व थर्मापल्ली में यूनान और फारस में हुए युद्ध पर बड़ा गर्व करते हैं। इस युद्ध में यूनानी लियोनिदास ने बड़ी वीरता से युद्ध किया था। राजस्थान का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने लिखा है कि राजस्थान की एक-एक इंच भूमि पर थर्मापल्ली जैसी वीरता का प्रदर्शन किया गया है। वस्तुत: थर्मापल्ली से भी कहीं ज्यादा शौर्य प्रकटा है इस भूमि में। बाप्पा रावल तथा उनके पुत्र खुमाण ने ईरान तक अपने अश्वों को दौड़ाकर खलीफाओं का मान‡मर्दन किया था, उसके बाद जब इस्लाम को मानने वाले विदेशी आक्रांताओं ने भारत-भूमि में अपने पैर जमाने श्ाुरू किये तो राजस्थानी वीरों ने हर युद्ध में उनके दांत खट्टे किये। गजनी का महमूद जब मरूस्थल के रास्ते भारत में घुसा तो सीमा के प्रहरी घोघा-बापा आठ सौ रणबांकुरों के साथ उस पर टूट पड़े। एक लाख सैनिकों के सामने इतने से योद्धा कहां तक लड़ते, किन्तुपु घोघा-बापा का रणरंग देखकर महमूद को पसीना छूट गया।

हमलावरोंं की चुनौती ध्वस्त

रेगिस्तान पार करते ही अजमेर के चौहान धर्मगजदेव ने महमूद को धर दबोचा। तीन दिन के युद्ध में मात खा कर महमूद ने सन्धि की और बाद में कपट से महाराज धर्मगजदेव का वध कर दिया। प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर को अपवित्र कर महमूद लौटा तो सपालदक्ष (अजमेर) के नये बने महाराज वीसलदेव ने इस्लाम कोट के पास पीलू के मैदान में महमूद को दबोच लिया। महमूद वहां से भागा तो कच्छ के रण में पहुंचा। वहां धोधा-राणा के सुपुत्र सज्जन सिंह ने उस लुटेरे को ऐसा भटकाया कि किसी तरह दस-बीस सैनिकों के साथ जान बचाकर महमूद गजनी पहुंच गया। सपालदक्ष के ही समाट पृथ्वीराज चौहान ने उसे कई बार हराया और छोड़ दिया। तराइन के आखिरी युद्ध में उनकी पराजय हुई, लेकिन गोरी की कैद में ही शब्दभेदी बाण से उन्होंने उस हमलावर का वध कर दिया।

तुर्क हमलावरों ने जब दिल्ली में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया तो मेवाड़ के रावल जैत्रसिंह ने भूताले की घाटी में अल्तमश और बलवन को करारी शिकस्त दी। फिर महाराणा हम्मीर सिंह ने सिंगोली के युद्ध में मोहम्मद तुगलक को हरा कर उसे कैद कर लिया। महाराणा कुंभा तथा महाराणा सांगा ने लगातार विदेशी आक्रांताओं को शिकस्त दी। खानवा के युद्ध में महाराणा प्रताप की पराजय के बाद ही हमलावरों को पैर जमाने का अवसर मिला। मुगल बाबर के पौत्र अकबर ने इस्लामी राज्य का विस्तार कर भारत के एक बड़े भू-भाग पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त कर ली और जिस तरह भारत के जाने-माने रजवाड़े अकबर के सामने नतमस्तक हो रहे थे। महाराणा प्रताप ने सम्प्ाूर्ण देश की स्वतंत्रता की मशाल अपने हाथ में थाम ली। हिंदू ह्दय समाट प्रताप ही भारत की स्वाधीनता, चेतना व अस्मिता के प्रतीक बन गये। महाराणा प्रताप ने विदेशी मुगलों के विरुद्ध जिस स्वतंत्रता समर का शंखनाद किया, उसकी परिणिति सिसोदिया वंश के ही छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके वंशजों द्वारा मुगल सत्ता को जड़ सहित उखाड़ फेंकने में हुई।

महाराजा सूरजमल की राष्ट्रभक्ति

मराठा वीरों के स्वातंत्र्य अभियान में राठौड़ वीर दुर्गादास भी सहयोगी बने। अन्तिम मुगल बादशाह औरंगजेब को दुर्गादास के नेतृत्व में जोधपुर के राठौर वीरों ने खूब छकाया । उसी समय मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने महाराणा प्रताप की परम्परा को निभाते हुए औरंगाबाद को दो बार करारी पराजय का स्वाद चखाया। जर्जर मुगल सामाज्य पर आखिरी और मर्मांतक प्रहार किया। भरतपुर के हिंदू कुलभूषण महाराज सूरजमल ने । मुगल हमलावरों का समूल नाश करने के लिए महाराष्ट्र-मण्डल से अपनी शत्र्ाुता भुलाकर भरतपुर नरेश ने एक व्यापक मोर्चा बनाया। अफगान आक्रमणकारी अहमदशाही अब्दाली की पराजय के लिए संयुक्त अभियान में भी वे सम्मिलित हुए। राजस्थान में मेवाड़ के अतिरिक्त मारवाड़ और भरतपुर ने ही तुर्क आक्रमणकारियों का जमकर प्रतिरोध किया।

कुटिलता, कपट तथा छल-बल में अंग्रेज मुगलों से कहीं आगे थे। प्लासी के युद्ध में विजय के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में जड़ें जमानी श्ाुरू कर दीं। उसी समय से भारत में अंग्रेजी राज का विरोध भी प्रारम्भ हो गया था। सन 1805 में महाराजा सूरजमल के वंशज रणजीत सिंह ने भरतपुर के पास अंग्रेजों को धूल चटायी। उस युद्ध में भरतपुर के सैनिकों ने ऐसी बहादुरी दिखायी कि जन-मानस में ‘आठ फिरंगी नौ गोरा, लड़े जाट के दो छोरा’ की लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गयी। राजा रणजीत सिंह के बाद महाराज किशन सिंह भी अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे।

महाराजा मानसिंह तथा डंगू-ज्वार का शौर्य

सन 1830 में जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने भारत के राज्यों तथा नेपाल के साथ मिलकर अंग्रेजों पर आक्रमण करने की योजना बनायी। रूस तथा ईरान ने भी सहायता करने का सन्देश भेजा।अंग्रेजों को भुलावे में रखने के लिए महाराजा मानसिंह ने सन 1834 में उनसे सन्धि कर ली। फिर भी धूर्त अंग्रेजों को इस महत्वपूर्ण योजना का सुराग मिल गया और त्वरित कार्रवाई करते हुए उन्होंने मारवाड़ को घेर लिया। महाराजा मानसिंह ने योजना की असफलता से निराश होकर संन्यास ले लिया।

इन्हीं दिनों शेखावटी के बठौठ ठिकाने के दो महावीरों डूंग सिंह तथा ज्वार सिंह ने अंग्रेजों से मातृभूमि की मुक्ति के लिए संघर्ष छेड़ दिया। सिंगरावट में मेजर फारेस्टर को इन दोनों सिंहों ने करारी मात दी। अंग्रेजों ने फिर कपट का सहारा लिया तथा डूंग सिंह को सोते हुए पकड़ लिया। 29 सितंबर, 1846 के दिन ज्वार सिंह ने दो सौ साथियों के साथ आगरा जेल पर आक्रमण कर डूंग सिंह को छुड़ा लिया। अब प्ाूरा शेखावटी क्षेत्र स्वतंत्रता संघर्ष मेें कूद पड़ा।

अंग्रेजों ने घड़सीसर में डूंग और ज्वार को घेर लिया, पर दोनों योद्धा घेरा तोड़कर भाग गये। अखिर पाटोटा गांव में एक भेड़िये के विश्वासघात के कारण डूंग सिंह को एक बार फिर पकड़ लिया गया। इस बार वे छूट नहीं पाये, जबकि ज्वार सिंह बीकानेर राज्य में चले गये।

ऐरिनपुरा छावनी में अंग्रेजों की एक जोधपुर लीजन नामक सेना भी थी। इसे अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के लिए ही बनाया था। 21 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजन के नायक मेहरबान सिंह ने स्वतंत्रता का उद्घोष कर दिया। जोधपुर तथा सिरोही में अंग्रेजों का सफाया कर यह सेना आउवा की ओर चल पड़ी। आउवा के ठाकुर कुशल सिंह चंपावत मारवाड़ क्षेत्र के संघर्ष के मुखिया थे। महान स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे से उनका सम्पर्क लगातार बना हुआ था। प्ाूरे राजप्ाूताना से अंग्रेजों का सफाया करने की विस्तृत योजना बनायी गई। जोधपुर लीजन का आउवा में भव्य स्वागत किया गया। अब ठाकुर कुशल सिंह के नेतृत्व में मुक्ति वाहिनी ने पश्चिमी राजस्थान को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए कूच कर दिया। दिसम्बर तक जोधपुर के अतिरिक्त प्ाूरा क्षेत्र आजादी के वातावरण में सांस लेने लगा। चंपावत ठाकुर ने अपनी सेना का एक बड़ा भाग दिल्ली के स्वतंत्रता सेनानियों की सहायता के लिए भेज दिया। अंग्रेजों ने मौका देख कुछ राष्ट्रद्रोही रजवाड़ों को साथ लेकर आउवा पर आक्रमण कर दिया। दुर्भाग्य से आउवा का किलेदार अंग्रेजों से मिल गया और एक रात किले का दरवाजा खोल दिया। ठाकुर कुशल सिंह किले के पिछवाड़े से निकल गये तथा बड़सू में मोर्चेबंदी कर ली। चालीस दिनों तक घोर संग्रम हुआ, आखिरकार, अंग्रेजों को सफलता मिल ही गयी।

गटर पार्टी तथा अनुशीलन समिति- प्रथम स्वतंत्रता संग्रम की असफलता के बाद भी देशभक्त निराश नहीं हुए। देश में कहीं न कहीं आजादी के प्रयत्न चलते रहे। वासुदेव बलवंत फड़के तथा चापेकर बन्धुओं की विलक्षण शहादत के बाद सम्प्ाूर्ण देश में जागरण की एक लहर उठी। जब रास बिहारी बोस की गदर पार्टी ने 21 फरवरी, 1915 को प्ाूरे देश में एक साथ क्रान्ति का उद्घोष करने की योजना बनायी तो राजस्थान में संगठन खड़ा करने के लिए इन्दौर के भूप सिंह को भेजा गया। भूप सिंह के सहयोगी बने खरवा ठाकुर गोपाल सिंह। ब्यावर के दामोदर दास राठी तथा कोटा के गोपाल लाल केटिया भी क्रान्तिकारी भूप सिंह के साथ सशस्त्र क्रान्ति की योजना की सफलता के लिए जुट गये। दुर्भाग्य से समय से पहले ही इस योजना का भेद खुल गया तथा देशभर में क्रान्तिकारियों की धर पकड़ श्ाुरू हो गयी। खरवा ठाकुर तथा दामोदरदास राठी भी बन्दी बनाकर टाटगढ़ जेल में भेज दिये गए तथा वेष बदलकर भांणा गांव में बच्चों को पढ़ाने लगे । उन्होंने अपना नाम भी बदलकर विजय सिंह पथिक रख लिया। बाद में वे कांग्रेस से जुड़ गये और कई आन्दोलनों में प्रमुख भूमिका निभायी। राजस्थान केसरी नाम से एक समाचार पत्र भी पथिक जी ने प्रारम्भ किया।

आजाद के साथी वैद्य मुक्तिनारायण- अब क्रान्तिकारियों ने हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक सेना का गठन किया। शचीन्द्र नाथ सान्याल इसके प्रमुख थे। उन्हें काला-पानी की सजा होने के बाद शहीद शिरोमणि चंद्रशेखर आजाद इसके प्रमुख बने। आजाद ने कुंदन लाल ग्ाुप्त को राजस्थान के युवकों में देशभक्ति जगाने का काम सौंपा। क्रान्तिकारी कुंदन लाल ने भी अजमेर से ही काम श्ाुरू किया। अजमेर के रामचंद्र बापट,रुद्रदत्त मिश्र, ज्वाला प्रसाद तथा शंभू नारायण क्रान्तिकारी दल के प्रमुख सदस्य बन गये। जयपुर के वैद्य मुक्तिनारायण भी क्रान्तिकारियों से जुड़ गये। वैद्य जी जयपुर रियासत से हथियार खरीद कर आजाद को भेजने लगे। शीघ ही आजाद की उनसे आत्मीयता हो गयी। चंद्रशेखर आजाद जब भी जयपुर आते तो वैद्य जी के श्ाुक्ल सदन में ही रुकते थे। वैद्य जी की धर्मपत्नी कल्याणी देवी ने भी एक बार रिवॉल्वर और कारतूसों से भरा एक बक्सा जयपुर से कानपुर पहुंचाया। आजाद के सहयोगी विश्वनाथ वैशम्पायन तथा क्रान्तिकारी दुर्गा भाभी वैद्य मुक्तिनारायण से शस्त्रास्त्र लेने जयपुर आये थे।

अजमेर में दल के मुखिया रामचंद्र बापट थे। राम जी लाल, राम सिंह, श्रीराम बंधु तथा रमेश चंद्र व्यास भी इस दल में शामिल हो चुके थे। आजाद की शहादत तथा भगत सिंह, सुख देव और राजग्ाुरु के बलिदान के बाद भी ये नवजवान उत्साह से अपना लक्ष्य प्ाूरा करने में लगे रहे। सन 1932 में अजमेर के जिला न्यायालय में रामचंद्र बापट ने अत्याचारी पुलिस प्रमुख गिब्सन पर गोलियां दागीं। बापट पकड़े गये और उन्हें दस साल की जेल हो गयी । जुलाई, 1935 में अंग्रेजों के पिठ्ठू डी.एस.पी. प्राणनाथ डोंगरा को सजा देने का निश्चय किया था। अजमेर के न्यू. मैजेस्टिक सिनेमा के सामने रामसिंह तथा ज्वाला प्रसाद ने पुलिस के उप कप्तान को गोलियों से छलनी कर दिया। बाद में दोनों क्रान्तिकारी तथा उनके साथ रमेशचंद्र व्यास भी गिरफ्तार कर लिये गए। राम सिंह को काला-पानी तथा ज्वाला प्रसाद को दस साल की जेल की सजा हुई। क्रान्तिकारी शंभू नारायण भी इसी मामले मेप पकड़े गये। जेल में पुलिस की यातनाओं से उनकी शहादत हुई।

क्रान्तिकारी बारहट परिवार
आजादी के संघर्ष में राजस्थान के शाहप्ाुरा निवासी केशरी सिंह बारहट ने उत्कट देशभक्ति का एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने अपना प्ाूरा परिवार ही मातृ-भूमि की मुक्ति के लिए समर्पित कर दिया। सन 1903 में लॉर्ड कर्जन ने दिल्ली में एक दरबार किया तथा सभी रियासतों को उनमें आने का न्यौता भेजा। मेवाड़ के महाराणा फतेह सिंह भी उसमें भाग लेने के लिए दिल्ली की ओर कूच किया। यह देखकर ठाकुर केशरी सिंह ने उन्हें तेरह सोरठे लिखकर भेजे। महाराणा के ये सोरठे पढ़े तो तुरन्त दिल्ली से वापस लौट आये। 23 दिसम्बर, सन 1912 के दिन गर्वनर जनरल हार्डिग्ज का दिल्ली में क्रान्तिकारियों ने बम के धमाके के साथ स्वागत किया। हार्डिग्ज घायल हो गया, पर उसकी जान बच गयी। यह कारनामा क्रान्तिकारियों के सिरमौर रास बिहारी बोस का था तथा बम का प्रहार करने वालों में केशरी सिंह बारहट के अनुज जोशवर सिंह, प्ाुत्र प्रताप सिंह तथा बहरोड़ के विश्वम्भर दयाल भी थे। इस मामले में केशरी सिंह को भी घसीटा गया तथा उन्हें बीस वर्ष के कारावास की सजा मिली। प्रताप सिंह केवल 22 वर्ष की आयु में जेल की यातनाओं में शहीद हो गये।

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