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प्रवचन

प्रवचन

by सलाम रजाक
in कहानी, नवंबर -२०१३
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अभी सूर्योदय नहीं हुआ था मगर चारों ओर मटमैला प्रकाश फैलने लगा था। तमाम भिक्षु कलंदक झील में स्नान करने के उपरांत ‘वेणुवन’लौट आए थे। ‘वेणुवन’ के चारों ओर बांसों का जंगल था। भिक्षुओं ने बासों को काट छांट कर छोटी छोटी कुटियाएं बना ली थीं। प्रत्येक कुटिया में चार चार, पांच पांच भिक्षुओं का वास था। एक ओर बड़े से पीपल के पेड़ के नीचे बुद्ध की कुटिया स्थापित थी। बुद्ध की कुटिया की बगल में आनंद की कुटिया थी। बुद्ध और आनंद रात के पिछले पहर ही उठ जाते और अन्य भिक्षुओं के जागने से पहले स्नान आदि से निवृत्त हो जाते। स्नान के बाद आनंद पीपल की टहनी से बंधे पीतल के घंटे को बजाते। घंटे की आवाज सुनते ही तमाम भिक्षु अपनी कुटिया से निकल कर कलंदक झील की ओर निकल जाते। जंगल में प्रात: की आवश्यकताओं से निवृत्त होने के बाद सब झील में स्नान करते, अपनी अपनी कफनियों को उतार कर धोते फिर साफ सुथरी गेरुये रंग की कफनियां धारण करते और मंद गति से विचरते हुए अपनी अपनी कुटियाओं में लौट आते। ज्योंही सूरज की पहली किरण पीपल की सब से ऊपरी फुनगी का माथा चूमती आनंद एक बार पुन: पीतल का घंटा बजाते और भिक्षु कुटियाओं से निकल कर बुद्ध की कुटिया के समक्ष पीपल के पेड़ के नीचे एकत्रित होने लगते। नित्यानुसार आज भी सभी भिक्षु स्नान से निवृत्त होकर अपनी अपनी कुटिया में बैठे दूसरे घंटे की प्रतीक्षा कर रहे थे।

स्वास्ती, कम्बिल, भारद्वाज और संजय एक ही कुटिया में ठहरे थे। कम्बिल भारद्वाज और संजय तो आंखें बंद किए ध्यान साधना में मग्न थे मगर स्वास्ती आंखें खोले बार बार पहलू बदल रहा था। जैसे अपने साथियों से कुछ कहने के लिए आतुर हो। अन्तत: थोड़ी देर यों ही पहलू बदलने के बाद उसने तनिक ऊंचे स्वर में अपने साथियों को पुकारा ‘मित्रो!’ उसकी आवाज में हल्की सी कपकपी थी। ‘मैं आप लोगों से कुछ कहना चाहता हूं।’ कम्बिल भारद्वाज और संजय ने आंखें खोल दीं और स्वास्ती की ओर प्रश्नचिह्न दृष्टि से निहारने लगे। स्वास्ती कह रहा था- ‘मित्रो! आज मेरा मन बहुत अशांत है। मैं रात में ठीक से सो भी नहीं सका।’

उसकी बात सुनकर तीनों साथी उसे आश्चर्य और आशंका से देखने लगे। उन्होंने कभी किसी भिक्षु को ऐसी शिकायत करते नहीं सुना था। स्वास्ती को संघ में शामिल हुए एक महीना हुआ था। अभी उसे संघ के सिद्धांतों और ध्यान साधना एवं रीति-नीति की पूर्ण रूप से विज्ञप्ति नहीं थी। संघ में प्रवेश करने का अर्थ होता है स्वयं को पूरी तरह संघ के प्रति समर्पित करना। ध्यान साधना द्वारा अपने व्याकुल मन को शांत करना और शनै: विषय वासना से मुक्ति पा लेना। यदि स्वास्ती का मन अशांत है तो इसका अर्थ यही हुआ कि वह मोक्ष, शांति, आनंद और धर्म मार्ग से दूर होता जा रहा है।

अपने साथियों की आंखों में आशंका के चिह्न देखकर स्वास्ती थोड़ा लज्जित हुआ फिर बोला।
‘आप लोग मेरी बात को अन्यथा न लें। वास्तव में मैं एक चरवाहा हूं। संघ में सम्मिलित होने से पहले भैंसें चराया करता था। भैंसे चराते हुए जंगल मैदान में घूमना, भूख लगने पर कंदमूल खा लेना, प्यास लगने पर नदी झरने का पानी पी लेना और नींद आने पर पेड़ के नीचे सो रहना यही मेरी जिंदगानी थी। मैं पढ़ना लिखना नहीं जानता, न मुझे कभी पढ़े लिखों का सहवास नसीब हुआ। इसीलिए बहुत सी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं, यदि आती भी हैं तो देर से आती हैं। लेकिन यह मत समझना कि संघ पर मेरा विश्वास नहीं है। मेरा संघ पर पूरा विश्वास है परंतु जब कोई बात समझ में नहीं आती तो मन बेचैन हो जाता है। आप ही लोग मेरा मार्गदर्शन करें। ऐसी स्थिति में आखिर मुझे क्या करना चाहिए?’

संजय ने गरदन हिलाते हुए कहा, ‘स्वास्ती! तुम ठीक कहते हो। जो बात समझ में न आए तो उसे समझने का प्रयास करना चाहिए। किसी बात को बिना समझे मान लेना ऐसा ही है जैसे बिना प्यास लगे पानी पीना या बिना भूख लगे भोजन करना। वैसे कृपया क्या तुम बता सकते हो कि ऐसी कौनसी बात है जो तुम्हारी समझ में नहीं आई?’

स्वास्ती थोड़ी देर गरदन झुकाए बैठा रहा। फिर गरदन उठा कर तीनों पर एक उचटती दृष्टि डाली। तीनों की दृष्टि उसके चेहरे पर गड़ी हुई थी। उसने अटकते झिझकते कहा-

‘कल के प्रवचन में तथागत ने कहा था – ‘शब्दों से उस परम सत्य को बयान नहीं किया जा सकता। केवल अनुभव द्वारा ही उस परम सत्य को पाया जा सकता है। मैंने बहुत विचार किया परंतु तथागत का यह वचन मेरी समझ में नहीं आया।’

उसके तीनों साथी एक दूसरे की ओर देखने लगे। थोड़ी देर बाद भारद्वाज ने कहा- ‘स्वास्ती! यद्दपि तथागत का यह वचन बहुत स्पष्ट है फिर भी वह तुम्हारी समझ में न आया हो तो तुम आज प्रवचन के उपरांत उनसे प्रश्न करके इसका तात्पर्य पूछ सकते हो।’
‘मुझे सबके सामने प्रश्न पूछते हुए शर्म आती है।’ स्वास्ती ने झेंपते हुए कहा।

‘ज्ञान प्राप्त करने में शर्म कैसी?’ संजय में उसे समझाया। स्वास्ती थोड़ी देर मौन रहा फिर बोला। ‘ठीक है आप लोग कहते हैं तो मैं आज प्रवचन के बाद तथागत से इस वचन का अर्थ पूछूंगा।’ तभी घन… घन… घन… घंटे की आवाज सुनाई दी और चारों साथी उठकर कुटिया से बाहर आ गए। दूसरी कुटियाओं से भी भिक्षु एक-एक दो-दो करके बाहर निकाल रहे थे। उस विहार में लगभग तीन सौ भिक्षुओं का निवास था। प्रात: काल के धुंधलके में दूर से उनके गेरूवे आवरण यों लग रहे थे मानो बांस के जंगल में जगह जगह केसर के तख्ते बिछे हों। वह सब शान्त भाव से नपे तुले पग उठाते उस पीपल के पेड़ की ओर बढ़ रहे थे जिसकी छांव में तथागत बैठकर प्रवचन दिया करते थे। सारे भिक्षु मध्यम सुरों में मंत्र पढ़ते जा रहे थे।

बुद्धम् शरणम् गच्छामी
धम्मम् शरणम् गच्छामी
संघम् शरणम् गच्छामी

गेरूवे रंग की कफनियों में लिपटी भिक्षुओं की गतिशील आकृतियां, कफनियों से झांकते उनके मुंडे हुए सर, होंठों से निकलते मंत्रों की मद्धिम गूंज, बांस के पेड़ों के बीच सरसराते हवा के झोंके, पेड़ों की टहनियों पर पक्षियों की बेहगम फड़फड़ाहट, कुल मिला कर वातावरण में एक विचित्र सी रहस्ममय पवित्रता घुल मिल गई थी।

थोड़ी देर में तमाम भिक्षु पीपल के नीचे एकत्र हो गए। देखते ही देखते सब इस प्रकार पंक्तियां बनाकर बैठ गए जैसे पहले से निर्धारित हो कि किसे कहां बैठना है। न किसी को किसी का धक्का लगा न किसी से किसी का खवा छिला। आनंद पीपल के नीचे खड़े उनका निरीक्षण कर रहे थे। जब तमाम भिक्षु पंक्तियों में बैठ गए तब आनंद ने एक उचटती दृष्टि उन पर डाली और पलट कर बुद्ध की कुटिया की ओर देखने लगे। बुद्ध गेरूवा चोला धारण किये कुटिया से बाहर निकल रहे थे। उनका मुखमंडल गहरे समुद्र की भांति शान्त था और अधरों पर एक परितुष्टता से भरपूर शाश्वत मुस्कान थी। तथागत पर दृष्टि पड़ते ही तमाम भिक्षु आदरवश खड़े हो गए। भिक्षुओं को देखकर तथागत की आंखों में वात्सल्य उमड़ आया। उन्होंने हाथ उठाकर भिक्षुओं को बैठने का संकेत दिया। भिक्षु बैठ गए। तथागत भी पीपल के नीचे पड़े एक ऊंचे पत्थर पर पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हो गए। उनकी दायीं ओर आनंद भी आसन पर बैठ गए। तथागत ने एक दृष्टि भिक्षुओं पर डाली और रेशम से मृदुल स्वर में बोले। ‘भिक्षुओ! आज…’

अभी तथागत ने इतना ही कहा था कि कहीं से एक सुंदर पक्षी उड़ता हुआ आया और पीपल की डाल पर बैठ कर जोर जोर से चहकने लगा। तथागत ने नजर उठाकर पक्षी को देखा और मौन हो गए।

पक्षी चहकता रहा। भिक्षुओं ने भी पक्षी को देखा। पक्षी अपनी ही मस्ती में चहके जा रहा था। उसकी चहकार से वातावरण में संगीत सा घुल रहा था। ऐसा लगता था पक्षी को वहां अपने अतिरिक्त किसी और के होने का भास तक नहीं है। तथागत आंखें मूंदे शान्त बैठे थे। भिक्षु समझ गए कि तथागत उस पक्षी के गीत गान में विघ्न डालना नहीं चाहते। भिक्षु भी खामोशी से पक्षी की चहकार सुनते रहे। कुछ भिक्षुओं के मन में आया कि हुशकार कर पक्षी को उड़ा दें मगर तथागत की तन्मयता देखकर वह इसका साहस न कर सके। अत: वह भी मूक हो उसकी चहकार सुनते रहे। आखिर चहकते-चहकते यकायक पक्षी ने पंख फैलाए और भर्रा मारकर हवा में उड़ता हुआ आंखों से ओझल हो गया। भिक्षुओं ने संतोष की श्वास ली। तथागत ने आंखें खोल कर भिक्षुओं की ओर देखा। भिक्षु संभल कर बैठ गए। वह प्रतीक्षित थे कि बुद्ध अपना प्रवचन पुन: आरंभ करेंगे, परंतु यह क्या? तथागत ने हाथ उठाकर अत्यंत शांत स्वर में कहा, ‘भिक्षुओ! आज का प्रवचन संपन्न हुआ। शेष कल…’ और तथागत अपने आसन से उठ गए। तथागत के साथ आनंद भी खड़े हो गए। तथागत अपनी कुटिया की ओर जा रहे थे। आनंद उनके पीछे थे। कुछ भिक्षुओं ने एक दूसरे की ओर देखा। कई मात्र गरदनें हिलाकर रह गए। शेष ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। अंत में सब उठ-उठकर अपनी अपनी कुटिया की ओर रवाना हो गए।

संजय, भारद्वाज, स्वास्ती और कम्बिल भी अपनी कुटिया की ओर चल दिए। चारों मौन थे। चलते-चलते भारद्वाज ने स्वास्ती से कहा, ‘स्वास्ती! तुमने तथागत से अपनी शंका नहीं पूछी।’

स्वास्ती ने तपाक से कहा, ‘नहीं… आज के प्रवचन से मैं पूरी बात समझ गया हूं। अब मेरे मन में कोई शंका नहीं है।’
संजय, भारद्वाज और कम्बिल स्वास्ती को अचरज से यों देखने लगे जैसे उसके सर पर दो सींग निकल आए हों।
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