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बोलियां

बोलियां

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in सामाजिक, सितम्बर २०१३
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भारत एक बहुभाषा-भाषी देश है। स्वतंत्रता के उपरान्त भाषा के आधार पर ही राज्यों का गठन किया गया। भाषाओं को एक भौगोलिक सीमा में बांधने का कार्य किया गया। किन्तु उस समय सम्भवत: इसका ध्यान नहीं रखा गया होगा कि भाषा का विकास सांस्कृतिक-सामाजिक विशेषताओं के अनुरूप भी होता है। इसलिए जो संस्कृति एक राज्य से बाहर कई राज्यों में विस्तृत है, वहां की भाषा में भी समरूपता मिलती है । भाषा का विकास बोलियों से होता है। भाषा बोलियों का ही संस्क ारित और परिष्कृत रूप होती है। एक भाषा के अन्तर्गत अनेक बोलियां समाहित होती हैं। बोलियों की कई उप-बोलियों भी होती हैं, जिनमें क्षेत्रीयता का भाव निहित होता है।

उत्तर प्रदेश का विस्तार उत्तर भारत के विस्तृत भू‡भाग पर है। इसकी सीमाएं उत्तराखण्ड, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, बिहार और नेपाल को छूती हैं। इसलिए सीमावर्ती भागों में समीप के राज्य की बोली-भाषा का भी प्रभाव पड़ा है। पूरे प्रदेश मे यद्यपि हिंदी भाषा बोली जाती है, जिसकी कई उप-भाषाएं और बोलियां हैं । पश्चिमी देशों के विद्वानों डॉ. ग्रियर्सन, डब्ल्यू.सी.बरनेट, बिलियम क्रुक के साथ ही प्रमुख भारतीय विद्वानों पं. राम गरीब चौबे, शरदचन्द्र मित्र, डॉ. बाबूराम सक्सेना, सत्यव्रत अवस्थी, डॉ. सरोजिनी रोहतगी, डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित इत्यादि ने उत्तर प्रदेश की भाषा और बोलियों पर बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक कार्य किये हैं। इन विद्वानों के अध्ययनों के अनुसार हिंदी की पांच उप-भाषाएं – पश्चिमी, पूर्वी, पहाड़ी, बिहारी, राजस्थानी हैं । इन उप-भाषाओं का विकास अलग-अलग बोलियों से हुआ है। पश्चिमी हिंदी की छ: बोलियां-खड़ी बोली, ब्रज, बांगरू, बुन्दी, कन्नौली और दक्षिणी हिंदी, पूर्वी हिंदी की तीन बोलियां अवधी, बघेली, छत्तीसग़ढ़ी, पहाड़ी हिंदी की दो बोलियां ग़ढ़वाली, कुमांयुनी, बिहारी हिंदी की तीन बोलियां भोजपुरी, मैथिली, मगही, राजस्थानी हिंदी की चार बोलियां मारवाड़ी, मेवती, मालवी, ढुंढाड़ी है। इन सभी बोलियों की उत्पत्ति मूलरूप से प्राकृत और अपभ्रंश के रास्ते से गुजरते हुए शौरसेनी एवं मागधी से हुई है। इसलिए पूरे उत्तर प्रदेश में इन सभी बोलियों का प्रभाव दिखायी देता है। सभी बोलियां अपनी समीपवर्ती बोली से इस तरह घुलमिल गयी हैं कि जनपदीय दृष्टि से इनकी सीमा तय करना दुरूह कार्य है।

उत्तर प्रदेश की वर्तमान सीमा के अन्तर्गत पश्चिमी उत्तर प्रदेश, ब्रज मण्डल, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, अवध, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बैसवाड़ा तराई प्रदेश इत्यादि का क्षेत्र आता है। इन सभी क्षेत्रों को मिलाकर उत्तर प्रदेश में कुल आठ बोलियां खड़ीबोली, ब्रज, बुन्देली, बैसवाड़ी, कन्नौजी, अवधी, बघेली और भोजपुरी बोली जाती हैं।

राज्य की सबसे प्रमुख बोली खड़ी बोली है। इसका उद्भव प्राचीन कुरु जनपद में होने के कारण इसे कौरवी के नाम से भी जाना जाता है। इसे हिंदुस्तानी, नागरी, सरहिंदी के नाम से अभिहित किया जाता है। यह वर्तमान साहित्यिक हिंदी (सामान्य हिंदी) और उर्दू पर आधारित है। पूर्व उर्दू का जन्म आगरा के समीप लश्कर में हुआ माना जाता है, इसलिए इसमें उर्दू के शब्दों का प्रभाव भी दिखायी देता है। खड़ी बोली का विकास शौरसेनी से हुआ है। खड़ी बोली का विस्तार वर्तमान के पूर्वी दिल्ली, मेरठ, बागपत, मुजफ्फर नगर, बुध्द नगर, सहारनपुर, गाजियाबाद, पंचशील नगर, गौतम बुध्द नगर, बुलन्द शहर, बिजनौर, जेपी नगर, मुरादाबाद, भीम नगर, रामपुर जनपदों में है। वर्तमान समय में हिंदी का सर्वाधिक साहित्य इसी बोली में लिखा जा रहा है। देश भर की सम्पर्क बोली के रूप में भी इसी को प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसका विस्तार हरियाणा और राजस्थान के समीपवर्ती भागों तक है।

ब्रजभाषा (बोली) का स्थान हिंदी के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है। सोलहवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक यह साहित्त्य की एक मात्र भाषा रही है। ब्रज बोली का विकास शौरसेनी से हुआ है। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार ब्रज बोली का विस्तार उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश राज्यों में है। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, महामाया नगर (हाथरस), काशीराम नगर, एटा, आगरा (दक्षिणी भाग), पूर्वी फिरोजाबाद, मैनपुरी, बदायूं तथा बरेली जनपदों की यह प्रमुख बोली है। इसके समीपवर्ती राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर, कुरौली और मध्य प्रदेश के ग्वालियर के पश्चिमी भाग में ब्रज बोली का प्रभाव है।

कन्नौजी अथवा कनउजी बोली पश्चिमी हिंदी की पांच प्रमुख बोलियों में से एक है। यह ब्रज भाषा से बहुत मिलती-जुलती है। इसका उद्भव भी शौरसेनी से ही हुआ है। डॉ.धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार यह ब्रज का ही पुर्वी रूप है। कननौजी बोली का नामकरण फर्रुखाबाद जिले में स्थित कन्नौजी नगर के आधार पर माना जाता है, जो प्राचीन काल में विशाल जनपद के रूप में प्रसिद्ध था। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी कन्नौज के नाम पर इस बोली का नामकरण कन्नौजी हुआ मानते हैं। कन्नौजी बोली में शिष्ट व संस्कारित साहित्य की रचना का प्राय: अभाव पाया जाता है, किन्तु इसका लोक साहित्य बहुत समृद्ध है। कन्नौजी बोली का क्षेत्र ब्रज बोली और अवधी के बीच पड़ता है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत वर्तमान के कन्नौज, इटावा, औरेयान फर्रुखाबाद, शाहजहांपुर, हरदोई, पीलीभीत, रमाबाई नगर, कानपुर इत्यादि आते हैं।

साहित्य रचना की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध एवं विस्तार दृष्टि से उत्तर प्रदेश के सबसे महत्वपरक क्षेत्र की प्रमुख बोली अवधी है। इस बोली का प्रसार सम्पूर्ण अवध क्षेत्र में हुआ है। प्राचीन काल में प्रसिद्ध कोशल क्षेत्र जिसका पुराणों में अयोध्या के नाम से उल्लेख हुआ है, अवधी भाषा का क्षेत्र था। अवधी का विकास अध्रुमागधी से हुआ है। अवधी की चार उप बोलियां बैसवाडी, लखीमपुरी, मिर्जापुरी और बनौधी है। कुछ विद्वान बैसवाड़ी को अवधी से अलग बोली के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। तुलसी, जायसी जैसे रचनाकारों के द्वारा अवधी बहुत पुष्ट हुई है। अवधी बोली का क्षेत्र फैजाबाद , गोण्डा, बस्ती, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, लखीमपुर, सीतापुर, बाराबंकी, लखनऊ, छत्रपति, शाहूजी महाराज नगर, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, अंबेडकर नगर, कौशाम्बी, इलाहाबाद तथा अंशत: मिर्जापुर तक फैला है।

अवधी की ही एक उप-बोली के रूप मेंबैसव़ाड़ी को प्रतिष्ठा प्राप्त है? किन्तु कई विद्वान इसे एक अलग बोली के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं। इन विद्वानों के मतानुसार इसका विकास भी अद्धमागधी से हुआ है। उत्तर प्रदेश के लखनऊ (कुछ अंश) उन्नाव, रायबरेली और फतेहपुर जिलों को बैसवाड़ा कहा जाता है। इस क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा को ही बैसवाड़ी के नाम से पुकारा जाता है। इस बोली में कोई प्राचीन साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। अवधी क्षेत्र में ही होने के कारण बैसवाड़ी बोली दबी रह गयी। इसी लिए इसका सम्यक विकास नहीं हो पाया।
भारत की प्रमुख भाषाओं में से एक भोजपुरी िंहंदी की मुख्य उप-भाषा है। इसने अब भाषा का रूप धारण कर लिया है। यद्यापि डॉ. ग्रियर्सन ने बिहारी भाषा की तीन बोलियों में इसकी गणना की है, किन्तु उनका यह विभाजन भाषा शास्त्र की दृष्टि सही नहीं है। इसका केन्द्र बिहार का बोजपुर अवश्य है, किन्तु इसका विकास उत्तर प्रदेश की प्रमुख बोलियों के साथ ही हुआ है।

भोजपुरी अध्रुमागधी से उद्भूत है। यह प्रदेश में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली उप-बोली है। इसके क्षेत्र के अन्तर्गत मिर्जापुर, चन्दौली, सन्त रविदास नगर, वारणसी, जौनपुर, गाजीपुर, मऊ, बलिया, आजमगढ़, देवरिया, अम्बेडकर नगर (आंशिक पूर्वी भाग), कुशीनगर, गोरखपुर, महराजगंज, सन्त कबीर नगर, सिध्दार्थ नगर जिले आते हैं। इनके साथ ही उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे बिहार के जिलों तथा देश के कई अन्य भागों के अलावा मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, ब्रिटिश गुयाना, युगाण्डा इत्तादि देशों में भी भोजपुरी मातृभाषा के रूप में बोली जाती है। इसका साहित्य बहुत उत्कृष्ट और सम्पन्न है।

उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र में बुन्देली बोली का प्रसार है। यह बुन्देलखण्डी के नाम से भी प्रसिद्ध है। डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार बुन्देली पश्चिमी हिंदी की पांच बोलियों में से एक है। यह बोली शौरसेनी, प्राकृत और मध्य प्रदेशीय अपभ्रंस से विकसित हुई है। अपने शुद्ध रूप में यह प्रदेश के झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बान्दा और चित्रकू ट जिलों में बोली जाती है। उत्तर प्रदेश की सीमा के बाहर बुन्देली भाषा का विस्तार मध्य प्रदेश के ग्वालियर, ओरहा, सागर, भोपाल, टीकमगढ़, जबलपुर इत्यादि जनपदों तक हुआ है। लोक साहित्य की दृष्टि से यह अत्यन्त समृद्ध बोली है।

उत्तर प्रदेश में सबसे कम लोगों के द्वारा बोली जाने वाली उप-भाषा बघेली है। इसे बघेलखण्डी भी कहते हैं। यह पूर्वी हिंदी के अन्तर्गत आती है। डॉ. बाबूराम सक्सेना के अनुसार उच्चारण और पद रचना की एक -दो विशेषताओं को छोड़कर अवधी से इसका विशेष अन्तर नहीं है। बघेली का प्रधान क्षेत्र मध्य प्रदेश का रीवां जनपद है। उससे लगे हुए उत्तर प्रदेश के बांदा, चित्रकूट, इलाहाबाद तथा मिर्जापुर के कुछ दक्षिणी भागों और सोनभद्र के अंशत: पश्चिमी भाग में बघेली बोली जाती है। इस बोली का विकास अर्द्धमागधी अपभ्रंस से हुआ है।

इनके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में गढ़वाली और कुमांयुनी बोली का तथा नेपाल से सटी सीमावर्ती भूमि में नेपाली बोली के यदा-कदा प्रयोग के प्रमाण मिलते हैं । वैसे उत्तर प्रदेश की बोलियों के विषय में एक कहावत प्रचलित है कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी।’’ अर्थात चार कोस – लगभग बारह किलोमीटर की दूरी पर बोली का रूप बदलता हुआ मिलता है। आज भी सम्पूर्ण ग्रमीण भागों और ग्रमीण नगरों में बोलियों का प्रयोग बेहिचक धड़ल्ले से होता है। यही कारण है कि आज भी इन बोलियों में प्रचुर साहित्य की रचना हो रही है ।

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