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मालदीव में मजबूत हुईं भारत विरोधी ताकतें

मालदीव में मजबूत हुईं भारत विरोधी ताकतें

by सरोज त्रिपाठी
in जनवरी -२०१४, सामाजिक
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श्रीलंका के दक्षिण पश्चिम हिंद महासागर में स्थित 1,200 छोटे-छोटे द्वीपों वाले देश मालदीव में अंतत: भारत विरोधी ताकतें सत्ता पर मजबूती से काबिज होने में सफल रहीं। तीन दशकों तक मालदीव के तानाशाह रहे मौमून अब्दुल गयूम के सौतेले भाई अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम ने 17 नवंबर 2013 को राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की। उनके शपथ ग्रहण समारोह के साथ ही मालदीव की राजनीति का एक चक्र पूरा हुआ। सन् 2004 में शुरू हुए जन आंदोलन के परिणाम स्वरूप तानाशाह मौमून अब्दुल गयूम के हाथ से 2008 में सत्ता खिसक गई थी। पर पांच साल के बाद एक बार फिर मालदीव के सत्ता की कुंजी उनके ही पास पहुंच गई।

सन् 2008 में हुए पहले बहुदलीय पार्टी प्रणाली के तहत लोकतांत्रिक चुनाव में मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) के नेता मोहम्मद नाशीद मौमून अब्दुल गयूम को पराजित कर राष्ट्रपति बने थे। पर सात फरवरी 2012 को इस विधिवत निर्वाचित राष्ट्रपति का तख्ता पलट कर सेना और पुलिस की सहायता से तत्कालीन उपराष्ट्रपति मुहम्मद वहीद ने राष्ट्रपति पद हथिया लिया था। यह सत्ता परिवर्तन कानून के सहारे हुआ था। हथियार बंद सिपाहियों से घिरे नाशीद इस्तीफा देने को मजबूर कर दिए गए थे और संविधान के मुताबिक उपराष्ट्रपति वहीद को राष्ट्रपति पद मिल गया था।

नाशीद को सत्ता से हटाए जाने से पहले राजधानी माले में जन असंतोष भड़काया जा रहा था। सौ फीसदी सुन्नी मुस्लिम आबादी वाले मालदीव के राष्ट्रपति पर सार्वजनिक सभाओं में सिलसिलेवार इल्जाम लगे कि उनकी वजह से इस्लाम खतरे में पड़ रहा है। भारत का नाम लिए बगैर कहा गया कि गैर मुसलमानों को बाहर से ला-लाकर बसाया जा रहा है। स्वाभाविक है कि भारत और नाशीद के खिलाफ इस आंदोलन की रहनुमाई पाकिस्तानी मदरसों में पढ़े हुए लोग कर रहे थे।

आंदोलन का तात्कालिक कारण यह था कि सरकार ने देश को कट्टरपंथियों के जाल में फंसने से बचाने के लिए एक कानून का मसौदा तैयार किया था। इस मसौदे की एक खास बात यह थी कि मालदीव का कोई भी नागरिक सरकार की इजाजत के बिना विदेशी संस्थानों में तालीम हासिल नहीं कर सकता था। नाशीद की कोशिश थी कि मालदीव के नागरिक भारतीय मदरसों में पढ़ें। इसी बीच मालदीव में सऊदी पैसे की आमद और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की सक्रियता बढ़ने लगी थी। देश में उग्रवादियों का हौसला इस कदर बढ़ गया था कि सार्क बैठक के पहले एक संग्रहालय पर हमला कर दिया गया। हमलावरों का कहना था कि इस्लाम बुतपरस्ती की इजाजत नहीं देता।

नाशीद के खिलाफ गिरोहबंदी की एक बड़ी वजह यह भी थी कि उन्होंने न्यायपालिका को स्वच्छ करने के नाम पर तानाशाह मौमून अब्दुल गयूम समर्थक कुछ जजों को भी हटाने की कोशिश की थी। इससे पूर्व नाशीद की सरकार ने माले हवाई अड्डा बनाने का ठेका भारत के उद्योगपति जी. मल्लिकार्जुन की कंपनी जीएमआर को 25 साल के लिए दिया था। 28 जून 2010 को इस ठेके के करारनामे पर हस्ताक्षर किए गए थे।

विरोधियों की लहर के सामने खुद को असहाय पाकर 7 फरवरी 2012 को नाशीद ने इस्तीफा देकर अपनी जान बचाई। सत्ता हथियाने के बाद वहीद सरकार ने भारत विरोधी कदम उठाने शुरू किए।

नवंबर 2012 में जीएमआर के खिलाफ खुलकर अभियान शुरू कर दिया गया। वहीद का समर्थन कर रही पार्टियों ने एक सभा का आयोजन कर ऐलान किया कि अगर जीएमआर को मालदीव से नहीं निकाला गया तो वे अपने दम पर इसे काम नहीं करने देंगी। जीएमआर ने अनुबंध के तहत 25 डॉलर प्रति यात्री शुल्क लगाया। वहीद सरकार ने इसी बहाने विवाद को भड़का दिया। जीएमआर को निकालने का फैसला करने के बाद राष्ट्रपति वहीद ने एक साक्षात्कार में स्पष्ट किया कि समझौते के बाद से ही मालदीव की अदालतों और भ्रष्टाचार विरोधी आयोग को शिकायतें मिलने लगी थीं। इन आरोपो के दायरे में नाशीद और जीएमआर दोनों थे। जले पर नमक यह हुआ कि जीएमआर और माले में भारतीय उच्चायुक्त डीएम मुले को एक ही दिन माले छोड़ना पड़ा। इस तरह भारत की हेठी होने के साथ ही उसे मालदीव में शर्मनाक हालत का सामना करना पड़ा। यह सब उस देश में हुआ जिससे भारत के इतने घनिष्ठ संबंध रहे कि राजीव गांधी के शासनकाल में 1988 में भारतीय नौसेना और सेना ने रातोंरात हस्तक्षेप कर तत्कालीन गयूम सरकार को आतंकवादियों से बचाया था। दक्षिण चीन सागर में चीन की नौसेना से निबट लेने की डींग हाकने वाली कमजोर मनमोहन सिंह की सरकार हिंद महासागर के एक छोटे तटवर्ती देश में पिट कर खामोश रहने को मजबूर कर दी गई। विभ्रमग्रस्त राष्ट्र की कमजोरी कूटनीतिक स्तर पर पूरी दुनिया के सामने उजागर हो गई।
सत्ता में काबिज होने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वहीद सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समुचित वैधानिक मान्यता कभी नहीं मिल सकी। उन पर देश में यथाशीघ्र स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का भारी दबाव पड़ता रहा। वहीद और उनके समर्थकों को जब यह भरोसा हो गया कि अब नाशीद का राजनीतिक प्रभाव खत्म हो गया है, देश में चुनाव की घोषणा की गई।
इस साल सात सितंबर को राष्ट्रपति पद के लिए मतदान हुआ। नाशीद को सबसे ज्यादा 45.45 प्रतिशत वोट मिले और प्रोग्रेसिव पार्टी के अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम को 25.35 तथा जम्हूरी पार्टी के कासिम इब्राहिम को 24.07 प्रतिशत मत मिले। नाशीद का तख्ता पलट कर सत्तारूढ़ हुए वहीद को सिर्फ पांच प्रतिशत वोट मिले। पहले राउंड में जीत के लिए अनिवार्य 51 प्रतिशत वोट किसी भी उम्मीदवार को नहीं मिला, अत: दूसरे राउंड के लिए 28 सितंबर को मतदान होना था। पर जम्हूरी पार्टी के कासिम इब्राहिम ने चुनाव रद्द करवाने के लिए इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट में रिट दायर कर दी कि चुनाव मे धांधली हुई है। कासिम इब्राहिम के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए सात सितंबर के चुनाव को रद्द घोषित कर दिया।
चुनाव की नई तारीख 19 अक्टूबर को तय हुई क्योंकि 11 नवंबर तक राष्ट्रपति को शपथ ले लेनी चाहिए थी। कोर्ट ने 16 सूत्री संहिता तैयार की थी। इस संहिता की खास बात यह थी कि स्थाई पता, पहचान पत्र और अंगुलियों के निशान के साथ वोटर रजिस्टर बने और मतदाता सूचियों पर हर उम्मीदवार के हस्ताक्षर हों। चुनाव आयोग ने जो भी दस्तावेज तैयार किए, नाशीद ने उन पर हस्ताक्षर कर दिए। पर कासिम और अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम ने दस्तखत करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मतदाता सूची पर यकीन नहीं किया जा सकता। नाशीद और चुनाव आयोग ने अदालत के निर्देश का यह अर्थ समझा कि मतदाता सूची पर जिसके दस्तखत होंगे, बस वही चुनाव लड़ सकेगा। कासिम और अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम ने यह अर्थ निकाला कि वे उम्मीदवार हैं, इसलिए मतदाता सूची पर उनके दस्तखत के बिना चुनाव हो ही नहीं सकता। 19 अक्टूबर की सुबह जब चुनाव आयोग ने मतदान की प्रक्रिया आरंभ की, पुलीस अधीक्षक अब्दुल्ला नवाज ने उन्हें बल पूर्वक रोक दिया। इस तरह पुलिस ने अपने अधिकार क्षेत्र से बहुत आगे निकल कर चुनाव प्रक्रिया रोक दी। पुलिस का काम शांतिपूर्वक चुनाव में योगदान करना है, न कि चुनावी प्रक्रिया की वैधानिकता तय करना। अंतत: राष्ट्रपति वहीद का 11 नवंबर को कार्यकाल खत्म होने के दो दिन पहले 9 नवंबर को मतदान कराया गया। पर किसी भी उम्मीदवार को अनिवार्य और आवश्यक 51 प्रतिशत मत नहीं मिले। अत: फिर से मतदान की जरूरत पड़ी और चुनाव की तारीख 10 नवंबर को तय की गई, लेकिन जम्हूरी पार्टी के नेता कासिम इब्राहिम, जो कि 9 नवंबर के चुनाव में तीसरे स्थान पर रहे थे, फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। उनकी शिकायत थी कि उन्हें अपने मतदाताओं को यह बताने का समुचित मौका नहीं मिला कि वे कैसे मतदान करें। सुप्रीम कोर्ट ने नए मतदान की तारीख 16 नवंबर निर्धारित की तथा राष्ट्रपति वाहिद का कार्यकाल बढ़ाकर 16 नवंबर कर दिया। इस मतदान में वोटरों ने 30 वर्षों तक तानाशाह रहे मौमून अब्दुल गयूम की पार्टी प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव (पीपीएम) को सत्ता की बागडोर थमा दी। पीपीएम के नेता अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम को 51.39 प्रतिशत वोट मिले, जबकि नाशीद को 48.61 प्रतिशत मत मिले। अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम ने अदालत पार्टी, जम्हूरी पार्टी, गौमी इत्तिहार पार्टी और इस्लामिक डेमोक्रेटिक पार्टी से गठबंधन कर नाशीद को मात दे दिया।
मालदीव का चुनाव परिणाम भारत के लिए एक बड़ा धक्का है। नाशीद भारत के समर्थक माने जाते रहे हैं, जबकि अब सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां भारत विरोधी हैं। राजीव गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक हाल यह हुआ कि श्रीलंका के बाद अब मालदीव में भारत के हाथ के तोते उड़ चुके हैं। मालदीव में चीन, अमेरिका, सऊदी अरब और पाकिस्तान का प्रभाव तेजी से बढ़ता जा रहा है। हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिए अमेरिका मालदीव में अड्डे की सुविधा की बात कर रहा है। मालदीव में भारत की कूटनीतिक विफलता के दुष्परिणाम लंबे समय तक देखने को मिलेंगे।

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