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आस्था व भक्ति का  कुंभ हरिद्वार

आस्था व भक्ति का कुंभ हरिद्वार

by गोपाल चतुर्वेदी
in फरवरी-२०२१, संस्कृति, सामाजिक
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हरिद्वार में आयोजित होने वाला कुंभ का मेला उत्तराखंड राज्य का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है।
जो कि यहां के गंगा घाट पर 14 जनवरी मकर संक्रांति से चल रहा है। हरिद्वार कुंभ इतना अधिक प्राचीन है कि उसका सर्वप्रथम वर्णन सन 1850 के इंपीरियल गजैटियर में मिलता है। इस मेले में इस समय न केवल अपने देश के अपितु विदेशों तक के हर एक कोने से विभिन्न धर्म-जाति व संप्रदाय के असंख्य संत-महात्माओं, धर्मगुरुओं एवं भक्तों-श्रद्धालुओं का रेला उमड़ा हुआ है।

कुंभ भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक प्राचीन पर्व है।त्रेता युग में जब देवताओं और दानवों ने मिलकर अपने व जीवों के कल्याण हेतु समुद्र मंथन किया था तो उसमें निकले अमृत कलश की प्राप्ति के लिए दोनों पक्षों में संघर्ष हुआ। इंद्र देवता का पुत्र जयंत अमृत कलश को लेकर भागा। परंतु दानवों ने उसका पीछा कर कलश उसके हाथों से छुड़ा लिया। अमृत पान की आतुरता में देवताओं और दानवों में 12 दिनों तक युद्ध चलता रहा। इस दौरान अमृत कलश को स्वर्ग के आठ स्थानों पर और पृथ्वी के नासिक, उज्जैन,हरिद्वार व प्रयागराज नामक चारों स्थानों पर रखा गया।देवताओं और दानवों की छीना झपटी से अमृत कलश में से अमृत की कुछ बूंदें उक्त स्थानों की नदियों में जा गिरीं।कालांतर में इन सभी स्थानों पर शास्त्रों व मनीषियों ने प्रत्येक 12 वर्ष के बाद कुंभ पर्व आयोजित करने का आवाहन किया। जो कि अपनी शाश्वत परंपरा को आज भी निभा रहे हैं। शास्त्रों और पुराणों में यह कहा गया है

सहस्त्र कार्तिकेय स्नानम माघे स्नानम शतन च।

बैशाखे नर्मदा कोटि कुम्भ स्नानेन तत्फ़लम।

अर्थात : एक हजार कार्तिक स्नान, एक सौ माघ स्नान तथा नर्मदा में एक करोड़ वैशाख स्नान के समान एक कुंभ स्नान का फल प्राप्त होता है।

सनातन धर्म की यह मान्यता है कि कुंभ में स्नान हेतु ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि 33 करोड़ देवी-देवता तक पधारते हैं। इस समय गंगा व यमुना आदि नदियों के पवित्र जल में अमृत की धारा बहती है। जिस में स्नान करने से जीव धन्य हो जाता है।शताब्दियों पूर्व समुद्र मंथन से प्रकट अमृत आज भी हमारे बीच जीवन की आशा का केंद्र बना हुआ है।इसीलिए कुंभ को सर्व देवमय, सर्व तीर्थमय व परात्पर ब्रह्म परमात्मा के रूप में अंगीकृत किया जाता है।

श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध के सप्तम से द्वादश अध्याय में समुद्र मंथन के प्रसंग में कुंभ पर्व का विस्तृत वर्णन है। स्कंद पुराण में समुद्र मंथन का विशद वर्णन 362 श्लोकों में वर्णित है।

स्कंद पुराण में यह भी कहा गया है कि देवताओं और दानवों का युद्ध समाप्त करने के उद्देश्य से भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत को देवताओं में बांट दिया। परंतु एक दानव देव रूप धारण कर अमृत पीने में सफल हो गया। इस पर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका मस्तक काट दिया। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, बृहस्पति और चंद्रमा ने भी विशेष सहायता की। यही कारण है कि सूर्य, बृहस्पति और चंद्र ग्रह के विशिष्ट संयोग से ही कुंभ महापर्व का योग बनता है।

समुद्र मंथन के दौरान देवताओं और असुरों में 12 दिनों तक हुए संग्राम के दौरान असुरों की छीना झपटी से बचाने के प्रयास में देवताओं के हाथ से अमृत कलश प्रयागराज हरिद्वार उज्जैन और नासिक में गिरा था। तब चंद्रमा ने अमृत कुंभ में से अमृत को भूमि पर गिरने से बचाया, सूर्य ने उस समय अमृत कुंभ को टूटने से बचाया, बृहस्पति ने उसे असुरों से बचाया तथा शनि ने उसे इंद्र जन्य भय से बचाया। उस समय जो ग्रह जिस राशि में थे वह जब उन्हें उसी राशि में आते हैं तब उक्त घटना की स्मृति में 12 कुंभ पर्वों का आयोजन होता है जिनमें से चार अपने देश के प्रयागराज,हरिद्वार, नासिक, उज्जैन में और शेष आठ देवलोक में आयोजित होते हैं। देवों का एक दिन मनुष्य के 1 वर्ष के तुल्य होता है। अतः जो कुंभ पर्व देवलोक में 12 वें दिन आता है, वह हम सभी व्यक्तियों के लिए 12 वें वर्ष हरिद्वार आदि तीर्थों में आता है। यह भी कहा गया है कि भूलोक में हरिद्वार आदि चार स्थानों पर अमृत कुंभ में से अमृत की बूंदें भी गिरीं थीं, जिससे इन स्थानों के जल में अमृत का प्रभाव आ गया। अतः इन स्थानों पर 12 वें वर्ष आयोजित स्नान पर कुंभ पर्व के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
विष्णुपुराण में कुम्भ स्नान की महत्ता का वर्णन इस प्रकार है।

अश्वमेघ सहस्राणि वाजपेय शतानि च।
लक्षप्रदक्षिणा: प्रथ्व्या: कुम्भस्नानेन तत्फ़लम॥

अर्थात – सहस्र अश्वमेघ, शत वाजपेय और पृथ्वी की लक्ष्य प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है वही कुंभ स्नान से प्राप्त होता है।

कुंभ की परंपरा ऋग्वैदिक काल से प्रवाहमान भारतीय संस्कृति में छिपी चेतना व ऐक्य की भावना का प्रतिबिंब है। यह भारतीय चिंतन धारा का राष्ट्रीय पर्व है। यह परंपरा अपनी पहचान कई शताब्दियों पूर्व से बनाये हुए है। पौराणिक दृष्टि से कुंभ स्नान का महत्व हजारों वर्ष प्राचीन है। यह राष्ट्रीय भावनात्मक एकता में आध्यात्मिकता, सर्वधर्म समभाव एवं अनेकता में एकता की भावना को विकसित करता है। वस्तुतः यह जीवन में सामाजिक समरसता, त्याग,उदारता व एकता आदि का पर्व है। यह समन्वय,सहिष्णुता व असांप्रदायिक संस्कृति का केंद्र बिंदु है। साथ ही यह भारतीय चिंतन धारा का राष्ट्रीय पर्व है।
वस्तुतः कुंभ का महापर्व भक्ति और आस्था का संगम है।यह पर्व धर्म व अध्यात्म के उत्कर्ष का मार्ग आलोकित करता है। यह पर्व सनातन हिंदू संस्कृति का गौरवशाली इतिहास एवं अध्यात्म का अमृत सागर है। साथ ही यह पर्व कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारतीय संस्कृति की विभिन्नता को एकता के सूत्र में पिरोकर सामाजिक संबद्धता व एकता को प्रदर्शित करता है। इसीलिए करोड़ों व्यक्तियों की आस्था से जुड़े इस महापर्व में साधु-संन्यासी और गृहस्थ मिल जुल कर भाग लेते हैं। इसके अलावा स्नान के समय तापसिक जीवन से जुड़े सन्यासी, बैरागी, उदासीन और निर्मल आदि अखाड़ों के तपस्वी अपनी शक्ति और एकाधिकार से जुड़ी मतवैभिन्नता व संघर्षों को भुलाकर शाही स्नान करते हैं। इस महापर्व का सर्वप्रथम प्रमाणिक वर्णन सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में चीन से भारत आए प्रख्यात चीनी यायावर ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में दिया है।
हरिद्वार में पूर्ण कुंभ (महाकुंभ) का योग मेष राशि में सूर्य व कुंभ राशि में बृहस्पति की उपस्थिति से बनता है।वस्तुतः कुंभ का महत्व धार्मिक से कहीं ज्यादा खगोलीय है। ऐसी मान्यता है कि इस अति विशिष्ट ग्रह स्थिति में आयोजित कुंभ में स्नान करने वाले व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता है। क्योंकि कुंभ के समय तत्सम्बन्धित नदियों में वही अमृत उतरता है जो कि समुद्र मंथन के समय प्रकट हुआ था।यह अमृत हमें सांसारिक बंधनों से मुक्ति दिलाकर सद्गति प्रदान करता है। कुंभ के दौरान कुल 11 स्नान होते हैं जिन्हें करने वाले को निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।

हरिद्वार में आयोजित होने वाला कुंभ का मेला उत्तराखंड राज्य का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है।
जो कि इन दोनों यहां के गंगा घाट पर 14 जनवरी मकर संक्रांति से चल रहा है हरिद्वार कुंभ इतना अधिक प्राचीन है कि उसका सर्वप्रथम वर्णन सन 1850 के इंपीरियल गजैटियर में मिलता है।इस मेले में इस समय न केवल अपने देश के अपितु विदेशों तक के हर एक कोने से विभिन्न धर्म-जाति व संप्रदाय के असंख्य संत-महात्माओं, धर्मगुरुओं एवं भक्तों-श्रद्धालुओं का रेला उमड़ा हुआ है। जो यहाँ गंगा के अमृत सागर में डुबकी लगाकर अपनी आत्मोन्नति व जीवन की सद्गति करने के लिए आए हुए हैं। 14 जनवरी 2021 से प्रारंभ हुआ यह मेला 27 अप्रैल 2021 तक चलेगा। मेले की विधिवत शुरुआत माघी पूर्णिमा के दिन 27 फरवरी 20 21 को निकलने वाली साधु-संतों की शोभा-यात्रा से होगी।

कुंभ सामाजिक समरसता, सौहार्द्र एवं धर्म व अध्यात्म के संवर्धन का प्रमुख मेला है। इस मेले में समूचा भारत अपनी सारी विविधताओं, परंपराओं और संस्कृति के साथ देखने को मिल रहा है। इस मेले में विदेशी लोग भी बहुतायत से आए हुए हैं । यह कुम्भ भव्य और दिव्य बने इसके लिए हमारी सरकार पूर्णता कटिबद्ध है।इस कुंभ से पूरी दुनिया में भारत की गौरवशाली परंपरा, सभ्यता और संस्कृति का संदेश जाएगा। भक्तों-श्रद्धालुओं के लिए विभिन्न अखाड़ों के शाही स्नान इस बार विशेष कौतुक लिए होंगे। इस बार के हरिद्वार कुंभ में धर्म व अध्यात्म के विभिन्न पहलुओं के साथ आधुनिक तकनीक का भी प्रदर्शन किया गया है।कुम्भ मेला क्षेत्र में विकास से संबंधित भी काफी कुछ नया किया गया। स्वच्छ भारत मिशन के तहत विशेष कार्य संचालित किए गए हैं। मेला क्षेत्र में कुंभ की महत्ता के अलावा उत्तराखंड राज्य एवं भारत सरकार की विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं की भी जानकारी दी जा रही है।

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