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नेताजी की होली..

नेताजी की होली..

by अभिषेक अवस्थी
in मार्च २०२१, संस्कृति, सामाजिक
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होली तो नेताओं का प्रिय त्योहार होता है जैसे गब्बर का हुआ करता था। नेताजी बोले, देखिए! हमारी यह पॉलिसी है कि हम किसी बाहरी आदमी के समक्ष अपने सीनियर का नाम अपनी ज़ुबान पर नहीं लाते। अतः गब्बर की बात मत करिए।

चहुंओर होली का होहल्ला मचा हुआ है। मैंने भी सोचा कि क्यों न मैं भी इस बार कुछ ‘केजरी’ टाइप हल्ला करूं? होली पे करूंगा तो कोई बुरा मानकर मानहानि का दावा भी नहीं ठोकेगा। यदि दावा कर भी दिया तो माफीनामे पे लिख दूंगा ‘बुरा न मानो होली है’। समस्या यह कि अपन को झूठ बोलना तो आता है किन्तु लिखना नहीं आता। सोचा चलो अपने नेताजी से मिलकर उनका इस बार का होली मनाने प्लान पूछा जाए। तदुपरांत बैठकर कागज़ काले करूंगा।

मैं जब नेताजी की कोठी पहुंचा तो सबसे पहले एके 47 राइफल धारी उनके हट्टे-कट्टे ‘शैडोस’ से सामना हुआ। उन्होंने मेरी खुले दिल से तलाशी ली। ऐसी तलाशी अगर देश के हर मॉल और भीड़भाड़ वाले इलाके में ली जाती तो पड़ोसी मुल्क के सारे तथाकथित जेहादी बेरोज़गार हो जाते। ख़ैर, तमाम सुरक्षा चक्रों को पार कर अब मैं नेताजी के ड्राइंगरूम में दाखिल हो चुका था। गोया, अमेरिका के किसी एयरपोर्ट में हूं। नेताजी अपने बड़े से ड्राइंगरूम में बड़ी तादात में अपनी चमचा मंडली के साथ बैठे थे। कुछ चमचियां भी थीं। नेताजी का माहिमामंडन अपने चरम पे था।

मुझे देखकर नेताजी ऐसे चौंके जैसे एक पढ़ाई चोर बच्चा अपना होमवर्क न करने पर अपने शिक्षक को देख चौंकता है। इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, नेताजी अपने नेतावतार में वापस आ गए। बोले- ‘आइए – आइए लेखक महोदय! आज इधर कैसे?’

मैंने कहा- ‘जी बस पिछली चार होलियों से आपसे मुलाक़ात की प्रतीक्षा कर रहा था। आज वह पल आ ही गया… सोचा शायद आप स्वयं पधारेंगे… किन्तु….’ मैं अपनी बात कहते कहते रुक गया। सोचा संभवतः नेताजी समझ ही गए होंगे परंतु वे तो ठहरे नेता। आरोप-प्रत्यारोप के सूरमा। आसानी से हार मान जाए, तो किस बात के नेता?

वे गरम होते हुए बोले- ‘अरे भाई… क्या बताएं… समय ही नहीं मिलता। आपकी तरह बेरोज़गार तो हैं नहीं। आपको क्या है। लिया एक कागज़-कलम और घर पर पड़ी मेज़ पर रख घंटे भर में उन्हें शहीद कर दिया। पर्यावरण के मसीहा बने फिरते हो, और कागज़ ऐसे बर्बाद करते हो जैसे फ्री में मिलता है।’

इससे पहले कि नेताजी का पारा महंगी सब्जियों की भांति और चढ़ता, उनके चमचे पीछे से टपके। वह उनके उत्तर को सार्थक करने हेतु मुझे ऐसे घूरने लगे जैसे मैंने किसी फिल्मी हीरो की तरह उनके काले कारनामों की फ़ाइल खोल दी हो। उस समय ऐसा लग रहा था जैसे मैं डिस्कवरी चैनल में दिखाए जाने वाले ‘मैन वर्सेस वाइल्ड’ का ‘बीयर ग्रील्ल्स’ हूं, और भयंकर मुसीबत में हूं। मैंने अपने भोले मन को समझाया कि भाई यहां लेखनी की कोई औकात नहीं है इसलिए अपनी औकात में रहना ही उचित है। सिचुएशन को संभालते हुए मैंने कहा- ‘अरे पालनहार! आप नाहक ही नाराज़ हो रहे हैं। मैं तो मात्र यह जानने आया था कि इस बार की होली हमारे प्रिय नेताजी, यानी आप, किस प्रकार मनाएंगे?’

नेताजी थोड़ा डाउन हुए और बोले, ‘देखिए, अभी होली-वोली की बात मत करिए। हम पर पहले ही चुनाव का प्रेशर और रंग-ढंग चढ़ा हुआ है।’

‘लेकिन होली तो नेताओं का प्रिय त्योहार होता है। जैसे गब्बर का हुआ करता था।’

‘देखिए! हमारी यह पॉलिसी है कि हम किसी बाहरी आदमी के समक्ष अपने सीनियर का नाम अपनी ज़ुबान पर नहीं लाते। अतः गब्बर की बात मत करिए। हां, इस होली पर हम हर बार की तरह यह आकांक्षा अवश्य रक्खते हैं कि होली के दिन सबके दिल मिल जाएं।

‘जनता का हृदयामिलाप तो अक्सर हो ही जाता है किन्तु नेताओं के दिल का क्या?’

नेताजी ने कुटिल मुस्कान ढीलते हुए उत्तर दिया, ‘तुम यार, बड़े शैतान हो। थोड़ी बुद्धि भी चलाया करो। अरे, नेताओं के दिल सदैव घुले-मिले मिले ही रहते हैं।’

मैंने उनकी हां में हां मिलाई। ये तो जगजाहिर है कि नेता चाहे किसी भी दल के हो, या कि निर्दलीय, उनके दिल सदैव मिले हुए ही रहते हैं। जितनी आपसी समझ अपने माननीय स्वयं की वेतनवृद्धि में दिखाते हैं उतनी तो जनता अपना भला चाहने को भी नहीं दिखाती। ख़ैर, मैंने बात आगे बढ़ाते हुए उनसे इस बार होली का प्रोग्राम पूछा।

नेताजी बोले- अमा यार! अब होली क्या मनाएंगे। इस बार तो चुनाव में बहुत बिज़ी हैं। बहुत सी पार्टियों का विलय अपनी पार्टी में करवाना है। यदि उनका विलय संभव न हुआ तो स्वयं का विलय किसी पार्टी में कर देंगे। खर्चा तो होगा, किन्तु मौके पर चौका तो मारना ही पड़ेगा। लक्ष्मी जी ने चाहा तो होली भी बढ़िया ही निपट जाएगी। प्रचार हेतु हर गली मुहल्ले में भी संपर्क साधना है। कुछ नौजवान नेताओं से मिलीभगत करनी है। कब्र में पैर लटकाए ‘पिता’ बनने का गौरव प्राप्त करने वाले अपने वरिष्ठों को भी बधाई देनी है।

मैंने उन्हें आने वाले चुनावों के लिए शुभकामनाएं दीं। साथ ही यह भी कह दिया कि प्रचार के बहाने ही सही, किन्तु मेरे मुहल्ले में भी पधारे। उन्होंने आश्वासन की चासनी में मुझे ऐसे लपेटा जैसे कोई गुलाबजामुन को खाने से पहले चासनी में डुबोता है। उनसे विदा लेकर मैं झटपट वहां से खिसक लिया।

होली के दिन नेताजी तो नहीं आए, किन्तु उनके छोड़े हुए चमचे अपने हाथों मे पार्टी के झंडे लहराते हुए मोटरसाइकलों पर सवार होकर आए। हाथों से गुलाल ऐसे उड़ा गए जैसे सीमा पर बम गिरा रहे हों। लोगों के हाथों में रंग-गुलाल के स्थान पे अपना घोषणापत्र (मेनिफेस्टो) पकड़ा गए। सारे चमचे स़फेद कपड़ों में थे। मगर रंग कई तरह के चढ़े हुए थे। सबसे ज़्यादा लाल रंग उनके कपड़ों में दिखाई दे रहा था। एकदम खून के रंग जैसा। सब जानते हैं कि चुनावोपरांत खून तो होगा ही। जनता के अरमानों का। विश्वास का क़त्ल होगा। हो सकता है इस बार हक़ मारने की बजाय जनता ही मार दी जाए।

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