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काशी विश्वनाथ का महत्व

काशी विश्वनाथ का महत्व

by विद्याधर ताठे
in संस्कृति, सामाजिक, सितम्बर २०१३
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खाक भी जिस जमीं की पारस है,शहर मशहूर वह बनारस है ।
‘श्री काशी’, ‘वाराणसी’,‘बनारस’,‘मोक्ष नगरी’,‘मुक्ति क्षेत्र’ इत्यादि नामों से जग विख्यात परम पावन पुण्य नगरी है काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग क्षेत्र।

‘वाराणसी महापुण्या त्रिषु लोकेषु विश्रुता’के रूप में काशी का वर्णन पुराणों में किया गया है। महर्षि व्यास द्वारा रचित 15 हजार श्लोकों में से एक ‘काशी खण्ड’ में भी काशी की महिमा वर्णित है। उसके अलावा स्कंद पुराण, मत्स्य पुराण, कूर्म पुराण, लिंग पुराण, पद्म पुराण, अग्नि पुराण इत्यादि पुराणों मेंभी काशी की स्तुति की गयी है। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत जैसे ग्रन्थों में भी काशी का उल्लेख मिलता है।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका:॥

मोक्षदायी सात नगरों की प्रार्थना करके प्रत्येक हिंदू रोज सुबह काशी का स्मरण करता है। काशी नगरी को दो महत्व प्राप्त हैं । सप्त पुरियों में से एक और बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक होने का। केवल इतना ही नहीं, काशी नगरी हिंदुओं की श्रद्धा स्थान गंगा के किनारे बसा है। यहां पांच नदियों का संगम है। वरुणा और असी नामक दो नदियों के नामों पर इसे वाराणसी कहा जाता है। भगवान शंकर की नगरी, धर्म नगरी, विद्या नगरी, कला नगरी इत्यादि के रूप में काशी की महिमा अपरंपार है। इस नगरी को धर्म, ज्ञान और कला की नगरी कहा जाता है। काशी की विद्वत्ता,काशी की कला और काशी का पान विश्व प्रसिद्ध है। ईसाइयों की पवित्र नगरी वेटिकन सिटी और मुसलमानों की मक्का‡मदीना से काशी कई वर्ष प्राचीन है। अत: विदेशों से आने वाले पर्यटकों की भारत यात्रा काशी दर्शन के बाद ही पूरी होती है। चीन के प्रवासी ह्वेन सांग ने भी काशी का महत्व लिखा है। काशी सभी पंथों, धर्मों की नगरी है। सनातन, जैन, बौद्ध, सिख, लिंगायत इन सभी हिंदू समाजों में काशी यात्रा को महत्व प्राप्त है। काशी(सारनाथ) बौद्ध धर्म की जन्मभूमि है। जैनों के चार तीर्थंकरों में से 8वें श्री चंद्रप्रभ, 11वें श्री श्रेयासनाथ, 23वें श्री पार्श्वनाथ और 24 वें श्री सुपार्श्वनाथ का जन्म काशी में ही हुआ था। भारतीय आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि का जन्म भी काशी में ही हुआ था। इसके साथ ही सितार वादक पण्डित रवि शंकर, शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां, पण्डित बिरजू महाराज, पूर्व प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. भगवान दास इत्यादि ‘भारत रत्नों’ की यह जन्मभूमि है। प्रख्यात शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां ने काशी के बारे में कहा है ‘जन्नत भी भरे पानी, मेरे काशी के सामने’। इसके साथ ही महात्मा गांधी, विनोबा भावे, पण्डित मदन मोहन मालवीय और साम्यवादी विचारधारा के कार्ल मार्क्स ने भी काशी की महिमा का गुणगान किया है।

उत्तर वाहिनी ‘गंगा’, नदी नहीं माता‡

श्रीक्षेत्र काशी में जितना महत्व ज्योतिर्लिंग का है, उतना ही गंगा नदी का भी है। गंगा के बिना काशी की कल्पना नहीं की जा सकती। हिमालय में उद्गम से लेकर बंगाल के समुद्र में मिलने तक गंगा के विभिन्न रूप हैं, परन्तु काशी की गंगा इन सबसे भिन्न है। पूरे देश में बहने वाली गंगा दक्षिण वाहिनी या पूर्व वाहिनी है, परन्तु काशी की गंगा उत्तर वाहिनी है। गंगा केवलनदी नहीं गंगा माता है। ‘गंगा मैया’ जैसे आदर सूचक शब्दों के साथ ही उसे पुकारा जाता है। यह केवल पानी का प्रवाह नहीं, बल्कि परम पावन मोक्षदायक तीर्थ है। गीता, गोमाता, गायत्री और गंगा भारतीयों के प्राण स्वरूप हैं। संस्कृत में एक सुभाषित प्रसिद्ध है। इसमें भी गंगा को ही प्रथम स्थान प्रदान किया गया है।

गंगा गीताच गायत्री गोविंदेतिह्रदि स्थिते।
चतुर्गकार संयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते॥

गंगावतरण की पुराण कथा से सभी परिचित हैं। स्वर्ग से पृथ्वी पर आने वाली गंगा को भगवान शंकर ने अपनी जटाओं में धारण किया था और महान तपस्वी भगीरथ की तपस्या के कारण ही यह परम पावनी गंगा हमें प्रवाहित रूप में धरती पर प्राप्त हुई हैं। अत: गंगा को ‘भागीरथी’ भी कहा जाता है। तप कितना सामर्थ्यवान होता है, इसका यह जीवंत उदाहरण है।

भारतीयों के मन में गंगा का स्थान इतना अनन्त ‡अगाध है कि अपने घर में स्नान करते समय भी वह

गंगेच यमुनेश्चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन संनिधिम कुरू॥

श्लोक दोहराता है और यह मानता है कि वह गंगा के पानी से ही स्नान कर रहा है। यह भाव ही भारतीय जन मानस की विशेषता है। गंगा का एक और मंगल प्रसंग स्मरण किया जाता है, और वह प्रसंग है विवाह। विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले मंगलाष्टकों में भी देश की प्रमुख नदियों का स्मरण किया जाता है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे प्रदेशों से गंगा कई मील दूर है, परन्तु इन राज्यों में भी गंगा का स्मरण किया जाना भारतीय एकात्मता का प्रतीक है।

मनोरम घाटों का सौन्दर्य‡

काशी के घाटों का सौन्दर्य अवर्णनीय है। एक‡दो नहीं, गंगा नदी पर कुल चौंसठ घाट हैं । प्रत्येक घाट का अपना इतिहास है। प्रत्येक घाट का सौन्दर्य अनुपम है। प्रत्येक घाट व्यवस्थित रूप से बनाये गए हैं। इनमें से हरिश्चन्द्र घाट, दशाश्वमेघ घाट, मणिकर्णिका घाट इत्यादि तो बहुत प्राचीन हैं। उनके पीछे कई पौराणिक कथाएं और इतिहास की अनेक यादें हैं। इन घाटों का इतिहास 4 हजार साल पुराना है। कुछ घाट आधुनिक इतिहास काल के हैं। उदाहरणार्थ पुण्य श्लोक अहिल्या देवी घाट, नागपुरकर और भोसलों का घाट।

‘राजा हरिश्चन्द्र घाट’ सत्य वचनी राजा हरिश्चन्द्र की दान शूरता का साक्षी है। महान ऋषि विश्वामित्र को अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले राजा हरिश्चन्द्र ने इसी घाट पर अपना देह बेच दिया था। भारतीय धर्माचरण में दान को विशेष महत्व दिया गया है। ‘पंच गंगा घाट’ राजस्थान के आमेर के राजा मानसिंह ने बनवाया है। इस घाट पर ही संस्कृत के महाकवि पण्डित राज जगन्नाथ ने ‘गंगा लहरी ’ की रचना की थी।‘दशाश्वमेघ घाट ’ काशीराज राजा दिवोदास के द्वारा 10 अश्वमेघ यज्ञ किये जाने के कारण प्रसिद्ध है। ‘त्रिपुरा भैरव घाट’ कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल,आंध्र प्रदेश के श्रद्धालुओं का केन्द्र स्थान है। ‘मणिकर्णिका घाट’ पर एक पवित्र कुण्ड है। महासती के कान का कुण्डल इस कुण्ड स्थान पर गिरने के कारण इसे मणिकर्णिका नाम मिला है। इस स्थान पर दाह संस्कार किये जाने पर व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस अवधारणा के कारण यह भूमि मानों 24 घण्टे चलने वाली दहनभूमि ही है। कभी भी जाने पर कोई न कोई चिता वहां दहकती ही रहती है और इस बात का स्मरण करवाती है कि मृत्यु अटल है। मृत्यु शोक व्यक्त करने की घटना नहीं, वरन जीवन मुक्ति का क्षण है। उसे आनन्द से स्वीकार करना चाहिए। जो इस संसार में जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। यह जीवन जन्म-मरण का चक्र है। ‘पुनरपि जननम् पुनरपि मरणम्’ इसी को भव सागर कहते हैं। जीवन के इस शाश्वत विचार के दर्शन हमें मणिकर्णिका घाट की दहन भूमि पर होते हैं।

भगवान बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, जगद्गुरु, महास्वामी इत्यादि अनेक महापुरुषों की साधना भी यहीं सफल है। यह घाट किसी के जप का, किसी के तप के लिए, किसी की साधना के लिए, किसी के भोजन के लिए तो किसी के चिन्तन के लिए रम्य स्थान रहा है। अनेक सन्त‡कवियों की रचनाओं के साहित्य रंग ने इन्हीं घाटों पर गंगा के समक्ष अपनी छंटा बिखेरी है, चाहे वे महाराष्ट्र के एकनाथ हों या काशी के कबीर या गोस्वामी तुलसीदास हों। इतना ही नहीं, अनेक विख्यात चित्रकार, गायक, कलाकार सभी को इस परिसर ने प्रेरणा दी है। विदेशों से आये हुए पर्यटक, अभ्यासक, चित्रकार इन घाटों को देखकर केवलआनन्दित ही नहीं होते, वरन उन्मादित होकर उनमें रम जाते हैं और स्वत: को भूल जाते हैं।

सूर्यास्त के समय इस घाट की ‘गंगा आरती’ देखना भी एक दिव्य अनुभव है। इस आरती को देखने के लिए हजारों श्रद्धालु शाम को घाट पर और गंगा के प्रवाह में बहने वाली नौकाओं पर इकट्ठा होते हैं। अपने चर्मचक्षुओं से इस सारे दृश्य को देखकर अपने मन की तिजोरी में संजोने का प्रयास करते हैं। नाव में बैठकर ही एक-एक घाट के दर्शन करने पर भी चित्त प्रसन्न हो जाता है। मन के सारे क्षुद्र भाव गंगा के प्रवाह के साथ बह जाते हैं और मन में आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है।

श्रीक्षेत्र काशी का इतिहास‡

काशी क्षेत्र का इतिहास प्राचीन है। ‘काशी’ के अनेक नाम हैं। अलग‡अलग काल में इस नगरी को अलग‡अलग नाम दिये गए हैं। काशी नाम संस्कृत की ‘काश’ धातु से प्राप्त हुआ है जिसका अर्थ है प्रकाशवान करना। स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को प्रकाशित करने वाली काशी। यहां की दो नदियों के वरुणा और असी के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। जब मुसलमानों का आक्रमण हुआ और यह नगरी बादशाह के कब्जे में गयी तो इसको बनारस कहा जाने लगा। सन 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात 24 मई 1956 से इसे अधिकृत रूप से वाराणसी कहा जाने लगा।

महाभारत काल में काशी कंस के कोशल राज्य में समाविष्ट थी। उसके बाद वह कभी कोशल, कभी मगध, कभी अंग राज्यों में शामिल हुई। कुछ समय तक इस नगरी पर जरासंध ने भी राज किया था। बुद्ध काल मेंराजा कनिष्क ने वाराणसी को बौद्ध धर्म प्रचार का प्रमुख केन्द्र बनाया। गौतम बुद्ध ने काशी के पास सारनाथ से ही बौद्ध धर्म के 5 अनुयायियोंको पहली दीक्षा दी थी। इसके बाद के काल मेंजब काशी पर नागवंशी राजाओं का प्रभुत्व हुआ तो राजा भारशिव ने बौद्ध धर्म का प्रभाव नष्ट करके काशी को शिव नगरी का महत्व प्रदान किया। गुप्त काल में स्कंद गुप्त काशी का राजा बना। उसने भी काशी के गौरव को बहुत बढ़ाया। कहा जाता है कि शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ इसी काल में हुआ था। आधुनिक काशी का जन्म औरंगजेब के बाद 1738 का है। सन 1773 और सन 1775 मेंमराठे और अयोध्या के नवाब के बीच संधि हुई जो ‘बनारस संधि’ के नाम से विख्यात है। इस संधि के अनुसार शाह आलम ने प्रयाग के संगम से काशी तक का क्षेत्र मराठों को दे दिया था। सन 1783 में पुण्य श्लोक अहिल्या देवी ने काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का जीर्णोद्धार कराया। मनसाराम ने अयोध्या के नवाब सुबेदार सादत खान से काशी को खरीद लिया। यहां राजा बलवंत सिंह और उनके बेटे चेतन सिंह ने राज किया। सन 1781 में अंग्रेज अधिकारी वारेन हेस्टिंग ने इस पर कब्जा किया और राजा चेतन सिंह को बन्दी बना लिया। महिपति नारायण को गद्दी पर बैठाकर अंग्रेजों ने काशी का राज्य अपने कब्जे में रखा। राजा ईश्वर प्रसाद नारायण सिंह, राजा विभूति नारायण सिंह को भी गद्दी पर बैठने का सौभाग्य मिला। भारत के स्वतंत्र होने के बाद काशी को उत्तर प्रदेश में विलीन कर दिया गया।

काशी महानगरी का वैभव‡

श्रद्धलुओं की श्रद्धा के अनुसार श्री विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग काशी के अधिष्ठित देवता हैंऔर श्री कालभैरव यहां के कोतवाल हैं। श्री धुुंडिराज गणेश यहां के नगर पालक हैं। कहा जाता है कि यहां का एक कुआं स्वयं भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से खोदा है। यह नगरी पांच नदियों की संगम स्थली है। काशी महानगरी के 2 भाग हैं। 1) शिव काशी 2) विष्णु काशी। मणिकर्णिका घाट से अस्सी केदारखण्ड के भाग को शिव काशी के रूप में जाना जाता है और मणिकर्णिका घाट से वरुणा नदी तक का भाग विष्णु काशी के रूप में जाना जाता है।

इस महानगरी का वैभव यहां की ज्ञान और भक्ति की महान परंपरा है। संगीत के क्षेत्र में ‘बनारस घराना’ और उसका महत्व असाधारण है। काशी कत्थक का जन्म स्थान है। यहां की चित्र कला, भित्ति चित्र, हस्त कला देशभर में प्रसिद्ध है। रत्नेश्वर मन्दिर के भित्ति चित्र देखने के लिए आज भी विदेशी पर्यटकों की भीड़ होती है। यहां की सिल्क साड़ियां भी जग प्रसिद्ध हैं।

काशी में 5 विश्वविद्यालय हैं। विविध ज्ञान शाखाओं और विद्याओं का यह उद्गम स्थान है।
सन 1898 में इस शहर में विदुषी एनी बेसेंट ने पहला महाविद्यालय खोला जो कि ‘हिंदू कॉलेज’ के नाम से विख्यात है। महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय ने सन 1916 में ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’ की स्थापना की। विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की सूची में यह तीसरे क्रमांक का विश्वविद्यालय है। 1921 में काशी विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी और सन 1974 में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वद्यिालय शुरू हुआ। सन 1960 में बनारस नगर पालिका को महानगर पालिका का दर्जा दिया गया। नगर पालिका की स्थापना सन 1867 में अंग्रजों ने की थी।

काशी के दर्शनीय स्थल‡

काशी का महत्वपूर्ण स्थल हैं काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर। अभी जिस मन्दिर के हम दर्शन करते हैं उसे पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होलकर ने बनवाया है। इस मन्दिर का सोने से बना शिखर सबका मन आकर्षित करता है। इसे बनाने में लगा हुआ लगभग 50 टन सोना पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने दिया था। इस मन्दिर को अंग्रजों ने ‘गोल्ड टेम्पल’ नाम दिया था। औरंगजेब ने प्राचीन मन्दिर उध्वस्त करके उस पर ज्ञानव्यापी नामक मस्जिद बनवायी। इस मस्जिद की छत तक का आधा भाग आज भी मन्दिर का ही है। मूल मन्दिर की दीवारों और खम्बों पर ही केवल शिखर बनाकर उसे मस्जिद का रूप दिया गया है। अयोध्या और मथुरा की तरह काशी भी हिंदुओं का श्रद्धा स्थान है, जिस पर धर्मांध मुसलमानों ने आक्रमण किये। अभी के काशी विश्वनाथ मन्दिर में शिवलिंग बीचों बीच न होकर एक किनारे है। इस मन्दिर के बगल में अन्नपूर्णा माता का मन्दिर है। देवी अन्नपूर्णा, कालभैरव, बड़े गणेश जी के दर्शनों के बिना काशी यात्रा पूरी नहींहोती।

संकट मोचन हनुमान मन्दिर, श्री रामचरित मानस मन्दिर, भारत माता मन्दिर, विश्व का तीसरे क्रमांक का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, काशी विश्वनाथ मन्दिर, सारनाथ का बौद्ध स्तूप, वास्तु संग्रहालय इत्यादि अनेक स्थान दर्शनीय हैं। यहां के व्यापार‡उद्योग, बाजार भी स्वतंत्र लेखन का विषय हैं।

हिंदुओं की सर्वोच्च धर्म नगरी काशी 14 विद्याओं और 64 कलाओं की नगरी है। सन्त कबीर, तुलसीदास और राजा हरिश्चन्द्र की पुण्यभूमि है, तपोभूमि है, मोक्षभूमि है। यहां के कण-कण में शंकर है । इस परम पावन ज्योतिर्लिंग को कोटि-कोटि प्रणाम।

 

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