स्वामी विवेकानंद औऱ वामपंथी बौद्धिक जगत की खोखली दलीलें

स्वामी विवेकानंद को लेकर वामपंथी बुद्धिजीवी एक नकली विमर्श खड़ा करने की कोशिशों में जुटे हुए है।हिन्दुत्व को लेकर अपनी ओछी मानसिकता औऱ सतही समझ उनके बुनियादी चिंतन के मूल में है।हैदराबाद विवि के प्रोफेसर ज्योतिर्मय शर्मा की एक पुस्तक है”कॉस्मिक लव एन्ड ह्यूमन इमपेथी:स्वामी विवेकानंदज रिसेन्टमेंट ऑफ रिलीजन” इस पुस्तक में  दावा किया जाता है कि विवेकानंद का चिंतन अतिशय हिंदुत्व पर अबलंबित है जबकि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस के जीवन में कहीं भी यह शब्द सुनाई नही देता है।लेखक ने अपने विवेचन में इस बात को लेकर भी विवेकानंद की आलोचना के स्वर मुखर किये है कि उन्होंने हिंदुत्व को वैश्विक उपासना पद्धति के तौर पर सुस्थापित करने का प्रयास किया है।असल में विवेकानंद को लेकर वामपंथी बुद्धिजीवियों का दावा नए भारत में वैसे ही पिट रहा है जैसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर खड़ा किया गया उनका डरावना विमर्श।कुछ समय पूर्व तक तमाम सेक्यूलर बुद्धिजीवियों द्वारा यह दावा किया जाता था कि विवेकानंद के विचार साम्प्रदायिकता के विरुद्ध थे और संघ परिवार पर उनका दावा ठीक गांधी और पटेल की तरह खोखला है।खासकर मुस्लिम शरीर(सामाजिक संगठन) औऱ हिन्दू मस्तिष्क( वेदांती चिंतन) की आवश्यकता को रेखांकित करने वाले उनके विचार को लेकर वामपंथियों ने यही दावा किया है कि वे हिन्दुत्व के मौजूदा विचार का खंडन करने वाले विचारक है।सवाल यह है कि क्या विवेकानंद हिन्दुत्व के विरुद्ध थे?इसका उत्तर विवेकानंद को लेकर वामपंथियों की अलग अलग धारणाओं से हमें समझने की कोशिश करनी चाहिये।इस दौरान यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिये कि जिस तरह नकली औऱ मनगढ़ंत प्रस्थापनाओं के जरिये आजाद भारत की विमर्श नवीसी में ब्राह्मणवाद,मनुवाद,फुले -अम्बेडकरवाद,बहुलतावाद औऱ दलित-वनवासी अलगाव के सिद्धांत खड़े किए गए है ठीक वैसा ही विवेकानंद को लेकर भी किया गया है।इस्लाम और मुगलिया संस्कृति के प्रति उनके कतिपय विचारों को एक तरफा ढंग से व्याख्यियत करने के शातिराना प्रयास भी कम खतरनाक नही है।
सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क से उनका मूल आशय क्या था?10 जून 1898 को स्वामी जी ने मुहम्मद सरफराज को लिखे पत्र में कहा कि “भारत भूमि जो हमारी मातृभूमि है के लिए इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क की आवश्यकता है आगे वह लिखते है कि मुसलमान समानता के भाव का अंश रूप में पालन करते है परंतु वे इसके समग्र रूप भाव से अनजान है ,हिन्दू इसे स्पष्ट रूप से समझते है।परन्तु आचरण में जातिगत रूढ़ियों औऱ अन्य कुरीतियों के चलते पूरी तरह से पालना नही कर पा रहे है।अब इस कथन का सीधा आशय यह भी है कि विवेकानंद की नजर में इस्लामी तत्वज्ञान हिंदुत्व से कमतर ही है।लेकिन सेक्यूलर बुद्धिजीवी इसे साम्प्रदायिकता विरोधी बताकर स्थापित करने का प्रयास करते रहे है।वैश्विक उपासना पद्धति या हिन्दुत्व को अहले किताब धर्म( एक पुस्तक पर आधारित)के रूप में स्थापित करने के आरोपों के आलोक में विवेकानंद के विचारों को गहराई से देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि वेदांत को वे दुनियावी धर्म बनाने के लिए पक्के आग्रही थे।
रामकृष्ण परमहंस के चिंतन से उलट उनके संबोधन में ‘हिन्दू’ शब्द पर आपत्ति करने वाले लेखक यह भूल जाते है कि विवेकानंद का फलक वैश्विक था और वे अपने अनुयायियों को मठ में नही विदेशों में संबोधित करते है।जाहिर है भारत से बाहर वे वेदांत या उपनिषदों की बात करते है तो इसके लिए उन्हें हिन्दू धर्म ही बोलना होगा क्योंकि यह इसी विराट चिंतन और जीवन पद्धति का हिस्सा है।
विवेकानंद किसी अलग उपमत के प्रवर्तक नही थे वे हिन्दू धर्म की तत्कालीन बुराइयों पर चोट भी कर रहे थे लेकिन समानांतर रूप से वे हिंदुत्व की मौलिक पुनर्स्थापना के प्रबल समर्थक थे।रामकृष्ण परमहंस के देवलोकगमन पश्चात वे भारत भृमण पर विशुद्ध हिन्दू सन्यासी के भेष में दंड औऱ कमंडल लेकर निकले है उनका स्थाई भेष विशुद्ध भगवा था।यही भगवा भेष आज उनकी स्थाई पहचान है , हिंदू शब्द और भगवा भेष भारत के उदार वाम बुद्धिजीवियों के लिए  अश्पृश्य औऱ घृणा के विषय रहे है।जैसे जैसे विवेकानंद के चिंतन का तत्व  बहुसंख्यक भारतीय जनमानस में स्थाई हो रहा है वामपंथियों द्वारा अपनी सिद्धहस्त बौद्धिक कारीगरी से स्वामी जी को सेक्यूलर उपकरणों से लांछित करने की कोशिशें भी हो रही है।
जेएनयू में विवेकानंद की प्रतिमा के साथ अनावरण से पहले ही किया गया बर्ताब यह बताने के लिए पर्याप्त है कि विवेकानंद के प्रति लेफ्ट लिबरल्स की सोच क्या है।जिस पुस्तक का जिक्र इस आलेख में किया गया है वह इसी मानसिकता का परिचायक है।वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा स्वामी जी के चिंतन को विकृत व्याख्या के धरातल पर खड़ा करने की कोशिश भी हुई है इसीलिए तमाम लेखक” इस्लामी शरीर और वेदांती बुद्धि “की आवश्यकता को उनके विचार के रूप में बदल कर  पेश करते और अपनी जन्मजात दुश्मनी निभाते हुए वेदांती बुद्धि को की जगह ‘ वैज्ञानिक’ बुद्धि बताते रहे है।यहां ध्यान से देखें तो विवेकानंद ने इस्लाम और ईसाइयत दोनों का खंडन किया है ,’विश्वधर्म का आदर्श’ व्याख्यान में वे कहते है कि मुसलमान वैश्विक भाईचारे का दावा करते है लेकिन जो मुस्लिम नही है उनके प्रति इस्लाम का रवैया अनुदार औऱ खारिज करने जैसा ही है इसी तरह ईसाई मिशनरियों की निंदा के साथ वे ईसाई तत्वज्ञान को संकुचित बताते है उन्होंने कहाकि गैर ईसाइयों को नरक का अधिकारी बताया जाना मानवीयता के विरुद्ध है।जाहिर है स्वामी जी वेदांत के जरिये जिस दुनियावी धर्म की बात कह रहे थे वे धरती का सर्वाधिक समावेशी है।जातिवादी औऱ अतिशय हिन्दू आग्रह को लेकर आलोचना करने वाले बुद्धिजीवी यह भूल जाते है कि जिस विमर्श की जमीन पर वे खड़े है वह बहुत ही अल्पकालिक औऱ पूर्वाग्रही है औपनिवेशिक मानसिकता उस पर हावी रही है।वे बहुत्व में एकत्व की बात थोप नही रहे थे बल्कि जगत के मूल तत्व को उद्घाटित कर रहे थे।वैदिक विमर्श या उपनिषदों के सार गीता में अगर हिन्दू शब्द नही है तो इसके मूल को समझना होगा कि उस दौर में न इस्लाम था न ईसाइयत या आज के।अन्य मत जाहिर है तब हिंदुत्व का प्रश्न कहाँ से आता?इसलिए अपने समकालीन विमर्श में स्वामी जी ने हिन्दू औऱ हिन्दुत्व के रूपक से वैदिक भाव को पुनर्प्रतिष्ठित किया है तो यह स्वाभाविक ही है।विवेकानंद एक सन्यासी समाजसुधारक भी थे वे सच्चे समाज सुधारक औऱ सामाजिक न्याय के अद्वितीय अधिष्ठाता भी थे।उन्होंने स्पष्ट कहा था कि भारत का भविष्य कमजोर जातियों के हाथों में होगा वे अक्सर कहते थे कि मैं पुरातनपंथी औऱ परम्परानिष्ठ  हिन्दू नही हूँ।
वे कहते रहे कि कुछ लोगों को स्नातक बनाने से राष्ट्र की भित्ति खड़ी नही होगी उसके लिए जन साधारण को शिक्षित करना होगा।उन्होंने कहा कि वे जिस आध्यत्मिकता की बात कर रहे है वह भूखे पेट या निरक्षरता के अंधकार में संभव नही है।वे पश्चिम जैसी शक्तिशाली भौतिक प्रगति और वेदांती चेतना के पैरोकार थे।असल में विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के आदि सिद्धांतकार है उन्होंने जिस भविष्य को रेखांकित किया था वह आज भारत मे आकार ले रहा है।सामाजिक न्याय और कमजोर जातियों के प्रभुत्व को आज हम संघ की अहर्निश कार्यनीति में खूबसूरती के साथ समायोजित होते देख रहे है।संघ के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर औऱ मौजूदा प्रधानमंत्री तो जीवन के आरम्भिक दौर में रामकृष्ण मिशन के लिए ही समर्पित होकर काम करना चाहते थे।दोनों के व्यक्तित्व में स्वामी जी अमिट छाप है।लेकिन वामपंथी लेखक अक्सर यही प्रचार करते है कि दोनों को मिशन ने अपने यहां शामिल नही किया जबकि मिशन ने आज तक इस दावे का खंडन नही किया है।आज संघ के सतत प्रयासों से दुनियां में हिन्दुत्व का विचार स्वीकार्यता पा रहा है ,भारत की बहुसंख्यक चेतना में हिन्दुत्व का स्वत्व औऱ गौरवभाव सुस्थापित हो रहा है तब एक प्रायोजित अभियान स्वामीजी के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास भी नजर आ रहा है।खासतौर से भारत की विविधता और बहुलता के मध्य एकत्व की धारणा मजबूत हुई है।यह एकत्व हिन्दुत्व ही है जो सबको अपनी अंतःकरण की आजादी के साथ उस एकत्व भाव की ओर उन्मुख करता है जिसका अंत सत्य की खोज पर जाता है।सत्य ही वेदांत का गन्तव्य है।

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