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प्रजा परिषद आन्दोलन के साठ साल

प्रजा परिषद आन्दोलन के साठ साल

by डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
in अगस्त-२०१३, सामाजिक
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जम्मू-कश्मीर के पिछले छह दशकों के इतिहास में दो आन्दोलन सर्वाधिक महत्वपूर्ण आन्दोलन कहे जा सकते हैं। मुस्लिम कान्फ्रेंस/नैशनल कान्फ्रेंस का 1931 से लेकर किसी न किसी रूप में 1946 तक चला, महाराजा हरि सिंह के शासन के खिलाफ आन्दोलन, जिसका अन्तिम स्वरूप ‘डोगरो कश्मीर छोडो’ में प्रकट हुआ। 1947 से लेकर 1953 तक चला प्रजा परिषद का आन्दोलन, जो जम्मू-कश्मीर राज्य के लोकतंत्रीकरण और उसके संघीय सांविधानिक व्यवस्था में एकीकरण के लिये चलाया गया था। इसकी अन्तिम परिणति तत्कालीन जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर की जेल में रहस्यमय मृत्यु और राज्य के उस समय के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के पतन में हुई। इन दोनों आन्दोलनों ने राज्य के इतिहास और राजनीति की धारा बदल दी। परन्तु आश्चर्य होता है। कि मुस्लिम कान्फ्रेंस/नैशनल कान्फ्रेंस के आन्दोलन का इतिहास केवल लिखा ही नहीं गया बल्कि अकादमिक जगत में उसका गंभीर विश्लेषण भी हुआ है। लेकिन इसके विपरीत प्रजा परिषद के आन्दोलन के विश्लेषण और उसके प्रभावों की बात तो छोड़िए, उसका आज तक कोई सिलसिलेवार इतिहास तक नहीं लिखा गया। जबकि ये दोनों आन्दोलन और उन में उठाये गये मुद्दे आज भी किसी न किसी रूप में राज्य की राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं। अकादमिक जगत द्वारा प्रजा परिषद आन्दोलन की अवहेलना का मुख्य कारण 1947 के बाद राज्य की राजनीति का पूर्ण रूप से कश्मीर केन्द्रित हो जाना भी हो सकता है। राज्य की राजनीति में प्रजा परिषद का जन्म रियासत द्वारा 26 अक्तूबर 1947 को संघीय सांविधानिक व्यवस्था स्वीकार लेने के कुछ दिन बाद ही 17 नबम्बर 1947 को हुआ था।

प्रजा परिषद का आन्दोलन एक प्रकार से अपने जन्म काल से ही शुरू हो गया था। 1948 का समय तो पाकिस्तान द्वारा कब्जा किये गये राज्य के हिस्सों से विस्थापित होकर आने वाले लोगों को बसाने और उनकी सहायता करने में बीता। इसके साथ ही प्रजा परिषद केन्द्र सरकार पर यह दबाव भी बनाये हुये थी कि पाकिस्तानी सेना द्वारा कब्जे में लिये गये जम्मू संभाग के हिस्सों को भी खाली करवाया जाये। क्योंकि कश्मीर संभाग को खाली करवा लेने के बाद, जम्मू संभाग के पंजाबी भाषी क्षेत्रों मसलन पुंछ जागीर, मीरपुर कोटली इत्यादि को खाली करवाने में शायद केन्द्र सरकार ढिलाई दिखा रही थी। लेकिन राज्य के लोगों को सबसे ज्यादा हैरानी तो तब हुई जब केन्द्र सरकार पाकिस्तान के कब्ज़े में गये जम्मू संभाग के क्षेत्रों, मुजफ्फराबाद और बलतीस्तान समेत गिलगित को ख़ाली करवाने की बजाय मसले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ही नहीं ले गई बल्कि प्रथम जनवरी 1949 को युद्ध विराम की घोषणा भी कर दी। अब तक यह भी स्पष्ट होने लगा था कि इस युद्ध विराम की नीति में राज्य के उस समय के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला भी शामिल थे। इतना ही नहीं शेख अब्दुल्ला और नेहरू दोनों ने ही कहना शुरू कर दिया कि लोग रियासत के भारत में विलय को नकार भी सकते हैं। जबकि सांविधानिक स्थिति ऐसी नहीं थी। जनता की राय जान लेने का आश्वासन रियासत की जनता को दिया गया था, इसमें कोई विवाद नहीं था। इसकी चर्चा नेहरू और अब्दुल्ला दोनों बार बार करते भी रहते थे। लेकिन यह आश्वासन केवल जम्मू-कश्मीर को नहीं दिया गया था, भारत सरकार की यह नीति सभी रियासतों के लिये थी। इसका अर्थ केवल इतना ही था कि अब रियासतों में भी लोगों की सरकार होगी, लोकतान्त्रिक सरकार होगी। राजशाही की जगह लोकशाही होगी। लेकिन नेहरू और शेख ने जम्मू कश्मीर के मामले में यहां तक कहना शुरू कर दिया कि राज्य भारत से अलग होने और पाकिस्तान में शामिल होने तक का निर्णय ले सकता है। जबकि संघीय संविधान में देश से अलग होने का कोई प्रावधान नहीं है। जाहिर है राज्य के लोगों में इन घोषणाओं से आशंका बढ़ी।

प्रजा परिषद आन्दोलन के उस समय जो मुद्दे थे वे आज भी उतने ही प्रासांगिक हैं। जहां तक रियासत द्वारा नयी संघीय सांविधानिक व्यवस्था को स्वीकारने का प्रश्न था उस प्रश्न पर नैशनल कांफ्रेंस और प्रजा परिषद में कोई मतभेद नहीं था। रियासत नयी संघीय साविधानिक व्यवस्था के किन उपबंधों को अंगीकार करेगी, इसका निर्णय भी रियासत के उस समय के शासक महाराजा हरि सिंह ने नहीं किया था बल्कि यह केन्द्र के गृह मंत्रालय का निर्णय था। इस निर्णय के अंतर्गत ही रियासत ने सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार से जुड़े संघीय संविधान के उपबंधों को स्वीकार किया था। गृह मंत्रालय ने यह निर्णय केवल जम्मू‡कश्मीर रियासत के लिए नहीं किया था बल्कि देश की अन्य रियासतों के लिए भी यही निर्णय हुआ था। कालान्तर में रियासतों के प्रतिनिधियों और गृह मंत्रालय ने आपसी विचार‡विमर्श से यह तय किया कि रियासतों में संघीय सांवैधानिक व्यवस्था के सभी उपबंध पूर्ण रूप से लागू होंगे।

लेकिन नैशनल कांफ्रेंस ने यह स्टैंड ले लिया कि राज्य में नयी संघीय सांविधानिक व्यवस्था के उपरोक्त तीन विषयों सुरक्षा, विदेशी मामले और संचार संबंधी उपबंध ही लागू होंगे, शेष मामलों में राज्य अपना अलग संविधान बनाएगा। यह राज्य सरकार की इच्छा पर निर्भर होगा कि नयी संघीय सांविधानिक व्यवस्था के अन्य विषयों से ताल्लुक रखने वाले उपबंध राज्य में लागू होंगे या नहीं। राज्य सरकार की सहमति से संघीय संविधान के अन्य उपबंधों को राज्य में लागू करने के लिए संविधान में एक अतिरिक्त प्रक्रिया निश्चित की गई जिसे संविधान की धारा‡370 कहा गया। इसके अनुसार राज्य सरकार के अनुरोध करने पर राष्ट्रपति कार्यकारी आदेश द्वारा ही संविधान के अन्य उपबंधों को उनके मूल स्वरूप में या संशोधित स्वरूप में राज्य में लागू कर सकते हैं। इन्हीं सब मुद्दों पर प्रजा परिषद और नैशनल कान्फ्रेंस का विवाद और मतभेद गहराया

26 जून 1950 को भारत में नया संविधान लागू हो गया और अब भारत एक डोमिनियन न रह कर गणतंत्र बन गया। जम्मू कश्मीर संविधान सभा का गठन हुआ और उसने राज्य के लिये नया संविधान बनाना शुरू कर दिया। इस मसले पर दो मित्रों पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने आपसी बातचीत द्वारा ही राज्य का भावी संविधान तय करना शुरू किया। इस पर विवाद होना ही था। नेहरू और शेख की राज्य के संविधान के भावी स्वरुप को लेकर यह बातचीत इतिहास में 1952 की बातचीत या दिल्ली समझौता या दिल्ली वार्ता के नाम से प्रसिद्ध है। इस वार्ता में इन दोनों महानुभावों ने ही तय कर लिया कि राज्य में निर्वाचित प्रधान होगा, अलग ध्वज होगा। राज्य में उच्चतम न्यायालय, महालेखाकार, चुनाव आयोग का अधिकार क्षेत्र नहीं होगा। नेहरू शेख वार्ता ने राज्य के लोगों के धैर्य का बांध तोड़ दिया। जम्मू संभाग, लद्दाख संभाग, गुज्जर, बक्करबाल, पहाड़ी, जनजाति समाज और शिया समाज सभी सड़कों पर उतर आये। इसके बाबजूद प्रजा परिषद ने प्रयास किया कि एक बार नेहरू से इस विषय पर बात की जाये और उनके सामने नैशनल कान्फ्रेंस के समर्थक, कश्मीर घाटी के सुन्नी मुसलमानों को छोड़ कर राज्य के बाकी लोगों का पक्ष भी रखा जाये। लेकिन नेहरू प्रजा परिषद से बात करने तक के लिये तैयार नहीं थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू को बार बार पत्र लिखे कि वे कम से कम एक बार प्रजा परिषद के प्रधान पंडित प्रेमनाथ डोगरा से मिल तो लें। लेकिन नेहरू के राज हठ में वे सब पत्र जल कर स्वाहा हो गये। हद तो तब हो गई जब जम्मू-कश्मीर संविधान सभा ने संघीय संविधान के प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुये 14 नबम्बर 1952 को राज्य के राजप्रमुख के पद को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर निर्वाचित प्रधान की व्यवस्था लागू कर दी। जबकि यह अधिकार संसद को था किसी राज्य की विधान सभा को नहीं। लेकिन अभी एक और आश्चर्य बाकी था। नेहरू ने इस गैर सांविधानिक कृत्य का विरोध करने की वजाये राष्ट्रपति पर दबाव डाला कि वे धारा 370 के अन्तर्गत इस असंवैधानिक कार्य को स्वीकृति प्रदान करें। अब साफ हो गया था कि नेहरू और शेख मिल कर राज्य में राजशाही की जगह शेखशाही स्थापित कर रहे थे। जम्मू‡कश्मीर राज्य में केवल अलग संविधान ही नहीं बना बल्कि राज्यपाल के स्थान पर निर्वाचित प्रधान की व्यवस्था की गई और इसी प्रकार राज्य के लिए अलग ध्वज भी निश्चित किया गया। प्रजा परिषद और नैशनल कांफ्रेंस में इन सभी मुद्दों पर बुनियादी मतभेद था। प्रजा परिषद का मानना था कि जैसे अन्य राज्यों में नयी संघीय सांविधानिक व्यवस्था पूर्ण रूप से लागू है उसी प्रकार जम्मू‡कश्मीर राज्य में भी लागू होनी चाहिये। जाहिर है यदि जम्मू‡कश्मीर में नयी संघीय सांविधानिक व्यवस्था पूर्ण रुप से लागू हो जाती है तो संविधान की धारा‡370 की भी जरूरत नहीं रहेगी, न ही राज्य में निर्वाचित प्रधान हो सकता है, और न ही उसका अपना अगल ध्वज। राज्य में अलग संविधान भी स्वत: समाप्त हो जायेगा। इन सभी मुद्दों को लेकर प्रजा परिषद ने 14 नबम्बर 1952 को राज्य में व्यापक आंदोलन प्रारम्भ कर दिया।

यह आन्दोलन एक प्रकार से जन आन्दोलन था। जल्दी ही यह जम्मू संभाग के गांव गांव तक में फैल गया। इसमें हिन्दु मुसलमान सभी लोग शामिल थे। हजारों लोगों ने आगे बढ़कर गिरफ्तारियां दीं और पुलिस के अमानुषिक अत्याचारों को सहा। राज्य सरकार ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिये बहुत जोर जुल्म किया। उन दिनों राज्य में कश्मीर मिलिशिया के नाम से पुलिस बल हुआ करता था। यह बल एक प्रकार से शेख अब्दुल्ला की प्राइवेट सेना ही थी। इस सेना को जम्मू में बुला लिया गया था। पंजाब पुलिस भी राज्य में लगा दी गई थी। मिलिशिया के सिपाही लोगों के घरों में घुस जाते थे। औरतों का अपमान और बलात्कार तक किया गया। सरकार ने सत्याग्रहियों की सम्पत्तियां कुर्क कर दीं। पशु तक नीलाम करवा दिये गये। सत्याग्रहियों को तुरत फुरत लम्बी लम्बी सजाएं सुना दी गईं। लेकिन सरकार के इन सारे अत्याचारों के बावजूद आन्दोलन दबने की बजाय फैलता गया। गांव गांव में लोग स्वत: स्फूर्ति से, हाथ में तिरंगा लेकर, छाती पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का चित्र लगा कर और दूसरे हाथ में भारत का संविधान लेकर जय घोष कर रहे थे..एक देश में दो निशान, दो प्रधान, दो विधान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। लोग सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा लहराने की कोशिश करते और मिलिशिया के सिपाही वहां से तिरंगा गिराने की कोशिश करते। तिरंगे को रोकने के लिये राज्य पुलिस ने अनेक जगह गोलियां चला दीं। पन्द्रह सत्याग्रही शहीद हो गये, लेकिन आन्दोलन थमा नहीं। वास्तव में यह आन्दोलन देश विभाजन के बाद भी बचे खुचे अलगाववाद और राष्ट्रवाद के बीच था। राष्ट्रवाद के पक्ष में जम्मू-कश्मीर के लोग भी अपने हिस्से की आहूति डाल रहे थे। इस आन्दोलन का दूसरा स्वरूप राज्य में लोकशाही बनाम शेखशाही का था। लेकिन लोगों को नेहरू की भूमिका सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित करती थी। उन्होंने राज्य के लोगों की राय जानने का वायदा किया था। उसका अर्थ यही था कि राज्य में लोकशाही स्थापित की जायेगी। लेकिन अब जब लोग उसके लिये लड़ रहे थे तो नेहरू लोकशाही की बजाय शेखशाही के साथ चले गये थे।

नेहरू चाहे शेखशाही के साथ चले गये थे, परन्तु देश की आम जनता जम्मू कश्मीर में लोकशाही के पक्ष में खड़ी थी। प्रजा परिषद के आन्दोलन के पक्ष में कुछ राजनैतिक व सामाजिक संगठनों ने मिल कर एक संयुक्त संघर्ष समिति का गठन कर लिया, जिसने जम्मू- कश्मीर में लोकशाही के पक्ष में आन्दोलन छेड़ दिया। जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी समिति की ओर से राज्य में मौ़के पर जा कर वस्तुस्थिति का अध्ययन करने के लिये जम्मू गये, लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें सीमा पर ही बंदी बना लिया और श्रीनगर की जेल में भेज दिया। कुछ दिनों उपरान्त 23 जून 1953 को जेल में ही उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। डॉ. मुखर्जी ने लोगों की इच्छा जानने के संकल्प की पूर्ति करते हुये राज्य में लोकशाही की स्थापना हेतु, अलगाववाद के विरोध में अपनी शहादत दे दी थी। लेकिन उनकी इस शहादत से शेखशाही का असली चेहरा भी सामने आ गया। सात जुलाई को प्रजा परिषद ने अपना अपना आन्दोलन वापस ले लिया और संघर्ष का स्वरूप बदल दिया। शेखशाही के इस सांविधानिक स्वरूप को लेकर नैशनल कान्फ्रेंस में ही विवाद हो गया और शेख अब्दुल्ला अपनी पार्टी में भी अकेले पड़ गए और उनकी सरकार का पतन हो गया। प्रजा परिषद के आंदोलन के परिणाम स्वरूप ही भारत सरकार ने जम्मू‡कश्मीर में जाने के लिए परमिट सिस्टम समाप्त कर दी। राज्य की संविधान सभा ने रियासत के भारत में विलय का अनुमोदन किया। राज्य में निर्वाचित प्रधान का पद समाप्त कर के अन्य राज्यों की तर्ज पर ही राज्यपाल का पद स्थापित किया गया। राज्य के प्रधानमंत्री के लिए मुख्यमंत्री पद नाम ही स्वीकार किया गया। समय के अंतराल मेंधारा‡370 के माध्यम से संघीय संविधान के लगभग दो सौ उपबंधों को राज्य में लागू किया गया। उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग का अधिकार क्षेत्र जम्मू‡कश्मीर तक बढाया गया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रजा परिषद आंदोलन ने जो जन जागृति पैदा की उनकी पृष्टि भूमि में नैशनल कांफ्रेंस के लिए ऐसी स्वायत्तता की ओर बढ़ना मुश्किल हो गया जिसे कुछ राजनैतिक विश्लेषकों ने राजनैतिक स्वतंत्रता के समकक्ष ही कहा है।

लेकिन जो मुद्दे प्रजा परिषद ने आज से साठ साल पहले अपने आंदोलन में उठाये थे वे आज की राजनीति में कितने प्रासंगिक हैं? धारा‡370 का प्रश्न तो प्रासंगिक है ही। यह धारा वैसे भी अस्थाई है और जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसको संघीय संविधान में समाहित किया गया था वह अब पूरा हो चुका है। संघीय संविधान का अधिकांश हिस्सा राज्य में लागू हो चुका है। शेष भाग भी लागू किया जा सकता है, क्योंकि अब राज्य में 1947‡1950 की हालत तो नहीं ही है, जिसके कारण धारा 370 की जरूरत पडी थी। इस लिए इस धारा को निरस्त किये जाने की मांग निरंतर उठती रहती है। जम्मू‡कश्मीर में भी संघीय संविधान के उपबंध उसी प्रकार और उसी पद्धति से लागू होने चाहिए जैसे वे अन्य राज्यों में होते हैं। धारा‡370 के समाप्त हो जाने से जम्मू‡कश्मीर का अलग संविधान अपने आप समाप्त हो जाएगा और वह संघीय संविधान में ही समाहित हो जाएगा। 1957 से, जब जम्मू कश्मीर का अपना संविधान राज्य में लागू हुआ था, अब तक संघीय संविधान के लगभग 260 अनुच्छेद राज्य में लागू हो चुके हैं। अब धारा 370 राज्य में आम जनता से अन्याय का एक साधन बन गया है। प्रजा परिषद आन्दोलन का यह मुख्य मुद्दा अभी भी समाधान की राह ताक रहा है। इसीके परिणामस्वरूप 2008 में हुआ अमरनाथ आन्दोलन हुआ था।
प्रजा परिषद ने अपने आंदोलन में एक मुख्य मुद्दा यह उठाया था कि राज्य का जो भाग पाकिस्तान ने बल पूर्वक अपने कब्जे में ले लिया है उसको पाकिस्तान से वापस लिया जाए। यह मुद्दा भी अभी तक अटका हुआ है। 1994 में संसद ने इन क्षेत्रों को वापस लेने का एक प्रस्ताव तो अवश्य पारित किया लेकिन उसे वापस लेने के लिये कोई सार्थक पग नहीं उठाए गए।

प्रजा परिषद के आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यही थी कि बदले हुए शेख अब्दुल्ला की असलियत देश के सामने आ गई थी और ज्यों ज्यों आंदोलनकारियों पर राज्य सरकार के अमानुषिक अत्याचार बढ़ते गए त्यों त्यों शेख अब्दुल्ला के भीतर का तानाशाह अपने भयावह रूप में प्रकट होता गया। प्रजा परिषद के आंदोलन ने बदले हुए शेख अब्दुल्ला का असली चेहरा जनता के सामने लाने में सफलता प्राप्त की जिसके कारण नैशनल कांफ्रेंस के भीतर भी दो मत बन गए और शेख को पार्टी के अध्यक्ष पद से मुक्त कर दिया गया। केन्द्र सरकार भी शेख के असली चेहरे को पहचान गई। शेख की समय के भीतर हो जाने वाली इस पहचान के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य एक भीषण संकट से बच गया। इस दृष्टि से यह प्रजा परिषद आंदोलन की यह सबसे बड़ी सफलता कही जा सकती है।
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