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हिंसक आंदोलन का लेखाजोखा

हिंसक आंदोलन का लेखाजोखा

by राजकुमार चौबे
in जुलाई -२०१३, सामाजिक, साहित्य
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नक्सललनामा (साथ में प्ाुस्तक का मुखपृष्ठ)
लेखक: प्रकाश कोलवणकर
प्रकाशक: रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी, 17, चंचल स्मृति, गं. द. आंबेकर मार्ग, वडाला, मुंबई- 400 031
पृष्ठ: 160, मूल्य: 150 रु.
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नक्सलली आंदोलन, उसके कार्यकर्ताओं की निष्ठा, संघर्षशीलता, गरीब आदिवासियों में उनकी पैठ के साथ-साथ उसके जनविरोधी स्वरूप को समझने के लिए स्व. पत्रकार प्रकाश कोलवणकर की यह मराठी किताब उपयोगी साबित होगी। 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से चारु मुजुमदार, कानू सान्याल, जनरल संथाल के साथ आरंभ यह हिंसक आंदोलन बाद में पीप्ाुल्स वॉर ग्रुप के रूप में कोडापल्ली सीतारामैया, गणपति आदि के हाथ में आ गया। पहला सशस्त्र विद्रोह चारु मुजुमदार के गांव नागीनजोत में हुआ था और जमीनदार नागीन रायचौधरी की हत्या कर दी गई थी।

श्ाुरुआती दौर में तीर-कमान, भाले, कुल्हाड़ी जैसे पारम्पारिक शस्त्र थे। समय के साथ इनका स्थान बम, बंदूक, रायफल, एके-47 जैसे आधुनिक हथियारों ने लिया है। लेखक के अनुसार नक्सलवाद एक अस्वस्थ प्रतिक्रिया है। भूख, जातिवाद और जमींदारों के अत्याचारों से पैदा हुआ नक्सलवाद अब बदले की पराकाष्ठा बन चुका है। स्वाभिमानी जीवन जीने की हिम्मत न रखने वाला युवा वर्ग हिंसा की ओर आकर्षित हुआ है। मेहनत, हिम्मत और संघर्ष के जरिए आगे ब.ढने की बजाय नक्सलवाद के जरिए अपना ग्ाुस्सा आज की इस सामाजिक, राजनैतिक और शासकीय व्यवस्था के खिलाफ उतारना उसे ज्यादा आसान और अच्छा लगता है। ग्ाुस्सा उतारने का यह हिंसात्मक मार्ग सही है या गलत- इसकी उसे कोई चिंता नहीं है।

यह देश अपना है, सिर्फ यहां की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था अपनी नहीं है और इसे बदलना ही होगा, तभी नीचे के तबके का राज आएगा। नीचे के तबके को संगठित कर प्रस्थापित सत्ता को बदलना है। चुनाव में नक्सली विश्वास नहीं करते। चीन के माओन्से तुंग की इसी विचारधारा के अनुसार नक्सली भारत में भी क्रांति लाना चाहते हैं। माओ ने चीन में हिंसा के जरिए ही तथाकथित क्रांति कर साम्यवाद की स्थापना की थी। नक्सली भी भाारत में इसी मार्ग से कथित क्रांति लाना चाहते हैं। इस तरह नक्सलियों की अव्वल दुश्मनी स्वाभाविक रूप से प्ाुलिस से है, क्य ोंकि वही इस देश की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था की संरक्षक है। नम्बर दो दुश्मन है- प्ाुलिस को सूचना देने वाले खबरी और इसके बाद जमींदार, साहूकार, व्यापारी, सरकारी अधिकारी, विधायक, सांसद आदि का नम्बर आता है।

‘नक्सलनामा’ में लेखक ने नक्ॠइलियों से साक्षात्कार के आधार पर उनके पारिवारिक दुखों के बारे में भी जानकारी दी है। एक बार नक्सली बनने पर लौटना आसान नहीं होेता। वे अपने घर, परिजनों के पास जा नहीं सकते, क्योंकि उनका नाम किसी न किसी हमले से जुड़ा होता है। उन्हें अपनी गिरफतारी का भय हमेशा बना रहता है।

नक्सलली अब क्रांति नहीं कर सकते। नक्सलली आंदोलन में जनता के लिए युध्द जैसी कोई बात नहीं रह गई है। वह अब आतंकवाद के रूप में स्थापित हो गया है। स्वच्छंद विचार-व्यवहार और निसर्गप्रेमी माडिया जैसे आदिवासी समाज में नक्ॠइलियों की तानाशाही को कोई मेल नहीं बैठता। नक्सलवाद किसी समय अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई थी, लेकिन अब नक्सली लुटेरों की टोली बन कर रह गए हैं। वे अब विदेशी रिवाल्वर, एके-47 जैसे आधुनिक हथियार है। इन्हें खरीदने के लिए काफी धन की जरूरत होती है। इसके लिए प्ाुलिस स्टेशन, व्यापारियों, जमींदारों को लूटना पड़ता है। इस तरह ये कहीं जातिवादी हत्यारे तो कहीं लुटेरे बनकर रह गए हैं। इस तरह के आंदोलनों से कभी क्रांति नहीं हो सकती।

रोज नए नक्सली पैदा हो रहे हैं। हिंसक आंदोलन की ओर नई पी.ढी क्यों आकर्षित होती है इसके कारणों का जाने या समुचित उपाय किए बिना नक्सली आंदोलन समाप्त नहीं होगा। भूख, सरकारी अन्याय, अकर्मण्यता, जातिवाद, भष्टाचार, समस्या को सुलझाने की बजाय उलझाए रखने की आदत ये ऐसे कारण हैं जिनसे इस तरह के आंदोलन ब.ढते हैं। नक्सलवाद को खत्म करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है, क्योंकि नक्ॠइलियों की लड़ाई क्षेत्रीय न होकर अखिल भारतीय स्तर की है।

नक्सलवादी आंदोलन वनवासी या जनसामान्य के भले के लिए नहीं है, उन्हें तो शासनतंत्र को अगले 10 सालों में अपने कब्जे में लेना है।, उसे उलटना है और उसे उलटने के लिए लड़ने वाले सैनिक चिाहए। वनों में उन्हें ऐसे लोग आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन, वर्तमान व्यवस्था को उलटने के बाद उसके स्थान पर कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। यह बात वनवासियों की समझ में नहीं आती। उन्हें ऐसा लगता है कि यह सरकार उनकी दुश्मन है और नक्ॠइलियों के कारण उनके क्षेत्र में उनका राज आएगा। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें जब तक उनकी यह समझ दूर नहीं करेगी तब तक नक्ॠइलियों की नई नस्लें तैयार होती रहेंगी। इसके लिए सरकार को उनके हित में कई कदम उठाने होंगे जैसे बांस कटाई का अधिकार, लकड़ी कटाई पर पाबंदी हटाना, वनोपज का वनवासियों को उपयोग करने देना, वनवासियों को जमीन मुहैया करना आदि। यदि ऐसा न हो तो हिंसक नक्सली आंदोलन का अजगर हमारी राजनैतिक, सामाजिक, शासकीय व्यवस्था को तहस-नहस कर देगा।

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