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नमामि नर्मदे

नमामि नर्मदे

by अमृतलाल वेगड
in नवंबर -२०१३, सामाजिक
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 रामघाट के प्रपातों को देखकर सहस्रधारा का स्मरण हो आया। अंतर यह है कि सहस्रधारा के प्रपात दूर-दूर तक बगरे हैं, जबकि यहां के प्रपातों का रेवड़ एक ही जगह इकट्ठा हो गया है। घोड़े के टाप के आकार की एक विस्तृत सपाट चट्टान से असंख्य जलधाराएं गिरती हैं। मोर जैसे पंख फैलाकर नाचता है, उसी तरह नर्मदा ने यहां अपनी जलधाराएं फैला दी हैं। वैसे प्रपात बहुत छोटे हैं, इक्के-दुक्के होते तो शायद ध्यान भी न जाता। पर ये तो हैं दल के दल, झुंड के झुंड। मृगछौनों की तरह हैं ये। लगता है, इन्हें गोद में ले लूँ, सहला लूँ, फिर कुलाँचें भरने के लिए छोड़ दूँ।

अमृतलाल वेगड़ नर्मदा-व्रती चित्रकार-लेखक हैं। वे देश के ऐसे पहले चित्रकार हैं जिन्होंने नर्मदा की पूरी परिक्रमा की- लेकिन खंडों में। जबलपुर में 1928 में जन्मे वेगड़जी 1948 से 1953 तक शांति निकेतन में कला का अध्ययन कर चुके हैं। प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस उनके गुरु रहे। 1953 से 1988 तक चित्रकला के अध्यापक रहे। वेगड़जी हिंदी और गुजराती में समान अधिकार से लिखते हैं। नर्मदा परिक्रमा पर उनकी पुस्तक त्रयी- सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा को राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया है। इन पुस्तकों के कई भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। उनके नर्मदा पर चित्रों की कई प्रदर्शनियां लग चुकी हैं। करीब 33 वर्ष वे नर्मदा व उसकी सहायक नदियों के तटों पर पैदल चलते रहे। सहायक नदियों की यात्रा में उनकी पत्नी कांता भी साथ रहीं। दोनों उम्र से वृद्ध जरूर हो चुके थे, लेकिन मन जवां था और नर्मदा- एक बैरागी नदी- उन्हें बुलाती रही।

पता नहीं कब और किसने नर्मदा की पहली परिक्रमा की और एक परम्परा का सूत्रपात किया। इस प्रकार परिक्रमा अस्तित्व में आई और आज भी चल रही है। इसका अर्थ यह है कि समाज को इसकी आवश्यकता है। वह निरर्थक नहीं रही। निरर्थकता सदियों तक जारी नहीं रह सकती।

शुरू के वर्षों में इसमें कितना जोखिम रहा होगा। घने जंगल, हिंसक पशु, कठिन डगर। यह खतरा अब कम हो गया है लेकिन आज भी वह खतरों और मुश्किलों से खाली नहीं। 3 वर्ष, 3 महीने और 13 दिन तक भिक्षा मांगते हुए नंगे पांव चलना कोई कम तपस्या नहीं। यह अभियान आस्था, अपरिग्रह, धीरज और कष्ट झेलने की अपार क्षमता की मांग करता है। परिवार का मोह छोड़ना पड़ता है और मृत्यु के वरण के लिए तैयार रहना पड़ता है। और परिकम्मावासी यह अत्यंत कठिन यात्रा करता है अपने मन की खुशी के लिए, अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए। परिक्रमा के लिए उसे पदक नहीं दिया जाएगा, न ही सम्मानित किया जाएगा। फिर भी हर साल हजारों श्रद्धालु बड़े ही आनंद के साथ यह कठिन कार्य करते हैं। कई तो दो-दो, तीन-तीन बार करते हैं।

मुझे लगता है कि इसके पीछे पुण्य अर्जित करने की धार्मिक भावना के साथ ‘चरैवेति’ की आध्यात्मिक भावना भी है। ‘चरैवेति’ की भावना मनुष्य को दुर्गम प्रदेश तक ले जाती है, चाहे वह तीर्थाटन के रूप में हो (इसमें देव दर्शन के निमित्त देव-दर्शन होता है), पर्यटन के रूप में हो या पर्वतारोहण के रूप में। ये यात्राएं रहस्यमय ढंग से हमारे जीवन को समृद्ध करती हैं। निस्संदेह इसमें जोखिम है, पर मनुष्य जोखिम उठाना चाहता है। अपने सामर्थ्य को आंकना चाहता है। अपने को आजमाना चाहता है। भ्रमण-लालसा सदैव रही है और सदैव रहेगी। परिक्रमा उसी का पावन प्रकार है। जब तक इस विशाल देश को उसकी समूची खूबियों के साथ हम नहीं देखेंगे, तब तक उसके प्रति हमारा प्रेम शाब्दिक होगा। प्रकृति-प्रेम देश-प्रेम की पहली सीढ़ी है।

नर्मदा की पदयात्राएं मैंने 1977 में शुरू कीं और 1999 में पूरी परिक्रमा कर ली- एक साथ नहीं, थोड़ा-थोड़ा करके चला। नर्मदा मेरे लिए ऐसी किताब है कि जिसे बार-बार पढ़ने का मन करता है। प्रथम पदयात्रा 1977 में और अंतिम 2009 में हुई। इन 33 वर्षों के दौरान मैं 4000 हजार किलोमीटर से अधिक चला। प्रथम यात्रा के समय मैं 50 का था और अंतिम यात्रा के साथ 82 का हो गया। आज जब उन यात्राओं के बारे में सोचता हूं, तो खुद हैरान हो उठता हूं कि इतनी सारी यात्राएं मैंने कैसे कर लीं। मैं कोई हट्टा-कट्टा सूरमा नहीं, सूखे डंटल सा शरीर है मेरा। फिर भी इतना चला।

नर्मदा तट की भूगोल तेजी से बदल रही है। बरगी बांध, इंदिरा सागर बांध और सरदार सरोवर बांध तथा अन्य बांधों के कारण अनेक गांवों का तथा नर्मदा के सैकड़ों किलोमीटर लम्बे किनारों का अस्तित्व समाप्त हो गया। जब मैंने ये यात्राएं कीं तब एक भी गांव डूबा नहीं था। नर्मदा बहुत कुछ वैसी ही थी, जैसी हजारों वर्ष पूर्व थी। मैंने यह परिक्रमा की- नियमानुसार तो नहीं, लेकिन पूरी परिक्रमा की। नर्मदा की म.प्र. के अमरकंटक से गुजरात के खंबात तक लम्बाई 1312 किलोमीटर है। उत्तर और दक्षिण तट मिलाकर यह अंतर 2624 किलोमीटर हो जाता है। यह यात्रा मैंने खण्डों में पूरी की। उसके कुछ प्रसंग आज भी रोमांचित करते हैं।

नर्मदा सौंदर्य की नदी है। यह नदी वनों, पहाड़ों और घाटियों में से बहती है। मैदान इसके हिस्से में कम ही आया है। सीधा-सपाट बहना तो वह जानती ही नहीं। वह चलती है इतराती, बलखाती, वन-प्रांतरों में लुकती-छिपती, चट्टानों को तराशती, डग-डग पर सौंदर्य की सृष्टि करती, पग-पग पर सुषमा बिखेरती!

22 अक्तूबर 1977 को हम ग्वारीघाट, जबलपुर से पीठ पर बोझा लादे, ‘नर्मदे हर!’ के घोष के साथ चल पड़े। हम चार लोग थे। तीसरे पहर छतरपुर और शाम को बिजौरा पहुंचे। वहां सोने के लिए पाठशाला मिल गई। सुबह तैयार हुए और बंजारों की तरह चलते बने। हर सुबह सफर, हर शाम सफर। छेवलिया चल दिए। सरसों के पीले खेत देखकर मुझे बार-बार बसोहली शैली के चित्र याद आ जाते। इस पीताम्बर धरती को मैं मुड़-मुड़ कर देखता और पीछे रह जाता। रात को शरद पूर्णिमा थी। कोई ग्यारह बजे मेरी नींद खुली। चांद सोलहों कलाओं से चमक रहा था। चांदनी कई बार देखी लेकिन आज पहली बार लगा कि चांदनी में आपाद-मस्तक डूब गया हूं। चांदनी मेरे अंतरतम में प्रवेश कर रही है। मुझे लगा, रात भर यह ऐसी ही बरसती रही, तो सबेरे जमीन पर चांदनी की चादर बिछी मिलेगी।

भोर वेला में नर्मदा का पानी सिंदूरी हो गया है। जहां धूप नहीं पड़ रही है, वहां कहीं नीला, कहीं बैंगनी तो कहीं हरा है। दूर भूरा है। मीठे पानी का श्रेष्ठ और सुदीर्घ स्रोत है नदी। हजारों वर्षों से मनुष्य उसकी ओर खिंचता चला आया है। केवल इसलिए नहीं कि वह हमारी और हमारे खेतों की प्यास बुझाती है, बल्कि इसलिए भी कि वह हमारी आत्मा को तृप्त करती है। उसके तट पर हमारी आत्मा पल्लवित- पुष्पित होती है- संस्कृति का जन्म होता है। संसार की सभी प्रमुख संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है।

छेवलिया से सहजपुरी पहुंच गए। पास का आटा खत्म हो गया था। भिक्षा कभी ली नहीं थी। न हां कहते बनता था, न ना। फिर भी भिक्षा लेकर नर्मदा तट की ओर बढ़े। वहां एक संन्यासी की कुटी थी। रात्रि विश्राम वहीं था। कुटी से सट कर बहता झरना, सुंदर बगिया और सागौन के ऊंचे, घने पेड़- आश्रम-सा शांत और पवित्र वातावरण। मन तृप्त हो गया। रात धूनी के पास सोए। नदी का तट, सघन वन और खुला आवास- ठंड का क्या कहना!

दूसरे दिन आगे बढ़े। टाटीघाट का जंगल शुरू हो गया। पगडंडी पर इक्का-दुक्का आदमी ही मिलता। शाम को पाठा पहुंचे। पाठशाला में रुके। आगे का पड़ाव पद्मी में था। अगले दिन रास्ते में गरम पानी का कुंड पड़ा। उसमें स्नान किया और आगे बढ़े। रात एक किसान के खेत में बिताई। रात भर नर्मदा का निनाद सुनाई देता रहा। दिन के शोर-शराबे में यह ध्वनि डूब जाती है, रात की नीरवता में लहराती है।जब कोलाहल नहीं रहता, कलरव तभी सुनाई देता है। यहां से फिर पगडंडी मिल गई। नर्मदा-तट का फिर साथ हो गया। अब हम सहस्रधारा के बिलकुल सामने आ गए। सहस्रधारा की काजल-सी काली चट्टानें इतनी सख्त हैं कि लाखों वर्षों में पानी थोड़ा-सा ही तराश पाया। नर्मदा यहां मूर्तिकार बन गई है। चट्टानों में तरह-तरह की आकृतियां उकेरी हैं। अमूर्त शिल्पों की विशाल कला-वीथी है यहां। नर्मदा का ऐश्वर्य देखते-देखते ‘आठहूं पहर मस्ताना माता रहै, आठहूं पहर की छाक पीवे’ की स्थिति हो गई। पहली यात्रा यहीं पूरी हुई। यह जबलपुर से मंडला तक थी।

दूसरी यात्रा मंडला से अमरकंटक तक थी। पिछली बार चार साथी थे, अब की बार दो ही रह गए। 10 अक्तूबर 1978, भोर वेला में मंडला से निकल पड़े। रात एक गांव में बिताई। दूसरे दिन दोपहर को कछारी पहुंचे। बकछेरा से मोहगांव की ओर निकल पड़े। नर्मदा के किनारे-किनारे आगे बढ़े। कई जगह तो खांड़े की धार पर चलने जैसा था। कहीं घनी लतर-पतर। समझ में नहीं आता था कि किस लतर को पकड़ें और कहां से। जैसे-तैसे मानोट पहुंचे। वहां से लिंगा आए। रात हो गई। सुबह जमीन पर बिछे टेढ़े-मेढ़े धुआंरे को देखकर मैं समझ गया कि यह धुआं नहीं, भाप है और जहां-जहां भाप है, नीचे नर्मदा है। सुबह के धुंधलके में भाप की चादर ओढ़े सोई नर्मदा बड़ी मोहक लग रही थी। लिंगाघाट में पश्चिम- वाहिनी नर्मदा थोड़ी देर के लिए पूर्व-वाहिनी हो गई है। इसलिए इसकी धारा को यहां सूरजमुखी धारा कहते हैं। नर्मदा में ऐसे स्थान बहुत कम हैं। आगे कौआडोंगरी होते हुए शाम को खापा पहुंचे।

सुबह आगे बढ़े। जब दो पगडंडियां आतीं, तो हम असमंजस में पड़ जाते। सुनसान इलाके में किससे पूछते। डोकरघाट के निकट सामने जो पगडंडी थी, वह अस्पष्ट थी। पहाड़ी पर जो जा रही थी, वह साफ थी। हम उसी पर चले। लेकिन वह पगडंडी जंगल को जाती थी, इसलिए वापस नीचे उतरे। कुछ दूर झोपड़ियां दिखाई दे रही थीं। वहां से पगडंडी मिल गई। सिलगी नदी को पार कर आगे बढ़े। शाम को जैतपुरी पहुंच गए। नर्मदा नदी के किनारे-किनारे चलने के आग्रह के कारण दूसरे दिन शाम को हम एक ऐसे गांव में पहुंचे, जहां कोई भूला-भटका ही जाता है। गांव का नाम था छिनगांव। कोई पनाह देने के लिए तैयार नहीं था। आखिर एक गरीब दम्पति से अनुमति लेकर आंगन में सामान रखा। सुबह उठे तो बिस्तर ओस से भीग गया था। आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि ऐसी ठंड में भी नींद क्यों कर आई। मन में रीना गीत के कोमल, मृदुल स्वर गूंज रहे थे। वहां से बरछा और पहाड़ लांघा, तो सामने नर्मदा। थोड़ा चलने पर जोगीटिकरिया पहुंचे। दूसरे दिन लुकामपुर। यहां इतनी साफ-सुथरी कुटी मिली कि दो दिन रह गए। रात को नर्मदा की मर्मर ध्वनि बराबर सुनाई देती। प्रायः हर रात कल-कल बहती नर्मदा का रव सुनाई देता। दिन में वह भले ही नर्मदा हो, रात में रेवा है। दिन में वह दृश्य है तो रात में श्राव्य।

यहां से भिनसारा, रामघाट होते हुए शाम को दूधीसंगम पहुंचे। दोपहर को बीजापुरी और वहां से बसंतपुर होकर कंचनपुर गए। वहां से छोटे से गांव बिलासपुर और बाद में भीमकुंडी गए। नर्मदा दिन पर दिन छोटी होती जा रही थी। भीमकुंडी की शिशु नर्मदा को देखकर चकित रह गए। इसे पार करने में आधा मिनट भी न लगता। पानी में घड़ा मुश्किल से डूबता। रात में घुघवा में रहे। फरीसेमर में एक बैगा के घर की दीवारों पर सुंदर कलाकृतियां देखने को मिलीं। बैगा स्त्रियों के शरीर गुदनों से छलक रहे थे।

दमगढ़ से मेकल पर्वत ने नर्मदा को मानो अपनी भुजाओं में उठा लिया है। यहां से अमरकंटक की चढ़ाई शुरू होती है। टेड़ी-मेड़ी पगडंडियों से होते हुए कोई दो घंटे में हम ऊपर आ गए। छोटा-सा मैदान पार करके थोड़ा उतरे तो कपिलधारा पहुंच गए। कपिलधारा! प्रपात-बाहुल्या नर्मदा का सब से पहला औरी सब से ऊंचा प्रपात। नीचे उतर कर प्रपात के पायताने खड़े होकर, इसे आपादमस्तक देखने लगे। प्रपात से उठती हुई झंकारमय ध्वनि घाटी को थपथपा रही थी। नीचे नदी की तेज धारा चट्टानों में से भागती चली जा रही थी। हम श्रद्धानवत यह देखते रहे। अमरकंटक में कल्याणदासजी के आश्रम में रहे। सामान रखकर नर्मदा-कुंड गए। कुंड देखते ही मेरी आंखों में आंसू की दो बूंदें छलकीं। आखिर हम नर्मदा के उद्गम तक पहुंच ही गए थे। तीसरे दिन दीवाली थी। उस दिन स्त्रियां नर्मदा कुंड में दीप छोड़ रही थीं। अंधेरी रात में कुंड में झिलमिलाते दीपों का केसरिया उजाला मैं देर तक देखता रहा।

यहां से हमारी यात्रा का नया अध्याय शुरू हुआ। अभी तक हम नर्मदा के उत्तर-तट पर थे, यहां से दक्षिण-तट पर आ गए। कोई दो घंटे में कपिलधारा पहुंच गए। ऐन कपिलधारा से नीचे उतरना संभव नहीं था। थोड़ा आगे बढ़कर नीचे उतरे। दूधधारा से भी नीचे उतरे। चट्टानों पर से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। कहीं-कहीं तो समझ में नहीं आता था कि कहां से बढ़ें। गिरते-पड़ते, चढ़ते-उतरते, चप्पा-चप्पा आगे बढ़ रहे थे। नर्मदा की उंगली पकड़कर चल रहे थे। आमने-सामने ऊंचे हरे-भरे पहाड़ और बीच में गहरी और संकरी घाटी में से बहती हुई तन्वंगी नर्मदा। तीसरे पहर घाटी चौड़ी होने लगी। मैं समझ गया कि पहाड़ खत्म होने को है, मैदान आ गया। आगे जाने पर पगडंडी मिल गई। शाम होते-होते पकरीसोंढ़ा पहुंच गए। गारकामट्टा में गोपी कोटवार के घर रहे। गांव में एक जगह शादी हो रही थी। हम भी शामिल हुए। भांवरें पड़ रही थीं। सभी ने दुल्हा-दुल्हन के पैर पूजे। मैंने भी पूजे। एक मजे की बात यह थी कि यह लड़की नहीं, लड़के का घर था। यहां चार भांवरें लड़की के घर पड़ती है, तीन लड़के के घर।

अगला पड़ाव बंजरटोला। इसके बाद सिवनीसंगम। यहां सिवनी नदी नर्मदा से आ मिलती है। एक दिन निकट के गोरखपुर गांव का बाजार भी देख आए। फिर चल दिए। गरमी के दिन थे, खेतों में फसल नहीं थी। पहाड़ नहीं, जंगल नहीं। जंगल तो दूर, छाया के लिए पेड़ भी नहीं। सामने का गांव दूर से ही दिखता था। धूप के कारण बुरा हाल था। पर आज आकाश में बादल थे। पथरकुचा पहुंचते-पहुंचते आकाश बादलों से घिर गया। तेज वर्षा के कारण गांव में शरण लेनी पड़ी। अगला पड़ाव मझियाखार। फिर गोमतीसंगम। फिर लछमनमड़वा। दोपहर को डिंडोरी पहुंचे।

डिंडोरी से पहाड़ों की भूलभुलैया शुरू होती है। अनेक छोटे-बड़े पहाड़ गति-अवरोधक बनकर नर्मदा को कभी दांए तो कभी बांए मुड़ने को मजबूर करते हैं। डिंडोरी से मंडला तक का मार्ग अत्यंत दुर्गम है, तो सुंदर भी है। नर्मदा का यहां मानो बालकांड पूरा होता है और सुंदर-कांड शुरू होता है। डिंडोरी से निकलकर रात बंजरटोला में बिताई। दूसरी रात रमपुरी में। जब हम देवनाला पहुंचे तो दिन ढल चुका था। दूसरे दिन मरवारीघाट और शाम को कनईसंगम पहुंचे। तट पर एक सुनसान छोटे से मंदिर में रात बिताई। सामने मालपुर दिख रहा था। पास ही छीरपानी है। रात वहीं रुके। इसके बाद की रात नैझर में बिताई। डोकरघाट से मुंडी आए। वहां देर रात तक लोक-नृत्य देखते रहे। पुरूष सैला नाच रहे थे। हाथ में लकड़ी के बने चटकीला को बजाते हुए नाच रहे थे और गा रहे थे-

तरीना को नारा रे, मोर हारिल सुआ
तरीना का नारा रे, मोर हारिल सुआ
घरोली में बोले राजाराम
सोनचिरैया जाय बैठे अमवा की डार।

बहुत तेज नाच होता है, थका देने वाला। पुरूष थक गए तो स्त्रियों ने रीना शुरू किया। फिर दोनों ने मिलकर करमा नाचा। पुरुषों का सैला, स्त्रियों का रीना और दोनों का सम्मिलित करमा। आज हमें तीनों नृत्य देखने को मिले।

रात गोरखपुर में रहे। यहां से जंगल की एक कच्ची सड़क से देवगांव पहुंचे। वहां एक मछुआरे की परछी में सोए। रामनगर से सड़क मिल गई। सामने से आते एक वृद्ध दिखाई दिए। वेशभूषा से परकम्मावासी जान पड़ते थे। परकम्मावासी ही थे। मैंने पूछा, ‘आप उलटे कैसे चल रहे हैं?’ उन्होंने कहा, ‘मेरी जिलहरी-परिक्रमा है। इस परिक्रमा में समुद्र को नहीं लांघते। इसमें दुहरी परिक्रमा होती है।’ मैं चकित। पचहत्तर वर्ष की उम्र के यह वृद्ध, बिना किसी संगी-साथी के कैसी कठिन परिक्रमा कर रहे थे। मैं नतमस्तक हुआ।

आगे मंडला दिखाई दिया। बंजर के चौड़े पाट को पार कर हम महाराजपुर पहुंचे। यहां इस बार की यात्रा यहीं समाप्त हुई।
अब तीसरी यात्रा की बारी थी। दूसरी जहां समाप्त की उसी महाराजपुर से यह यात्रा आरंभ हुई। दूसरे दिन बुजबुजिया पहुंचे। सबेरा होते ही चल दिए। हवा एकदम बंद थी। पूरा भूखंड जल रहा था। पेड़ धूप में कुम्हला गए थे। भरी दोपहर को घाघा पहुंचे। जोरों से लू चलने लगी। आंधी उठती तो सारी देह धूल से अट जाती। शाम तक हमारे ऊपर धूल की चार-छह पर्ते जम गईं। अगला दिन पद्मीघाट के आश्रम में बिताया और वहां से छिंदवाहा पहुंचे। नर्मदा के संग-संग चले। रोटो पहुंच कर एक वनरक्षक की झोपड़ी में डेरा डाला। दूसरे दिन खुश्क पहाड़ियों से होते हुए पायली पहुंचे। शाम को नर्मदा-तट गए। पचीस बरस पहले यहां आया था। तब यहां कैसा घना जंगल था। अब कुछ नहीं बचा। इनसान की कुल्हाड़ी ने सर्वनाश कर डाला था। यहां से पारा पास ही है। भिनसारे चल दिए। आगे टेमर-संगम पड़ा। उसके आगे खमरिया पहुंचकर रात बिताई। इस बार की यात्रा यहीं समाप्त हुई।

17 नवम्बर 1982। जबलपुर के ग्वारीघाट में नाव से हमने नर्मदा पार की और ठीक उसी बिंदु से चल पड़े, जहां पिछली यात्रा समाप्त की थी। रात सिवनी में बिताई। सुबह चल दिए। तीसरे पहर डुंडवारा पहुंचे। नर्मदा का प्रसिद्ध जलप्रपात धुआंधार यहां से पास ही है। इसी धुआंधार से नर्मदा संगमरमर की कुंजगली में प्रवेश करती है और एक अद्भ्ाुत सौंदर्य-लोक की सृष्टि करती है। कनक छरी-सी इकहरे बदन की नर्मदा एक जगह इतनी सिमट गई है कि इस स्थान को बंदरकूदनी कहते हैं। यहां नर्मदा मानो सुस्ता रही है या अत्यंत मृदु गति से बह रही है। संगमरमर की विशाल दूधिया चट्टानें, अलस गति से बहती नीरव नर्मदा और निपट एकांत- लगता है किसी नक्षत्र-लोक में आ गए हैं। डुंडवारा से धरतीकछार, भीकमपुर होते हुए झलोनघाट पहुंचे। रात सांकल में रहे। वहां अंगार पर बाटी (गाकड़) सिकते देखकर मुझे लगा कि प्रकृति के बीच रहने वाला आदि-मानव अपने खाद्य-पदार्थ इसी प्रकार आग पर भून कर खाता होगा। थोड़ी अतिशयोक्ति करके हम कह सकते हैं कि बाटी प्रकृति है, रोटी संस्कृति है और पूरी-पराठे विकृति है।

हमारा अगला पड़ाव ब्रह्माघाट था। अब बरमानघाट हो गया। वहां काफी बड़े घाट हैं। यहां आने से पहले नर्मदा दो धाराओं में बंट जाती है। बीच में बड़ा द्वीप है। बरमन में हर एकादशी, पूर्णिमा या अमावस्या के दिन छोटा-मोटा मेला भरता है। सब से बड़ा मेला संक्रांत से भरता है जो एक महीने चलता है। नर्मदा-तट पर भरने वाले मेलों में यह शायद सब से बड़ा मेला है। यहां से तीसरे पहर चल दिए। थोड़ी देर में बरिया आ गया। वहां से ढाना पहुंचे। रात शोकलपुर की संस्कृत पाठशाला में बिताई। सुबह चल दिए। दोपहर को दूधी को पार कर हम नरसिंहपुर जिले से होशंगाबाद जिले में आ गए। रात खैराघाट की पांथशाला रहे। सुबह सांडिया के लिए चल पड़े। इस बार की यात्रा यहीं समाप्त हुई।
अगली यात्रा उसी स्थान से ‘नर्मदे हर!’ के घोष के साथ शुरू हुई। दिन था 19 अक्तूबर 1983। देनवा पार करते हुए तीन परकम्मावासियों का साथ हो गया। अभी तक हम दो थे, अब पांच हो गए- पांच पांडव। तीन कुंती के, दो माद्री के! दोपहर जिस गांव में पहुंचे उसका नाम था पांडवद्वीप। लम्बा घेरा लगाकर मारू पार की। फिर पड़ा सतवांसा। यहीं रुक गए। शाम को नर्मदा-तट पर पूनो का भरर-पूरा चांद निकला। धरती दूध से नहा उठी। कौन कहेगा कि दिन की धूप और रात की चांदनी मूलतः एक है। सूर्य-प्रकाश जब सीधे आता है तो धूप कहलाता है, जब चंद्र-ताल में नहाकर आता है तो चांदनी कहलाता है।

भोर होते ही निकल पड़े। शाम को बछवाड़ा पहुंचे। गांव के चबूतरे पर सामान रखा। मैं आश्रय की खोज में था। तभी एक शिक्षक आए। उनकी गोशाला खाली पड़ी थी- लिपी-पुती और साफसुथरी। वह हमें दे दी। सबेरे चल दिए। गनेरा के बाद नर्मदा का साथ छूट गया। उसने अपना पाट बदल दिया है, दूर चली गई है। रात में बीकोर में रहे। अहारखेड़ा में नर्मदा फिर मिल गई। सूरजकुंड पहुंचते दोपहर हो गई। शाम को गोरा पहुंचे। सुबह आगे बढ़े। होशंगाबाद पहुंचते- पहुंचते सांझ हो गई। होशंगाबाद लम्बोतरा शहर है, यहां के घाट देश के सर्वोत्तम घाटों में से हैं। नर्मदा का पाट जितना चौड़ा है, घाट उतना ही विशाल है। यहां दो रात का विश्राम मिल गया। तीसरे दिन सुबह नानपाघाट होते हुए आंवरीघाट पहुंच गए। गांव तो दूर है, पर नर्मदा-तट पर मंदिर है, वहीं रात रहे। बाद में वहां से इंदनासंगम होते हुए भिलाड़िया पहुंचे। रात गोदागांव में रहे। यहां गंजाल नर्मदा में आ मिलती है। छोटी छिपानेर के बाद बजरंगकुटी पड़ी। रात समसाबाद में रहे। यहां से आगे बढ़े तो ब्रम्होरी से हंडिया पहुंचे। इस पार हंडिया, उस पार नेमावर। यह नर्मदा का मध्य है, नर्मदा के उद्गम और संगम के मध्य में है, इसलिए नर्मदा का नाभि-स्थान कहलाता है। आखिर थोड़ा-थोड़ा करके मैं नर्मदा के मध्य तक पहुंच ही गया था! अब तक अमरकंटक पास था, अब समुद्र पास होता चला जाएगा।

रात सीगोन में काटी। यहां से ओंकारेश्वर की झाड़ी शुरू हो गई। शाम को बड़केश्वर घाट पहुंचे। बलड़ी और बंधानिया के बाद परकम्मावासियों का आसान मार्ग छोड़कर सरई आ गए। चट्टानों में से बहती नर्मदा यहां कितनी संकरी हो गई है। कल तक नर्मदा वनबाला थी, अब शैलबाला हो गई है।

अगले दिन सुबह चले। दोपहर तक धाराक्षेत्र होते हुए भंवरला पहुंचे। रात वहीं बीती। सुबह चिलचिलाती धूप के कारण इन्धावाड़ी पहुंचते- पहुंचते पसीने से नहा उठे। थोड़ी देर में मांधाता आ गए। ठीक सामने है ओंकारेश्वर, नर्मदा-तट का सब से बड़ा तीर्थ। ओंकारेश्वर एकदम सामने है, दो मिनट का भी रास्ता नहीं, फिर भी नर्मदा के मध्य में एक टापू पर स्थित होने के कारण परकम्मावासी वहां जा नहीं सकता। ओंकारेश्वर- कितना पास, फिर भी कितना दूर!

नर्मदा-तट के छोटे से छोटे तृण और छोटे से छोटे कण न जाने कितने परिव्राजकों, ॠषि-मुनियों और साधु-संतों की पदधूलि से पावन हुए होंगे। यहां के वनों में अनगिनत ॠषियों के आश्रम रहे होंगे। वहां उन्होंने धर्म पर विचार किया होगा, जीवन-मूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा। हमारी संस्कृति आरण्यक-संस्कृति रही। लेकिन अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है?

शाम को मोरटक्का के खेड़ीघाट पहुंचे। यहां से रास्ता आसान है, झाड़ी खत्म। रात गोमुख-बावड़ी में रहे। सुबह चल दिए। थोड़ी देर में कांकरिया पहुंचे। दोपहर को रावेर आए। शाम बकावा में हो गई। यहां नदी किनारे के एक चबूतरे पर ही विश्राम था। अगला पड़ाव मर्कटीतीर्थ था। ढालखेड़ा में राघवानंदजी के आश्रम में रहे। इस बार का परिक्रमा चरण यहीं खत्म हुआ।

19 मई 1985 से अगला चरण आरंभ हुआ। पहली उजास के साथ साटक-संगम से चले। तेज लू चल रही थी। एक तो गरमी के दिन, फिर पश्चिमी निमाड़ की गरमी। थोड़ी देर में ही पसीने से नहा उठे। रात्रि निवास ग्यारहलिंगी के मंदिर में रहे। अगला पड़ाव पिपलोद। इसके बाद का पड़ाव राजघाट। शूलपानी की 80 किलोमीटर की झाड़ी यहीं से शुरू होती थी। लेकिन बांध के कारण यह इलाका अब डूब में आ गया है। वहां के भीलों को गुजरात में बसाया गया है। मध्यप्रदेश से गुजरात में क्या आ गया, मानो एक मां की गोद से दूसरी मां के गोद में आ गया। नवागाम से गोरा तक नर्मदा के किनारे-किनारे सड़क है। गोरा से पहाड़ परे हट जाते हैं। रात धनेश्वर में रहे। भोर किरण के साथ आगे बढ़े। शाम को ओरी और वहां से असा पहुंचे। आगे कबीरगड़ से मढ़ी और वहां से उचेड़ीया आए। अब नर्मदा छूट गई। अब तो समुद्र तक सड़क ही सड़क है। उछाली, सजोद होते हुए कतपोर आए। कतपोर नर्मदा-तट का आखिरी गांव नहीं है। आखिरी गांव विमलेश्वर है। लेकिन समुद्र पार करने के लिए नाव यहां से छूटती है, इसलिए परकम्मावासियों का यहां जमघट रहता है। दूसरे दिन विमलेश्वर गए। नर्मदा समुद्र से इतना धीमे-धीमे मिलती है कि यह निर्धारण करना मुश्किल है कि कहां नर्मदा का अंत है और कहां समुद्र का आरंभ। समुद्र पार किया और विमलेश्वर से मीठीतलाई, कोलीयाद होते हुए भरूच पहुंचे। आगे नारेश्वर में यात्रा का चरण पूरा किया। यह यात्रा करीब 1800 किमी की थी। यह यात्रा उत्तर-तट पर जबलपुर से अमरकंट तक, दक्षिण-तट पर अमरकंटक से विमलेश्वर और मीठीतलाई तक और पुनः उत्तर-तट पर मीठीतलाई से भरूच तक और वहां से नागेश्वर तक रही।

अगली यात्रा उत्तर-तट से पुनः नागेश्वर से आरंभ हुई। यह यात्रा कोई 800 किमी की थी। नारेश्वर से भेड़ाघाट तक यह यात्रा थी। दक्षिण तट की तरह उत्तर तट की यात्रा भी कठिन, मानवीय पहलुओं से सराबोर, प्रकृति की मनोरम छटाओं और पशु-पक्षियों के संगीत और नर्मदा तथा उसकी सहायक नदियों के कलरव के संग हुई। कई प्रेरणादायी, आनंददायक क्षण आए तो कई मन को कचोटने वाले, मानवीय पहलुओं को उजागर करने वाले प्रसंग। लेख की मर्यादा के कारण इन प्रसंगों का उल्लेख करना संभव नहीं है। यह यात्रा वृत्तांत का सम्पादित अंश प्रातिनिधिक मानना चाहिए। जब परिक्रमा हुई तब और आज की स्थिति में बहुत अंतर आ गया है। कई बांध बन चुके हैं और कई गांव डूब में आकर अन्यत्र स्थलांतरित हो गए हैं। लेकिन नर्मदा आज भी उतनी ही सौंदर्यवती और बैरागी नदी है।

(लेखक की नर्मदा परिक्रमा पर आधारित पुस्तक त्रयी- सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा पर आधारित।)
—————–

॥ श्रीमदाद्यशङ्कराचार्यकृत नर्मदाष्टक ॥
सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत्तरङ्गभङ्गरञ्जितं
द्विषत्सुपापजातजातकारिवारिसंयुतम्।
कृतान्तदूतकालभूतभीतिहारि वर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥1॥
त्वदम्बुलीनदीनमीनदिव्यसम्प्रदायकं
कलौ मलौघभारहारिसर्वतीर्थनायकम्।
सुमत्स्यकच्छनक्रचक्रचक्रवाकशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥2॥
महागभीरनीरपूरपापधूतभूतलं
ध्वनत्समस्तपातकारिदारितापदाचलम्।
जगल्लये महाभये मृकण्डुसूनुहर्म्यदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥3॥
गतं तदैव मे भयं त्वदम्बु वीक्षितं यदा
मृकण्डुसूनुशौनकासुरारिसेविसर्वदा।
पुनर्भवाब्धिजन्मसम्भवाब्धिदु: खवर्मदे।
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥4॥
अलक्षलक्षकिन्नरामरासुरादिपूजितं
सुलक्षनीरतीरधीरपक्षिलक्षकूजितम् ।
वसिष्ठशिष्टपिप्पलादकर्दमादिशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥5॥
सनत्कुमारनाचिकेतकश्यपात्रिषट्पदै-
र्धृतं स्वकीयमानसेषु नारदादिषट्पदै :।
रवीन्दुरन्तिदेवदेवराजकर्मशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥6॥
अलक्षलक्षलक्षपापलक्षसारसायुधं
ततस्तु जीवजन्तुतन्तुभुक्तिमुक्तिदायकम्।
विरञ्चिविष्णुशङ्करस्वकीयधामवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥7॥
अहोऽमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे
किरातसूतवाडवेषु पण्डिते शठे नटे।
दुरन्तपापतापहारिसर्वजन्तुशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे ॥8॥
इदं तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये सदा
पठन्ति ने निरन्तरं न यान्ति दुर्गतिं कदा।
सुलभ्य देहदुर्लभं महेशधाम गौरवम्
पुनर्भवा न वै नरा विलोकयन्ति रौरवम् ॥9॥
इति श्रीमदाद्यशङ्कराचार्यविरचितं नर्मदाष्टकं सम्पूर्णम्।
नर्मदे हर। नर्मदे हर। नर्मदे हर॥

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