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उत्तर प्रदेश के वीर पुरुष

उत्तर प्रदेश के वीर पुरुष

by ॠषि कुमार मिश्र
in सामाजिक, सितम्बर २०१३
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इतिहास में उन्हीं व्यक्तियों का नाम अंकित होता है, जो मानव जाति के कल्याण के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हैं। स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों का दुःख दूर करने का कार्य वीरता की श्रेणी में आता है। युद्ध में निर्भीक होकर लड़ने वाला योद्धा चाहे जय प्राप्त करे या वीर गति को प्राप्त हो दोनों स्थितियों में वीर कहलाता है। वीरता एक सर्वकालिक और सर्वजनीत गुण है। फिर भी, इस आलेख में अभिप्रेत उत्तर प्रदेश में जन्में कुछ प्रसिद्ध वीर पुरुषों की झांकी दी जा रही है।

लोरिक

लोरिक अद्भुत वीर था। वह गुप्त वंश के समुद्र गुप्त के समकालीन था। लोरिक की वीरता का वास्तविक परिचय राजपुर के राव रूपचंद के साथ हुए युद्ध में मिलता है। रूपचंद ने गोवर के सहर सहदेव की रूपवती पुत्री चंदा को प्राप्त करने के लिए गोवर पर आक्रमण कर दिया। चंदा का चार वर्ष की आयु में ही वामन नामक व्यक्ति से विवाह हो चुका था। वह एक आंख से काना भी था। चंदा को वह पसंद नहीं था। रूपचंद के आक्रमण में गोवर के अनेक वीर शहीद हुए और पराजय निश्चित जानकर चंदा के पिता सहदेव ने लोरिक से सहायता मांगी। लोरिक ने वीरतापूर्वक युद्ध कर रूपचंद को हरा दिया। इस विजयोत्सव के दौरान लोरिक और चंदा एक दूसरे के करीब आ गए। चंदा की तरह लोरिक भी विवाहित था। उसकी पत्नी का नाम मैना था। दोनों मिलन की आकांक्षा में घर से भाग गए। बाद में वाठवा नामक एक व्यक्ति चंदा को पकड़ लेता है। चंदा उसके चंगुल से भाग निकलती है। लोरिक व बाठवा का संघर्ष होता है और बाठवा हार जाता है। चंदा गर्भवती है और सांप दो बार उसे काट लेता है, लेकिन वह बच जाती है।

डलमऊ के कवि मुल्ला दाऊद ने अपने महाकाव्य ‘चंदायन’ में लोरिक और चंदा के प्रेमाख्यान और अपने प्रेम को प्राप्त करने हेतु लोरिक के शौर्य प्रदर्शन का विस्तृत वर्णन किया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों- ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ एवं ‘पुनर्नवा’- में भी लोरिक की गाथा मिलती है। अवधी में लोरिकायन, भोजपुरी में चनैनी तथा बांग्ला में लोरिकाहा नाम से लोकथाएं व लोक गीत प्रचलित हैं।

आल्हा ऊदल

आल्हा और उदल बनाफर राजपूत भाई थे। दोनों उद्भट विद्वान थे। बारहवीं शताब्दी में रचित जगनिक के आल्ह खण्ड में उनकी वीरतापूर्वक लड़ी गईं बावन लड़ाइयों का उल्लेख है। आल्हा और ऊदल के पिता देशराज और चाचा बच्छराज भी बड़े बलवान और वीर योद्धा थे। कन्नौज के दुष्ट राजा कलिंगा राय ने अपने धूर्त मामा माहिल के साथ मिलकर देशराज व बच्छराज को धोखे से सोते समय पकड़ लिया और पत्थर के कोल्हू में पिरवाकर मार डाला। उनकी मृत्यु का बदला लेने के लिए आल्हा और ऊदल ने मांडव गढ़ पर चढ़ाई करके कलिंगा राय को भी उसी तरह मार डाला। तब से उनकी वीरता प्रसिद्ध हो गईऔर वे महोबा के राजा परमाल के दरबार में रहने लगे। आल्ह खंड में में वर्णित सभी लड़ाइयां रोचक और रोमांचक है। इनमें आल्हा ऊदल के शौर्य को स्वाभिमान के प्रतीक स्वरूप माना जाता है।

राजा छत्रसाल

पराक्रमी पिता चंपतराय के पुत्र छत्रसाल का जन्म सन 1641 में टीकमगढ़ जिले की मोट पहाड़ियों में हुआ था। युद्ध कला में पारंगत होकर वे अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह की सेना में भरती हो गए। राजा जयसिंह दिल्ली की सल्तनत के लिए कार्य करते थे। अतः जब औरंगजेब ने उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को उस लड़ाई में अपनी बहादुरी दिखाने का अवसर मिला। सन 1665 में बीजापुर युद्ध और देवगढ़ के गोंड राजा को परास्त करने में छत्रसाल की अहम भूमिका रही। जब मुगलों की ओर से उन्हें वीरता का उचित पुरस्कार और श्रेय नहीं दिया गया तो रुष्ट होकर उन्होंने मुगलों की सेना छोड़ दी। सन 1668 में छत्रसाल ने शिवाजी से भेंट की तो शिवाजी ने उन्हें तलवार भेंट कर छत्रसाल को स्वतंत्र राज्य की स्थापना की मंत्रणा दी। शिवाजी से स्वराज्य का मंत्र लेकर उन्होंने मुगलों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। उनका पूरा जीवन मुगलों से लड़ते और बुंदेलखंड की स्वतंत्रता के लिए जूझते बीता। ‘बुंदेल केशरी’ के नाम से विख्यात महाराजा छत्रसाल के विषय में ये पंक्तियां प्रसिद्ध हैं-

इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल सो लरन की रही न काहू हौंस॥

रानी लक्ष्मीबाई

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्रम की नेत्री रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य की कहानी बच्चे-बच्चे को ज्ञात है। उनका जन्म 19 नवम्बर 1828 को काशी में हुआ था। वे चार वर्ष की थीं तभी उनकी माता का निधन हुआ। पिता मोरोपंत उन्हें झांसी ले गए जहां उनका बचपन नाना के यहां बीता। 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से हो गया। वे घुड़सवारी और शस्त्रसंधान में निपुण थीं। 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव का निधन हुआ तो अंग्रेजों ने कुटिल नीति अपनाते हुए झांसी पर चढ़ाई कर दी। रानी ने युद्ध का नेतृत्व किया। लक्ष्मीबाई ने आठ दिनों तक ह्यूरोज की सेना को तोपों के सहारे रोक रखा। जब किले को सम्हालना मुश्किल हुआ तो वे अपनी हमशक्ल सहेली झलकारी के साथ कालपी की ओर कूच कर गई। अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ में बांध कर वे निकल पड़ी। अंग्रेज सेना ने उनका पीछा किया। 22 मई 1857 को कालपी छोड़कर उन्हें जाना पड़ा। 17 जून के युद्ध में रानी जीती, लेकिन 18 जून को बड़ी सेना लेकर ह्यूरोज आ डटा। रानी का घोड़ा सोनरेखा नाला पार नहीं कर सका। एक अंग्रेज सैनिक ने रानी पर तलवार से पीछे से वार किया। घायल अवस्था में भी उन्होंने उस सैनिक का सिर काट डाला। उनका घाव गंभीर था। अंत में 18 जून 1857 को बाबा गंगादास की कुटिया में उन्होंने प्राण त्याग दिए। सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कविता की ये पंक्तियां उनकी वीरता की कहानी घर-घर तक पहुंचाती हैं-

बुन्देले हरबोले के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थीं

नाना साहब पेशवा

नाना साहब पेशवा 1857 की क्रांति के प्रमुख सूत्रधार थे। कानपुर में अंग्रेजों का सेनापति ह्वीलर मारा गया तो तात्या टोपे के साथ नाना ने फतेहपुर और बिठुर में अंग्रंजों से लोहा लिया। उन्होंने बेगम हजरत महल के साथ गोंडा, बहराइच में भी अंग्रेजों से जम कर लड़ाई की तथा अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुंचाई। बाद में वे नेपाल चले गए। नाना साहब के धोखे में अनेक लोगों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया। नाना साहब अंत तक आजाद ही रहे।

तात्या टोपे

तात्या टोपे नाना साहब के बचपन के साथी थे। वे छापामार युद्ध के विशेषज्ञ थे। 1857 की क्रांति में आपने नाना की सेना का संगठन सम्हाला और बिठुर में हैवलाक को परास्त किया। कानपुर, चरखारी, कालपी की शानदार जीत का श्रेय भी तात्या टोपे को है। राजा मान सिंह ने धोखे से कैद कर तात्या टोपे को अंग्रेजों को सौंप दिया। 18 अप्रैल 1858 को शिवपुरी में वह हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए।

बेगम हजरत महल

वे नवाब वाजिद अली शाह की अनेक बेगमों में से एक थीं। 1857 के मुक्ति संग्रम में बेगम रणक्षेत्र में उतरीं और बहादुरी से अंग्रेजों से लड़ीं। लखनऊ पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने के बाद वे बहराइच (बौंडी) से शासन चलाने लगीं। जुलाई से सितम्बर तक बेगम मैदान में डटी रहीं लेकिन अंत में पराजय निश्चित जानकर नेपाल चली गईं। नेपाल का शासक जंगबहादुर अंग्रेजों का पिट्ठू था। उसने धोखे से बेगम को अपने महल में बुलाकर उन्हें उनकी सेना से अलग-थलग कर दियाऔर अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण के लिए दबाव डालने लगा। बेगम ने गरीबी की हालत में निर्वासित जीवन बिताया, लेकिन शत्रुओं के समक्ष आत्मसमर्पण करना स्वीकार नहीं किया। उनकी बहादुरी के कारण उन्हें भारत की ‘जोन ऑफ आर्क’ कहा जाता है।

राजा रावराम बख्श सिंह

डौंडिया खेड़ा के तालुकेदार रावराम बख्श सिंह ने उन्नाव में 1857 की क्रांति के समय सबसे लम्बे समय तक अंग्रेजों से लड़ाई जारी रखी। उन्होंने जबरौली के चौधरी रघुनाथ सिंह और राणा वेणीमाधव के बीच सुलह कराकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने हेतु प्रेरित किया। रामबख्श के रहते अंग्रेजों की जीत असंभव बनी हुई थी अतः अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए भारी पुरस्कार की घोषणा की थी। अवध में कब्जे के बाद रावराम बख्श बनारस में रह रहे थे। लेकिन उनके विश्वासपात्र नौकर चंदी ने भितरघात कर अंग्रेजों को उनका पता दे दिया और वे गिरफ्तार कर लिए गए। अंग्रेजों से क्षमा मांग कर उन्होंने पुरस्कार स्वरूप अपनी रियासत वापस लेना स्वीकार नहीं किया तो बक्सर लाकर उन्हें 8 जून 1861 को गंगा किनारे बरगद के वृक्ष पर लटकाकर फांसी दे दी गई।

रामप्रसाद बिस्मिल

रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को शाहजहांपुर में हुआ था। विद्यार्थी काल में ही उनका झुकाव स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति हो गया था। क्रांतिकारी स्वभाव के बिस्मिल का सम्पर्क मैनपुरी के दीक्षित नामक अध्यापक से हुआ। उनकी प्रेरणा से वे क्रांतिकारी साहित्य का वितरण करने लगे। 1918 में अंग्रेजों की नजर में आ गए लेकिन गुप्त रूप से अपने कार्य में लगे रहे। 1925 में सहारनपुर-लखनऊ ट्रेन में काकोरी के निकट सरकारी खजाना लूटा गया तो अशफाकउल्ला खां, रौशन सिंह, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी के साथ रामप्रसाद बिस्म्लि भी गिरफ्तार किए गए। 18 महीनों तक मुकदमा चला। सभी क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई गई। बिस्मिल को 30 वर्ष की उम्र में 19 दिसम्बर 1921 को फांसी दी गई। बिस्मिल द्वारा रचित गीत ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है’ आजादी के दीवानों का प्रिय गीत बन गया।

चंद्रशेखर आजाद

आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को उन्नाव में हुआ था। उनका आरंभिक जीवन आदिवासी बहुल क्षेत्र भावरा में व्यतीत हुआ, अतः बचपन से ही वे तीर, भाला आदि चलाने में कुशलता प्राप्त कर चुके थे। 1921 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर वे इस आंदोलन में कूद पड़े। क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के अपराध में उन्हें पकड़ लिया गया। मजिस्ट्रेट के पूछने पर उन्होंने अपना नाम आजाद और पिता का नाम स्वतंत्रता बताया। इसके लिए उन्हें बेंतों की सजा मिली। 1921 में गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन स्थगित करने से वे क्षुब्ध हो गए और रामप्रसाद बिस्मिल के सम्पर्क में आकर क्रांतिकारी आंदोलन का हिस्सा बन गए। लाला लाजपत राय की पुलिस ने लाठियां बरसाकर हत्या कर दी थी, सांडर्स की हत्या कर इसका बदला उन्होंने ले लिया। अंग्रेजों से बचने के लिए वे झांसी में ब्रह्मचारी के रूप में रहे। यहां उन्होंने बम और अन्य हथियार बनाना सीखा। 1931 में वे गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलने सीतापुर जेल गए। विद्यार्थीजी ने उन्हें नेहरू के पास इलाहाबाद भेजा। नेहरू ने उनकी बात नहीं सुनी तो वे दुखी होकर अल्फ्रेड पार्क चले गए जहां अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया। उन्होेंने कई सिपाहियों को अपनी माउजर पिस्तौल से ढेर कर दिया। आखिरी गोली बची तो उन्होंने उसे अपनी कनपटी पर दाग कर सदा के लिए सो गए। अंग्रेज पुलिस का जीते जी उन्हें पकड़ने का सपना अधूरा ही रह गया।

अब्दुल हमीद

आजाद भारत की सेना में रहते हुए दुश्मन सेना के विरुद्ध लड़ते समय असाधारण पराक्रम प्रदर्शित करने वाले वीरों में अब्दुल हमीद का नाम अग्रगण्य है। हमीद का जन्म 1 जुलाई 1933 को गाजीपुर में हुआ था। दिसम्बर 1954 में वे सेना में भर्ती हुए। पाकिस्तान के साथ 1965 में हुए युद्ध में वे खेमकरण सेक्टर में अग्रिम पंक्ति में तैनात थे। वहां उन्होंने ‘गन माउंटेड जीप’ से सात पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट कर दिया। देखते ही देखते पाकिस्तानी फौज में भगदड़ मच गई। भागते हुए पाकिस्तानी सैनिकों का पीछा करते समय उनकी जीप पर एक गोला आकर गिर गया और वे घायल हो गए। अगले दिन 9 जुलाई को उन्हें वीर गति प्राप्त हुई। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र और परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

वीर पुरुषों की यह सूची बहुत छोटी है। ऐसे ही सैंकड़ों नाम इसमें जोड़े जा सकते हैं।
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