मिजाज क्यों बदला मोदी विरोधियों का

अभी महीना-डेढ़ महीना पहले भारत को नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व में भाजपा या एनडीए को निर्वाचित नहीं करने की सलाह देने वाले और भारत की जनता से ऐसी अपीलें करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से लेकर मोदी के बारे उनके विरोधियों के हर असभ्य विशेषण को प्रमुखता से छापने वाले और उन पर बड़ी बहस चलाने वाले 16 मई को लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद एकाएक खामोश क्यों हो गए? सिर्फ खामोश ही नहीं हुए, हर ऐरे-गैरे और पिद्दी से पिद्दी मोदी विरोधी नेता के ऊल-जुलूल बयान बढ़-चढ़कर छापने और दिखाने वाले मीडिया के एक बड़े वर्ग ने अपने सुर क्यों बदल लिए? और सिर्फ सुर ही नहीं बदले, 16 मई से पहले घनघोर मोदी-विरोधी समझे जाने वाले कुछ प्रमुख अंग्रेजी और भाषायी अखबारों तथा चैनलों ने मोदी सरकार के लिए सकारात्मक बाइट्स देनी क्यों और कैसे शुरू कर दी? क्या सेक्युलर जमात के सारे मोदी-विरोधी उनके सत्ता में आने से भयभीत हो गए हैं या उनका इतना अधिक हृदय परिवर्तन हो गया है कि उनमें से कई तो प्रधानमंत्री मोदी के सरकार चलाने के तौर-तरीकों और खुद मोदी के इरादों के रातों-रात मुरीद बन गए हैं? कभी आपने कल्पना भी न की होगी कि दक्षिण भारत से प्रकाशित होने वाला एक घोषित भाजपा और मोदी विरोधी अंग्रेजी अखबार ऐसे लेख प्रकाशित करने लगेगा कि मोदी ने किस तरह सत्ता में आने के महीने भर के भीतर ही हमारे संविधान में वर्णित प्रधानमंत्री शैली की शासन व्यवस्था कायम करने और देश के संघीय ढांचे को मजबूती प्रदान करने की “गंभीर कोशिश” शुरू कर दी है। मीडिया का बड़ा हिस्सा और कई स्वयंभू सेक्युलर विद्वान मोदी के “अच्छे इरादों” का बखान कर रहे हैं। कई तो भरोसा भी जता रहे हैं कि मोदी की अगुवाई में भारत सचमुच आगे बढ़ सकता है और विश्व में अपनी मजबूत जगह बना सकता है। इनमें से अनेक मोदी सरकार को सलाह देने के लिए भी आगे आए हैं; कोई उन्हें अर्थ नीति और मुद्रा स्फीति काबू करने पर बिन मांगी सलाह दे रहा है तो कोई उन्हें आंतरिक और सीमावर्ती सुरक्षा, पड़ोसियोें से संबंधों, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति वगैरह पर रास्ते सुझा रहा है। देश और मोदी के नेतृत्व में आई भाजपा-प्रणीत एनडीए सरकार के लिए फिलहाल तो यह शुभ लक्षण हैं। ऐसा नहीं कि मोदी-विरोध से एकाएक मोदी के मुरीद बन जाने वाले सभी बुद्धिजीवी और मीडिया में यह बदलाव सिर्फ दिखाने के दांत जैसा है। इनमें से कई ने ईमानदारी से कबूल किया है कि मोदी के आकलन में उनसे बड़ी भूल हुई है। दिलचस्प बात यह कि ऐसी ‘भूल’ एक ऐसे युग में हुई है जिसे हम सूचनाओं का युग कहते हैं; एक ऐसा जमाना जब किसी भी तरह की सूचना या जानकारी छिपी नहीं रह सकती, बहुत थोड़े समय में मैग्नीफाई होकर सामने आ जाती है। व्यक्ति और उसके गुण-दोषों का रोम-रोम तक खुर्दबीन की तरह साफ-साफ देखा जा सकता है। लेकिन एक झूठ को हजारों बल्कि लाखों बार विशिष्ट निरंतरता के साथ रणनीतिक रूप से दोहराया गया हो तो उसका कुछ असर तर्कशील विद्वानोें पर भी पड़ता ही होगा। ऐसे ही कुछ ने बड़ी ईमानदारी से यह मान लिया कि जहां मोदी भारत की आत्मा से जुड़े रहे, और उसके स्वरों का निनाद करते रहे, वहीं उनमें कई बुद्धिजीवी ड्राइंगरूम मार्का-सेक्यूलरिज्म से ऐसे मोहाविष्ट थे कि वे देश की न नब्ज पहचान सके, न भारत की आवाज सुन सके। अपनी भूल ईमानदारी से कबूल करने वाले ये विचारक ईमानदार आलोचक हैं और जनता से जुड़ा कोई भी नेता ऐसे आलोचकों का सम्मान ही करता है। उनकी समालोचना को गौर से सुनता है और उसमें से योग्य तत्वों को ग्रहण करता है, गलतियों को सुधारता है। ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटि छवाय, बिन साबुन पानी बिना निर्मल करत सुभाय’ कबीरदास जी का छंद भारत की पुरातन शास्त्रार्थ परंपरा का ही पोषक है।

पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर ने गुजरात के दंगों को लेकर पूरे 12 वर्ष तक देश और दुनिया में चले भयंकर मोदी-निंदा अभियान की जड़ों तक पहुंचने के लिए बड़ी खोजबीन और सैकड़ों मोदी-विरोधियों तथा समर्थकों से बातचीत के बाद लिखी अपनी पुस्तक “मोदी, मुस्लिम एंड मीडिया” में गुजरात के मुस्लिम तबके के कई प्रमुख लोगों के मोदी-विरोधी से मोदी समर्थक बनने की घटनाओं का जो वर्णन किया है, वह दिखाता है कि मोदी ने अपने विरोधियों की तथ्यपूर्ण आलोचना पर कितनी गंभीरता से ध्यान दिया और उसे हल किया। यही वजह है कि गुजरात की जनसंख्या के कुल 9 फीसदी मुस्लिम समुदाय में से अधिकतर आज न केवल मोदी का मुरीद है, बल्कि राज्य के दूसरे समुदायों की उन्नति के साथ उसकी भी महत्वपूर्ण भागीदारी है। 2002 के बाद गुजरात में कोई बड़ी सांप्रदायिक घटना न होने को देश में मीडिया और सेक्युलर बुद्धिजीवी तबके के जो लोग यह कहकर कोई महत्व नहीं देते थे कि ‘ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गुजरात की अपेक्षाकृत थोड़ी मुस्लिम आबादी ने मोदी को लगातार तीन विधानसभा चुनावों में मिले जबरदस्त समर्थन से घबराकर मोदी-राज में जीने की अपनी नियति खामोशी से कबूल कर ली’, उन्हें भी लोकसभा चुनाव-अभियान के दौरान मोदी के भाषणों, नतीजे आने से पहले कई टीवी न्यूज चैनलों से मोदी की बातचीत और गुजरात के जफर सरोशवाला जैसे प्रमुख मुस्लिम नेताओं की टीवी मुलाकातों के बाद अपनी राय बदलने के लिए विवश होना पड़ा। देश के एक प्रमुख उर्दू मीडिया प्रमुख ने, जिनका पहले मानना था कि गुजरात के मुसलमान मोदी से डरकर वहां रह रहे हैं, अपने उर्दू चैनल के लिए मोदी से लंबा और “बहुत अच्छा” इंटरव्यू लेने के बाद चुनाव-अभियान के दौरान एक टीवी चैनल के पैनल चर्चा के दौरान मुझसे बेझिझक स्वीकार किया कि मोदी ने गुजरात में मुसलमानों का दिल सचमुच जीत लिया है। मोदी से इंटरव्यू लेने के बाद से वे उनकी साफगोई और ईमानदारी के कायल थे। इस उर्दू संपादक ने माना कि उन्होंने मुस्लिमों को लेकर मोदी से जितने भी स़ख्त सवाल किए, उनका मोदी ने बिना क्रुद्ध या परेशान हुए बहुत स्पष्ट और ईमानदारी से जवाब दिया। यह हृदय परिवर्तन वाजिब और सच्चा है। मोदी के प्रति अपना मिजाज बदलने वाले ऐसे बहुत से मीडियाकर्मी और बुद्धिजीवी हैं और उनकी बदली हुई राय पर संदेह करने का कोई कारण नहीं दिखता। बहुत से मोदी-विरोधियों के रुख में यह बदलाव वैसा ही है जैसा 1992 के अयोध्या-कांड के बाद जन्मत: सेक्युलर विचारधारा को मानने वाले बहुत से बुद्धिजीवियों और मीडियाकर्मियों के रुख में दिखा था। तब ऐसे अनेक लोगों को पहली बार भारत की अस्मिता और उसके प्रतीकों की अहमियत का भान हुआ। उनमें से कई ने तब भी ऐसी ही स्वीकारोक्तियां दी थीं कि जैसी मोदी की जबरदस्त विजय के बाद सामने आ रही हैं। तब ऐसे कई लोगों ने माना कि वे इस देश की सनातन परंपराओं, आस्था के केद्रों के लिए देश के समर्पण और समाज के एक व्यापक संस्कृति-हिंदू संस्कृति और जीवन शैली का पालन करने को किस तरह सेक्यूलरवाद के विरुद्ध मानकर उसका विरोध करते रहे; किस तरह भारत के जन की विशिष्टताओं को नकारने के लंबे इतिहास के बंदी बने रहे और किस तरह देश की आत्मा से कटे रहे। तब इस तबके में बड़ा हृदय परिवर्तन हुआ और उनमें से ज्यादातर आज हिंदुत्व को उसके सही अर्थ में ’हिंदूनेस’ (हिंदूपन) और हिंदू होने को एक जीवनशैली के बतौर स्वीकार करते हैं। लेकिन सभी बदल गए ऐसा भी नहीं है। हिंदू, हिंदुत्व और मोदी के कुछ कट्टर आलोचक जिनकी प्रेरणा यूरोप और अमेरिका के सेक्युलर-लिबरल विचारक-संपादक-अकादमिक हैं (येल, कैं़िब्रज जैसे विश्वविद्यालय, ‘द इंडिपेंडेंट’ और ‘द इकॉनॉमिस्ट’ जैसे अखबार-पत्रिकाएं) उनके लिए मोदी के नेतृत्व में लोकसभा में भाजपा का पूर्ण बहुमत और मोदी का प्रधानमंत्री बनना और एक नई शैली की सरकार चलाना किसी वज्राघात से कम नहीं। ध्यान देने की बात है कि इनमें से अनेक लिबरल-सेक्युलर होने के अपने दावे पर कांग्रेस और यूपीए जैसी सरकारों में पद, देश-विदेश, खास तौर से अमेरिका-यूरोप में फेलोशिप, विवि में विभिन्न चेयर्स की अध्यक्षता, विदेश दौरों और मीडिया में प्रमुखता से स्थान पाते रहे हैं। मोदी और एक भारतीय विचार की सरकार आने के बाद इन सब पर खतरा मंडराने लगा है। इसलिए ‘द आइडिया ऑफ इंडिया’ (बहुलतावादी, समन्वयवादी, विविधताओं से परिपूर्ण भारत) के संकट में पड़ने की बातें हो रही हैं। यह कहते हुए ये विचारक इस स्थापित तथ्य को सफाई से छुपा जाते हैं कि केंद्र सरकार पूरे देश की प्रतिनिधि होती है और उसका मुख्य काम सुशासन स्थापित करना है। पांच वर्ष के लिए चुनी गई कोई सरकार न तो राष्ट्र के विचार को बदल सकती है, न बिगाड़ सकती है, हां, उसका श्रीवर्धन अवश्य कर सकती है। राष्ट्र एक शाश्वत अवस्था है जिसमें देश, उसकी भूमि, जन और संस्कृति का समावेश है। यह भी कहा जा रहा है कि मोदी की अगुवाई में सत्ता में आए एनडीए को देश के सिर्फ 32 प्रतिशत मतदाताओं ने ही पसंद किया है और इस तरह लगभग 70 फीसदी मतदाताओं ने नकार दिया है। यह कुतर्क करते हुए ये विचारक यह तथ्य आसानी से भुला देते हैं कि अकेली भाजपा को मिले वोटों का प्रतिशत 39.8 है और 1984 को छोड़कर कांग्रेस भी औसतन 40 प्रतिशत वोट प्रतिशत हासिल करके ही केंद्र की सत्ता में लौटती रही है। ऐसे आलोचक अपनी डफली पीटते रहेंगे लेकिन यह युवा भारत वैचारिक डायनासोरों के अधोगामी युग से अब बाहर निकल आया है।

जहां तक मीडिया का मामला है तो एक बात समझनी जरूरी है। सचाई यह है कि बिना किसी कारण सरकार और उसके नेता को निशाना बनाकर मीडिया लंबे समय तक अपने पाठक, दर्शक या श्रोता वर्ग को बनाए नहीं रख सकता। पक्षपाती मीडिया को उसका ऑडियंस तुरंत पहचान जाता है और फिर उसे खारिज करने लगता है। और व्यापक ऑडियंस किसी मीडिया के जिंदा रहने के लिए ऑक्सीजन की तरह है। मीडिया अपने ऑडियंस को समाचार और विचार देता है तो दूसरी तरफ अपना ऑडियंस विज्ञापनदाताओं को बेचता है। और विज्ञापन मीडिया का ब्रेड-बटर है। जितना बड़ा ऑडियंस, उतने अधिक विज्ञापन! उद्योग-केंद्रित विश्व की प्रमुख और प्रतिष्ठित सलाहकार कंपनी प्राइस वाटर हाउस कूपर के आंकड़े बताते हैं कि भारत में मीडिया-मनोरंजन सेक्टर की आमदनी पिछले 2012 में 20 फीसदी बढ़कर 805 अरब रुपए से 965 अरब रुपए हो गई। और 2012-2017 में इसकी औसत वार्षिक वृद्धि 18 प्रतिशत रह सकती है। इसमें से विज्ञापनों की बड़ी मात्रा सरकार और सत्तारूढ़ दलों से आती है। ऐसे में व्यवस्था तंत्र की नाराजगी एक हद तक ही मोल ली जा सकती है। इसकी एक मिसाल आप दिल्ली से सटे नोएडा में देख सकते हैं जहां अधिकतर न्यूज चैनलों के स्टुडियो-दफ्तर और समाचार पत्रों-पत्रिकाओं के संपादकीय-प्रशासकीय कार्यालय हैं। यूपी की अखिलेश यादव सरकार 2012 में शपथ लेने के पहले दिन से निकम्मेपन और कुराज की मिसाल बनी हुई है लेकिन मीडिया बलात्कार की कई भयंकर घटनाओं के बाद उसकी आलोचना में उतरने की हिम्मत जुटा सकता है। इससे पहले मायावती के शासन में भी किसी मीडिया घराने ने बसपा सरकार में भारी भ्रष्टाचार, जो उसके सत्तारूढ़ होने के पहले ही दिन से प्रदेश के लोगों को दिखने लगा था, पर तब तक कोई स्टोरी नहीं की जब तक कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की राशि के गोलमाल और उसमें कुछ स्वास्थ अधिकारियों की हत्या-आत्महत्या के मामले नहीं खुले।

लेकिन सरकार और प्रशासन में एक के बाद लगातार कई चूक होने पर मीडिया का रुख बदलना लाजिमी है। तब मीडिया भले मोदी पर आक्रामक न हो, लेकिन वह उन मंत्रियों-अफसरों पर जरूर आक्रामक होगा जो सुशासन के मोदी के भरोसे को तोड़ते दिखेंगे। और यह लंबे समय तक चला तो फिर सरकार के नेता होने के नाते मोदी के भी मीडिया की स़ख्त आलोचना के शिकार बनते देर न लगेगी। फिलहाल तो मीडिया के वे तत्व हाशिये पर हैं जिन्हें भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार और मोदी का प्रधानमंत्रित्व शूल की तरह चुभ रहा है। मोदी सरकार का यह नया ढब बना रहा तो मिथ्या प्रलाप से माहौल बनाने वाले गोएबल्स के अवतार ऑडियंस के लिए तरस सकते हैं।

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