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‘ईश्वरीय कण’ की मूल परिकल्पना भारतीय की

‘ईश्वरीय कण’ की मूल परिकल्पना भारतीय की

by वनमाली सप्रे
in जनवरी -२०१४, सामाजिक
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ब्रह्मांड अति विशाल है। उसमें अतिविशाल आकाशगंगाएं, तारे, सूक्ष्म रेत-धूलि कण और उनमें अदृश्य परमाणु है। परमाणु में भी शक्ति के मूल एवं आधार कई कण अर्थात झरीींळलरश्री हैं। वे जागृत (+) अर्थात धन और (-) अर्थात ॠण कण हैं। आधुनिक भौतिक वैज्ञानिकों ने महत् प्रयासों से सिद्ध कर दिया है कि इस परमाणु जगत में अन्य कण भी होते हैं। वैज्ञानिक ऐसे 12 कणों का अब तक पता लगा चुके हैं और उन्हें विभिन्न नाम भी दिए गए हैं। ऐसे ही एक अनोखे कण का पता चला और उसे नाम दिया गया ॠेवी झरीींळलरश्री अर्थात ‘ईश्वरीय कण!’ इसके लिए स्विट्जरलैण्ड-फ्रांस की सीमा पर बनी 27 किमी लम्बी, 175 मीटर गहरी और कई मीटर ऊंची भूमिगत सुरंग में एक महाविस्फोट कराया गया और परमाणु के विभिन्न कणों का पता लगाया गया। यह प्रयोग एक ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रो. पीटर हिग्ज और बेल्जियम के फ्रांक्वा एंग्लार्ट के नेतृत्व में हुआ। इस अनुसंधान के लिए हिग्ज और एंग्लार्ट को इस वर्ष का भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार घोषित हुआ है। वास्तव में ईश्वरीय कण की मूल परिकल्पना भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस ने पेश की थी। यह बात अविवादित है। इसलिए ईश्वरीय कण का पूर्व नाम था बोस और हिग्ज के नाम पर ‘हिग्ज-बोसोन!’ नोबेल पुरस्कार का नियम है कि वह केवल जीवित व्यक्ति को ही मिलता है, इसलिए बोस का इस पुरस्कार के लिए नामांकन नहीं हो सका। बोस का यह अनुसंधान भी प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईंस्टीन के कारण ही दुनिया के समक्ष आया था।

4 अप्रैल 2012 को जिनेवा में आयोजित भौतिक विज्ञान के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में महाविस्फोट के दौरान इन कणों का पता लगने की घोषणा की गई। कई वैज्ञानिकों के भाषण हुए। एक वैज्ञानिक ने कहा कि यह कण ब्रह्मांड की निर्मिति अर्थात इळस इरपस की अवस्था से ही अस्तित्व में है। हमारी मान्यता है कि इस ‘धारणा कण’ ने ही ब्रह्मांड निर्मिति के द्रव्यों को अनुशासन में रख सृष्टि-निर्मिति को अनुकूल बनाया। इस ब्रह्मांड में जो भी निर्मिति हुई, जो भी अस्तित्व में आया या इस ब्रह्मांड में जो भी कुछ अस्तित्व में है इसी कण के कारण है। इसी कण के कारण ब्रह्मांड निर्मित हुआ और अब भी विस्तारित हो रहा है। यह कण अति सूक्ष्म है, लेकिन वह परम शक्ति प्राप्त है। वह सभी द्रव्यों, पदार्थों, वस्तुओं के अणु-परमाणु में मौजूद है, कार्यशील है, मुस्तैद है। हमने ‘हिग्ज-बोसन’ को जान लिया है और आगे भी उसे और समझने के लिए प्रयासरत रहेंगे। इस पर एक उत्साही वैज्ञानिक ने दावा किया, ‘ओ ॠेव ! सृजनकर्ता, विकासकर्ता, धारणकर्ता और प्रलयकर्ता तू ही है प्रभु! तू ज्ञान, समझ के परे, सर्वत्र साक्षी, अतर्क्य, अमर है! हम भौतिक वैज्ञानिक इस ‘हिग्ज-बोसोन’ को प्राप्त कर, जान कर तेरे अति निकट, अर्थात 99.999997% निकट पहुंच गए हैं। अब तुझ से दूरी मात्र 0.000003% ही रह गई है।’

इसके बाद अनुसंधानकर्ता प्रा. पीटर हिग्ज खड़े हुए। उन्होंने ‘हिग्ज-बोसोन’ को ‘ईश्वरीय कण’ का नाम दिया। 83 वर्षीय हिग्ज का जन्म 29 मई 1929 को हुआ। निवृत्ति के बाद वे अब जिनेवा में ही बस गए हैं। उन्होंने 1964 में आरंभिक प्रयोग में साथ देने वाले वैज्ञानिकों, विश्व के अन्य वैज्ञानिकों, इस प्रयोग के लिए आर्थिक सुविधाएं देने वाले विभिन्न देशों, वास्तुविदों व इंजीनियरों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया।

‘ईश्वरीय कण’ के अस्तित्व की सब से पहले ‘परिकल्पना’ भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस ने ही पेश की थी। उनके पिता का नाम सुरेंद्रनाथ बोस था। उनका जन्म 1 जनवरी 1894 को कोलकाता में हुआ था। वे बंग भू के ही गरिमामय पुत्र व विख्यात वैज्ञानिक स्व. जगदीश चंद्र बोस एवं सर प्रफुल्ल चंद्र रे की कड़ी में मानो तीसरे थे। आरंभ में वे कोलकाता विश्वविद्यालय में भौतिकी के व्याख्याता थे। पश्चात 1924 में ढाका विश्वविद्यालय में रीडर पद पर नियुक्त हुए। भौतिकी विज्ञान के अलावा गणित में भी उनकी गति थी। बांग्ला तो मातृभाषा थी ही, वे देववाणी संस्कृत, राष्ट्रभाषा हिंदी, विद्यार्जन भाषा अंग्रेजी के साथ जर्मन, फ्रेंच के भी ज्ञाता थे। भारत सरकार ने 1954 में उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया। 4 फरवरी 1974 को उनका निधन हुआ।

ढाका विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान उन्होंने ‘क्वांटम थियरी ऑफ फिजिक्स’ में एक शोधपत्र तैयार किया। उसे प्रकाशनार्थ देश-विदेश की विज्ञान शोध पत्रिकाओं में भेजा। परंतु, किसी ने भी इसे स्थान नहीं दिया। तब उन्होंने इसे तत्कालीन अग्रणी वैज्ञानिक अल्बर्ट आईंस्टीन को अवलोकनार्थ भेजा। आईंस्टीन जर्मनी निवासी यहूदी थे, लेकिन बाद में अमेरिका जा बसे। वे भारतीय ज्ञान-विज्ञान के ज्ञाता थे। गीता के अध्येता थे। इस रत्नपारखी ने शोधपत्र के महत्व को जाना। उन्होंने इस अंग्रेजी शोधपत्र का तुरंत जर्मन में अनुवाद कराया और एक जर्मन पत्रिका में उसे प्रकाशित कराया। उन्होंने इस अनुसंधान को बोस के नाम पर ‘बोसोन पार्टिकल’ नाम दे दिया, जो जर्मन भाषा के अनुकूल था।

इस अनुसंधान को प्रो. पीटर हिग्ज ने आगे बढ़ाया। उनका जन्म 29 मई 1929 को हुआ था अर्थात 1924 में बोसोन पार्टिकल का सिद्धांत पेश करने के पांच वर्ष पश्चात। उन्होंने परमाणु में या कहें कि द्रव्यमान के अस्तित्व में एक कण की, जो यही बोसोन कण था, पुनः परिकल्पना प्रस्तुत की। हो सकता है कि उनके तर्क, उनकी पद्धति बोस-आईंस्टीन से भिन्न हो, पर तब भौतिक वैज्ञानिकों ने उसे मान्यता नहीं दी। लेकिन हिग्ज अपने काम और प्रयोग से इसे सिद्ध करने में लगे रहे। इस प्रयोग के लिए विशाल प्रयोगशाला और बड़े-बड़े उपकरणों की जरूरत थी। विशाल व कुशल मनुष्य बल की आवश्यकता थी। भारी धन जरूरी था। इन अड़चनों पर उन्होंने विजय पा ली। जब प्रयोगशाला बनी तब पहला प्रयोग 10 सितम्बर 2010 को हुआ। इसके बाद का प्रयोग 2012 में हुआ। यह प्रयोग हुआ उस अदृश्य, स्वतंत्र, स्पष्ट न दिखने वाले, परंतु मौजूद कण का पता लगाने के लिए। अणु में जो परमाणु है और उसके पेट में जो अनेक ‘कण’ हैं उनमें से जो महान कण हैं- हिग्ज-बोसोन- अर्थात ईश्वरीय कण को जानने, उसके कार्यों को देखने व समझने के लिए। परब्रह्म, परमात्मा, परमअतर्क्य, परमअनंत, परमशक्तिमान, परमनियंता कण! वैज्ञानिक कहते हैं, हे प्रभु! तेरी ही कृपा से ये कण पाए हैं, लेकिन तुझ से अभी भी हम दूर हैं- 0.000003% दूर! ईश्वर तेरी लीला अगाध है, बस यही!

वैज्ञानिकों का 1924 से 2012 तक के उनके निष्ठापूर्वक किए गए प्रयासों, उनके संयम, धैर्य का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि परमाणु सूक्ष्म भले ही हो, लेकिन परम शक्तिशाली है। इसका दुरुपयोग न हो इसके प्रति सतर्कता जरूरी है। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर इसका दुरुपयोग हुआ और ऐसी विनाशलीला हुई कि आज भी मनुष्य उसे भोग रहा है। यदि परमाणु से इतना विनाश हो सकता है तो उससे भी परम शक्तिशाली ‘ईश्वरीय कण’ का दुरुपयोग हो तो उससे विश्व के समक्ष कितना संकट खड़ा होगा इसकी कल्पनाभर से रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
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