स्वामी विवेकानंद-एक अथक राष्ट्र पथिक

जिस भारत को विश्व सोने की चिड़िया के रूप में पहचानता है, उसकी समृद्धि और ऐश्वर्य का आधार हिन्दू आध्यामिकता में निहित है। आज यदि हम इस तथ्य को प्रामाणिकता की कसौटी पर परखें तो हमें निश्चित ही यह भान होगा कि भारत के प्राचीन विचार में निहित गुरुकुल, विज्ञान निष्ठ त्यौहार, आयुर्वेद, आयुर्विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, कालगणना, अणु विज्ञान, अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र आदि के सहारे यदि हमारा समाज चलता रहता तो आज हमारी विकास गति और विश्व में हमारा स्थान कुछ और ही होता।

स्वामी विवेकानंद जी ने भारत को व भारतत्व को कितना आत्मसात् कर लिया था, यह कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर के इस कथन से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि – यदि आप भारत को समझना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानंद को संपूर्णतः पढ़ लीजिये।

नोबेल से सम्मानित फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने स्वामी जी के विषय में कहा था – उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है, वे जहां भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। प्रत्येक व्यक्ति उनमें अपने मार्गदर्शक व आदर्श को साक्षात् पाता था। वे ईश्वर के साक्षात प्रतिनिधि थे व सबसे घुल-मिल जाना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा – शिव!। यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।

ज्ञानपिपासु और घोर जिज्ञासु नरेन्द्र का बाल्यकाल तो स्वाभाविक विद्याओं और ज्ञान अर्जन में व्यतीत हो रहा था, किंतु, ज्ञान और सत्य के खोजी नरेन्द्र अपने बाल्यकाल में अचानक जीवन के चरम सत्य की खोज के लिए छटपटा उठे और वे यह जानने के लिए व्याकुल हो उठे कि क्या सृष्टि नियंता जैसी कोई शक्ति है जिसे लोग ईश्वर कहते हैं? सत्य और परमज्ञान की यही अनवरत खोज उन्हें दक्षिणेश्वर के संत श्री रामकृष्ण परमहंस तक ले गई और परमहंस ही वह सच्चे गुरु सिद्ध हुए, जिनका सान्निध्य और आशीर्वाद पाकर नरेन्द्र की ज्ञान पिपासा शांत हुई और वे सम्पूर्ण विश्व के स्वामी विवेकानंद के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर पाए।

स्वामी विवेकानंद एक ऐसे युगपुरुष थे जिनका रोम-रोम राष्ट्रभक्ति और भारतीयता से सराबोर था। उनके सारे चिंतन का केंद्र बिंदु राष्ट्र और राष्ट्रवाद था। भारत के विकास और उत्थान के लिए अद्वित्तीय चिंतन और कर्म इस तेजस्वी संन्यासी ने किया। उन्होंने कभी सीधे-सीधे राजनीतिक धारा में भाग नहीं लिया, किंतु, उनके कर्म और चिंतन की प्रेरणा से हज़ारों ऐसे कार्यकर्ता तैयार हुए, जिन्होंने राष्ट्र रथ को आगे बढ़ाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। इस युवा संन्यासी ने निजी मुक्ति को नहीं, बल्कि, करोड़ों देशवासियों के उत्थान को ही अपना जीवन लक्ष्य बनाया। वे राष्ट्र व इसके दीन-हीन जनों की सेवा को ही ईश्वर की सच्ची पूजा मानते थे।

सेवा की इस भावना को उन्होंने प्रबल शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था – भले ही मुझे बार-बार जन्म लेना पड़े और जन्म-मरण की अनेक यातनाओं से गुज़रना पड़े, लेकिन मैं चाहूंगा कि मैं, उस एकमात्र ईश्वर की सेवा कर सकूं, जो असंख्य आत्माओं का ही विस्तार है। वह जो सभी जातियों, वर्गों और धर्मों के निर्धनों में बसता है, उनकी सेवा ही मेरा अभीष्ट है।

सवाल यह है कि स्वामी विवेकानंद में राष्ट्र और इसके पीड़ित जनों की सेवा की भावना का उद्गम क्या था? क्यों उन्होंने निजी मुक्ति से भी बढ़कर राष्ट्रसेवा को ही अपना लक्ष्य बनाया। अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से प्रेरित स्वामी विवेकानंद ने साधना प्रारंभ की और परमहंस के जीवनकाल में ही समाधि प्राप्त कर ली थी, किंतु, विवेकानंद का प्रारब्ध कुछ और ही था। इसलिए जब स्वामी विवेकानंद ने दीर्घकाल तक समाधि अवस्था में रहने की इच्छा प्रकट की तो उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें एक महान लक्ष्य की ओर प्रेरित करते हुए कहा – मैंने सोचा था कि तुम जीवन के एक प्रखर प्रकाश पुंज बनोगे और तुम हो कि एक साधारण मनुष्य की तरह व्यक्तिगत आनंद में ही डूब जाना चाहते हो, तुम्हें संसार में महान कार्य करने हैं, तुम्हें मानवता में आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न करनी है और दीन-हीन मानवों के दु:खों का निवारण करना है।

स्वामी विवेकानंद अपने आराध्य के इन शब्दों से अभिभूत हो उठे और अपनें गुरु के वचनों में सदा के लिए खो गए। स्वयं रामकृष्ण परमहंस भी विवेकानंद के आश्वासन को पाकर अभिभूत हो गए और उन्होंने अपनी मृत्यशैया पर अंतिम क्षणों में कहा – मैं ऐसे एक व्यक्ति की सहायता के लिए बीस हज़ार बार जन्म लेकर अपने प्राण न्यौछावर करना पसंद करूंगा। जब 1886 ई. में श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपना नश्वर शरीर त्यागा तब उनके 12 युवा शिष्यों ने संसार छोड़कर साधना का पथ अपना लिया, लेकिन, स्वामी विवेकानंद ने दरिद्र-नारायण की सेवा के लिए एक कोने से दूसरे कोने तक सारे भारत का भ्रमण किया। उन्होंने देखा कि देश की जनता भयानक गरीबी से घिरी हुई है और तब उनके मुख से रामकृष्ण परमहंस के शब्द अनायास ही निकल पड़े – भूखे पेट से धर्म की चर्चा नहीं हो सकती। किसी भी रूप में धर्म को इस सब के लिए जवाबदार माने बिना उनकी मान्यता थी कि समाज की यह दुरावस्था (गरीबी) धर्म के कारण नहीं हुई बल्कि इस कारण हुई कि समाज में धर्म को इस प्रकार आचरित नहीं किया गया जिस प्रकार किया जाना चाहिए था।

अपने रचनात्मक विचारों को मूर्तरूप देने के लिए 1 मई 1879 को स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन एसोसिएशन की स्थापना की और इसकी कार्यपद्धति इस प्रकार निश्चित की गई –
ऐसे कार्यकर्ताओं को तैयार करना और प्रशिक्षित करना, जो देश की जनता के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए ज्ञान-विज्ञान के वाहक बन सकें।

कला, संस्कृति व उद्योगों को समुचित प्रोत्साहन देना।
लोगों में इस प्रकार धार्मिक विचारों का प्रचार करना कि वे रामकृष्ण परमहंस के विचारानुसार सच्चे मानव बन सकें।
वास्तव में विवेकानंदजी ने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन नाम से दो पृथक संस्थाएं गठित कीं यद्यपि, इन दोनों संस्थाओं में परस्पर नीतिगत सामंजस्य था तथापि इनकें उद्देश्य भिन्न, किंतु पूरक थे। रामकृष्ण मठ समर्पित संन्यासियों की श्रृंखला तैयार करने के लिए थी, जबकि दूसरी रामकृष्ण मिशन जनसेवा की गतिविधियों के लिए थी। वर्तमान में इन दोनों संस्थाओं के विश्वभर में सैकड़ों केंद्र हैं और ये संस्थाएं शिक्षा, चिकित्सा, संस्कृति, अध्यात्म और अन्यान्य सेवा प्रकल्पों के लिए विश्वव्यापी व प्रख्यात हो चुकी हैं।

शिकागो भाषण के द्वारा सम्पूर्ण विश्व को भारत के विश्वगुरु होने का दृढ़ सन्देश दे चुके स्वामी जी को पश्चिमी मीडिया जगत साइक्लोनिक हिन्दू के नाम से पुकारने लगा था। इन महान कार्यों के स्थापना के बाद स्वामी जी केवल पांच वर्ष ही जीवित रह पाए और मात्र चालीस वर्ष की अल्पायु उनका दु:खद निधन हो गया, किंतु, इस अल्पायु जीवन में उन्होंने सदियों के जीवन को क्रियान्वित कर दिया था। इस कार्ययज्ञ हेतु उन्होंने सात बार सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और पाया कि जनता गहन अंधकार में भटकी हुई है। उन्होंने भारत में व्याप्त दो महान बुराइयों की ओर संकेत किया, पहली महिलाओं पर अत्याचार और दूसरी जातिवादी विषयों की चक्की में गरीबों का शोषण। उन्होंने देखा कि कोई नियति के चक्र से एक बार निम्न जाति में पैदा हो गया तो उसके उत्थान की कोई आशा नहीं दिखती थी। उस समय तो निम्न जाति के लोग उस सड़क से गुज़र भी नहीं सकते थे जिससे उच्च जाति के लोग आते-जाते थे। स्वामी जी ने जाति प्रथा कि देन इस भीषण दुर्दशा को देखकर आर्त स्वर में कहा था – आह! यह कैसा धर्म है, जो गरीबों के दु:ख दूर न कर सके।

उन्होंने कहा कि पेड़ों और पौधों तक को जल देने वाले धर्म में जाति भेद का कोई स्थान नहीं हो सकता; ये विकृति धर्म की नहीं, हमारे स्वार्थों की देन है।

स्वामीजी ने उच्च स्वर में कहा – जाति प्रथा की आड़ में शोषण चक्र चलाने वाले धर्म को बदनाम न करें।
विवेकानंद एक सुखी और समृद्ध भारत के निर्माण के लिए बेचैन थे। इसके लिए जाति भेद ही नहीं, उन्होंने हर बुराई से संघर्ष किया। वे समाज में समता के पक्षधर थे और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के प्रति उनके मन में गहरा रोष था। उन्होंने कहा – जब तक करोड़ों लोग गरीबी, भुखमरी और अज्ञान का शिकार हो रहे हैं, मैं हर उस व्यक्ति को शोषक मानता हूं, जो उनकी ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दे रहा है।

स्वामी विवेकानंद के मन में समता के लिए वर्तमान समाजवाद की अवधारणा से भी अधिक आग्रह था। उन्होंने कहा था – समता का विचार सभी समाजों का आदर्श रहा है। संपूर्ण मानव जाति के विरुद्ध जन्म, जाति, लिंग भेद अथवा किसी भी आधार पर समता के विरुद्ध उठाया गया कोई भी कदम एक भयानक भूल है, और ऐसी किसी भी जाति, राष्ट्र या समाज का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता, जो इसके आदर्शों को स्वीकार नहीं कर लेता।

स्वामी विवेकानंद ने आर्तनाद करते हुए कहा था कि – अज्ञान, विषमता और आकांक्षा ही वे तीन बुराइयां हैं, जो मानवता के दु:खों की कारक हैं और इनमें से हर एक बुराई, दूसरे की घनिष्ठ मित्र है।

आज कल बहुधा नहीं बल्कि सदैव ही यह कहा जाने लगा है कि शासन और प्रशासन को धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के सन्दर्भों में धर्म निरपेक्ष होकर विचार और निर्णय करने चाहिएं। यहाँ पर यह प्रश्न, यक्ष प्रश्न बन कर उभरता है कि धर्मनिरपेक्षता आख़िर है किस चिड़िया का नाम? आज हमारे देश का तथाकथित बुद्धिजीवी और प्रगतिशील कहलाने वाला वर्ग धर्म निरपेक्षता के जो मायने निकाल रहा है, क्या वह सही हैं? क्या धर्मनिरपेक्षता शब्द के जो अर्थ चलन में उतार दिए गए हैं, वे रत्ती मात्र भी प्रासंगिक और उचित हैं? इस वैचारिक सन्दर्भ में विश्व में जो अर्थशास्त्र का बुरी मुद्रा – अच्छी मुद्रा सिद्धांत लागू है, वह संभवतः दुर्योग से हमारे यहाँ सांस्कृतिक जीवन में भी लागू हो रहा है! वर्तमान में हमें इस पीड़ादायक तथ्य को स्वीकार करना होगा कि भारत की वैचारिक दुनिया में जिस प्रकार बुरे विचारों ने अच्छे विचारों को प्रचलन से बाहर कर दिया है या करते जा रहे हैं। तब स्वामी जी के विचारों का प्रकाश ही हमें इस षड्यंत्रपूर्वक बना दिए गए कुचक्र से बाहर निकाल सकता है। स्वामी जी ने जब शिकागो में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा था कि राष्ट्रवाद का मूल, धर्म व संस्कृति के विचारों में ही बसता है, तब सम्पूर्ण पाश्चात्य विश्व ने उनके इस विचार से सहमति व्यक्त की थी और भारत के इस युग पुरुष के इस विचार को अपने-अपने देशों में जाकर प्रचारित और प्रसारित करते हुए भारतीय संस्कृति के प्रति सम्मान प्रकट किया था। पिछले ही वर्षों मे जब क्रिसमस के अवसर पर ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने कहा था कि ब्रिटेन एक ईसाई राष्ट्र है और इसे कहने में किसी को कोई भय या संकोच नहीं होना चाहिए तब निश्चित ही उनकी इस घोषणा की पृष्ठभूमि में विवेकानंद जी का यह विचार ही था।

कितने आश्चर्य का विषय है कि आज जब समूचा विश्व धर्मनिरपेक्षता के शब्दार्थों को विवेकानंद जी के विचारों में खोज पा रहा है, हम उनके ऐतिहासिक शिकागो भाषण को और उनके समूचे जीवन वृत्त को स्मरण ही नहीं कर पा रहे हैं! इस भाषण में उन्होंने गौरवपूर्वक कहा था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दू जीवन शैली के साथ जीवन यापन करना ही इस आर्यावर्त का एक मात्र विकास मार्ग रहा है और भविष्य में विकास करने की ओर एक आत्मनिष्ठ समाज के रूप में अस्तित्व बनाए रखने में यही एकमात्र मन्त्र ही सिद्ध और सफ़ल रहेगा।

स्वामी जी ने अपने ऐतिहासिक व्याख्यान में कहा था कि भारत के विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित होने का एकमात्र कारण यहां के वेद, उपनिषद्, ग्रन्थ और लिखित-अलिखित करोड़ों आख्यान और गाथाएँ ही रहीं हैं। अपनी बात को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा था कि जिस भारत को विश्व सोने की चिड़िया के रूप में पहचानता है, उसकी समृद्धि और ऐश्वर्य का आधार हिन्दू आध्यामिकता में निहित है। आज यदि हम इस तथ्य को प्रामाणिकता की कसौटी पर परखें तो हमें निश्चित ही यह भान होगा कि भारत के प्राचीन विचार में निहित गुरुकुल, विज्ञान निष्ठ त्यौहार, आयुर्वेद, आयुर्विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, कालगणना, अणु विज्ञान, अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र आदि के सहारे यदि हमारा समाज चलता रहता तो आज हमारी विकास गति और विश्व में हमारा स्थान कुछ और ही होता। चरक, आर्यभट्ट, चाणक्य, धन्वन्तरि आदि न जाने कितने सौ ऐसे भारतीय वैज्ञानिकों, चिंतकों, विचारकों और अविष्कारकों के नाम गिनाए जा सकते हैं जिनका ध्यान स्वामी विवेकानंद के मानस में हिन्दू भारत या हिन्दू जीवन शैली कहते हुए रहता होगा। शिकागो भाषण के समय स्वामी जी के मष्तिष्क में यह भी रहा ही होगा कि – भारत पर विदेशी आक्रमणों का इतिहास जितना पुराना और व्यापक है, उतना विश्व में अन्यत्र दूसरा कोई उदाहरण नहीं है। इन में कुछ अत्यंत बर्बर, शकों, हूणों, चंगेजों, मंगोलों, अरबों, तोरमानों, यवनों, तुर्कों, अफगानों, पठानों, मुगलों, यूरोपियनों और खासकर अंग्रेज संगठित सैन्य आक्रान्ताओं ने यहाँ के तत्कालीन बेहतरीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, कृषि, भोजन, शिक्षा और प्रशासनिक ताने-बाने को ध्वस्त कर उनके अपने अनुरूप सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनैतिक और व्यापारिक मूल्य स्थापित किये जो उनके लिये वरदान थे और भारत के लिये आज तक भी अभिशाप बने हुए हैं।

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