महिलाओं का आक्रोश बदलाव चाहता है – स्मृति ईरानी

यूपीए सरकार के राज में आम जनता को महंगाई, भ्रष्टाचार, महिला असुरक्षा, खराब प्रशासन जैसी कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। कहीं न कहीं इन सारी परेशानियों का सीधा असर भारत की महिलाओं पर पड़ रहा है। ये और ऐसी अन्य समस्याओं के बारे में भारतीय जनता पार्टी की महिला मोर्चा की पूर्व अध्यक्ष और राज्यसभा सदस्य स्मृति ईरानी से हुई बातचीत के कुछ महत्वपूर्ण अंश-

आज भारतीय महिलाओं की मुख्य समस्याएं क्या हैं?

भारत की महिलाओं की तीन मुख्य समस्याएं हैं-शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य। भारतीय महिला चाहे वह किसी भी तबके या किसी भी धर्म की हो, अपने स्वास्थ्य को सबसे कम आंकती है। महिलाओं के निरंतर संपर्क में आने के बाद मैंने पाया कि इन तीनों विषयों में सभी महिलाओं की रुचियां और उनके सामने आनेवाली समस्याएं लगभग समान होती हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में आज भारतीय महिलाएं कहां हैं?

आजकल आमतौर पर कहा जाता है कि साक्षरता की दर बढ़ रही है, खासकर महिलाओं की। मैंने भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर की महिलाओं से वार्ता की। मैंने वहां पाया कि प्रशासनिक कार्य करनेवाले कर्मचारियों में लगभग 75 प्रतिशत महिलाएं हैं, परंतु वैज्ञानिकों की टीम में केवल 25 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। आमतौर पर यह देखा जाता है कि ग्रामीण भागों में या छोटे शहरी इलाकों में लड़कियों की विज्ञान क्षेत्र में भागीदारी कम है। लोग ये तो चाहते हैं कि लड़के डॉक्टर या इंजीनियर बनें, परंतु लड़कियों के बारे में यह सोच अभी भी कम है।

मीडिया में अगर लिखने, बोलने या कैमरा चलाने में किसी का हुनर है तो उसके लिए डिग्री मायने नहीं रखती है। अत: यहां महिलाएं पुरुषों की बराबरी से काम कर रही हैं। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां ऊंचाई पर पहुंचने के लिए डिग्री मायने नहीं रखती; परंतु यदि किसी क्षेत्र विशेष में प्रवेश करने का पहला पायदान ही डिग्री हो तो वहां महिलाएं पीछे रह जाती हैं। विज्ञान एक ऐसा ही क्षेत्र है।

मेरे हिसाब से शिक्षा भी इस दृष्टि से प्रदान की जानी चाहिये जो भविष्य में अपने पैरों पर खड़े रहने में सहायक सिद्ध हो। महिलाओं के लिए शिक्षा एक ऐसा माध्यम बनना चाहिए जो उन्हें केवल साक्षर ही न बनाये बल्कि उनमें गुणों का भी विकास करें। आज भी ऐसे कई परिवार हैं जहां यह माना जाता है कि अगर बेटे को अधिक पढ़ाया जायेगा तो उसका फायदा मिलेगा परंतु अगर लड़की को अधिक पढ़ाया जायेगा तो उससे कोई फायदा नहीं होगा।

गुजरात में सरकार द्वारा गुणोत्सव नामक कार्यक्रम चलाया जाता है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत विद्यालयों में शैक्षणिक वर्ष के दौरान मुआयना किया जाता है कि विद्यालयों, शिक्षकों या विद्यार्थियों को कोई परेशानी तो नहीं है। ऐसे ही एक कार्यक्रम में मैं गयी थी। मैंने आठवीं कक्षा की एक बच्ची को मंच पर पुरस्कृत किया जो कि जिले में अव्वल थी। कार्यक्रम समाप्ति के बाद वापिस जाते समय मैंने उस बच्ची से पूछा कि तुम्हें कुछ चाहिए? क्या मैं तुम्हारे लिये कुछ कर सकती हूं? उस आठवीं कक्षा की लड़की ने मुझसे जो कहा वह सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गयी। उसने पूछा कि अगर आपके पास पांच मिनिट का समय हो तो क्या आप मेरे घर चलकर मेरे पापा को समझाएंगी कि मुझे आगे पढ़ने दें। महिलाओं की शिक्षा के संबंध में आज भी यह परिस्थिति है कि जिले की सबसे होनहार छात्रा भी इस पसोपेश में है कि उसे आगे पढ़ने दिया जायेगा या नहीं।

रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं की क्या स्थिति है?

रोजगार का एक साधारण आंकडा और उदाहरण मैं आपको बताना चाहूंगी। पुलिस में अर्थात कुल आई.पी.एस. अधिकारियों में से केवल 14 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। आई.ए.एस. में भी यह प्रतिशत बहुत कम है। सरकारी नौकरियों में और आर्गनाइज्ड लेबर के रूप में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। अनआर्गनाइज्ड लेबर के रूप बहुत अधिक संख्या में महिलाएं दिखाई देती हैं क्योंकि यहां उन्हें सुविधाएं देने की आवश्यकता नहीं होती है। यहां न उन्हें मेटरनिटी लीव दी जाती है, न भत्ते दिये जाते हैं और न ही स्वास्थ्य सुविधाएं दी जाती हैं। इस तरह के क्षेत्रों में महिलाओं की भागिदारी 90 प्रतिशत है।

आज हम कहते हैं कि कार्पोरेट जगत में महिलाएं बहुत आगे हैं लेकिन वास्तविक परिस्थिति यह है कि बोर्डरूम में जहां कम्पनी के सारे डायरेक्टर बैठते हैं, जहां से कम्पनी चलाने के सारे निर्णय लिये जाते हैं वहां केवल 7 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। कुछ पत्रिकाओं में हम कुछ चेहरे देखकर खुश हो जाते हैं कि महिलाओं ने बहुत तरक्की कर ली है परंतु बी.एस.ई. के आंकडे बताते हैं कि कार्पोरट जगत में निर्णय लेने वाले पदों पर केवल 7 प्रतिशत ही महिलाएं हैं।

महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिये क्या ठोस कदम उठाये जा सकते हैं?

कुछ दिनों पहले जो कम्पनी विधेयक पास हुआ है उसमें यह कहा गया है कि रिप्रेजेंटेटिव बोर्ड पर महिला होनी चाहिए। क्या ऐसा है? नहीं। यौन उत्पीड़न बिल भी पास हुआ। उसमें यह कहा गया है कि हर कम्पनी में शिकायत निवारण समिति होनी चाहिए। क्या वह है? नहीं। और अगर है भी तो उसके कार्यान्वयन को कौन आंक रहा है? दूसरी बात उस विधेयक में यह भी है कि हर जिला स्तर पर, तालुका स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर एक अधिकारी होना चाहिए जो इस तरह की सारी शिकायतों को सुनकर उनकी जांच करें और निर्णय दें। पर क्या ऐसा हो रहा है? नहीं। केवल कानून बन जाने से ही कुछ नहीं होता है। उसका कार्यान्वयन और उस कार्यान्वयन पर निगरानी रखना भी जरूरी है।

आपने कहा कि विधेयक तो पास हो जाते हैं पर उसका कार्यान्वयन नहीं होता, ऐसा क्यों होता है?

इस संबंध में सबसे बड़ा उदाहरण मैं देना चाहूंगी। घरेलू हिंसा को रोकने के लिये सन 2005 में ही विधेयक पारित हुआ था पर आज तक उसका कार्यान्वयन नहीं हो पाया। वह इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि उसके कार्यान्वयन के लिये जो आर्थिक प्रावधान केन्द्र सरकार को देने चाहिए वह सरकार देती ही नहीं है। आज आप किसी भी पुलिस थाने में चले जाइये आपको कोई ‘प्रोटेक्शन आफिसर’ ड्यूटी पर नहीं मिलेगा और जब उसके बारे में पूछा जायेगा तो हो सकता है यह भी पता चले कि ऐसा कोई अफसर है ही नहीं।

जब भी कोई बलात्कार होता है तो हम सुनते हैं कि उसकी जांच ‘फास्ट ट्रेक कोर्ट’ में होनी चाहिए। लेकिन इस ‘फास्ट ट्रेक कोर्ट’ के लिये जो आर्थिक प्रावधान आवश्यक है वे तो भारत सरकार ने 2010 में ही बंद कर दिया था।

केवल बयानबाजी करके और विधेयक पारित कर महिलाओं का उत्थान नहीं किया जा सकता। उसे जमीनी हकीकत में लाने के लिये ‘सपोर्ट स्ट्रक्चर’ बनाना आवश्यक है। आमतौर पर कांग्रेसी सांसद कहते हैं कि सामाजिक मानसिकता बदलने की जरूरत है। मैं कहती हूं, मानसिकता तो बदलेगी परंतु परिस्थितियों को सुधारने के लिये प्रशासन जिन तरीकों का इस्तेमाल कर सकता है वह तो करें।

सारी जिम्मेदारियां निभाने के लिये क्या सरकार को ही कदम उठाने चाहिये। क्या यह सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है?

देखिये, सरकार को सहूलियत तो देनी ही पड़ेगी। सरकार के दायरे में जो काम आते हैं सरकार उन्हें तो करें। कानून बनाने के बाद उसे अमली जामा पहनाया जा रहा है कि नहीं इसकी जांच तो सरकार को ही करनी पड़ेगी।

महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित किन समस्याओं की ओर आप संकेत कर रही हैं?

क्या ये सच्चाई लोग जानते र्है कि हमारे देश की पचपन प्रतिशत महिलाओं के शरीर में खून की तथा पौष्टिकता की कमी है। यह एक ऐसी बीमारी है जो न महिलाओं को दिखती है, न ही उसे तकलीफ देती है परंतु उसका दीर्घकालीन प्रभाव बहुत होता है। महिलाएं स्वयं भी इस ओर ध्यान नहीं देतीं। उनका कहना है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में उन्हें सारी सुविधाएं नहीं मिलती हैं।

यू.एन.डी.पी. ने जो ‘मिलेनियम डेवलपमेंट’ लक्ष्य निर्धारित किया था वह क्या था? वह यह था कि अगर लगातार तीन तिमाही में आप माता मृत्यु दर को कम करते हैं तो आप उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। हमारे देश में ‘अनअसिस्टेड डिलिवरी’ की संख्या बहुत ज्यादा है। हमने गुजरात में चिरंजीवी नामक योजना चलाई। इस योजना के अंतर्गत यह प्रावधान था कि अगर कोई व्यक्ति किसी महिला की प्रसव हेतु अस्पताल पहुंचने में मदद करता है उस व्यक्ति को एक निश्चित धनराशि पुरस्कार स्वरूप दी जायेगी। यह आवश्यक नहीं है कि अस्पताल सरकारी हो। अगर सरकारी अस्पताल दूर है और महिला को निजी अस्पताल में भी भर्ती कराया जाता है तो सरकार खर्च वहन करती है। इस कदम के कारण गुजरात में अब 99 प्रतिशत ‘असिस्टेड डिलिवरी’ होती है। माता मृत्यु दर के लक्ष्य को तो गुजरात सरकार 2007 में ही प्राप्त कर चुकी है। परंतु राष्ट्रीय स्तर पर इसे प्राप्त नहीं किया जा सका है। सरकार के द्वारा दो-तीन कदम उठाने से ही बदलाव कैसे आता है यह इसका उत्तम उदाहरण है।

अशिक्षित और गरीब तबके में कन्या भ्रूण हत्या के कई मामले अभी भी सामने आ रहे हैं। इसकी क्या वजह है? इस समस्या से निपटने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि गरीब और अशिक्षित समाज में कन्या भ्रूण हत्या हो रही है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के सबसे उच्चवर्गीय, शिक्षित और धनाढ्य लोगों के इलाके दक्षिण मुंबई में भ्रूण हत्या के आंकडे सर्वाधिक हैं। यहां तक की शहरी भागों में घरेलू हिंसा के आंकड़े 45 प्रतिशत की सीमा छूते हैं और ग्रामीण भागों में 35-37 प्रतिशत है।

दरअसल, हम भारतीयों का संस्कार है कि हम परिवार की एकांतता का आदर करते हैं। हम दूसरों के घरों में झांकते नहीं हैं। अगर पड़ौसियों के घर से इस तरह की हिंसा की आवाज आती है फिर हम जाकर नहीं देखते। दूसरा मुख्य कारण है कि आज एकल परिवारों की संख्या बढ़ रही है। पहले घर में बजुर्ग लोग होते थे जो सभी को समझाते थे। मुश्किलों का हल दूंढ़ने में मदद करते थे। आजकल एकल परिवारों में ऐसा नहीं होता कि तीन पीढ़ियां एक साथ बैठकर चर्चा करें, एक-दूसरे की बातें सुनें और सुनाये। आजकल इनका स्थान टीवी ने ले लिया है। उसी के सामने बैठकर लोग खाना खाते हैं। घर में किसी से जुड़ाव, अपनापन नहीं रहा। हम अपनी बिल्डिंग, अपनी सोसायटी, कॉलोनी के लोगों को नहीं जानते। इस अकेलेपन के कारण भी घरेलू हिंसा बढ़ रही है।

क्या इलेक्ट्रानिक मीड़िया, टीवी सीरियल, मोबाइल इंटरनेट इस अकेलेपन का कारण है?

मेरे हिसाब से हम इन सब चीजों को दोष नहीं दे सकते हैं। यह हमें निर्धारित करना होगा कि क्या ये सारी चीजें हमारा जीवन चला रही हैं। अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पाने के लिये दूसरी चीजों पर दोष लगाना बहुत आसान होता है। मैंने अकसर लोगों से सुना है कि ‘आजकल टी.वी. सीरियल इतने खराब आ रहे हैं कि बच्चों पर संस्कार ही नहीं होते।’ मैं कहती हूं कि सीरियल का काम ही नहीं है बच्चों को संस्कार देना। ये तो माता-पिता को निर्धारित करना है कि उनके बच्चों को क्या देखना है, कैसी किताबें पढ़नी हैं। अगर वे खुद फिल्मी पत्रिकाएं घर पर लायेंगे, अपने बच्चों के सामने पढ़ेंगे और फिर शिकायत भी करेंगे कि बच्चे बिगड़ रहे हैं तो ये बिलकुल गलत है। साधन हैं इसलिये अपनी जिम्मेदारी भूल जाना सही नहीं है। इंटरनेट का उपयोग जानकारी एकत्र के लिये किया जाना चाहिए। यह जानकारी प्राप्त करने का आसान और अत्यधिक गतिशील माध्यम है।

मेरे हिसाब से दोष उन लोगों का है जो बच्चों की परवरिश सीरियल और टीवी पर छोड़ देते हैं। टीवी पर डिस्कवरी चैनल पर डाक्युमेंट्री फिल्में भी आती हैं वे बच्चों को क्यों नहीं दिखाते? अगर लोग बच्चों को टीवी के सामने बिठा देंगे और सोचेंगे कि उन्हें संस्कार मिलेंगे तो उनकी यह सोच गलत है।

आपने भी पहले टीवी सीरियल में काम किया है। क्या इन सीरियलों में नारी का विकृत रूप सामने नहीं आ रहा है?

मेरा किरदार किसी लंबी बिंदी या आकर्षक साड़ी के लिये नहीं जाना जाता। वह जीवन मूल्यों पर आधारित सिद्धांतों के लिये जाना जाता है। मैंने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए कभी गुटखा या पान मसाले का विज्ञापन नहीं किया। क्योंकि मुझे पता है इससे गलत संदेश जायेगा। मुझे आपने कभी पेज थ्री की पार्टी में जाते नहीं देखा होगा। ये मेरा जीवन है। मैं खुद चुनाव कर सकती हूं कि मुझे क्या करना है, परंतु मैं अपना निर्णय किसी पर थोप नहीं सकती। लोगों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।

जहां तक महिलाओं का नकारात्मक किरदार निभाने का सवाल है तो आजकल यह चलन है कि सीरियल को कामयाब होने के लिये महिलाओं पर ही निर्भर होना होगा, यहां पुरूष कामयाब नहीं हो सकते क्योंकि सीरियल महिलाओं के द्वारा ही ज्यादा देखे जाते हैं। फिल्मों में दोनों तरह के किरदारों में पुरुष ही मुख्य होते हैं क्योंकि फिल्मों का दर्शक वर्ग यही चाहता है

रामायण में राम भी है और रावण भी है। यह तो लोगों पर निर्भर करता है कि आप किसे ग्रहण करेंगे। किसी भी परिस्थिति में आप वाल्मिकीजी को दोष नहीं दे सकते। वयस्क उसे ही कहा जाता है जो अच्छे बुरे में फर्क करना जानता है।

महंगाई का सबसे ज्यादा प्रभाव आज घर चलाने वाली महिला पर पड़ता है। महिला होने के नाते आप इसे किस नजरिये से देखती हैं?

आज के दौर में रुपये का जो स्तर गिर रहा है वह महंगाई को और बढ़ानेवाला है। भारत सरकार गरीबों को रिझाने के लिये नये नये हथकण्डे अपनाती है। फूड सिक्यूरिटी बिल, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर, आधार कार्ड की बात सरकार ने की। इन सबके पीछे कांग्रेस सरकार की मंशा केवल वोट पाने की है। राहुल गांधी ने खुद कहा कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर अर्थात वोट ट्रांसफर। जब फूड सिक्युरिटी बिल नहीं था तब भी गुजरात सरकार 5 करोड़ 11 लाख लोगें को कम मूल्य (सब्सिडाइज्ड) पर अनाज देती थी। यह बिल आने के बाद यह संख्या 3 करोड़ 60 लाख हो गई है। डेढ़ करोड़ गुजरातियों को उस सूची से निकाल दिया जिसका कोई कारण उनके पास नहीं है।

सरकार ने ढ़िंढोरा पीटा कि गरीबी कम हो गई है। कैसे कम की गरीबी? कहा कि अगर आप गांव में 27 रुपये कमाते हैं तो काफी है। क्या सचमुच काफी है? 12 रुपये में पूरा खाना मिल जाता है। क्या मिलता है? जब गरीबी रेखा की बात की तो दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं ने भी कहा कि फार्म्ाूला गलत है। जनता की आंखों में धूल झोंककर उसे झांसा देने के लिये सरकार बहुत कुछ कर रही है परंतु सत्य परिस्थिति यह है राशन की दुकान में भी आजकल कुछ नहीं मिलता।

2010 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि जो अनाज सड़ रहा है उसे गरीबों में बांट दो। सरकार ने ऐसा नहीं किया बल्कि उसे शराब के व्यापारियों को बेच दिया। इससे यह साफ दिखाई देता है कि वे एक कागज के टुकडे के माध्यम से वोट पाना चाहते हैं।

क्या अभी भी जनता इस झांसे में आयेगी?

मुझे नहीं लगता अब जनता इस झांसे में आयेगी। जब मेरा देशभर में प्रवास होता है तो मैं लोगों में एक आक्रोश देखती हूं। जनता के पास पांच साल में एक ही बार मौका आता है और इस बार 2014 में उनका आक्रोश वोट में जरूर परिवर्तित होगा। मुंबई, गुजरात और बिहार के उप चुनावों में कांग्रेस साफ हो गई। महाराष्ट्र में महानगरपालिका के चुनावों में भी कांग्रेस नहीं जीती। इससे साफ़ जाहिर है कि लोग अब कांग्रेस को पसंद नहीं करते।

जनता के इस बदलते रुख का भाजपा कैसे उपयोग करेगी? आपकी रणनीति क्या है?

कांग्रेस पर तो वोट के माध्यम से जनता प्रहार कर ही रही है परंतु उस आक्रोश को भाजपा की ओर सकारात्मक रूप में मोड़ने का काम हम कर रहे हैं। रणनीति तो वह होती है जो बताई न जाये, जिसकी सार्वजनिक चर्चा न हो। वरना वह रणनीति नहीं होगी। नरेन्द्र भाई मोदी और राजनाथ सिंह जी द्वारा संगठन में विभिन्न लोगों को विभिन्न जिम्मेदारियां दी गई हैं। महिला, युवक, व्यापारी, मच्छीमारवर्ग इत्यादि सभी से संपर्क करके संवाद बढ़ाया जा रहा है। जिससे उनकी सोच को समझा जा सके और उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिये प्रयास किया जा सके। बड़ी रैली न निकालते हुए नुक्कड स्तर तक पहुंचने का हमारा प्रयास है।

आपकी इसमें क्या भूमिका है?

मैं गोवा की प्रभारी हूं। मैंने गोवा में ‘गांव चलो’ अभियान किया। लोगों को यह सुनकर आश्चर्य हुआ था कि गोवा में भी गांव चलो अभियान है। मैंने उन लोगों को बताया कि वहां भी 185 पंचायतें है और मैं पंचायत में जाकर, बूथ स्तर पर जाकर कार्यकर्ताओं से बात कर चुकी हूं। अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग स्तर पर संवाद के माध्यम से संगठन का काम चल रहा है।

लोकसभा के चुनावों के पहले चार राज्यों के चुनाव हैं। क्या इन चुनावों के परिणाम लोकसभा चुनाव का रुख तय करेंगे?

मेरे हिसाब से मतदाताओं को कभी भी ‘फॉर ग्रांटेड’ नहीं लेना चाहिये। अगर विधानसभा में हमें सीटें मिलती हैं तो हम शक्तिशाली होंगे परंतु हमारा प्रयास उसे और बढ़ाने की ओर होगा और जहां सीटें कम हैं, लोगों का समर्थन कम मिला तो उस इलाके में हम अपना संगठन मजबूत करने का प्रयत्न करेंगे। आज देश में पार्टी की शक्ति बढ़ने की गुंजाइश बहुत है। मैं उन भागों की ओर अधिक ध्यान दूंगी जहां संगठन की शक्ति कम है। मैं संतुष्ट नहीं होना चाहती।

जब मैं महिला मोर्चा की अध्यक्ष थी तो मैंने अंडमान में महंगाई के विरोध में आंदोलन करने का सुझाव दिया। सभी ने कहा कि वहां कौन आयेगा, विशेष व्यवस्था करनी होगी। परंतु मैंने प्रयास किया और वहां भी 2000 लोग आये।

महिला आरक्षण विधेयक के संदर्भ में क्या कहना चाहेंगी?

मेरे हिसाब से महिला आरक्षण विधेयक तभी पास होगा जब भाजपा सत्ता में आयेगी। पिछले 10 साल से सोनिया गांधी अध्यक्ष होते हुए भी यह नहीं करवा सकीं। यह उनकी विवशता नहीं है। एक सोचा समझा निर्णय है। जिस पार्टी में परिवार के माध्यम से ही लोग राजनीति में आये वे क्यों चाहेंगे कि सामान्य महिला को भी राजनीति में आने का बराबरी से मौका मिले। उनसे ये अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। उनके यहां यह चलन ही नहीं है कि कोई महिला साधारण या गरीब परिवार से राजनीति में आये। मेरी उनसे यह अपेक्षा ही नहीं है कि वह महिला के संघर्ष, अधिकार की बात सोचे। सोनिया गांधी ने वह संघर्ष किया ही कहां है?

अभिनेत्री और नेता के रूप में आप अभी तक के अपने सफर को जब देखती हैं तो आपको क्या महसूस होता है?

स्मृति ईरानी चाहे राजनीति में हो, चाहे धारावाहिकों में हो वह पहले दो बच्चों की मां है और जुबिन ईरानी की पत्नी है। मेरे जीवन में मेरी उपलब्धियों का हर्षोल्लास कम है उनकी उपलब्धियों का अधिक है। मेरा जीवन एक प्रमाण है कि अगर महिला कोई निर्णय कर लें तो ऐसा कोई नहीं है जो उसे रोक सके। मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि मैंने अपने दम पर जीवन जीया, अपने निर्णय खुद लिये। मैं सारी महिलाओं के लिये केवल यह कामना कर सकती हूं कि भगवान सारी महिलाओं को उनकी निर्णय प्रक्रिया में उनका साथ दें, उनका साहस बढ़ायें और उनको स्वस्थ रखें।

समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

समाज की सोच में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है। महंगाई के इस जमाने में सभी ये सोचने लगे हैं कि महिला और पुरुष सभी को समान रूप से काम करना होगा। सभी यह चाहते हैं कि उनका जीवन आर्थिक रूप से स्वावलंबी और स्वतंत्र हो। आज की पीढ़ी तो खासकर यही सोचती है कि उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना ही है। ऐसे माहौल में परिस्थितियों में सुधार आ रहा है। परंतु अभी भी बदलाव की गुंजाइश बहुत ज्यादा है।

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