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हिंदू दर्शन की सुगंध ‘योग’

हिंदू दर्शन की सुगंध ‘योग’

by अमोल पेडणेकर
in अगस्त-२०१३, सामाजिक
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पिछले माह एक छोटी सी खबर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। इस खबर का शीर्षक था, ‘योग यानी हिंदू धर्म प्रचार नहीं !’ यह राय भारत के किसी मनीषी की नहीं; कैलिफोर्निया के एक न्यायाधीश की है। वहां की स्कूलों में प्रति दिन 30 मिनट का योगाभ्यास कराया जाता है। इस अभ्यास का लक्ष्य छात्रों को उत्साही बनाए रखना और हिंसक विचारों से दूर रखना है। भारतीय संस्कृति का द्वेष करने वाले कुछ अभिभावकों ने इस योगाभ्यास के विरोध में न्यायालय में याचिका दायर की। अभिभावकों का कहना था कि यदि स्कूल में योगाभ्यास कराया गया तो उसमें हिंदू धर्म का प्रचार‡प्रसार होगा। न्यायालय ने याचिका को ठुकरा दिया। न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा कि ‘योग का प्रशिक्षण किसी एक धर्म का प्रचार-प्रसार नहीं है!’

भारतीय संस्कृति ने विश्व को कई अच्छी बातें दी हैं। योग भी इनमें से एक है। योग का मानवी मन और व्यवहार पर होने वाला अच्छा परिणाम केवल भारत तक ही सीमित न रह कर पूरे विश्व ने उसे प्रत्यक्ष में अनुभव किया है। इसी कारण सारी दुनिया में उसका तेजी से प्रचार-प्रसार हो रहा है। कहीं योग शिविर, कहीं स्वास्थ्य शिविर, कहीं कार्पोरेट क्षेत्र में व्यक्तित्व विकास शिविर के रूप में योग शिविरों का आयोजन किया जा रहा है। योग गुरु बाबा रामदेव बीच में इंग्लैण्ड की यात्रा पर थे। वहां योग शिविर का आयोजन किया गया था। इस शिविर के लिए इंग्लैण्ड की महारानी को भी निमंत्रित किया गया। किंतु, शिष्टाचार तथा राजघराने के नियमों के कारण महारानी और शाही परिवार के लोग शिविर में नहीं आ सके। लिहाजा, दूसरे दिन महारानी ने रामदेव बाबा को राजप्रासाद में आने का निमंत्रण दिया। बाबा के वहां पहुंचने पर महारानी ने उन्हें और राज परिवार को योग सिखाने का अनुरोध किया। इंग्लैण्ड के शाही परिवार के सभी लोग रामदेव बाबा के साथ जमीन पर बैठकर योग का प्रशिक्षण ले रहे थे। रामदेव बाबा ने कहा कि ‘सांस रोकिए’ तो सांस रोकी। बाबा ने कहा कि ‘सांस छोड़िए’ तो सांस छोड़ दी। ब्रिटिश राजघराने ने भारत पर ड़ेढ सौ साल राज किया। दूसरों की स्वाधीनता छीनना जिस राष्ट्र का स्वभाव रहा है, दुनिया में जिसके साम्राज्य पर कभी सूरज नहीं ढलता था उस राष्ट्र का राजघराना रामदेव बाबा के साथ जमीन पर बैठ कर ‘योगा’ सीख रहा था। एक योग गुरु के आदेश का पालन कर रहा था। इसके क्या अर्थ है?

फिलहाल यह माहौल पूरे यूरोप के साथ अमेरिका में भी है। कभी अपनी शक्ति के अहंकार में दूसरे देश की स्वतंत्रता को कुचलने वाला इंग्लैण्ड, विश्व पर दो महायुद्ध लादने वाला जर्मनी, साम्राज्यवादी चीन व वर्तमान में दुनिया का दरोगा बन बैठा अमेरिका इन सभी देशों में योग की महती फैल रही है। योग और उसके प्रकार सीख कर मन की शांति पाने के लिए वहां के नागरिक प्रयासरत हैं।

भारत पर तरह-तरह के संकट आए, लेकिन देश कभी टूटा नहीं, झुका नहीं। भारत की जीवन शैली, जीवन दर्शन में ऐसा कुछ शाश्वत है कि असंख्य संकटों के बावजूद भारत जिंदा है। दुनिया पर नजर डाले तो प्रश्न पड़ेगा कि अब कहां है रोम और कहां है यूनान? ये किसी जमाने में विश्व विजेता थे। अब उनकी कोई स्थिति नहीं बनती। हिंदुस्थान पर गौर करें तो दिखाई देगा कि हजारों वर्षों से यहां शक्ति और सम्पन्नता से भरा जीवन कायम है। इसके मूल में हिंदुस्थान की सम्पन्न आध्यात्मिक व सांस्कृतिक जीवन शैली है। यह दुनिया अनुभव करने लगी है। विश्व इस बात को अनुभव करने लगा है कि भारत का उदात्त जीवन दर्शन पूरे विश्व के लिए मार्गदर्शक साबित हो सकता है।

पूरे विश्व के लोगों की सब से निकटतम समस्या है तनाव। मनुष्य ने अपने सुख, संतोष और सुविधा के लिए जितने आधुनिक साजोसामान बनाए वे ही अब मनुष्य की अशांति के कारण बने हुए हैं। मनुष्य आधुनिक साजोसामान से अधिक गतिशील हो रहा है। निरंतर गतिशील रह कर भी वह अंतिम सुख तक नहीं पहुंच सकता। इस तरह की गतिशीलता ही व्यक्ति के जीवन में तनाव पैदा करती है। तनाव के कारण मानसिक अशांति, शारीरिक अस्वस्थता, पारिवारिक कलह जैसी भीषण समस्याएं पैदा होती हैं। इन समस्याओं के दुष्परिणाम व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व विश्व को भोगने पड़ते हैं।

अमेरिका में तो स्कूली छात्र दिनदहाड़े स्कूल में ही गोलीबारी कर अपने ही साथियों की हत्याएं कर रहे हैं। कोई गुरुद्वारा में घुस कर सिख श्रद्धालुओं पर गोलीबारी कर रहा है। ऐसे समय लगता है कि विश्व की महाशक्ति बना यह देश एक अघोषित महामारी से बेकाबू हो रहा है। छोटे बच्चों, किशोरों और युवकों से होने वाली हिंसक घटनाएं अमेरिका की लुढ़कती मानसिक अवस्था के संकेत हैं। अमेरिका में, यूरोप में विज्ञान, व्यापार, औद्योगिक क्षेत्र में भारी प्रगति हुई है। इसी कारण वहां के अधिसंख्य देश अमीर हो गए हैं। इसी अमीरी के कारण इन देशों के समाज में अपराधीकरण तेजी से बढ़ रहा है। व्यसनों में वे उलझ गए हैं। पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति निष्ठा नहीं रखते। माता-पिता अपने सुखों के मद्देनजर बच्चों के बर्तावों को नजरअंदाज कर देते हैं। वहां बच्चे बूढ़े मां-बाप की चिंता नहीं करते। स्वभावतः ही विकसित देश नैराश्य से पीड़ित हो रहे हैं। पूरे यूरोपीय समाज, अमेरिकी समाज में अशांति फैल चुकी है। इसी कारण अब वहां मनोवैज्ञानिक अध्ययन चल रहे हैं। क्या इस तरह के जीने को ही जीवन कहें? यह प्रश्न जब मन में उठता है तब भारतीय संस्कृति- संस्कारों व जीवन शैली में ही प्रकाश की किरण दिखाई देती है और पूरा विश्व भारतीय दर्शन की ओर गंभीरता से देखने लगता है।

भारत ने सम्पूर्ण विश्व को अमूल्य, समृद्ध व विकसित विचारधारा, आचार शैली परोक्ष रूप से दी है। केवल योग ही नहीं अपितु गणित, चिकित्साशास्त्र, साहित्य, संगीत, नृत्य, शिल्पकला जैसी कलाएं जैसे शास्त्र दिए हैं। मर्यादा के आदर्श श्रीराम, गीता कहने वाले श्रीकृष्ण, योग बताने वाले पतंजली, विपश्यना की तकनीकी बताने वाले गौतम बुद्ध, कामशास्त्र बताने वाले वात्सायन, चिकित्साशास्त्र देने वाले चरक तथा द्रोणाचार्य, अगस्ती, वशिष्ठ जैसे महान ॠषि और उनकी गुरुकुल परम्परा…. आदि अनेक मामलों में प्राचीन भारतीय विद्वजनों का योगदान महत्वपूर्ण है। इन मनीषियों ने जो अनेक रत्न विश्व को दिए हैं उनमें से एक है ‘योग’।

विश्व को कई कल्याणकारी चीजों को देने वाली जीवन शैली से जुड़ा हुआ शब्द है ‘हिंदू’। ‘हिंदू’ शब्द किसी सम्प्रदाय का सूचक नहीं है। अन्य धर्मों की तरह धर्म की परिभाषा से जुड़ा यह शब्द नहीं है। ‘हिंदू’ शब्द से समृद्ध जीवन शैली का बोध होता है। यह जीवन शैली सभ्यता, संस्कृति, आवश्यकताओं पर नियंत्रण और संयम के सिद्धांतों पर आधारित है और इसीसे उत्पन्न हुआ ‘योग’ है। योग की अनुभूति के लिए किसी भी तरह की श्रद्धा की जरूरत नहीं है। आस्तिक जिस तरह योग का प्रयोग कर सकता है, वैसा नास्तिक भी कर सकता है। योग किसी विश्वास या श्रद्धा पर आधारित नहीं है। योग जीवन के सत्य को खोजने की दिशा में किए गए प्रयोग की औचित्यपूर्ण प्रणाली है। योग के अभ्यास से व्यक्ति के बर्ताव, विचार और सम्पूर्ण व्यक्तित्व में बदलाव आ सकता है यह सत्य है। व्यक्ति के भीतर छिपी अनेक क्षमताओं को कार्यान्वित करना योग का महत्वपूर्ण कार्य है। मनुष्य के भीतर की ऊर्जा जागृत करने के लिए योग में अनेक तरीके बताए गए हैं। मनुष्य ने प्राणायाम की खोज की। प्राणायाम हमारे भीतर की निद्रिस्त शक्ति को जागृत करने की एक विधि है। योग ने विविध आसन खोजे। शरीर में ऊर्जा के विविध स्रोत क्षेत्र हैं। उन स्रोतों पर दबाव डालने की क्रिया ही आसन कहलाती है। इस दबाव से ये स्रोत खुलते हैंऔर व्यक्ति के भीतर की ऊर्जा सक्रिय होती है। इसी कारण योग मन को शांति देने वाली क्रिया है। योग के अभ्यास से सम्पूर्ण विश्व में शांति संभव है। विश्व के करोड़ों लोगों ने योग के माध्यम से मनःशांति का अनुभव किया है।सम्पूर्ण विश्व का कल्याण करने वाला मौलिक दिव्य ज्ञान महान भारतीय मनीषियों ने पूरी मानव जाति के लिए खुला किया है। अन्य सम्प्रदायों की तरह संकुचित वृत्ति रख कर केवल अपने लिए ही बचा कर नहीं रखा। यही भारतीय दर्शन की विशेषता है।

वर्तमान में हम जिस अर्थ प्रधान समाज रचना में हम जी रहे हैं उसमें मनुष्य को अमानवीय रूप से अति परिश्रम करने पड़ते हैं। वे शरीर और मन दोनों स्तरों पर होते हैं। फलस्वरूप, व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक विश्राम नहीं मिल पाता और जीने के लिए इसी जीवन को स्वीकार करना पड़ता है। ऐसे समय मन व शरीर को विश्राम देना योग है। वासना से विश्राम, तृष्णा से विश्राम देकर अपेक्षाहीन होकर स्वस्थचित्त होना इस मन की अवस्था से धीरे-धीरे जीवन में आनंद का रस झरने लगता है। अपनी दिनचर्या में घंटेभर का योगाभ्यास दिन के चौबीस घंटे सुंदर और प्रेरणास्पद बनाता है। धीरे-धीरे जीवन में परिणामजनक सुख प्राप्त होने लगता है। आखिर यह ‘योग’ क्या है? उसके सूत्र क्या हैं? यह सब किताबी ज्ञान से समझने की अपेक्षा उसका जीवन में प्रत्यक्ष उपयोग करने पर उत्साहपूर्वक जीवन की कुंजी प्राप्त हो सकती है। योग एक प्रक्रिया है, प्रयोग है, एक अर्थ में भारतीय जीवन प्रणाली का सार है। ‘हिंदू’ शब्द साम्प्रदायिक नहीं है। उससे भारतीय संस्कृति, जीवन शैली, परम्परा का बोध होता है। उसी ‘हिंदू’ जीवन प्रणाली से, दर्शन से निर्मित शब्द ‘योग’ है। योग केवल एक प्रक्रिया है। परमात्मा क्या है, परमात्मा कैसा है यह योग नहीं बताता। परमात्मा को किस तरह प्राप्त किया जा सकता है यह योग बताता है। आत्मा क्या है यह योग नहीं बताता। आत्मा को किस तरह जिया जा सकता है यह योग बताता है। इसीलिए सर्वव्यापी परमात्मा तक पहुंचने का एक मार्ग योग के रूप में भारतीय संस्कृति ने, हिंदू दर्शन ने समस्त विश्व को दिया है।

प्राचीन हिंदू ग्रंथों की एक सुंदर प्रार्थना हमेशा हमारे मन में निनाद करती रहती है-

सर्वेपि सुखिन सन्तु,
सर्वे सन्तु निरामया;
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,
मा कश्चित दुःखमाप्नुयात।

हम सब एक ही हैं। सब के आनंद में हमारा भी आनंद है। यह इस प्रार्थना का सार है। विश्व सुख की याचना करने वाली यह प्रार्थना है। इस तरह का विचार सामर्थ्य हिंदू दर्शन का सामार्थ्य है। विश्व सुख के यही विचार विविध समाज कल्याणकारी, विश्व कल्याणकारी बातों को विश्व के सामने ले जा रहे हैं। उसमें भाव है केवल विश्व कल्याण के। अतः इस तरह की मंगलमय जीवन प्रणाली से उत्पन्न योग को हिंदू धर्म प्रचार कहना अनुचित है। लेकिन, यह सत्य है कि अनंत और प्राचीन काल से मार्गदर्शन करने वाले हिंदू दर्शन का सुगंध विश्व में चहुंओर फैलता जा रहा है।
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