हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
संत रैदास- धर्मांतरण के आदि विरोधी, घर वापसी के सूत्रधार

संत रैदास- धर्मांतरण के आदि विरोधी, घर वापसी के सूत्रधार

by प्रवीण गुगनानी
in फरवरी-२०२१, व्यक्तित्व, सामाजिक
0

संत रैदास के नेतृत्व में उस समय समाज में ऐसा जागरण हुआ कि उन्होंने धर्मांतरण को न केवल रोक दिया बल्कि उस कठिनतम और चरम संघर्ष के दौर में मुस्लिम शासकों को खुली चुनौती देते हुए देश के अनेकों क्षेत्रों में धर्मांतरित हिन्दुओं की घर वापसी का कार्यक्रम भी जोरशोर से चलाया। धर्मांतरण के खतरों से आगाह कराने वाले वे पहले संत थे।

लगभग सवा छः सौ वर्ष पूर्व 1398 की माघ पूर्णिमा को काशी के मड़ुआडीह ग्राम में संतोख दास और कर्मा देवी के परिवार में जन्में संत रविदास यानि संत रैदास को निस्संदेह हम भारत में धर्मांतरण के विरोध में स्वर मुखर करने वाली और स्वधर्म में घर वापसी कराने वाली प्रारंभिक पीढ़ियों के प्रतिनिधि संत कह सकते है। संत रैदास संत कबीर के गुरुभाई और स्वामी रामानंद के शिष्य थे। उनके कालजयी लेखन को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि उनके रचित 40 दोहे गुरु ग्रंथ साहब जैसे महान ग्रंथ में सम्मिलित किए गए हैं।

भारतीय समाज में आजकल धर्मांतरण और हिन्दू धर्म में घर वापसी एक बड़ा विषय चर्चित और उल्लेखनीय हो चला है। यह विषय राजनैतिक कारणों से चर्चित भले ही अब हो रहा हो लेकिन सामाजिक स्तर पर धर्मांतरण हिन्दुस्थान में सदियों से एक चिंतनीय विषय रहा है। इस देश में धर्मांतरण की चर्चा और चिंता पिछले आठ सौ वर्षों पूर्व प्रारंभ हो गई थी, समय-काल-परिस्थिति के अनुसार यह चिंता कभी मुखर होती रही तो अधिकांशतः आक्रांताओं और आतताइयों के अत्याचार से दबे-कुचले स्वरूप में अन्दर ही अन्दर और पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती रही।

बारहवीं सदी में जब मुस्लिम आक्रांता भारत की ओर बढ़े तब वे धन लूटने और धर्म के प्रचार के स्पष्ट और घोषित एजेंडे के साथ ही आए थे। इन बाहरी आक्रांताओं और शासकों को भारत की जनता को बहला फुसलाकर या जबरदस्ती बलात धर्मांतरण कराने में किसी प्रकार का कोई सामाजिक या सांस्कृतिक अपराध बोध नहीं लगता था, बल्कि ऐसा करके वे अपने को गौरवान्वित ही महसूस करते थे। भारतीय दर्शन से धुर विपरीत ढर्रा चलाने वाले ये मुस्लिम आक्रांता कभी भी भारतीय समाज में समरस और एकरस अपने इन दो गुणों के कारण ही नहीं हो पाए। उस दौर में स्वाभावतः ही हिंदुस्थानी परिवेश में धर्मांतरण को लेकर भय, चिंता और इससे छुटकारे की प्रवृत्ति उपजने लगी थी। पुनश्च यह कि समय के साथ साथ धर्मांतरणकारी शक्तियों से छुटकारा पाने की यह प्रवृत्ति समय-काल-परिस्थिति के अनुसार कभी उभरती और कभी दबती रही किन्तु सदैव जीवित अवश्य रही!

संत रैदास ने जब समाज में तत्कालीन आततायी विदेशी मुस्लिम शासक सिकंदर लोदी का आतंक देखा तब वे दुखी हो बैठे। उस समय लोदी ने हिंदुस्थानी जनता को सताना-कुचलना और डराकर धर्म परिवर्तन कराना प्रारंभ कर दिया था। हिन्दुओं पर विभिन्न प्रकार के नाजायज कर जैसे तीर्थ यात्रा पर, जजिया कर, शव दाह करने पर जजिया कर, हिन्दू रीति से विवाह करने पर जजिया कर, जैसे आततायी आदेशों से देश का हिन्दू समाज त्राहि-त्राहि कर उठा था। भारतीय-हिन्दू परंपराओं और आस्थाओं के पालन करने वालों से कर वसूल करने और मुस्लिम धर्म मानने वालों को छूट, प्राथमिकता वरीयता देने के पीछे एकमात्र भाव यही था कि हिन्दू धर्मावलम्बी तंग आकर इस्लाम स्वीकार कर लें। उस समय में स्वामी रामानंद ने अपने भक्ति आंदोलन के माध्यम से देश में देशभक्ति का भाव जागृत किया और आततायी मुसलमान शासकों के विरुद्ध एक आंदोलन को जन्म दिया था। स्वामी रामानंद ने तत्कालीन परिस्थितियों को समझकर विभिन्न जातियों के प्रतिनिधि संतों को जोड़कर द्वादश भगवत शिष्य मण्डली स्थापित की। विभिन्न समाजों का प्रतिनिधित्व करने वाली इस द्वादश मंडली के सूत्रधार और प्रमुख, संत रविदास जी थे। संत रैदास ने हिन्दू संस्कारों के पालन पर मुस्लिम शासकों द्वारा लिए जाने वाले जजिया कर का अपनी मंडली से विरोध किया और इस हेतु जागरण अभियान चला दिया। इस मंडली ने सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर देशज भाव और स्वधर्म भाव के रक्षण और उसके जागरण का दूभर कार्य करना प्रारंभ किया। संत रैदास के नेतृत्व में उस समय समाज में ऐसा जागरण हुआ कि उन्होंने धर्मांतरण को न केवल रोक दिया बल्कि उस कठिनतम और चरम संघर्ष के दौर में मुस्लिम शासकों को खुली चुनौती देते हुए देश के अनेकों क्षेत्रों में धर्मांतरित हिन्दुओं की घर वापसी का कार्यक्रम भी जोरशोर से चलाया। संत रविदास न केवल देश भर की पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार्य संत हो गए अपितु अगड़ी जातियों के शासकों और राजाओं ने भी उन्हें राजनैतिक कारणों से अपने अपने दरबार में सम्मानपूर्ण स्थान देना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार संत रविदास को मिलने वाले सम्मान के कारण देश की पिछड़ी और अगड़ी जातियों में एतिहासिक समरसता का वातावरण निर्मित हो चला था। संत रविदास भारतीय सामाजिक एकता के प्रतिनिधि संत के रूप में स्थापित हो गए थे क्योंकि मुस्लिम शासकों को चुनौती देने का जो दुष्कर कार्य ये शासक नहीं कर पाए थे वह समाज शक्ति को जागृत करने के बल पर एक संत ने कर दिया था!!

पिछड़ी जातियों में आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन के बाद भी स्वधर्म सम्मान का भाव जागृत करने में रैदास सफल रहे और इसी का परिणाम है कि आज भी इन जातियों में मुस्लिम मतांतरण का बहुत कम प्रतिशत देखने को मिलता है। निर्धन और अशिक्षित समाज में धर्मांतरण रोकने और घर वापसी का जो अद्भुत, दूभर और दुष्कर कार्य उस काल में हुआ वह इस दिशा में प्रतिनिधि रूप में संत रविदासजी का ही सूत्रपात था। इससे मुस्लिम शासकों में उनके प्रति भय का भाव हो गया। मुस्लिम आततायी शासक सिकंदर लोदी ने सदन नाम के एक कसाई को संत रैदास के पास मुस्लिम धर्म अपनाने का संदेश लेकर भेजा। यह ठीक वैसी ही घड़ी थी जैसी कि वर्तमान काल में बोधिसत्व बाबासाहब आंबेडकर के समय आन खड़ी हुई थी। यदि उस समय कहीं संत रैदास आततायी लोदी के दिए लालच में फंस जाते या उससे भयभीत हो जाते तो इस देश के हिंदुस्थानी समाज की बड़ी ही ऐतिहासिक हानि होती। यदि उस दिन संत रैदास झुक जाते तो निस्संदेह आज इतिहास कुछ और होता किन्तु धन्य रहे पूज्य संत रविदास कि वे टस से मस भी न हुए, अपितु दृढ़तापूर्वक पूरे देश को धर्मांतरण के विरुद्ध अलख जलाए रखने का आवाहन भी करते रहे।

उन्होंने अपनी रैदास रामायण में लिखा –
वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर क्यों छोड़ इसे पढ लूं झूठ कुरआन
वेद धर्म छोडूं नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाहि, गला काटो कटार

देश ने अचंभित होकर यह दृश्य भी देखा कि संत रैदास को मुस्लिम हो जाने का संदेश लेकर उनके पास आने वाला सदन कसाई स्वयं वैष्णव पंथ स्वीकार कर विष्णु भक्ति में रामदास के नाम से लीन हो गया। यह वह समय था जब शक्तिशाली किन्तु निर्मम और बर्बर शासक सिकंदर लोदी क्रुद्ध हो बैठा और उसने संत रैदास की टोली को चमार या चांडाल घोषित कर दिया। इनके अनुयाइयों से जबरन ही चर्मकारी का और मरे पशुओं के निपटान का कार्य अत्याचार पूर्वक कराया जाने लगा। भारत में चमार जाति का नाम इस घटना क्रम और सिकंदर लोदी की ही उपज है। संत रविदास उस काल में हिन्दू शासकों में इतने लोकप्रिय और सम्माननीय हुए कि प्रसिद्ध मारवाड़ चित्तोड़ घराने की महारानी मीरा ने उन्हें अपना गुरु धारण किया। महारानी मीरा से रैदास की भक्ति में वे मीरा बाई कहलाने लगी। भक्त मीरा ने स्वरचित पदों में अनेकों बार संत रैदास का स्मरण गुरु स्वरूप किया है –

‘गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।
सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।’
‘कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै तजि
अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।’

इसका अर्थ है कि ईश्वर भक्ति अहोभाग्य होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशाल हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि लघु शरीर की ‘पिपीलिका’ यानि चींटी इन कणों का सहजता से भक्षण कर लेती है। इस प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्यागकर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर भक्त हो सकता है।

अपने सहज-सुलभ उदाहरणों वाले और साधारण भाषा में दिए जाने वाले प्रवचनों और प्रबोधनों के कारण संत रैदास भारतीय समाज में अत्यंत आदरणीय और पूज्यनीय हो गए थे। वे भारतीय वर्ण व्यवस्था को भी समाज और समय अनुरूप ढालने में सफल हो चले थे। वे अपने जीवन के अंतकाल तक धर्मांतरण के विरोध में समाज को जागृत किए रहे और वैदिक धर्म में घर वापसी का कार्य भी संपन्न कराते रहे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन धर्म और राष्ट्र रक्षार्थ जिया और अत्यंत सम्मानपूर्वक चैत्र शुक्ल चतुर्दशी संवत 1584 को वे गौलोक वासी हो गए। संत रैदास ने भारतीय समाज को ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ जैसी कालजयी लोकोक्ति दी जिसके बड़े ही सकारात्मक अर्थ वर्तमान परिवेश में भी निकलते हैं। माघ पूर्णिमा तद्नुसार 3 फरवरी के संत रैदास के अवतरण दिवस पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि केवल यह होगी कि इस भारत भूमि पर सभी वर्णों, जातियों, समाजों और वर्गों के मतावलंबी राष्ट्रहित में एक होकर वैदिक मार्ग अपनाए रहे। स्वामी विवेकानंद ने एक धर्मांतरण से एक राष्ट्र शत्रु के जन्म का जो विचार वर्तमान काल में प्रकट किया उसे संत रैदास ने छः सौ वर्ष पूर्व समझ लिया था और राष्ट्र को समझाने बताने हेतु देश के हर हिस्से में जाकर जागरण भी किया था। नमन इस अद्भुत संत को, राष्ट्रभक्त को और अनुपम भविष्यद्रष्टा को।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: hindi vivekhindi vivek magazinesubject

प्रवीण गुगनानी

[email protected]

Next Post
अध्यात्म एवं विज्ञान की  प्रगति में ही मानवहित

अध्यात्म एवं विज्ञान की प्रगति में ही मानवहित

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0