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आखिर बीजेपी कैसे निभाती है गठबंधन धर्म ?

आखिर बीजेपी कैसे निभाती है गठबंधन धर्म ?

by हिंदी विवेक
in ट्रेंडींग, राजनीति, विशेष
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राजनीतिक में गठबंधन का चलन अब तेजी से देखने को मिलने लगा है क्योंकि अब राज्यों बिना गठबंधन वाली सरकारें कम ही देखने को मिलती है। नेता और मतदार दोनों का स्तर भी गिरता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियां चुनाव से पहले एक दूसरे पर तमाम आरोप लगाती है लेकिन जैसे ही सरकार बनाने की बात होती है सभी गठबंधन का रास्ता ढूंढनें लगती है और फिर ना कोई भी दुश्मन नहीं होता और मिलकर हंसी खुशी सरकार बना लेते है।

गठबंधन को लेकर एक बात और देखने को मिलती है वह यह कि जिस पार्टी के पास ज्यादा सीटें होती है उसका नेता ही प्रमुख पद पर होता है जबकि कम सीटों वाली पार्टी को छोटे पद दिये जाते है। कई बार तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि पार्टी जनता के लिए एक चेहरा निश्चित करती है और उसी के नाम पर चुनाव लड़ा जाता है लेकिन अगर पार्टी बहुमत हासिल करने से चूक गयी तो उस चेहरे को भी बदल दिया जाता है।

बीजेपी का महाराष्ट्र में भी गठबंधन वाली सरकार रही है और अब बिहार में भी नीतिश कुमार के साथ गठबंधन वाली सरकार है। बीजेपी ने उद्धव ठाकरे साथ लेकर चुनाव लड़ा था और बड़ी पार्टी के तौर पर उभर कर भी सामने आये लेकिन उद्धव ठाकरे को जैसे ही बाकी दलों का सहयोग मिला उन्होने उनके साथ मिलकर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली जबकि बीजेपी ने जेदयू के साथ बिहार में विधानसभा चुनाव लड़ा और भारी मतों का समर्थन मिलने के बाद भी नीतिश कुमार को मुख्यमंत्री पद दिया। बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी को बीजेपी से कम सीटें मिली जिसके बाद ऐसी खबरें आने लगी कि नीतीश कुमार ने सीएम पद स्वीकार करने से मना कर दिया है क्योंकि अब उनकी पार्टी प्रमुख दावेदार नहीं रही है लेकिन बीजेपी के आला नेताओं ने नीतीश कुमार के साथ बैठक की और उन्हे यह भरोसा दिलाया कि वह ही बिहार के मुख्यमंत्री होंगे।

बीजेपी के इतिहास पर नजर डालें तो यह देखने को मिलता है कि बीजेपी का गठबंधन जिन पार्टियों के साथ पहले से चला आ रहा है उसमें से ज्यादातर आज भी वही है। बीजेपी ने ज्यादा सीटें आने के बाद भी अपने गठबंधन धर्म को कभी नहीं छोड़ा है और जो पहले से चला आ रहा है उसी आधार पर फैसला लिया गया है बिहार इसका सबसे ताजा उदाहरण है। सन 1989 में शिवसेना प्रमुख स्व. बाला साहेब ठाकरे और बीजेपी नेता स्व. प्रमोद महाजन के अथक प्रयासों से दोनों पार्टियों का गठबंधन हुआ था जिसके बाद दोनों ने सन 1990 में महाराष्ट्र का पहला विधानसभा चुनाव लड़ा। शिवसेना ने 183 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को उतारा था जिसमें से 52 विजयी हुए जबकि बीजेपी ने 104 सीटों पर चुनाव लड़ा और 42 सीटें अपने कब्ज़े में कर ली। इसके बाद बीजेपी और शिवसेना ने कई चुनाव साथ में लड़े लेकिन हर बार बीजेपी के जीत प्रतिशत शिवसेना से अच्छा ही रहा। सन 1995 में पहली बार शिवसेना-भाजपा की महाराष्ट्र में सरकार बनी। भाजपा ने खुशी-खुशी शिवसेना के मुरली मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया। यह महाराष्ट्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी।

महाराष्ट्र में सन 1989 से 2009 तक के चुनाव में शिवसेना हमेशा ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती रही लेकिन उसकी जीत का प्रतिशत हमेशा कम होता नजर आया। हिंदू हृदय संम्राट बाला साहेब ठाकरे के निधन के बाद मोदी के नेतृत्व में महाराष्ट्र में 2014 का विधानसभा चुनाव हुआ। इस बार भाजपा ने शिवसेना को ज्यादा सीटें देने से मना कर दिया जिसके बाद 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया और दोनों ही पार्टियों ने अलग अलग चुनाव लड़ा जिसमें भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई और देवेंद्र फढणवीस को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया गया।

राजनीति में एक कहावत है कि,”यहां ना कोई परमानेंट दुश्मन होता है और ना दोस्त” राजनीति में सिर्फ सत्ता ही सब कुछ होती है और उसे पाने के लिए किसी भी तरह का दांव चला जा सकता है। राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो यहां पुराने से पुराने दुश्मनों को सत्ता के लिए दोस्त बनते देखा गया है लेकिन अगर वह सत्ता पानें में सफल नहीं होते तो फिर से अपनी दुश्मनी नाप लेते है। सन 2014 में जब से नरेंद्र मोदी ने देश की बागडोर संभाली है तब से विरोधी दलों में अचानक से प्रेम बढ़ गया है क्योंकि यह बात हर नेता और दल को पता है कि मोदी को हराना किसी एक दल के बस की बात नहीं है। पहले सरकार के कार्यों से जनता परेशान रहती थी लेकिन यह शायद पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है जब सरकार के काम से विपक्षी दल और राष्ट्रविद्रोही परेशान नजर आ रहे है।

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