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हो रहा है भारत निर्माण?

हो रहा है भारत निर्माण?

by गंगाधर ढोबले
in अगस्त-२०१३, सामाजिक
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स्वाधीनता के बाद आई तीन पीढ़ियों में उठ खड़े होने का जज्बा क्या खत्म हो गया? इस प्रश्न को उठाने का तात्पर्य नैराश्य जगाना नहीं है, लेकिन यह बताना है कि हमें जागृत होना पड़ेगा। समझना पड़ेगा कि देश में विकास के बदले विनाश की स्थिति पैदा करने वालों को कैसे पाठ पढ़ाया जाए। लोकतंत्र में चुनाव के जरिए सीख दी जाती है और यह रणक्षेत्र करीब ही है।

अगस्त माह हमारी स्वाधीनता के उत्सव का महीना है। यह माह जैसे ही आता है, हम अपना आत्मनिरीक्षण करने को तत्पर हो जाते हैं। यह स्वाभाविक ही है। प्रगति की रफ्तार में जो आत्मनिरीक्षण नहीं करता वह हार जाता है। आत्मनिरीक्षण से नई ख़िडकियां खुलती हैं, नये रास्ते मिलते हैं और ‘गलतियां और सुधार’ के नियम पर चलते हुए व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने की कोशिश करता है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है। देश की स्वाधीनता और इसके बाद की हमारी प्रगति का लेखाजोखा करें तो हाथ बहुत कुछ नहीं लगता। जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति की रफ्तार अवरुद्ध होती लगती है। यह नैराश्य नहीं है, प्रेरणा की घड़ी है। यह गंभीर चिंतन का अवसर है। इस मंथन से अमृत निकालने का मौका है। यह निर्णायक मोड़ है। लोकतंत्र में यह निर्णायक मोड़ चुनावों के जरिए आता है। 2014 में होने वाले आम चुनाव इस दिशा में इतिहास लिखने वाले हैं। इतिहास को करवट देने की शक्ति अब आपके हाथ में है।

पिछले 66 वर्षों का इतिहास क्या कहता है? हम कहां जाना चाहते थे और कहां आकर थम गए? आप जिस भी क्षेत्र से जु़डे हों उस क्षेत्र पर गौर करें। क्या संतोष का कोई स्तर आपके हाथ लगता है? लगता है, कहीं ग़डबड़ी है। कहीं कुछ छूट रहा है। कहीं कोई काम नहीं हो रहा है। जो होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। जो नहीं होना चहिए, वह हो रहा है। कहीं व्यवस्था में चूक हो रही है। हर क्षेत्र में छीनाझपटी है। शासन तो है, सुशासन दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। जनता को सत्ता के साथ कदम मिलाना पड़ता है। यह उल्टी स्थिति है। होना यह चाहिए कि सत्ता जनता के अनुरूप कदम उठाए। कम से कम लोकतंत्र का तो यही मायने है। स्वतंत्रता का यही लक्ष्य है। स्वतंत्रता, निर्माण और उन्नति समाज जीवन की क्रमागत त्रयी है।

स्वतंत्रता सर्वप्रिय है। उसका मूल्य सर्वोपरि है। स्वतंत्रता मात्र एक शब्द नहीं है। एक जीवन शैली है। जीवन शैली में ढलकर वह अमृत मंत्र बन जाती है। महाकवि निरालाजी ने वीणावादिनी में स्पष्ट कहा है, ‘प्रिय स्वतंत्र रव अमृत मंत्र नव भारत में भर दे!’ लेकिन, यह दुख की बात है कि हम राजनैतिक स्वाधीनता तक ही सीमित रह गए और जीवन के अन्य क्षेत्रों में वह नहीं आ पाई। अमृतमय नहीं बन पाई। स्वतंत्र देश अपयशों की कालिमा से लिप-पुत रहा है। चारों ओर बेशर्मी चौखूर कूद रही है। सदाचरण खूंटी पर टंग गया है। हम मानकर चल रहे हैं कि ‘ऐसा होता ही है, चलता है। जो तालाब राखेगा, वह पानी पियेगा।’ अपयशों से अलिप्तता हमने स्वीकार कर ली है। सद्प्रेरणा और संघर्ष से बदलाव की कामना मर गई है। क्या यह त्रासदी नहीं है? स्वाधीनता के बाद आई तीन पीढ़ियों में उठ खड़े होने का जज्बा क्या खत्म हो गया? इस प्रश्न को उठाने का तात्पर्य नैराश्य जगाना नहीं है, लेकिन यह बताना है कि हमें जागृत होना पड़ेगा। समझना पड़ेगा कि देश में विकास के बदले विनाश की स्थिति पैदा करने वालों को कैसे पाठ पढ़ाया जाए। लोकतंत्र में चुनाव के जरिए सीख दी जाती है। यह रणक्षेत्र करीब ही है।

चुनावी दंगल में हर दल को अपना चेहरा देना होता है, नारे देने होते हैं, संकल्प जारी करने होते हैं। भाजपा ने नरेंद्र मोदी के रूप में राष्ठ्रवादी चेहरा पेश किया है, जबकि कांग्रेस अभी पसोपेश में है। वहां सोनियाजी, मनमोहन सिंह और राजकुमार राहुल गांधी के मुखौटे हैं। मनमोहन सिंह का दब्बूपन और राजीवजी का बचपना जगजाहिर है। दोनों की रस्सियां सोनियाजी के हाथ में ही हैं। गांधी नाम होना कांग्रेस की अनिवार्यता है। बाकी दलों में पुराने खिलाड़ी ही फिलहाल दिखाई देते हैं। इसलिए इस बारे में और कुछ कहने का कोई मतलब नहीं है। हां, नारों और संकल्पों की रस्साखेंच होने वाली है। कांग्रेस ने अभी से ‘भारत निर्माण’ का नारा बुलंद किया है। इसके लिए विज्ञापन अभियान तक श्ाुरू हो गए हैं। बाकी दलों के नारे और अभियान अभी श्ाुरू होने हैं।

एनडीए के जमाने में भी ‘चमकता भारत’ को जनता ने नकार दिया। कांग्रेस का ‘भारत निर्माण’ भी उसे ले डूबेगा। भारत के निर्माण को लेकर किसकी आपत्ति हो सकती है? लेकिन, यह प्रश्न बरकरार रहेगा कि अब ‘भारत निर्माण’ की बात करने वाली कांग्रेस अपने 60 साल के शासन में फिर क्या कर रही थी? एनडीए की अवधि छोड़ दी जाए तो शेष सारे समय में कांग्रेस ने ही सत्ता भोगी है, उसने ही नीतियां बनाई हैं, उसने ही उन्हें चलाया है। नतीजा सबके सामने है। आर्थिक मोर्चे पर हम फिसड्डी हो गए हैं, शिक्षा के क्षेत्र में कोई तारतम्य नहीं बचा, सामाजिक समरसता अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुंच पाई, सामाजिक सुरक्षा संकट में है, चिकित्सा महंगी हो गई हैं और गांवों से दूर ही है, सड़क, बिजली-पानी का घोर संकट है, न्यायिक क्षेत्र में मुकदमों के अंबार हैं, बाहुबलियों की बन आई हैं, यहां तक कि रक्षा के क्षेत्र में समुचित विकास का अभाव है, पर्यावरण व वनों का लगातार विनाश हो रहा है, कृषि क्षेत्र ने अवश्य प्रगति की है; लेकिन अन्नदाता घोर विपन्नावस्था में है, अमीर-गरीब की खाई लगातार बढ़ रही है, भ्रष्टाचार ने सारी सीमाएं तोड़ दी हैं, क्षेत्रीयता को हवा मिल रही है और राष्ट्रीयता दोयम स्थान ले रही है इत्यादि इत्यादि। यह सूची इतनी लम्बी है कि उसके उदाहरण देते-देते हम थक जाएंगे, पढ़ते-पढ़ते आप उकता जाएंगे, लिखते-लिखते ग्रंथ पर ग्रंथ लिखने होंगे। क्या यही भारत निर्माण है? भारतीय जनमानस ने ऐसा भारत कभी नहीं चाहा था, न इसे भारत निर्माण कहा जा सकता है।

आर्थिक मोर्चे पर सब से अधिक मार पड़ रही है। आर्थिक वृद्धि दर साढ़े चार प्रतिशत के आसपास है। कभी 9 फीसदी के आसपास पहुंची यह दर यूपीए शासन में आधी रह गई है। आर्थिक वृद्धि दर आर्थिक प्रगति का एक पैमाना है। इस पैमाने के कारण विदेशी साख एजेंसियां हमारी साख दर यदा-कदा घटाती रहती है। हमारी मुद्रा रूपया, अमेरिकी डॉलर के मुकाबले पिछले चार सालों में लगभग 20 फीसदी सस्ता हो चुका है। इसका माने यह कि विदेशी बाजार से माल खरीदने के लिए हमें एक डॉलर के मुकाबले ज्यादा रुपये देने पड़ते हैं। इससे खनिज तेल व अन्य साजोसामन के आयात पर हमारा खर्च 20 से 25 प्रतिशत से बड़ गया है। पेट्रोल और डीजल के भाव बढ़ने का यही कारण है। हमारी अर्थव्यवस्था खनिज तेल आधारित हो गई है। वहां दाम बढ़े या रुपये की विनिमय दर घटी कि उसका असर भारतीय बाजारों में जिन्सों के दाम बढ़ने में होता है। महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती रहती है और पिसता है सामान्य जन। आयात महंगा हो गया और निर्यात बढ़ नहीं रहा। दोनों में भारी अंतर है। इस अंतर को ही विदेश व्यापार का घाटा या चालू खाते का घाटा कहा जाता है। यह घाटा पूरा करने के लिए विदेशी निवेश को आकर्षित करने, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले बाजार करने जैसे कदम उठाए जा रहे हैं। रक्षा क्षेत्र से लेकर टेलीकॉम तक और शेयर बाजार से लेकर फुटकर कारोबार तक हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आमंत्रित किया जा रहा है। विदेशियों के लिए बाजार खोल दिए गए हैं। लिहाजा, पूरी अर्थव्यवस्था ही विदेशी निवेशकों के हाथ सौंपने की स्थिति है। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी इसी तरह भारत में आई थी। इस तरह राजनीतिक स्वतंत्रता भले ही मिली, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता गिरवी रखी जा रही है। क्या यह भारत निर्माण है?
यूपीए शासन के पिछले दस वर्षों में महंगाई तेजी से बढ़ गई है। आंकड़ों में उलझने के बजाय इतना भर सोचें कि दो-चार साल पूर्व जितने रूपये में जो चीज मिलती थी क्या उतने रूपये में आज वही चीज मिल जाती है? नहीं मिलती। पांच साल पहले सौ रुपये में थैलीभर सब्जी आ जाती थी। क्या वह आज आती है? आम आदमी का गणित उसके पेट के आसपास घूमता है। इस पर गौर करें तो पता चलेगा कि इन वर्षों में आम आदमी कितना पिसा जा रहा है। वाह रे सरकार का ‘भारत निर्माण!’

पूर्वांचल में राष्ट्रविरोधी ताकतों को रोकने में सरकार विफल रही है। वहां अशांतता लगातार बनी हुई है। मासूम वनवासियों का धर्मांतरण नहीं रुक रहा है। नवईसाइयों की फौज खड़ी हो रही है, जिसका उपयोग विदेशी शक्तियां अपने स्वार्थ के लिए कर रही है। पूर्वांचल से लगे भूटान में चीन ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं। जो भूटान सदियों से अपने साथ था, वह चीन के साथ जाता दीख रहा है। चीन और पाकिस्तान से लगी सीमा पर घुसपैठ आम बात हो गई है। जम्मू-कश्मीर में समस्या ज्यों की त्यों है। कोई पहल होती नहीं दिखती या फिर वर्तमान केंद्र सरकार इतनी पंगु है कि वह कुछ कर नहीं पाती। पंगु सरकार कैसे भारत निर्माण करेगी?

यूपीए की सारी कोशिश अब इससे लोगों का ध्यान हटाने की है। ध्यान हटाने के लिए कुछ न कुछ लॉलीपॉप देने होते हैं। मध्याह्न भोजन की योजना, रोजगार गारंटी योजना और हाल में जारी अध्यादेश के जरिए खाद्यान्न सुरक्षा जैसी योजनाएं इसी का अंग हैं। मध्याह्न भोजन बच्चों को मिले या गांवों में लोगों को कुछ समय क्यों न हो रोजगार मिले इस बात से किसी को क्या नाराजी हो सकती है। लेकिन इन योजनाओं ने भ्रष्टाचार की इतनी सीमा लांघ दी कि कितने भी आयोग इसकी पूरी जांच नहीं कर सकेंगे। पहले तो यह तय करना होगा कि यह योजना वाकई लोगों के लिए है कि नेताओं और कार्यकर्ताओं को दाना डालने के लिए है? यह सोचना होगा कि इस पर अमल करने के लिए सुव्यवस्थित तंत्र विकसित हुआ या नहीं? शिकायत निवारण का कोई माध्यम है या नहीं? कोई सुचारू व्यवस्था कायम न करना और महज योजनाएं जारी कर देना किस बात का द्योतक है? भारत निर्माण का?

खाद्यान्न सुरक्षा अध्यादेश का यही हाल है। कहा जा रहा है कि गरीबों को खाद्यान्न की सुरक्षा का पिछले चुनाव का कांग्रेस का वादा था। ठीक है, दीजिए सुरक्षा। लेकिन, पिछले चार साल में गरीबों की याद क्यों नहीं आई? किसने रोका था? आनन-फानन में विधेयक बनाना, संसद में चर्चा का अवसर तक न देना और प्रशासनिक तरीके अध्यादेश जारी कर देना किस औचित्य में बैठता है? और तो और, गरीबी रेखा का पैमाना तक तय नहीं है। किसे अनाज देंगे 1 से 5 रुपये किलो के भाव से? कहते हैं बीपीएल और एपीएल ऐसे दो विभाग किए गए हैं। यानी एक अति गरीब और दूसरा उससे कुछ अमीर! यह संख्या कोई 70-75 करोड़ होगी। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस के शासन काल में आधी से अधिक जनता गरीब रह गई! क्या यही भारत निर्माण है? इस अध्यादेश में बहुत खामियां हैं। इसमें शिकायत निवारण की कोई व्यवस्था नहीं है। चूंकि यह अध्यादेश है इसलिए यह अस्थायी व्यवस्था है। छह माह में संसद में इसे पारित करवाना होगा, अन्यथा वह निरस्त हो जाएगा। तब तक चुनाव हो जाएंगे। इस ‘खेल’ को लोग समझते जरूर हैं, समझना भी चाहिए।

असल में भारत निर्माण कोई ‘खेल’ नहीं है। वह किसी खेल का साधन भी नहीं हो सकता। राजनीतिक खेल का तो बिल्कुल नहीं। भारत निर्माण के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, ईमानदारी, निर्मल भावना, देश के प्रति समर्पण होना चाहिए। राजनीतिक स्वतंत्रता से व्यक्ति निर्माण का मुक्त अवसर मिलता है, लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता से देश का निर्माण होता है। क्या ऐसा हो रहा है? नहीं, तो 2014 का एक और अवसर है आपके हाथों में। देश का वाकई निर्माण करना है या ध्वंस इसके सूत्र भी आपके ही हाथों में हैं। सोचिए जरा!
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