पर्यावरणवादी नहीं पर्यावरण विचारी बनें

प्रतिवर्ष 5 जून को अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस मनाया जाता है । 5 जून 1972 को स्टाकहोम में ‘मानव और पर्यावरण’ विषय पर अन्तरराष्ट्रीय परिषद आयोजित की गयी थी। अत: प्रतिवर्ष 5 जून को अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। समय चक्र के अनुसार उसके बाद कई वर्ष बीत गये, परन्तु प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन एवं उस पर कब्जा, पानी की कमी की समस्या, वन्य जीवों पर संकट इत्यादि कई समस्याएं पिछले सालों की तरह ही इस वर्ष भी मुंह बाये खड़ी हैं। धीरे‡धीरे यह समस्या और भी गम्भीर होती जा रही है। स्थानीय स्तर से अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक यही दशा है।

पर्यावरण से सम्बन्धित इस महीने में दो घटनाएं सामने आयीं। एक नकारात्मक है, दूसरी सकारात्मक। महाराष्ट्र के खानदेश के ग्रमीण भाग में एक तेंदुए ने गांव में घुसकर कुछ बकरियों को मार कर खा डाला। इस घटना से क्रोधित होकर गांव के लोगों ने उस तेंदुए को ही मौत के घाट उतार दिया। वह मादा तेंदुआ थी, जिसके दो बच्चे एक पाइप के अन्दर छुप गये थे। ग्रमीणों ने उस पाइप के दोनों मुहानों पर लकड़ी का ढेर लगाकर आग लगा दी, जिसके कारण वे बच्चे भी मर गये। समाचार पत्रों में इस खबर को पढ़ने के बाद दिल दहल गया। तेंदुए के मारे जाने की खबर कोई नयी नहीं है। पिछले कुछ समय से लगातार इस तरह की खबरें मिलती रहती हैं। कभी रेल के नीचे आने से, कभी वाहनों से टकराकर, कभी कुएं में गिरकर तो कभी उन्हें फंसाने के लिए बिछाये गए जाल में फंसकर उनकी मृत्यु होती है। इस तरह से मरने वाले तेंदुओं की संख्या दुखद है।

तेंदुओं की संख्या दिन‡ब‡दिन घटती जा रही है। तेंदुआ जंगल में रहते हैं, परन्तु इंसानों का जंगलों में जो हस्तक्षेप बढ़ रहा है उसके कारण वन्य जीवों की विकट अवस्था हो गयी है। जंगलों में खदानें बढ़ रही हैं। ऊर्जा प्रकल्पों के कारण नैसर्गिक साधनों पर दबाव बढ़ रहा है। यह तनाव अन्य प्राणियों की तरह मानव के लिए भी हानिकारक है। गीर के जंगलों में बसने वाले शेर झुण्ड बनाकर पास के गावों में जाने लगे हैं। काजीरंगा के गैंडों को भी जैसे शहर की हवा लग गयी है, वे बेधड़क शहरों में घुस जाते हैं। असम और कर्नाटक में हाथियों के दल उत्पात मचा रहे हैं। इसी तरह चीतों के जंगल में इन्सानों के प्रवेश के कारण जंगल के छोटे प्राणी नाम मात्र रह गये हैं। यह छोटे प्राणी ही चीतों के शिकार होते हैं। इसीलिए भेड़, बकरियां, कुत्ते इत्यादि की खोज में चीतों का रुख शहर की ओर हो गया है। परन्तु बस्ती में घुसा हुआ कोई भी हिंसक पशु लोगों का शिकार बन ही जाता है या अगर उस पर नियन्त्रण नहीं हो सका, तो उस पर गोलियां चलाने के अलावा कोई मार्ग नहीं रह जाता। परन्तु यह नौबत ही क्यों आ रही है, इसका गम्भीरता पूर्वक विचार करना होगा।

पहले एक प्राणी को मारना, उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रयत्न न करना और जब वह प्राणी नाम मात्र की संख्या में ही शेष रह जाये तो उनको बचाने के लिए प्रयत्न करना मानव जाति की रीति रही है। यह मानव के दोहरे स्वभाव पर प्रकाश डालने वाला कृत्य है। चीता नामक प्राणी के विषय में भी हमने काफी सुना है। अब तो डिस्कवरी या जिओग्रॅफिक चैनलों पर ही उसके दर्शन होते हैं,क्योंकि भारत से यह प्रजाति समाप्त हो चुकी है। इसी राह पर हम बाघों को ले गये और अब तेंदुए का भी वही हश्र हो रहा है।

अन्न‡जल के लिए जंगलों से बाहर आने वाले और मनुष्यों की बस्ती में आने वाले तेंदुओं पर मौत के बढ़ते खतरे के कारण अब तेंदुए भी कुछ वर्षों में अंगुलियों पर गिनने लायक ही रह जाएंगे। मानव और वन्य प्राणियों के बीच का संघर्ष दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इनके मूल कारणों का विचार न करते हुए सारा गुस्सा उन मूक प्राणियों पर निकाला जा रहा है। हर दिन जंगल पर अतिक्रमण करने के लिए मानव एक कदम आगे बढ़ता जा रहा है। परिणामत: उजड़े हुए जंगलों से निकलकर वन्य जीव यहां‡वहां भटक रहे हैं।

विकास के नये‡नये क्षितिज पादाक्रान्त करते हुए मानव का रहन‡सहन परिवर्तित हो रहा है। परन्तु क्या इस परिवर्तन में क्या हमारी विचार करने की पद्धति और वन्य जीवों के विषय में सोचने की क्षमता बढ़ी है? नहीं। मानव ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का उपभोग ही किया है। असाधारण रूप से बढ़ने वाली मनुष्य की आवश्यकताओं के लिए मनुष्य जंगलों और प्रकृति पर आघात कर रहा है। इसका परिणाम हैनदियों में जल स्तर का घटना या बाढ़ आना, सूखा या अतिवृष्टि, ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पिघलने वाले हिम-खण्ड, विलुप्त होती जा रही वनस्पतियों और जीवों की विभिन्न प्रजातियां, मनुष्यों में बढ़ रहे नये‡नये रोग इत्यादि। ये सभी प्रकृति के द्वारा इन्सान को विनाश की सूचना के संकेत हैं। इनकी ओर मनुष्य को ध्यान देना चाहिए। पर्यावरण की ओर ध्यान न देने वाले हमारे नेतागण इस विषय को दूसरी दिशा में भटका रहे हैं। हमारे देश में नदी के पानी पर हक जमाने के लिए कई राज्य आपस में लड़ रहे हैं। कुछ राज्यों में अपना पानी अन्य राज्यों को न देने और किसी में दूसरे राज्यों से पानी प्राप्त करने के मुद्दों पर चुनाव तक लड़े जा रहे हैं। परन्तु अपने राज्य में उपलब्ध नदियों की स्थिति को सुधारने की, उसका जल स्तर बढ़ाने की, उसे नालों में तब्दील होने से बचाने का विचार राजनेता या आम जनता कोई भी नहीं कर रहा है। यह वस्तु स्थिति है कि पर्यावरण पूरक प्रयोगों की सफलता के लिए आवश्यक पर्यावरण साक्षरता जनता में नहीं है।

मानव जाति के विकास और पर्यावरण की समस्याएं अत्यन्त उलझे हुए विषय हैं। उन्नीसवीं सदी की शुरुवात में हुई तकनीकी क्रान्ति के कारण, विश्व में हो रहे विकास के कारण परिवर्तन के कारण समाज के साथ ही पृथ्वी में भी परिवर्तन हो रहे थे। उसकी मिट्टी, मानव और प्राणी जगत पर परिणाम हो रहा था। इस बदलती स्थिति के कारण मानव के सामने ‘इस पार या उस पार’ जैसी कठिन परिस्थिति निर्माण हो रही है। बढ़ती जनसंख्या की समस्याओं से निपटने के लिए पर्यावरण की ओर ध्यान न देने का सरल उपाय मानव ने खोज लिया है। किसी भी प्रकार की प्रगति में पहली बलि पर्यावरण की ही होती है। इस बात को सभी ने स्वीकार कर लिया है। अत: भारत की तरह ही अन्य विकासशील देशों के सामने भी यही प्रश्न निर्माण हो रहा है कि किस कीमत को चुका कर विकास किया जाये। प्रत्येक देश विकसित देशों में प्रथम क्रमांक पर आना चाहता है, परन्तु उसके लिए पर्यावरण की बहुत बड़ी कीमत चुकानी होगी।

अब यह ध्यान में आ रहा है कि जिन संकटों का सामना पहले 15‡20 सालों में करना पड़ता था, अब 1‡2 वर्षों में ही करना पड़ता है। बाढ़, अतिवृष्टि, अकाल इत्यादि समस्याएं एक के बाद एक आती ही रहती हैं। पर्यावरण, प्रकृति और मानव का रिश्ता पौराणिक काल से है। हमारा जीवन प्रकृति पर निर्भर है, यह जानकर ही विभिन्न प्रकृति देवताओं की पूजा की जाती है। इसकी संकल्पना प्रकृति के ऋणों को चुकाने से थी। पर्यावरण और मानव के एक‡दूसरे पर अवलंबन को देखते हुए परस्पर भावयन्त: श्रेय परमवाप्सथा अर्थात प्रकृति और मानव दोनों का कल्याण होगा। पशु‡ पक्षी भी पर्यावरण का अविभाज्य अंग हैं। पुरातन काल में ऋषि‡मुनियों के आश्रम अभयारण्य ही होते थे और इनकी रक्षा करना राजा का कर्तव्य होता था। ‘प्रजा’ शब्द की संकल्पना में केवल मानव ही नहीं पशु, पक्षी, वृक्ष, नदियां, जलाशय इत्यादि सभी का समावेश होता था। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अत: मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपने कार्यों के द्वारा प्रकृति की रक्षा करे। परन्तु हम यह कर्तव्य भूल रहें हैं। मानव की श्रेष्ठता का आधार अपनी संस्कृति को हम भूलते जा रहे हैं। सारी व्यवस्था अर्थ केन्द्रित होती जा रही है। सब कुछ अर्थ प्रधान होता जा रहा है।

प्रत्येक पर्यावरण सम्मेलन में या अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के निमित्त पृथ्वी को बचाने के लिए विविध लक्ष्य तय किये जाते हैं, परन्तु राजनेताओं से लेकर आम नागरिकों तक किसी पर भी उनका असर नहीं होता है। इसका अर्थ यही है कि इन्हें भयभीत और आश्चर्यचकित करने के लिए प्रकृति की ओर से बड़े झटके की आवश्यकता है। मित्रों! पर्यावरण का और हृास होने से बचाना हमारी जिम्मेदारी है। मानव और अन्य जीवों की रक्षा के लिए और आने वाली पीढ़ियों को उत्तम पर्यावरण देने के लिए हमें पर्यावरण के प्रति शिक्षित होना आवश्यक है। पर्यावरण शिक्षा अर्थात अंक या ग्रेड नहीं, बल्कि मानव की निरोगी और शाश्वत जीवन की शिक्षा है। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर समाज में जनजागृति निर्माण की जा सकती है। अपना घर और परिसर साफ‡सुथरा रख सकते हैं। पानी और ऊर्जा की बचत कर सकते हैं। लोगों तक स्वास्थ्य का सन्देश पहुंचा सकते हैं। इस समस्या का सामना करते समय यह उम्मीद रखना गलत होगा कि सब कुछ शासन करेगा। प्रत्येक को अपना कर्तव्य निभाना होगा। पर्यावरण पर भाषण देना आजकल प्रतिष्ठा की बात हो गयी है। परन्तु बहुत कम लोग दिल से इसके लिए चिन्तित होते हैं। अमेरिका के युवा भाई‡बहन का उदाहरण यहां दिया जा सकता है। कभी‡कभी महाराष्ट्र के अपने गांव मेंआने वाले श्री और संजना ने पानी के अभाव में गांव वालों की होने वाली दुर्दशा को देखा और उन्होंने गांव वालों के लिए कुएं बनवाने का संकल्प लिया। महाराष्ट्र के राजापुर के सोगमवाड़ी और पडवे गांव में उन्होंने कुएं खुदवाये। इसके लिए उन्होंने लस्सी बेचने और गाड़ी धोने जैसे कार्य भी किये, आवश्यक पैसे जमा किये। आज इन कुओं के कारण कई लोग लाभान्वित हैं। यह भी एक प्रकार की देशभक्ति ही है।

पानी की हर एक बूंद बचानी चाहिए। पानी बचाने और पानी की प्रत्येक बूंद का सदुपयोग करने के उद्देश्य से मुंबई के आबिद सुरती प्रयत्नशील हैं। वे अपने उप नगर की प्रत्येक सोसाइटी में जाकर पूछते हैं कि क्या कोई नल खराब है? क्या उसमें से पानी टपक रहा है? अगर है तो वे अपने खर्चे से ठीक करवाते हैं। उनका यह प्रयत्न पिछले सात वर्षों से चल रहा है। व्यावसायिक दृष्टि से व्यंग्य चित्रकार आबिद सुरती को राष्ट्रपति पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार मिले हैं। अपने मान‡सम्मान को भूलकर वे अपने स्तर पर जल संवर्धन का प्रयत्न कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि एक नल से एक सेकेंड में एक बूंद पानी गिरता है तो प्रत्येक महीने में लगभग एक हजार लीटर पानी व्यर्थ बहता है। इस तरह हजारों नल उन्होंने ठीक किये हैं। पानी बचाना, प्रत्येक बूंद का सदुपयोग करना, इसके लिए लोगों को प्रेरित करना भी आज के समय में देशभक्ति है।

एक तरफ सामूहिक रूप से हिंसक बनकर तेंदुओं के बच्चों को मारने वाले पर्यावरणवादी और दूसरी ओर किसी के सामने न आने वाले श्री और संजना और आबिद सुरती जैसे 78 वर्ष के पर्यावरण विचारी लोग भी हैं। इनके जैसे सार्थक काम करने वाले कई लोग होंगे, फिर भी संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है ही। दुर्भाग्य है कि अकाल ग्रस्तों की एक‡एक बूंद के लिए उठने वाली आर्द्र पुकार हमें विचलित नहीं करती। मित्रों! आज समय की मांग यही है कि ‘पर्यावरणवादी’ नहीं श्री, संजना और आबिद सुरती जैसे ‘पर्यावरण विचारी’ बना जाये।

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