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दूसरी चिता

दूसरी चिता

by गुलाब बत्रा
in कहानी, जनवरी -२०१४
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जब से हरिचरण स्थानान्तरित होकर आये हैं, तब से कार्यालय में वातावरण ही बदला-बदला सा नजर आने लगा है। इस छोटे कार्यालय में काम-काज के बीच किस्से कहानियों और हंसी ठहाकों के दौर में समय कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता। चाय की चुस्कियों पर किसी मुद्दे पर छिड़ी बहस इतनी लम्बी खिंच जाती कि अपनी पारी का समय पूरा होने के बावजूद हिलने को मन नहीं करता। करीब दो साल पहले भी एक साथी का इस कार्यालय में स्थानान्तरित होकर आना हुआ था तब क्या हालात बन गये थे। धीरे-धीरे आपसी बातचीत महज रूटीन बन गई थी। कई बार तो लगता ही नहीं था कि इस कार्यालय में लोग काम करते हैं। मरघट की सी शान्ति और दिन बोझिल हो जाता। अलबत्ता कभी कभार बाहर जाकर चाय पीने के बहाने दिल के गुबार निकालने पड़ते।

हरिचरण की मस्ती का यह आलम था कि वह अपने साप्ताहिक अवकाश के दिन भी कार्यालय का चक्कर लगाने में संकोच नहीं करते और सहयोगियों से गपशप करने आ जाते। उनकी कुछ देर की उपस्थिति तरोताजा कर जाती थी। कार्यालय में हरिचरण की अपने सहयोगी हेमराज से अधिक पटती थी। किसी पारिवारिक कार्य से हेमराज का बाहर जाना हुआ और कारणवश अवकाश की अवधि भी बढ़ानी पड़ी। लौटने पर हरिचरण के चेहरे पर गम्भीरता देख परेशानी हुई। पूछताछ में पता चला कि भाभी जी की तबीयत खराब रहने लगी है और इलाज के बावजूद कोई फायदा नहीं दिखाई देता। हेमराज के सुझाव पर उन्होंने एक अन्य चिकित्सक से भी सलाह ली। शुरू में बताया गया कि बदले हुए इलाज से कुछ फर्क लग रहा है। इस बीच हरिचरण की रात्रि पारी ड्यूटी बदलने से हेमराज की अधिक बातचीत नहीं हो सकी।

एक रोज हेमराज कार्यालय में अकेले बैठे काम कर रहे थे। अन्य सहयोगी चाय पीने निकले हुए थे। इतने में हरिचरण जी अपने साप्ताहिक अवकाश के बावजूद कार्यालय आये। हेमराज को अपना बकाया काम पूरा करते देख वह अखबार टटोलने लगे और कुछ देर बाद अचानक बुदबुदाये- यार अपने कार्यालय में किसी साथी को अर्थी बनानी आती है। अचानक यह बात सुन हेमराज सन्न रह गये और जरा सम्भलते हुए कहा-हरिचरण जी क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हों, कुछ होश में तो हो। लेकिन वह तो और गम्भीर हो गये और बोले आपके बताये वैद्य जी की दवा से पहले कुछ फर्क लगा लेकिन उनका कहना था कि काफी देर हो चुकी है इसलिए दवा अपना पूरा असर नहीं दिखा पा रही है। धर्मपत्नी की तबीयत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है, लगता है कि अब वह कुछ दिन की मेहमान है। इतना कहते कहते कहते उनकी आंखें नम हो गईं। हेमराज ने उन्हें दिलासा दिया, आप ऐसा बुरा क्यों सोचते हैं, भगवान पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जाएगा। यह कहते-कहते वह खुद भी गम्भीर हो गये।

इतने में और सहयोगी चाय-पान कर कार्यालय लौट आये थे। हेमराज की ड्यूटी भी पूरी हो चली थी। वह हरिचरण जी को चाय के बहाने बाहर ले आये और दोनों बात करते हुए कार्यालय से थोड़ा दूर शर्मा जी की चाय-थडी की ओर चल पड़े। रविवार की छुट्टी केारण वहां भीड़-भाड़ कम थी। दोनों मित्र एक कोने में रखे दो स्टूलों पर बैठ गए। ना-नुकर के बाद हेमराज ने नमकीन तथा चाय का आर्डर दिया।

बातचीत के सिलसिले में हरिचरण जी अपनी पुरानी स्मृतियों में खो गये। पढ़ाई के बाद वह नौकरी के सिलसिले में अहमदाबाद गये। कुछ समय बाद उन्हें काम मिला और वह किराये का मकान लेकर रहने लगे। मकान मालिक के परिवार में अब कुल तीन प्राणी थे। प्रौढ़ अवस्था के माता-पिता और उनकी एक जवान लड़की। बहुत बरस पहले एक दुर्घटना में पुत्र की किशोरावस्था में हुई मौत से वह दोनों टूट से गए थे। उन्होंने शान्ता बेन को बड़े प्यार से पाला था। हरिचरण इस परिवार से इतना घुल-मिल गये थे कि कार्यालय के अलावा उनका अधिकतर समय वहीं बीतता। समय को किसने रोका है। इस बीच शान्ता और हरिचरण कब एक दूसरे के इतने करीब आ गये कि उन्हें पता नहीं चला। दोनों मन ही मन एक दूसरे को प्यार करने लगे लेकिन उसका इज़हार करने में संकोच करते।

उस रोज हरिचरण का अवकाश था। मौसम भी सुहावना था। शान्ता के साथ चाय-पान तथा गपशप के बीच दोनों का मन बाहर घूमने का हुआ और वह कम्पनी बाग की तरफ निकल गये। रंगबिरंगे फूलों की छटा निहारते हुए वह उद्यान के एक निर्जन से इलाके में आ गये। एकान्त के इन क्षणों में दोनों ने अपने प्यार का इज़हार करने में संकोच नहीं किया। काफी देर बाद जब वह घर की तरफ लौटे तो दोनों के चेहरों पर मन्द-मन्द मुस्कान थी। कम्पनी बाग में मन के गुबार निकलने के बाद तो दोनों को एक दूसरे को देखे बिना चैन नहीं मिलता। आज की तरह तब मोबाइल का जमाना नहीं था। पहले कार्यालय में घण्टों तक जमे रहने वाले हरिचरण का मन अब नहीं लगता था। वह जल्दी से जल्दी अपना काम निपटाकर कमरे पर पहुंच जाते। वर्तमान समय के अनुसार एक तरह से वह लव-इन रिलेशनशिप के दौर में पहुंच गए थे। चाय का कप हाथ में लेते समय शान्ता बेन का स्पर्श उन्हें अच्छा लगता। समय अपनी गति से चल रहा था। प्यार में डूबे हरिचरण लम्बे अर्से से अपने परिजनों से भी सम्पर्क नहीं कर पाये। रात्रि ड्यूटी के दौरान उन्हें घर से तार मिला कि मां की तबीयत ठीक नहीं है। कमरे पर जाकर वह बिना किसी को बताए पहली गाड़ी से घर के लिए रवाना हो गये। मां की देखभाल के लिए उन्हें कार्यालय से अपना अवकाश बढ़ाना पड़ा। मां की तबीयत सुधरने पर हरिचरण के विवाह की बात चली। जब उन्हें बताया गया कि निकटवर्ती गांव में एक प्रतिष्ठित परिवार की सजातीय कन्या से रिश्ता चलाया गया है और अब रस्म करनी बाकी है। अपने विवाह की बात सुन हरिचरण को झटका लगा और कुछ समय तो उनके बोल ही नहीं फूटे। घर में सन्नाटा छा गया। पिता के कुरेदने पर वह इतना ही बोल पाये कि अभी उन्हें विवाह की जल्दी नहीं है। गुस्सा होकर वह घर से बाहर निकल गये।

अगले दिन मां ने हरिचरण को अपने पास बुलाया और अत्यन्त ममता-भरे शब्दों में कहा- बेटा अब मैं बहू का मुंह देखने को तरस रही हूं। हमने तुम्हारे लिए जो लड़की देखी है वह सुन्दर तथा सयानी है। घर परिवार भी अच्छा है। अब तुम ना-नुकर मत करो। काफी देर की चुप्पी के बावजूद जब कोई जबाब नहीं मिला तो मां ने अपनी कसम का वास्ता देकर उसी लड़की से विवाह की जिद की तो हरिचरण आग-बबूला हो उठे। इसी गुस्से में उन्होंने कहा- मां जिस लड़की को मैंने देखा नहीं, उसके बारे में कुछ जानता नहीं, आप लोगों ने उससे मेरा रिश्ता भी पक्का कर लिया। मैं शादी नहीं करना चाहता। आप इस रिश्ते के लिए मना कर दो। यदि आप मना नहीं कर सकते तो मैं खुद जाकर मना कर आऊंगा। इसी आवेश में वह गांव के अपने एक मित्र के साथ निकल पड़े और लड़की के गांव पहुंच रिश्ते के लिए मना कर आये।

अगले दिन वह अहमदाबाद लौटे तो हरिचरण को यह जानकर धक्का लगा कि पिछले कुछ दिनों से शांता बेन की तबीयत गड़बड़ रहने लगी थी। बड़े डॉक्टर को भी दिखाया लेकिन तबीयत में कोई सुधार नहीं हो पाया। शान्ता ने तो अब खाट ही पकड़ ली थी। वह इतनी कमजोर हो गई थी कि बिना सहारे उसका उठना बैठना मुश्किल हो गया था। ऐसी विषम परिस्थिति में हरिचरण पूरे मनोयोग से शांता बेन की देखभाल में जुट गये। वह घर के कामकाज में भी हाथ बंटाते इसलिए जरूरत पड़ने पर उन्होंने कार्यालय से भी अवकाश लिया। लेकिन शान्ता की तबीयत सुधरने का नाम ही नहीं ले रही थी।

आखिर वह दिन आ गया जब शान्ता अपने जीवन की आखिरी सांसें ले रही थीं। हरिचरण तब भी उसके पास थे। दोनों की आंखों में आंसू थे और वह अपलक हरिचरण को देखे जा रही थी। उसके कांपते तथा सूखे होठों को देख हरिचरण ने चम्मच से पानी पिलाया ही था कि शान्ता बेन ने एक हिचकी ली और वह सदा के लिए सबसे दूर हो गई।

घर में पसरे सन्नाटे को शान्ता के माता पिता और हरिचरण की रूलाई ही भंग कर रही थी। इन्हें ढांढ़स बंधाने वाला भी तो कोई नहीं था। वज्राघात की इस बेला में कुछ देर बाद हरिचरण थोड़ा संयत हुए और शान्ता के अन्तिम संस्कार के बारे में माता-पिता से चर्चा की। प्रौढ़ दम्पति की यही राय बनी कि अब दूर-दराज से किसी अन्य रिश्तेदार का इतनी जल्दी पहुंच पाना संभव नहीं है इसलिए हरिचरण को ही अन्तिम संस्कार की जिम्मेदारी निभानी चाहिए जिसने आखिरी सांस तक शान्ता का साथ दिया है।

यह सुनकर हरिचरण को अचम्भा भी हुआ लेकिन हालात देख वह सम्भले और अपने कार्यालय के सहयोगियों की मदद से अन्तिम संस्कार की व्यवस्था करायी। शमशान में चिता सजाकर जब शांता को उस पर लिटाया गया तो भगवान भास्कर पश्चिम दिशा में अस्त होने को थे। उधर हरिचरण मुखाग्नि देकर अपनी प्रिय शान्ता को अन्तिम बिदाई दे रहे थे। मित्रों ने सहारा देकर हरिचरण को बिठाया और वह एक-टक धू-धू करती चिता को देखते रहे।

बात लम्बी हो चली थी। चाय के दो दौर पूरे हो चुके थे। अपनी आदत के अनुसार हरिचरण ने चूना जर्दे की फक्की बनाई और फिर से अपनी पुरानी यादों में खो गये। अन्तिम संस्कार के बाद उन्होंने विधि-विधान से बारहवें तक की धार्मिक क्रियायें पूरी कराने के साथ शान्ता के माता-पिता को भी ढांढ़स बंधाया। इस बीच अन्य रिश्तेदार भी अहमदाबाद पहुंच गये थे। शान्ता के अचानक चले जाने से हरिचरण अन्दर ही अन्दर टूट से गये। उन्हें लगता था कि अब उनका जीवन खाली खाली-सा हो गया है। अब उनका अहमदाबाद से मोह भंग हो गया और निराशा तथा अवसाद भरे क्षणों में उन्होंने ट्रांसफर लेना मुनासिब समझा।

नये माहौल में अपने को ढालने के लिए हरिचरण कार्यालय के कामकाज में जुटे रहते, लेकिन उनका मन शान्त नहीं हो पाता। शान्ता बेन से परिचय अन्तरंगता और बीमारी तथा अन्तिम विदाई के दृश्य रह-रह कर उन्हें झकझोर देते। महीना करते-करते साल निकल गया। इस बीच उनका गांव जाना हुआ। मां ने फिर से शादी के लिए मिन्नत की पर वह ना-नुकर करते रहे। अभी जल्दी क्या है। मैं सोच समझकर बताऊंगा। मां को दिलासा देकर वह वापस तो लौट आये लेकिन रात्रि में सोते समय उनके सामने मां का रूआंसा चेहरा बरबस सामने आ जाता और उन्हें अपराध-बोध का एहसास होता। इसी ऊहापोह में आखिर उन्होंने विवाह के लिए मन बना लिया और घर खबर भिजवा दी। घर वाले तो फूले न समाये और हरिचरण के लिए नये रिश्ते की तलाश शुरू हुई। लड़की को देखने और हरिचरण की सहमति के बाद शुभ मुहूर्त में वह विवाह बन्धन में बंध गये और घर गृहस्थी का नया सफर शुरू किया। घर परिवार पत्नी और बच्चों की चर्चा करते हुए हेमराज तथा हरिचरण अपने घरों के लिए लौट गये।

करीब एक सप्ताह के अवकाश के बाद हेमराज सुबह वापस लौटे ही थे कि कार्यालय से वही मनहूस खबर मिली कि हरिचरण की धर्मपत्नी का देहावसान हो गया है और अस्पताल से शव घर लाया जा रहा है। यह सुन हेमराज हतप्रभ रह गये। कार्यालय तथा चाय-थड़ी पर हरिचरण से सुनी आपबीती चलचित्र की तरह उनकी आंखों के सामने तैर गई। बार-बार अर्थी तैयार करने वाली हरिचरण की बात शूल की तरह चुभने लगी कि क्या उन्हें अपनी जीवन संगिनी के बिछोह का पूर्वाभास हो गया था।
हेमराज तुरत-फुरत घर से निकले और कार्यालय पर स्कूटर रख दो सहयोगियों को साथ ले पास में ही हरिचरण के मकान पर पहुंच गये। तब तक एम्बुलेंस से भाभी जी का शव लाया जा चुका था। रिश्तेदारी में कुछ महिलायें तथा कुछ अन्य परिचित भी मौजूद थे। हेमराज को देखते ही हरिचरण गले लगकर सुबक पड़े, बहती अश्रुधारा के साथ हेमराज उन्हें दिलासा देते रहे। हरिचरण ने अर्थी तैयार करने वाली बात फिर दोहरायी तो हेमराज ने उन्हें ढांढस बंधाते हुए समझाया कि भाभी जी का यही तक का साथ था। हिचकियां लेते हरिचरण को बड़ी मुश्किल से शान्त कराया गया। अन्तिम संस्कार सम्बन्धी व्यवस्था के बीच हरिचरण के अन्य मित्रों तथा परिचितों को यह दुखद सूचना दी गई।

आखिर अथीं तैयार हो गई। बच्चों तथा परिजनों ने शव पर श्रद्धासुमन अर्पित किए। गुमसुम हरिचरण को जब अर्थी के पास लाया गया तो वह काफी देर तक पत्नी के चेहरे को प्यार से दुलारते रहे। गमगीन वातावरण में अर्थी घर से रवाना हुई और थोडी दूर खड़े करवाये गये वाहन में रखवाई गई। हरिचरण जी, उनके भाई, पुत्र तथा दो अन्य रिश्तेदार भी वाहन में सवार हुए। शव यात्रा मोक्षधाम पहुंची और चिता पर पार्थिव देह को विराजमान किया गया। इस बीच काफी संख्या में मित्र परिचित भी पहुंच गये थे। और वह आखिरी क्षण आ गया जब अपने पुत्र के साथ हरिचरण भी चिता को मुखाग्नि देने के लिए उठे। तेज हवा के साथ चिता की लपटें ऊपर की ओर उठने लगीं। हेमराज ने हरिचरण को सहारा देकर अपने पास बिठाया और उन्हें धीरज रखने को कहा। अचानक हरिचरण की रूलाई फूट पड़ी और कहने लगे कि मेरी किस्मत ही खराब थी। पत्नी की जिद की परवाह नहीं कर मैंने इस शहर में अपना स्थानान्तरण करवाया था कि यहां अच्छा इलाज हो जाएगा। मुझे क्या पता था कि यह उनकी अन्तिम यात्रा सिद्ध होगी और मुझे फिर से चिता सजानी पड़ेगी।

कुछ देर की निस्तब्धता के बाद कपाल क्रिया के लिए आवाज लगी। प्रज्ज्वलित चिता को अन्तिम नमन कर सभी लौट रहे थे। हरिचरण को सहारा देकर हेमराज यह नहीं समझ पा रहे थे कि जीवन संगिनी के रूप में हरिचरण के लिए यह पहली चिता थी या दूसरी। उधर चिता अभी भी जल रही थी।
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