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सत्ता की चावियां हाथ से न जाने दें

सत्ता की चावियां हाथ से न जाने दें

by रमेश पतंगे
in जुलाई -२०१३, राजनीति
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राष्ट्रहित का विचार करें तो तीसरा मोर्चा जिस विचारधारा पर बनना है वह विचारधारा देश के समक्ष संकटों की श्रृंखला पैदा कर देगी। तीसरे मोर्चे का मुख्य बल मुसलमानों के वोटों पर हैं। मुस्लिम मतदाताओं के हाथ में सत्ता की चावियां सौंपने का यह खेल देश को संकट में डालेगा।
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गोवा में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नरेंद्र मोदी को पार्टी के चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी सौंपी गई। नरेंद्र मोदी को अखिल भारतीय स्तर की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी यह लगभग तय ही था। इसका कारण 2014 के लोकसभा चुनाव हैं। भारतीय जनता पार्टी प्रमुख विपक्षी दल है और पार्टी को अधिकाधिक सांसद जीताने हैं।

उम्मीदवारों को जिताने के लिए भाजपा के पास जनता को आकर्षित करने वाला एकमात्र नेता है और वह हैं नरेंद्र मोदी। नरेंद्र मोदी आज भी लोगों को आकर्षित कर प्रचंड सभाएं ले सकते हैं। महाराष्ट्र ने इसका अनुभव लिया है। नरेंद्र मोदी का आकर्षण होने के कुछ कारण हैं। पहला यह कि उन्होंने हिंदुत्ववाद से कहीं भी समझौता नहीं किया और इसलिए हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं का उनके प्रति विश्वास है। दूसरा यह कि, वे भष्टाचारी नहीं है। वे कहते हैं, ‘न मैं पैसा खाता हूं और न किसी को खाने देता हूं।’ तीसरा कारण यह कि वे केवल भाषणबाजी नहीं करते। उन्होंने विकास करवाया है। ग्ाुजरात में निवेश के लिए अत्यंत अनुकूल माहौल उन्होंने बनवाया है। चौथा कारण यह कि वे जातिपाति की राजनीति नहीं करते। वे देशहित की राजनीति करते हैं। ये सभी बातें लोगों को अच्छी लगती हैं और इसलिए लोग उनकी ओर भावी प्रधान मंत्री के रू प में देखते हैं।

केवल यही बात देश के अनेक राजनेताओं की परेशानी का सबब है। उध्दव ठाकरे को मोदी नहीं चाहिए। प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रू प में कोई उध्दव ठाकरे के नाम का विचार नहीं करता। (महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रू प में भी उनके नाम का कोई विचार करता है या नहीं यह भी प्रश्न ही है।) नरेंद्र मोदी के प्रति उनका विरोध न समझने वाला है। मेरी राय में कहीं नरेंद्र मोदी उनका (उध्दव) महाराष्ट्र में हिंदुत्व का एजेंडा निगल लेेंगे, इसका तो उन्हें भय नहीं है?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को भी मोदी नहीं चाहिए। घोड़ा क्यों रुक गया, पत्ता क्यों सड़ गया, रोटी क्यों एक ओर से जल गई इन प्रश्नों का उत्तर एक है। नरेंद्र मोदी का यदि समर्थन किया तो मुसलमानों के वोट छितर जाएंगे, यह डर इन तीनों मुख्यमंत्रियों को है। मुसलमानों के वोटों के कारण ही वे सत्ता में हैं यह इन तीनों मुख्यमंत्रियों को लगता है। मुसलमानों को नरेंद्र मोदी नहीं चाहिए इसलिए हमें भी नहीं चाहिए यह उनका सीधा-सा गणित है।

लेकिन ये मुख्यमंत्री यह बात सीधे-सीधे नहीं कहते। सीधी-सपाट बात करना उन्हें मुश्किल में डाल सकता है। इसलिए वे नरेंद्र मोदी, ग्ाुजरात का दंगा, उनका साम्प्रदायिक एजेंडा आदि मुद्दे उठाकर अपनी राय प्रकट करते हैं। नरेंद्र मोदी नहीं चलेंगे यह बात पहले भी वे कई बार कह चुके हैं और अब तो भाजपा से तलाक भी ले चुके हैं। हाल में बिहार में लोकसभा की एक सीट के लिए उपचुनाव हुआ और इसमें नीतिश कुमार का उम्मीदवार एक लाख से अधिक वोटों से हार गया। उस निर्वाचन क्षेत्र के मुसलमान मतदाताओं ने नीतिश कुमार के उम्मीदवार को परास्त किया। मुसलमानों का नीतिश कुमार को यह संकेत है। इस कारण बेचारे नीतिश कुमार घबराए हुए हैं। इसी कारण उन्हें भाजपा से अलग होने की जल्दी हो गई लगता है।

नवीन कुमार पटनायक और ममता बैनर्जी का गणित इससे अलग नहीं है। मुसलमानों के वोट पाने के लिए नवीन पटनायक ने कुछ साल पहले ही भाजपा का साथ छोड़ दिया। पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के वोटों के लिए ममता बैनर्जी ने भाजपा को साथ नहीं लिया। जयललिता भी मुस्लिम वोटों का मोह छोड़ नहीं सकती। इन चारों मुख्यमंत्रियों ने तीसरे मोर्चे का मुद्दा फिर से उठाया है। उन्हें भाजपा नहीं चाहिए और कांग्रेस भी नहीं। इनमें से हरेक को यह लगना स्वाभाविक है कि अपने राज्यों के मुस्लिम मतदाताओं के बल पर वे लोकसभा में अधिक सीटें पा लेंगे और इन अधिक सीटों के बल पर प्रधान मंत्री पद पा सकते हैं। जिस देश में देवेगौड़ा प्रधान मंत्री बन सकते हैं, इंद्रकुमार ग्ाुजराल प्रधान मंत्री बन सकते हैं वहां ममता, जयललिता, नीतिश कुमार, नवीन पटनाईक क्यों नहीं बन सकते? देवेगौड़ा के मुकाबले इनमें से हरेक को उनके राज्य में कम से कम आजतक अच्छा जनसमर्थन प्राप्त है।

तीसरे मोर्चे का विषय भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्रहित की द़ृष्टि से अत्यंत बुरा है। पहले यह देखें कि लोकतंत्र की द़ृष्टि वह किस तरह बुरा है। भारतीय राजनीतिक लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र है। संसदीय प्रणाली सफल होने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर काम करने वाले दो या तीन प्रभावी दल अत्यंत आवश्यक होते हैं। किसी एक दल के नेतृत्व में सरकार का गठन सब से अच्छी स्थिति है। यदि ऐसी स्थिति न हो तो किसी एक ही अखिल भारतीय स्तर के दल के नेतृत्व में साझा सरकार का गठन पहले के बनिबस्त ठीक है। वैसे हमारे देश में संमिश्र सरकारों के गठन को 22-23 वर्षों का समय बीत चुका है। 2014 के चुनाव में भी अकेली कांग्रेस अथवा भारतीय जनता पार्टी अपनी ताकत के बल पर सरकार नहीं बना पाएगी। उन्हें मोर्चा सरकार का ही गठन करना होगा।

तीसरा मोर्चा क्षेत्रीय दलों का साझापन है। इन क्षेत्रीय दलों को अखिल भारतीय मान्यता नहीं है। उन्हें अखिल भारतीय द़ृष्टि भी नहीं है। इसलिए वैश्विक द़ृष्टि होने की संभावना भी कम ही है। आज की राजनीति केवल देश की सीमाओं के भीतर ही सीमित नहीं होती। राजनीति की सीमाएं अंतरराष्ट्रीय होती हैं। जो प्रधान मंत्री होगा उसे वैश्विक राजनीति की अच्छी जानकारी होनी चाहिए। डॉ. मनमोहन सिंह को भले कोई क्षेत्रीय आधार न हो, लेकिन उन्हें वैश्विक राजनीति की समझ नहीं है, ऐसा उनका विरोधी भी नहीं कह सकेगा। नीतिश कुमार, ममता, नवीन पटनायक को अखिल भारतीय द़ृष्टि नहीं है और वैश्विक द़ृष्टि होने की संभावना नहीं है।

तीसरे मोर्चे का समर्थन करना संसदीय लोकतंत्र को कमजोर बनाना ही है। इससे देश भी दुर्बल होगा। पटनायक, ममता, नीतिश कुमार अपने- अपने राज्यों में माओवादी हिंसा रोक नहीं सकते, वे देश में आतंकवाद के खिलाफ कैसे लड़ेंगे? नीतिश कुमार बिहार से महाराष्ट्र में आने वाले लोगों की ब़ाढ़ नहीं रोक पाते। जो अपने ही राज्य में रोजगार के अवसर पैदा नहीं कर सकते, वे देश में रोजगार के अवसर कैसे पैदा करेंगे? संसदीय लोकतंत्र में यह घातक है कि क्षेत्रीय दल इतने ताकतवर हो जाए कि केंद्र को आंख दिखाए। यह तीसरा मोर्चा हमेशा के लिए अस्थिरता को जन्म देगा। राजनीतिक अस्थिरता विकास और देश की सुरक्षा के लिए अत्यंत खतरनाक होती है।

राष्ट्रहित का विचार करें तो तीसरा मोर्चा जिस विचारधारा पर बनना है वह विचारधारा देश के समक्ष संकटों की श्रृृंखला पैदा कर देगी। तीसरे मोर्चे का मुख्य बल मुसलमानों के वोटों पर है। मुस्लिम मतदाताओं के हाथ में सत्ता की चावियां सौंपने का यह खेल देश को संकट में डालेगा। कांग्रेस ने 1947 के प्ाूर्व मुस्लिम राजनेताओं को विभिन्न रियायतें दीं और उन्हें नकाराधिकार भी दिया। आज इस तरह का नकाराधिकार भले न दिया गया हो लेकिन मुसलमान मतदाताओं ने अपनी मतदान शक्ति के आधार पर वह अपनी ओर खिंच लिया है। जिसे चाहे उसे सत्ता पर लाने की राजनीतिक शक्ति मतपेटियों के माध्यम से उन्होंने प्राप्त की है। लोकतंत्र के माध्यम से प्राप्त की है। यह शक्ति साम्प्रदायिक है। यह शक्ति श्ाुध्द रूप से राजनीतिक शक्ति नहीं है। धार्मिक अर्थ में वह साम्प्रदायिक शक्ति है। मुस्लिम साम्प्रदायिकता हमेशा हिंदुओं के विरोध में होती है। यह उसका दीर्घ इतिहास है। इस इतिहास जानने के लिए पाठक विभाजन पर किसी भी प्ाुस्तक का अवलोकन कर सकते हैं। यहां तक कि शेषराव मोरे की मराठी पुस्तक ‘अखंड भारत का नाकारला?’ भी पढ़ी जा सकती है।
नीतिश कुमार, ममता बैनर्जी, नवीन पटनायक, जयललिता, मायावती आग से खेलने की राजनीति कर रहे हैं। सत्ता का तात्कालिक लाभ पाने के लिए वे सत्ता का नकाराधिकार साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ में दे रहे हैं। आज सफलता मिल रही है इसलिए इन लोगों को मजा आ रहा है, लेकिन कल जब यह साम्प्रदायिकता की आग झुलसाने लगेगी तब क्या होगा? इस बारे में सोचने की आवश्यकता ये राजनीतिज्ञ महसूस नहीं कर रहे हैं। दुर्भाग्य से इनमें से किसी के पास भी राष्ट्रहित की दीर्घकालिन द़ृष्टि नहीं है। वे चुनाव से लेकर चुनाव तक ही विचार करते रहेंगे।

इस पार्श्वभूमि में नरेंद्र मोदी के बारे में विचार करना चाहिए। जनता ने उन्हें स्वीकार किया है यह सच है लेकिन इसका रू पांतर मतपेटी में होना चाहिए। सामान्य मतदाता इस देश की राजनीति कैसे चलती है, मुस्लिम साम्प्रदायिकता किस तरह बढ़ाई जा रही है, उनके हाथों में किस तरह नकाराधिकार जा रहा है इन बातों पर बहुत नहीं सोचेंगे। ऐसी आदत नहीं होती और वैसा कोई उन्हे बताता भी नहीं है। यह बताने का काम दल के कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। यह काम केवल दल के कार्यकर्ताओं का ही नहीं है अपित़ु देशहित की जो भी चिंता करता है ऐसे हरेक का यह कार्य है।

सत्ता की चावियां साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथ में नहीं जानी चाहिए। ये चावियां उन्हीं लोगों के हाथ में रहनी चाहिए जो भारत को अपनी मातृभूमि मानता हो, इसे भारतमाता मानता हो, स्वयं को उसकी संतान मानता हो और अपनी माता को विश्व गौरव दिलाने की कोशिश में लगा हो। जो इस तरह की श्रध्दा रखते हो उन्हें जनता की सहानुभूति का रू पांतर मतपेटी में करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। कांग्रेस का भष्टाचार, बढ़ती प्रचंड मंहगाई, सोनिया गांधी की घरानेशाही के प्रति जनता के मन में भारी असंतोष है ही, लेकिन ध्यान में रखना चाहिए कि ये मुद्दे चुनाव को निर्णायक मोड़ देने वाले नहीं बन सकते। चुनाव को निर्णायक मोड़ देने की ताकत इन सवालों में है कि देश की सत्ता किसके हाथ में हो?, वह राष्ट्रभक्तों के हाथ में हो कि साम्प्रदायिक लोगों के हाथ में? ये मुद्दे चुनाव के दौरान किस तरह रखे, मोदी ने ग्ाुजरात में किस तरह रखे इसका चुनाव प्रचार के दौरान भाषण करने वालों को अध्ययन करना चाहिए। मतदान के लिए जाने के पहले ही मतदाता की राय, किसे वोट दें यह तय कराना संभव होना चाहिए।

ध्यान रहे कि 2014 का चुनाव भारत के भविष्य पर दीर्घकालिन प्रभाव छोड़ने वाला है। प्रश्न केवल नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनाने भर का नहीं है, एक विचारधारा को विजयी बनाने का है। यह बात हरेक के जेहन में हमेशा होनी चाहिए।
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