मेरी मां की इच्छा

मनुष्य चाहे जितनी सफलता प्राप्त कर लें या चाहे जितनी उसकी इच्छाएं पूरी हो जाए, लेकिन जीवन के अंत में सदा लगता है कि कोई न कोई छोटी इच्छा रह ही गई है! जब मनुष्य अंतिम सांसें गिनता होता है तब यह इच्छा पूरी करने की शक्ति चुक गई होती है। कोई पूछ ही लें तो दो-एक शब्द मुंह से निकल जाते हैं और इच्छा यदि शब्दों में आ जाए तो वह पूरी होने की कामना रहती है।

मेरी मां का नाम मैना था। हम सभी उसे ‘बा’ कहते थे। मेरी मां को 97 वर्ष की अवस्था में दिल का दौरा पड़ा तो लगा कि अब वह कुछ दिन की ही मेहमान है। लेकिन तुरंत इलाज से वह बच तो गई, परंतु उसकी हालत देख कर मुझे लगा कि बा अब चार-छह माह से अधिक नहीं निकाल सकेगी।

एक दिन बात करते-करते ध्यान में आया कि मां की अंतिम इच्छा पूछ लेनी चाहिए, क्योंकि मां जब 40 वर्ष की थी तभी हमारे पिता का देहांत हो गया था और बाद में पूरी परिवार की जिम्मेदारी बा ने ही सम्हाली थी। हम तीन भाई और एक बहन थे। बड़े भाई 17 साल के और मैं दो बरस का था। उस जमाने में थोड़ी-सी आमदनी में गुजारा करना और समाज में भी सम्मान से जीना एक अनपढ़ स्त्री के लिए मुश्किल था। लेकिन मां सारी मुसीबतों का सामना करने में सफल रही। सभी बच्चों की परवरिश की। व्यवसाय में लगाया। बहन का विवाह कराया। इसमें कोई 57 वर्ष का समय निकल गया। परिवार में पुत्र, पौत्र, दोहित्र, भानजे और भानजियों के आगमन से परिवार विस्तृत हो गया। इस संघर्षमय जीवन में मां ने शायद ही अपनी इच्छा किसी को बताई हो। शायद उसने अपनी इच्छा मन में ही दबाकर रखी, क्योंकि परिवार में सब की सारी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं। किसी न किसी की इच्छा रह ही जाती है, तो बा अपनी इच्छा क्यों जाहिर करेगी!

इसलिए मैंने मां से पूछा कि क्या आपकी कोई इच्छा रह गई है? मां ने कहा, कोई इच्छा बाकी नहीं रही। लेकिन मुझे यह अवश्य लगता था कि बा की जरूर कोई इच्छा रह गई है। इसलिए जब भी मैं बा से मिलने बड़े भाई के घर जाता यह अवश्य कहता कि आप अपनी इच्छा क्यों नहीं बताती? क्या आपको लगता है कि हम आपकी इच्छा पूरी नहीं करेंगे? फिर भी मां हमेशा मौन ही रहती।

एक दिन मैंने मां से पूछ ही लिया कि बा अपनी इच्छा के बारे में कुछ सोचा कि नहीं? बा ने कहा, ‘तू बार-बार पूछ ही रहा है तो सुन… मुझे भागवत कथा सुननी है।’ मैंने तुरंत कहा, ‘ठीक है हम मालाड में कथा का आयोजन करते हैं।’ मां ने जवाब दिया, ‘नहीं, मुझे तो कथा अपने गांव विजापुर में अपने सारे रिश्तेदारों के साथ सुननी है।’ यह बात बड़े भाई के सामने हो रही थी। हमने सोचा कि हम तीनों भाई, भतीजे, बहन सब मिलकर इसका आयोजन करें। तय हुआ कि विजापुर जाकर कथा का आयोजन किया जाए। हम यहां आए तब से बहुत अर्सा बीत चुका था, वहां के बहुत कम लोगों से सम्पर्क रह पाया था। फिर भी आयोजन तो वहीं करवाना था। सभी भाइयों ने अपनी-अपनी जिम्मेदारियां बांट लीं। एक ने पंडाल की, दूसरे ने प्रिंटिंग की, तीसरे ने भोजन आदि की जिम्मेदारी ले ली। 12 से 18 सितम्बर 2003- भाद्रपद मास के पितृपक्ष में शास्त्रीजी श्री दर्शन के व्यासपीठ से कथा का आयोजन निश्चित हुआ। लेकिन कथा का समय जैसे जैसे करीब आने लगा, मां का स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा। कथा की अगली अमावस्या के दिन उनकी तबीयत एकदम बिगड़ गई- रक्तदाब कम हो गया और नाड़ी की धड़कन कम हो गई।

बड़ी बहन और मेरी पत्नी मां को निकट के अस्पताल में ले गईं। डॉक्टर ने कहा, अब बचना मुश्किल है, लेकिन समय पर चिकित्सा शुरू करने से मां को होश आ गया। वह बोली, ‘मैं तो स्वर्ग में गई थी, लेकिन देवी मां ने मुझे वापस भेजा- यह कहकर कि तेरे बच्चे कथा करवा रहे हैं उसे सुनने के बाद ही आना! मुझे जाने देना था न्। मुझे क्यों जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हो?’ मैंने कहा, कथा सुने बिना स्वर्ग में नहीं जाना है। मुझे डर लग रहा था कि कहीं बा कथा सुने बिना न चली जाए और उनकी अंतिम इच्छा अधूरी रह जाए। हम सभी भाई-बहन इकट्ठा हुए और तय किया कि चाहे जो हो जाए कथा तो करनी ही है। हमने भगवान से प्रार्थना की कि मां को ऐसा अवसर मिले और उसके बाद ही वह जाए।

हर पल, हर दिन युग जैसा लगता था। कब कथा आरंभ हो और मां कब उसे सुने यह चिंता लगी रहती थी। हम तय कार्यक्रम के अनुसार विजापुर पहुंचे। सारा इंतजाम हो चुका था। कथा प्रारंभ हुई। गुजरात की शिक्षा मंत्री श्रीमती आनंदी बहन पटेल ने उद्घाटन किया। रोज करीब एक हजार लोग कथा सुनने आते थे। लोगों को खुशी के साथ विस्मय भी हो रहा था कि बेटों ने मां के लिए कथा का आयोजन किया है। गुजरात के अनेक मंत्रियों ने उपस्थित रहकर हमारी खुशी में वृद्धि की।

कथा पूर्ण होने के दो दिन पूर्व ही मां की तबीयत अचानक बिगड़ गई, परंतु ईश्वर की कृपा से उनके स्वास्थ्य में सुधार हो गया। 17 सितम्बर को ‘मां तो मां होती है’ विषय पर श्री अश्विन जोशी का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। गुजरात विधान सभा अध्यक्ष श्री मंगलभाई पटेल पूर्णाहूति के लिए आए थे। करीब सारे रिश्तेदार और मित्र मां को कथा के बीच मिलकर गए। मां ने सब से कुशल मंगल के समाचार पूछे।

श्री मंगलभाई पटेल ने कहा कि यदि आपने कथा दो साल के बाद की होती तो मां उस आशा के साथ और दो साल जिंदा रहती। यदि ऐसा न हुआ होता तो मेरे दिल में जीवन भर के लिए यह खटका रहता कि मैं अपनी मां की अंतिम इच्छा पूरी कर न सका। उनकी मृत्यु के बाद करता तो मां की आत्मा को शांति न मिलती।

आखिर में कथा पूरी हुई और हम सब दूसरे दिन मुंबई लौट आए। बोरिवली पहुंचने पर मां ने कहा कि तेरे घर तो बहुत बरस रह चुकी हूं अब मुझे कुछ दिन बड़े भाई के घर जाने दो। मैंने कहा कि मुझे कोई एतराज नहीं है। 20 सितम्बर 2003 के दिन हम मुंबई पहुंचे थे। मां को मिलने मैं रात को कांदिवली जाता था। दो दिन के बाद बड़े भैया का फोन आया, मां तुझे जल्द बुला रही है। मैंने कहा, कल ही तो मैं मिलकर गया हूं। फिर भी मैं रात में गया। मां ने कहा, तुने मेरी बहुत सेवा की है। भगवान तुझे सदा खुश रखे। मैंने कहा, मैंने तो अपना कर्तव्य निभाया है। बाद में बहन को अहमदाबाद फोन किया। बातचीत की। 25 सितम्बर सुबह 11 बजे मुझे फोन आया, मां सिरियस है। मैं वहां पहुंचा। मां अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रही थीं। अंतिम बार उससे मेरी बात हुई। मैंने कहा, मां, मैं आ गया हूं। मां ने केवल सिर हिलाया और थोड़ी ही देर में हम सब को छोड़कर वह स्वर्ग के मार्ग पर निकल पड़ी।

मां ने कहा था, मैं अंतिम सांस तेरे घर में लेना चाहती हूं। इसलिए अस्पताल से मेरे घर लाकर उसकी अंतिम यात्रा निकाली गई। कथा पूर्ण होने के ठीक सात दिन बाद मां ने प्राण त्याग दिए। किंतु, हमारे मन में एक प्रकार की शांति व संतोष है कि हम मां की अंतिम इच्छा पूरी कर सके और आज भी ऐसा लगता है कि मां तो जीवित ही है।
(अनुवादः ललित कुमार शाह)
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