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उमर अब्दुल्ला का पुराना तानपुरा

उमर अब्दुल्ला का पुराना तानपुरा

by डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
in मई २०१३, राजनीति, सामाजिक
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जम्मू-कश्मीर राज्य के मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला ने 25 मार्च 2013 को राज्य विधान सभा में कहा कि जो लोग चिल्लाते रहते हैं कि जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है, वे भूल जाते हैं कि राज्य का भारत में विलय केवल तीन विषयों- सुरक्षा, संचार और विदेश सम्बन्धी मुद्दे को लेकर हुआ था। वैसे उन्होंने अपने भाषण में मुद्रा को भी इन्हीं विषयों में शामिल किया, जबकि असल में विलय पत्र में मुद्रा का कोई जिक्र नहीं था। परन्तु इसमें उमर का कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस घराने के लिए विलय का अर्थ व्यावहारिक रूप से मुद्रा ही है। यही कारण है कि राज्य में भ्रष्टाचार शासक दल की नीति का अंग बन चुका है।

उन्होंने कहा कि कश्मीर के राजनैतिक मुद्दे के आन्तरिक और बाहरी दोनों ही पहलू हैं और यह मुद्दा अभी हल नहीं हुआ है। यदि हम यह कहते हैं कि इसको पाकिस्तान और हिन्दुस्तान आपस में बैठकर सुलझाएं, या फिर इस मुद्दे के अन्दरूनी पक्ष को केन्द्र और राज्य आपस में सुलझाएं तो ऐसा कहने पर क्या हम भारतीय नहीं रह जाते? बार-बार अटूट अंग कहने से आप राज्य की समस्या से मुंह नहीं मोड़ सकते। जम्मू-कश्मीर के राजनैतिक पक्ष को सुलझाने के लिए अलग-अलग पार्टियों की ओर से अलग-अलग सुझाव दिये गए हैं। इसके बाद भी जनाब उमर साहब ने लम्बा-चौड़ा भाषण दिया। लेकिन यहां उसका प्रसंग नहीं है, क्योंकि उस भाषण के तात्विक अंश यही थे।

सबसे पहले तो पूछा जा सकता है कि उमर को किसने कहा कि वे भारतीय नहीं हैं? अपने भाषण में उन्होंने इसका उल्लेख भी नहीं किया। फिर आखिर उन्होंने यह प्रश्न क्यों उठाया कि उनके भारतीय होने पर अंगुलियां उठाई जा रही हैं? यदि वे भारतीय न होते तो जम्मू-कश्मीर के मुख्यमन्त्री कैसे बन सकते थे? उनके पिता जनाब फारूख अब्दुल्ला साहिब भारत सरकार के मन्त्री कैसे रह सकते थे? उनकी व्यथा शायद जम्मू-कश्मीर को भारत का अटूट अंग कहने से पैदा हुई है। इसका उन्होंने परोक्ष रूप से इजहार भी किया है। उनका कहना है कि जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में केवल तीन विषयों को लेकर हुआ है। उमर यहां या तो सचमुच भूल कर रहे हैं या फिर राजनैतिक पैंतरेबाजी का प्रदर्शन कर रहे हैं, जो सुबरा के इस अब्दुल्ला खानदान की पुरानी फितरत है। विलय का तीन या चार विषयों से क्या सम्बन्ध है? राज्य के शासक द्वारा विलय पत्र 26 अक्तूबर 1947 को हस्ताक्षर कर देने और उस समय के गवर्नर जनरल द्वारा इसको अधिसूचित कर देने के बाद विलय का प्रश्न तो समाप्त हो गया। जम्मू- कश्मीर भी उसी प्रकार भारत का हिस्सा हो गया, जिस प्रकार पटियाला, ग्वालियर या जयपुर इत्यादि हैं। अब भारत की संवैधानिक व्यवस्था में कौन‡कौन से कानून केन्द्र सरकार बनाएगी और कौन से राज्य सरकार बनाएगी, इसका सम्बन्ध संवैधानिक व्यवस्था से है। ये विषय समयानुसार और राज्यानुसार बदलते रहते हैं। केवल जम्मू-कश्मीर के लिए ही नहीं, भारत के सभी राज्यों के लिए। उमर की दिक्कत यह है कि वे विलय और विषय को परस्पर सम्बन्धित करके सोचते हैं। लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं है। यह उनके दादा शेख अब्दुल्ला के समय से चली आ रही उनकी खानदानी परम्परा है।

बकौल उमर, कश्मीर समस्या का एक बाहरी पहलू भी है। उनका कहना है कि यह पाकिस्तान के साथ बैठकर ही सुलझाया जा सकता है। वैसे उन्होंने स्पष्ट तो नहीं कहा, लेकिन भाव यही था कि पाकिस्तान भी इसमें एक पक्ष है। उमर से पूछा जा सकता है कि पाकिस्तान किस दृष्टि से पक्ष है? रियासत का विलय करने का वैधानिक हक महाराजा के पास था, जिसका प्रयोग करके उन्होंने रियासत को भारत में मिला दिया। इस स्थिति को सुरक्षा परिषद ने ही नहीं, पाकिस्तान के उस समय के गवर्नर जनरल जिन्ना ने भी स्वीकार किया था। जिन्ना भी बार-बार कहते थे कि रियासत के विलय का अधिकार केवल महाराजा हरि सिंह के पास ही है। उमर ने भारत सरकार अधिनियम 1935 और भारत स्वतन्त्रता अधिनियम 1947 तो जरूर पढ़े होंगे। उनको एक बार फिर पढ़ लेनी चाहिए। पढ़ने से नुकसान नहीं होता। विधान सभा में भाषण करने में सहायता ही मिलती है। इनमें किसी भी रियासत की नयी संवैधनिक व्यवस्था में शामिल होने का तरीका बताया गया है और महाराजा हरि सिंह ने उसी का पालन किया था। इन सब के बावजूद भी यदि वे पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के मामले में एक पक्ष मानते हैं तो यह निश्चय ही चिन्ताजनक है।

अलबत्ता पाकस्तिान एक और नजरिये से इसमें एक पक्ष है, जिसे स्वीकार लेना चाहिए, परन्तु उमर ने शायद जानबूझकर उसका जिक्र नहीं किया। पाकिस्तान ने जम्मू सम्भाग के कुछ भू-भाग, मुज्जफराबाद, कारगिल तहसील को छोड़ कर पूरे बलतीस्तान और गिलगित पर 1947‡48 में बल पूर्वक कब्जा कर लिया था। ये सभी क्षेत्र जम्मू-कश्मीर राज्य के ही अटूट अंग हैं, इनको पाकिस्तान से छुड़ाना ही कश्मीर समस्या का वह हिस्सा है, जिससे पाकिस्तान सम्बन्धित है। उमर के इस भाषण से दस दिन पहले ही 15 मार्च को संसद ने ये क्षेत्र पाकिस्तान से वापस लेने का संकल्प पारित किया था। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए की उमर बाबू ने उसका जिक्र नहीं किया। इसके विपरीत आभास तो ऐसा होता है मानों उमर पाकिस्तान की ओर से उस प्रस्ताव का उत्तर दे रहे हों। दरअसल शेख परिवार की अपनी समस्या है। जब भी उनका घाटी में प्रभाव घटने लगता है तो वे, ये अप्रासंगिक मुद्दे उठाना शुरू कर देते हैं। शेख अब्दुल्ला जब अपने पहले शासन काल (1958‡1953) के साल भर के भीतर ही अपनी तानाशाही और नाजीवादी शासन पद्धति के कारण अलोकप्रिय होने लगे थे, तो उन्होंने भी तुरन्त ‘तीन विषयों’ की माला जपनी शुरू कर दी थी। शेख परिवार इस मुद्दे का उपयोग कश्मीर घाटी में घटते प्रभाव के समय जनता को नशा देने के अर्थों में करता है। उमर भी उसी परम्परा को निबाह रहे हैं, लेकिन शायद वे यह भूल गये हैं कि कश्मीरी समाज बार-बार दिये जाने के कारण अब नशे की इन गोलियों को बखूबी पहचान गया है।

विलय का अर्थ क्या है?‡ इन सब प्रश्नों पर चर्चा करने के लिए जरूरी है कि जम्म-कश्मीर के भारत में विलय का अर्थ क्या है, इसको समझ लिया जाये। दरअसल यह शब्दावली ही अपने आप में भ्रम पैदा करने वाली है और इसी के कारण देश भर में अनावश्यक भ्रम फैलता है। जब हम ‘जम्मू-कश्मीर 26 अक्टूबर को भारत में शामिल हो गया’ ऐसा लिखते, पढ़ते हैं तो ऐसा आभास होता है कि जम्मू-कश्मीर एक अलग देश था जो 26 अक्टूबर को भारत में शामिल हुआ था। इस भ्रम को फैलाने में एक और कारक भी सहायक हो जाता है। वह है भारतीय स्वतन्त्रता अधिनियम 1947, जिसमें लिखा गया है कि 15 अगस्त के बाद वे स्वतन्त्र देश बन गये थे। ये दोनों अवधारणाएं फैलाने में कुछ सीमा तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का भी हाथ रहा।

दरअसल भारत की सभी रियासतें अंग्रेजी शासन के समय भी स्वतन्त्र देश नहीं थीं, जिनके साथ ब्रिटिश सरकार ने कोई सन्धियां की हों। ये रियासतें समग्र भारत का ही हिस्सा थीं। इसीलिए अंग्रेजी शासन काल में भी इन्हें अलग देश नहीं माना जाता था, बल्कि इन्हें भारतीय रियासतें ही कहा जाता था। अंग्रेजों ने जब भारत पर कब्जा करना शुरू किया तो अपनी सुविधा और रणनीति के तहत अलग-अलग स्थानों पर कब्जा करने के लिये अलग-अलग तरीके इस्तेमाल किये। कुछ हिस्सों में वहां के शासक को शस्त्र बल से जीत लिया और कुछ हिस्सो में वहां के शासकों से सन्धियां करके उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से अपने नियन्त्रण में कर लिया और कहीं कहीं, लॉर्ड डलहौजी के समय में ‘शासक नि:संतान मरे तो रियासत अंग्रेजों के अधीन हो जायेगी’ की नीति का पालन करते हुए कब्जा जमाया। इस प्रकार 1947 से पहले भारत की प्रशासकीय इकाइयां दो प्रकार की थीं। कुछ को ब्रिटिश प्रान्त कहा जाता था और कुछ को रियासत कहा जाता था। अंग्रेजी भाषा में इन्हें प्रोविन्स और स्टेट्स कहा जाता था। भारतीय रियासतों में और प्रान्तों में शासन पद्धति भी अलग-अलग थी। स्वतन्त्रता के लिए लड़ाई सारे भारत में समान रूप से लड़ी जा रही थी। चाहे वे रियासतें थीं, चाहे भारत सरकार अधिनियमों के अन्तर्गत शासित किये जा रहे अन्य प्रान्त थे। रियासतों में स्वतन्त्रता की यह लड़ाई मोटे तौर पर प्रजा मण्डल लड़ रहे थे और शेष भारत में यह लड़ाई कांग्रेस लड़ रही थी। लेकिन दोनों में आपसी तालमेल भी बना हुआ था। क्रान्तिकारी दल भी थे, जो स्वतन्त्रता संग्रम में सक्रिय थे। मोटे तौर पर यह लड़ाई अंग्रेजों को भगा कर प्रान्तों में और रियासतों में एक समान शासन पद्धति, जिसका आधार लोकतन्त्र हो, स्थापित करने के लिए थी। 15 अगस्त 1947 से पहले अंग्रेजी सरकार द्वारा सत्ता भारतीयों को सौंप देने और क्राऊन का अधिराजत्व रियासतों से समाप्त हो जाने के बावजूद रियासतें, व्यावहारिक रूप में स्वतन्त्र देश नहीं बन जाएंगी, ऐसा लॉर्ड माऊं टबेटन ने भी सभी राजाओं को स्पष्ट कर दिया था।

पाकिस्तान भारत से टूट कर नया देश बना था। इस नये देश की सीमा रेडीक्लिफ आयोग ने तय कर दी थी। इस सीमा के अन्दर जो भारतीय रियासतें आती थीं, वे भी इस नये देश का हिस्सा बन गयीं। जम्मू-कश्मीर रियासत इस सीमा के अन्दर नहीं आती थी। शेष रियासतें, जिनमें जम्मू-कश्मीर भी शामिल था, भारत का ही हिस्सा थीं। अंग्रेजों ने एक शरारत जरूर की। उन्होंने भारत स्वतन्त्रता अधिनियम में यह दर्ज कर दिया कि रियासतें भारत या पाकिस्तान, दोनों में से किसी के साथ मिल सकती हैं। नये बने पाकिस्तान के भीतर आ गयी रियासतें भला भारत में, यदि मिलना भी चाहतीं, तो कैसे मिल सकती थीं? व्यावहारिक रूप से नये बने पाकिस्तान में रियासतों की संख्या वैसे भी अंंगुलियों पर गिनने लायक थीं और उनमें से किसी के भारत में शामिल होने की नौबत नहीं आएगी, ऐसा अंग्रेज सरकार भी जानती थी, इसलिए यह प्रावधान उसने भारत में अराजकता फैलाने के लिए ही किया था। अंग्रेज सरकार को लगता था कि भारत की पांच सौ से भी ज्यादा रियासतों में से यदि कुछेक भी स्वतन्त्रता या पाकिस्तान में जाने का राग अलापना शुरू कर देंगी, तो भारत के लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी। भोपाल, जूनाग़ढ़, जोधपुर, हैदराबाद और राजस्थान की कुछ अन्य रियासतों ने ऐसे प्रयास किये भी, लेकिन सरदार पटेल के नेतृत्व में भारत सरकार के रियासती मन्त्रालय ने इसकी अनुमति नहीं दी। लेकिन जम्मू-कश्मीर रियासत ने तो ऐसा भी कुछ नहीं किया था। उसने दूसरी रियासतों की तरह भारत सरकार अधिनियम 1935 की धारा छह के अन्तर्गत 26 अक्तूबर 1947 को स्वयं के भारत का अंग होने की पुष्टि कर दी। इसका अर्थ केवल इतना ही था कि रियासत उस प्रशासकीय व्यवस्था का अंग बनेगी, जो व्यवस्था सारे देश पर लागू होने जा रही है। किन-किन विषयोंपर इन सभी रियासतों में एक समान शासन व्यवस्था लागू होगी, इसका निर्णय रियासत ने नहीं किया था, बल्कि भारत सरकार ने किया था कि विदेशी मामले, संचार और सुरक्षा को लेकर बनायी जा रही व्यवस्था सभी रियासतों में समान रूप से लागू होगी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नये संविधान ने भारत का गठन नहीं किया। भारत तो युगों- युगों से चला आ रहा है। संविधान ने देश के अलग-अलग हिस्सों, जिनमें रियासतें भी शामिल थीं, में प्रचलित अलग-अलग शासन व्यवस्थाओं को समाप्त कर, सारे भारत पर एक समान शासन व्यवस्था लागू कर दी। इसलिए यह कहना कि रियासतें भारत में शामिल हो गयीं, ठीक नहीं है। रियासतें तो पहले ही भारत का हिस्सा थीं, अब उन्होंने पुरानी शासन व्यवस्था के स्थान पर नयी शासन व्यवस्था स्वीकार कर ली थीं। यही स्थिति जम्मू-कश्मीर के साथ थी।

भारत सरकार अधिनियम 1935 के प्रावधान-

जिस भारत सरकार अधिनियम 1935 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर रियासत ने जिस नयी प्रशासनिक व्यवस्था स्वीकार की थी, उस अधिनियम में यह निर्णय लेने का अधिकार केवल रियासत के शासक को था। उसमें शेख अब्दुल्ला या उनकी नेशनल कान्फ्रेंस की कोई वैधानिक भूमिका नहीं थी। शासक को भी एक बार निर्णय लेकर बाद में उसे पलटने का अधिकार नहीं था। भारत के गवर्नर जनरल के पास भी इस सम्बन्ध में सीमित अधिकार ही था। उसे केवल महाराजा की विलय की घोषणा को अधिसूचित करना मात्र था। उस पर कोई शर्त लगाने का अधिकार उसके पास नहीं था। 1947 में जब महाराजा ने रियासत को भी नई व्यवस्था का हिस्सा बनाया तो रियासत की जनता भी उनके इस निर्णय की समर्थक थी। जम्मू, लद्दाख सम्भागों के अतिरिक्त कश्मीर घाटी के लोगों ने भी इसमें अपनी सहमति व्यक्त की थी। शेख अब्दुल्ला का रियासत की नयी व्यवस्था का समर्थन व्यक्तिगत नहीं था, वे कश्मीर घाटी के लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति ही कर रहे थे। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि कश्मीर के लोग इसलिए इस नयी व्यवस्था के समर्थक नहीं थे, क्योंकि शेख उसका समर्थन कर रहे थे, बल्कि शेख इसलिए नयी व्यवस्था के पक्षधर थे, क्योंकि कश्मीर घाटी के लोग इसके पक्ष में थे।

जम्मू-कश्मीर में भारतीय संघीय संविधान का लागू होना‡26 जनवरी 1950 से पूर्व भारत की सभी रियासतों ने जो संघीय संविधान में ‘ख’ भाग के राज्य थे, संघीय संविधान को स्वीकार किया। उसका तरीका यह था कि राज्य के राजप्रमुख ने एक अधिसूचना जारी कर यह स्वीकृति दी। जम्मू-कश्मीर भी ‘ख’ भाग का राज्य था, इसलिए वहां के राजप्रमुख ने भी संघीय संविधान को राज्य में स्वीकृति दी। जम्मू-कश्मीर में क्योंकि स्थिति सामान्य नहीं थी, इसलिए वहां संघीय संविधान के लागू करने के लिए संविधान ने एक अतिरिक्त अस्थायी प्रक्रिया धारा 370 के रूप में भी निर्धारित कर रखी थी। जनता की राय, जिसकी आम तौर पर चर्चा होती रहती है, उसका अभिप्राय इतना ही था कि राज्य में लोगों की इच्छा से लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्थापित की जाएगी। इसमें कोई भी शक नहीं कि आज उमर अब्दुल्ला उसी व्यवस्था के कारण राज्य के मुख्यमन्त्री हैं।

रही बात जम्मू-कश्मीर की आन्तरिक समस्या की, तो उसे उठाने से उमर अब्दुल्ला को कौन रोक रहा है? आन्तरिक समस्याएं तो सभी राज्य उठाते ही रहते हैं। अभी पिछले दिनों नीतीश कुमार बिहार को विशेष आर्थिक राज्य का दर्जा पाने के लिए दिल्ली के राम लीला मैदान में आये थे। पंजाब भी अपनी आन्तरिक समस्या को उठाता रहता है। लेकिन यदि उमर ये चाहते हैं कि जब भी नेशनल कान्फ्रेंस सत्ता के बाहर होती है तो उसके बाद राज्य में जो घटित होता है, उसे निरस्त कर दिया जाये, यह तो फांसीवादी सोच ही मानी जाएगी। उमर को लगता है कि जम्मू-कश्मीर में समय का चक्र नेशनल कान्फ्रेंस के सत्ता पर आने पर चलना शुरू हो और उसके सत्ता से बाहर होने पर चलना बन्द हो जाये, यह कैसे सम्भव है? यह सोच ही तानाशाही है। राज्य में पीडीपी की सरकार बन सकती है, कांग्रेस की बन सकती है, अभी जैसी चली हुई है, ऐसी साझा सरकारें बन सकती हैं, भाजपा की भी सरकार बन सकती है, लेकिन कोई भी सरकार बनेगी वह बनेगी तो जनता की राय से ही।

नेशनल कान्फ्रेंस को स्वयं को कश्मीर घाटी के लोगों का पर्यायवाची मानना बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि यह सच नहीं है और साथ ही यह भी सच नहीं है कि कश्मीर घाटी ही जम्मू-कश्मीर राज्य है। जिस दिन सुबरा का यह अब्दुल्ला वंश यह बात समझ जाएगा, उस दिन सब समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी।

यह सभी राजनैतिक दलों की बीमारी है कि यदि उनको प्राप्त मतों का प्रतिशत एक से भी कम हो तब भी वे जो कुछ कहते सुनते हैं, वह जनता के नाम पर ही कहते हैं। सीपीएम को पूरे देश में कितने वोट मिलते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है, लेकिन फिर भी वे अपना कथन देश की एक सौ बीस करोड़ जनता के नाम पर ही रखते हैं। नेशनल कान्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला, उनके चाचा कमाल अब्दुल्ला यदि बीच-बीच में इस प्रकार की बातें करते हैं तो उसका कारण भी राज्य की जनता की इच्छा ही बताएंगे। लेकिन एक बात अजीब है। कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस का रिश्ता 1947 से ही चला आ रहा है। नेहरू शेख को जेल में भी रखते थे, लेकिन छूटने पर रहते वे फिर नेहरू के घर मेंही थे। आज 2013 में भी यह रिश्ता बदस्तूर जारी है। लेकिन जब दोनों की लोकप्रियता में कमी दिखायी देती है तो विलय का प्रश्न उठा दिया जाता है। शेख ने 1949 में कश्मीर घाटी में घटती लोकप्रियता को ध्यान में रखकर जो सूत्र इस्तेमाल करना शुरू किया था, आज वही उमर कर रहे हैं। उस वक्त नेहरू शेख का खुल कर साथ दे रहे थे, आज कांग्रेस चुप रहकर नेशनल कान्फ्रेंस की सरकार चला कर साथ दे रही है।

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