घटती आर्थिक वृद्धि दर

स्वतंत्रता के बाद के तीन दशकों तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर अन्य एशियाई देशों की तुलना में इतनी कम (लगभग 1.5 प्रतिशत) बनी रही कि अर्थशास्त्रियों ने उसे ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रेथ’ जैसा नाम देने में भी संकोच नहीं किया।

देश की आर्थिक वृद्धि दर में लगातार होने वाली गिरावट चर्चा का ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। हो भी क्यों न, क्योंकि यह एक निश्चित अवधि के दौरान याने एक वर्ष में देश के सकल उत्पादन में होने वाले परिवर्तन को व्यक्त करता है। यदि आर्थिक वृद्धि की वार्षिक दर बढ़ रही होती है तो इसका मतलब अधिक उत्पादन, अधिक रोजगार तथा अधिक खुशहाली के रूप में सामने आता है और इसमें गिरावट होती है तो इसके विपरीत होने वाले परिणाम निश्चित रूप से चिन्ता को जन्म देते हैं।

आर्थिक वृद्धि की माप अक्सर वास्तविक सकल घरेलू उत्पादन या रियल जी.डी.पी. में होने वाली प्रतिशत वृद्धि के रूप में की जाती है। रियल जी.डी.पी. में किसी एक वर्ष में देश में उत्पादित समस्त वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को विचार में लिया जाता है । मुद्रा प्रसार के प्रभाव को इसमें शामिल नहीं किया जाता।

भारत में जी.डी.पी. की वृद्धि दर को प्रभावित करने वाले मुख्य तीन क्षेत्र अर्थात कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र का जी.डी.पी. में योगदान क्रमश: 17 प्रतिशत, 29 प्रतिशत और 54 प्रतिशत है। जी.डी.पी. में सेवा क्षेत्र का सर्वाधिक योगदान स्पष्टत: देखा जा सकता है। लेकिन, जहां तक रोजगार का सवाल है, सबसे ज्यादा रोजगार कृषि क्षेत्र ने ही दिया हुआ है।

स्वतंत्रता के बाद भारत ने मिश्रित अर्थ व्यवस्था को अपनाया जो न तो पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था है और न ही समाजवादी। शुरुआत में संरक्षणवाद, लालफीताशाही और लाइसेंसराज, जैसे प्रमुख कारणों से भारतीय अर्थ व्यवस्था की वृद्धि दर काफी कम बनी रही। स्वतंत्रता के बाद के तीन दशकों तक भारत की आर्थिक वृद्धि दर अन्य एशियाई देशों की तुलना में इतनी कम (लगभग 1.5 प्रतिशत) बनी रही कि अर्थ शास्त्रियों ने उसे ‘हिंदू रेट ऑफ ग्रेथ’ जैसा नाम देने में भी संकोच नहीं किया।

वर्ष 1991 में जब देश ने भू-मण्डलीकरण और उदारीकण की नीति अपनायी तो पूरी अर्थ व्यवस्था ने एक नयी करवट ली। औसतन 1.63 प्रतिशत रहने वाली जी.डी.पी. वृद्धि दर दिसम्बर 2003 में बढ़कर 5.80 प्रतिशत तक जा पहुंची जो तब तक की सबसे ऊंची दर थी। वर्ष 2007 और 2008 के दौरान तो यह 9.0 से 9.20 प्रतिशत के उच्च स्तर तक जा पहुंची। यह कहा जाने लगा कि इस तीव्र गति से वृद्धिगत अर्थ व्यवस्था के बल पर भारत शीघ्र ही विश्व की तीसरी बड़ी शक्ति के रूप में गिना जाने लगेगा। वर्ष 1999 में दुनिया की जानी‡मानी रेटिंग कंपनी गोल्डमेन सेच्स ने भारत की विभिन्न अवधियों में 5.3 से 6.1 प्रतिशत की अपेक्षित जी.डी.पी. वृद्धि को विचार में लेते हुए अपनी एक रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया था कि भारत वर्ष 2020 तक इटली की अर्थ व्यवस्था से और वर्ष 2025 तक जर्मनी, ब्रिटेन और रूस की अर्थ व्यवस्था से आगे निकल जाएगा तथा वर्ष 2035 तक जापान को भी पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी बड़ी अर्थ व्यवस्था बन जाएगा। लेकिन जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, वर्ष 2007‡2008 के दौरान भारत की वास्तविक जी.डी.पी. वृद्धि दर 9.0 से 9.20 प्रतिशत के उच्च स्तर तक पहुंच गयी थी। इस हिसाब से भारत बहुत तेजी से आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हो रहा था।

समस्त विश्व भारत की इस प्रगति को हैरत से देख रहा था कि तभी यह वृद्धि दर कम होने लगी। वर्ष 2011‡12 में यह घटकर 6.2 प्रतिशत पर तथा 2012‡13 में और घटकर 5 प्रतिशत पर आ गयी। इस प्रकार तीन वर्षों के दौरान जी.डी.पी. वृद्धि दर घटकर आधी रह गयी। दिसम्बर 2012 को समाप्त तिमाही में तो यह और घटकर 4.7 प्रतिशत ही रह गयी। वर्ष 2013‡14 के लिए भारत सरकार ने यह अनुमान लगाया है कि इस स्थिति में सुधार होगा और यह दर 6.1 से 6.7 प्रतिशत के बीच रहेगी, लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ने 5.7 प्रतिशत तक की वृद्धि का ही अनुमान लगाया है। कई अर्थशास्त्री और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाएं तो इससे भी कम वृद्धि दर का अनुमान लगा रही हैं।
प्रश्न यह उठता है कि 9.20 प्रतिशत की उच्च वृद्धि दर हासिल करने के बाद हमारी वास्तविक जी.डी.पी. वृद्धि दर लगातार क्यों गिरती गयी है। इसके लिए अनेक कारण गिनाये जा सकते हैं। आइए, हम इसके लिए जिम्मेदार कुछ मुख्य कारणों पर एक नजर डालते हैं।

आर्थिक सुधारों की धीमी गति‡ वर्ष 1991 में देश में आर्थिक सुधारों की नींव रखी गयी थी और उन्हें तेजी से लागू करने के लिए साहसी निर्णय लिये गए थे। इससे भारत की डगमगाती आर्थिक स्थिति पटरी पर आ गयी थी। पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक सुधारों की गति काफी मंद पड़ गयी जिसके परिणाम स्वरूप विदेशी निवेश में कमी आयी है और इसका दुष्परिणाम जी.डी.पी. में गिरावट के रूप में सामने आ रहा है।

बढ़ती मुद्रा स्फीति‡ बढ़ती मुद्रा स्फीति के दौर ने महंगाई में जबरदस्त इजाफा किया है। इससे एक ओर वस्तुओं और सेवाओं की मांग में कमी आयी है, तो दूसरी ओर उत्पादन के साधन भी महंगे हुए हैं। इसके परिणाम स्वरूप विशेषकर औद्योगिक उत्पादन में कमी परिलक्षित हुई है।

कड़ी (हॉकिश) मौद्रिक नीति‡ बढ़ती मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण पाने के लिए रिजर्व बैंक को अपनी नीतिगत दरों में लगातार वृद्धि करनी पड़ी है। इससे जहां बैंकों से ऋण लेना महंगा हो गया और उत्पादन तथा उससे सम्बन्धित गतिविधियों पर विपरीत असर पड़ा, वहीं विशेषकर रियाल्टी क्षेत्र की प्रभावी मांग में भी कमी आयी।

सरकार के बजट घाटे में वृद्धि‡ आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने सम्बन्धी निर्णय लेने में देरी के कारण सब्सिडी का भारी बोझ उठाने तथा खर्चों पर नियंत्रण न रख पाने के कारण सरकार के बजट घाटे में लगातार वृद्धि होती रही है। इसका परिणाम महंगाई बढ़ने के रूप में सामने आया है। महंगाई किसी भी रूप में क्यों न हो, मांग में कमी लाने और उत्पादन लागत में वृद्धि का कारण बनती है।

प्राकृतिक अपदाएं‡ ग्रीन हाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण पूरी पृथ्वी गर्म हो रही है और मौसम के मिजाज में भारी बदलाव परिलक्षित हो रहे हैं। ऐसे इलाकों में बाढ़ देखी जा रही है, जहां सूखा पड़ता था और सूखे वाली जगहों में बाढ़ की स्थिति देखी जा रही है। बेहद गर्मी और बेहद सर्दी ने लोगों का जीवन दूभर कर दिया है। भूकंप की आवृत्ति और उससे होने वाला विनाश भी पहले की तुलना में बढ़ता जा रहा है। प्राकृतिक आपदाओं में अभूतपूर्व वृद्धि और मौसम के बदलते मिजाज के कारण कृषि और उससे सम्बन्धित कार्यकलापों पर तो बुरा असर पड़ना अवश्यम्भावी है ही, आर्थिक गतिविधियों के संचालन में भीबड़ी बाधा उत्पन्न होती है।

वैश्विक मंदी का प्रभाव‡ वैश्वीकरण के इस युग में किसी भी अन्य देश में घटने वाली घटनाओं का असर होना स्वाभाविक है। अमेरिका और यूरोप सहित विश्व के अधिकांश देशों ने हाल ही में भयानक आर्थिक मंदी का दौर देखा है। भारत भी इसके दुष्परिणामों से अछूता नहीं रहा और इससे हमारी जी.डी.पी. की वृद्धि दर पर भी कुछ विपरीत असर पड़ा।

निवेश में कमी‡ निरंतर उजागर होते भ्रष्टाचार और घोटालों ने देशी और विदेशी निवेशकों के विश्वास को प्रभावित किया है, इससे निवेश में कमी महसूस की जा रही है और उत्पादन पर प्रतिकूल असर हुआ है।

आर्थिक वृद्ध दर में जो गिरावट दिखायी दी है, वह कृषि, निर्माण और खदान क्षेत्र में खराब प्रदर्शन के कारण हुई है, अत: इन क्षेत्रों में उत्पादन को गति देने के लिए विशेष प्रयास किये जाने होंगे। उदाहरण के लिए कृषि विपणन के क्षेत्र में सुधारों को गति दी जानी होगी, कोयला क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा लागू करने के लिए त्वरित कदम उठाने होंगे और निर्माण क्षेत्र में निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष उपाय शुरू करने होंगे।
देश में बुनियादी सुविधाओं में तत्काल निवेश बढ़ाये जाने की जरूरत है। सड़क, रेल, बंदरगाह, बिजली, पानी और आई. टी. नेटवर्क जैसे बुनियादी साधनों में वृद्धि होने से उद्योग‡धंधे विकसित होते हैं, उत्पादन और विपणन में सहायता मिलती है तथा दूर‡दराज के क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि होती है। यहां यह उल्लेख किया जाना प्रासंगिक होगा कि रोजगार की वृद्धि से प्रभावी मांग बढ़ने के कारण सभी क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। इसे देखते हुए बुनियादी सुविधाओं के लिए निधियां जुटाने और उनका सही इस्तेमाल करने के लिए उपयुक्त ढांचा विकसित किया जाना समय की मांग है।

हमारे देश में जन-बल की कोई कमी नहीं है, उत्पादन के इस प्रचुर साधन की उपलब्धता का लाभ उठाये जाने के लिए ठोस योजनाएं बनाने और उनका सही कार्यान्वयन करने के लिए नयी सोच के साथ सकारात्मक पहल की आवश्यकता है। उत्पादक कार्यों के लिए इसका इस्तेमाल करके आर्थिक वृद्धि में आसानी से इजाफा किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में ग्रमीण क्षेत्र में रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं का बेहतर कार्यान्वयन किया जाना भी जरूरी होगा।

आर्थिक सुधार अपनाये जाने के बाद हमारी आर्थिक वृद्धि दर में उल्लेखनीय सुधार परिलक्षित हुआ था। इसकी धीमी गति में तेजी लानी होगी। अर्थ व्यवस्था को और विनियमित करना होगा। वस्तुओं और सेवा कर जैसे कर क्षेत्रों में सुधारों को लागू किया जाना होगा। नागरिक विमानन और बहु ब्रांड रिटेल जैसे क्षेत्र में विदेशी सीधे निवेश सम्बन्धी नीति में सकारात्मक रुख अपनाया जाना होगा। बुनियादी सुविधाओं में विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के और भी अच्छे परिणाम सामने आएंगे।

बढ़ते सरकारी खर्च और राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है। ऐसे क्षेत्रों में सरकारी खैरात पर रोक लगायी जानी होगी, जहां इसका लाभ गरीबों को नहीं, अमीरों को मिलता हो। चालू खाते का घाटा भी सकल घरेलू उत्पादन के 6.7 प्रतिशत के उच्च स्तर पर जा पहुंचा है। इसे कम करने के लिए सघन प्रयास किये जाने होंगे।

आर्थिक विकास शिक्षित और स्वस्थ जनता के बल पर ही हो सकता है। यह देखा गया है कि जिन देशों में शिक्षा और स्वास्थ्य का स्तर ऊंचा है, वहां जी.डी.पी. वृद्धि दर भी ऊंची है। अत: इस सम्बन्ध में योजनाबद्ध कदम उठाये जाने होंगे।

सच तो यह है कि सिर्फ नीतियां और योजनाएं बनाना ही पर्याप्त नहीं होता, उनका कुशल कार्यान्वयन भी जरूरी है। इसलिए लालफीताशाही और भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों को समाप्त करना भी हमारी प्राथमिकता‡सूची में होनी चाहिए।

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