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जम्मू-कश्मीर में इतिहास ले रहा है करवट

जम्मू-कश्मीर में इतिहास ले रहा है करवट

by डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
in दिसंबर -२०१४, राजनीति
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भाजपा का जम्मू-कश्मीर में 44+ मिशन तभी सफल हो सकता है जब वह स्वयं अपने लिए घाटी में स्थान बनाए और उसके साथ साथ दूसरे छोटे राजनैतिक दलों के लिए घाटी में स्पेस बनाने में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहायता क रे। जम्मू व लद्दाख में वैसे भी उसकी स्थिति ठीक लग रही है। देखना होगा कि इतिहास किस तरह करवट लेता है।

जम्मू-कश्मीर में चुनाव आयोग ने वहां की विधान सभा के लिए चुनाव प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी है। विधान सभा की 87 सीटों में से 46 कश्मीर के हिस्से आती हैं, 37 जम्मू संभाग के और 4 लद्दाख के। चुनाव के मैदान में मुख्य रूप से चार राजनैतिक दल हैं। भारतीय जनता पार्टी , सोनिया कांग्रेस , पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और नेशनल कान्फ्रेंस। इस समय वहां सोनिया कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस की संयुक्त सरकार है, लेकिन चुनाव दोनों अलग-अलग एक दूसरे के विरोध में लड़ रहे हैं। स्थिति क्या है इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि नेशनल कान्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला अपने परिवार की परम्परागत सीट गांदरवल से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। अब्दुल्ला परिवार 1975 से ही यह सीट लड़ता आया है और यह सीट इस परिवार की पुश्तैनी सीट मानी जाती है। लेकिन इस बार मुख्यमंत्री इस सीट से भाग कर श्रीनगर की सोनावर और बडगाम ज़िला की बीरवाह सीट से एक साथ अपना भाग्य आज़माएंगे । फिर भी उन्हें इस बात के लिए तो दाद देनी ही पड़ेगी कि वे कम से कम चुनाव के मैदान में तो हैं। इसके विपरीत सोनिया कांग्रेस के दोनों दिग्गज ग़ुलाम नबी आज़ाद और प्रो. सै़फुद्दीन सोज़ तो मैदान से ही भाग निकले। बहाना यह है कि उन्हें तो पार्टी को सारे प्रदेश में चुनाव लड़ाना है।

भारतीय जनता पार्टी और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पी.डी.पी) दोनों ही इन चुनावों में अति उत्साह में दिखाई देती हैं। इसका कारण शायद पिछले दिनों हुए लोकसभा चुनाव-2014 के परिणाम ही हैं। राज्य की कुल मिला कर छह लोकसभा सीटों में से जम्मू व लद्दाख की तीन सीटें भारतीय जनता पार्टी ने और कश्मीर घाटी की तीनों सीटें पी.डी.पी. ने जीत ली थीं। सोनिया कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस का तो सूपड़ा ही साफ़ हो गया। पी.डी.पी. को 41 विधान सभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी। घाटी की 46 सीटों में से नेशनल कान्फ्रेंस केवल 5 में ही बढ़त हासिल कर सकी थी। जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है उसे 27 विधान सभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल हुई थी। जम्मू लोकसभा के बीस क्षेत्रों में से 16 में उसने बढ़त हासिल की थी। इस पृष्ठभूमि में पी.डी.पी. को लगता है कि वह सरकार विरोधी लहर का लाभ उठा कर विधान सभा के लिए हो रहे चुनावों में भी कश्मीर घाटी की 46 सीटों में से अधिकतर सीटें जीत कर घाटी में से नेशनल कान्फ्रेंस को राजनीति के हाशिए पर धकेल सकती है। सोनिया कांग्रेस घाटी में काफ़ी लम्बे अरसे से हाशिए पर चल ही रही है। उधर भारतीय जनता पार्टी को लगता है कि इस बार जम्मू व लद्दाख की 41 सीटों में से अधिकांश पर हाथ साफ़ कर वह सोनिया कांग्रेस को धूल चटा सकती है। इसके बाद यदि भाजपा किसी सीमा तक घाटी में सेंध लगाने में कामयाब हो जाती है ेतो समझ लेना चाहिए उसका मिशन 44+ पूरा हो सकता है। इसके विपरीत पी.डी.पी. का मानना है कि यदि वह जम्मू संभाग में अपने प्रभाव को कुछ सीमा तक बचा सकने में कामयाब हो गई तो वह भी सत्ता के नज़दीक़ अपने ही बलबूते पर पहुंच सकती है। ध्यान रहे राज्य में सरकार बनाने के लिए किसी भी दल को 44 सीटें प्राप्त करनी होंगी।
भारतीय जनता पार्टी मोटे तौर पर नरेन्द्र मोदी की लहर और उनकी छवि के सहारे जम्मू का बाहु दुर्ग विजय करना चाहती है। 1952 से लेकर अब तक भाजपा का विधान सभा में सर्वाधिक स्कोर 11 रहा है। लेकिन मोदी लहर का इतना प्रभाव है कि नेशनल कान्फ्रेंस और सोनिया कांग्रेस के पुराने नेता भी हवा का रुख़ भांप कर अपनी-अपनी पार्टी छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं। सोनिया कांग्रेस के दिग्गज और लोकसभा सदस्य रहे लाल सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया है, वहीं उपमुख्यमंत्री रहे मंगत राम शर्मा बेटे समेत सोनिया कांग्रेस को ख़ुदा हाफ़िज़ कह कर पी.डी.पी. में शामिल हो गए हैं। महाराजा हरि सिंह के वंशज सोनिया कांग्रेस व नेशनल कान्फ्रेंस में घूमने फिरने के बाद इस नए मौसम की बहार देख कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं।

जम्मू और लद्दाख संभाग में भारतीय जनता पार्टी के प्रति जनता के उत्साह का अंदाज़ा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि सोनिया कांग्रेस के नेताओं ने भी सार्वजनिक रूप से कहना शुरू कर दिया कि राज्य का मुख्यमंत्री हिन्दू क्यों नहीं हो सकता? राज्य मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य और सोनिया कांग्रेस के पुराने नेता शाम लाल शर्मा ने अखनूर की एक सार्वजनिक सभा में कहा कि यदि पश्चिम बंगाल में गनी खान चौधरी और महाराष्ट्र में अब्दुल रहमान अंतुले मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जबकि वहां मुसलमानों की आबादी मुश्किल से दो प्रतिशत है तो जम्मू कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता? यदि पुराना समय होता तो शाम लाल के इस उत्साह को घोर साम्प्रदायिकता घोषित करते हुए उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता, लेकिन बदले परिवेश में सोनिया गांधी की हिम्मत शाम लाल पर कार्यवाही करने की नहीं हुई।

इसके विपरीत पी.डी.पी. के विधायक पीरजादेह मंसूर ने अनन्तनाग में आग उगली कि ‘कुछ साम्प्रदायिक राजनैतिक दल कश्मीर में किसी हिन्दू को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। लेकिन अभी से आगाह कर दिया जाता है कि जम्मू कश्मीर मुसलमान बहुल राज्य है और इसका शासन किसी मुसलमान द्वारा ही चलाया जा सकता है।‘ पुराना समय होता तो पी. डी. पी. अपने इस पीरजादेह को उसकी इस साफ़गोई के लिए शाबाशी के साथ कुछ इनाम इकराम भी देती लेकिन नई हवा का रुख़ भांपते हुए पी.डी.पी. ने तुरंत उसके इस उत्साह से पल्ला झाड़ लिया और मान लिया कि मुख्यमंत्री होने का मज़हब से कोई ताल्लुक़ नहीं है। यही कारण है कि राजनीति की इस नई हवा में राज्य के विधान सभा चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण हो गए हैं। लोगों का अपने प्रति उत्साह देखकर भारतीय जनता पार्टी ने लगे हाथ घर के भीतर भी सफ़ाई कर लेने का अच्छा अवसर पा लिया है। 2008 के विधान सभा चुनावों में पार्टी के जो ग्यारह विधायक जीते थे, उनमें से सात पर आरोप लगते रहते थे कि उन्होंने पैसे लेकर विधान सभा के भीतर नेशनल कान्फ्रेंस के पक्ष में मतदान कर दिया था। ऐसे विधायकों में से अधिकांश को पार्टी ने इस बार टिकट नहीं दिया।

इन चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण कारक है घाटी में चुनावी मुद्दों का बदल जाना। अब तक हुए चुनावों में मुख्य मुद्दा कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक, भारत समर्थक, स्वायत्तता, आर्म्ड फोर्सेस एक्ट इत्यादि बातों पर ही चर्चा होती थी। पी.डी.पी. और नेशनल कान्फ्रेंस दोनों ही इन मुद्दों पर एक दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते रहते थे। सोनिया कांग्रेस घाटी में से काफ़ी अरसा पहले ही अप्रासंगिक हो गई थी। इन मुद्दों पर एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ये दोनों दल घाटी की 46 सीटों पर अनुपात से क़ब्ज़ा जमा लेते थे। लेकिन पिछले दिनों घाटी में जेहलम नदी की बाढ़ ने जहां जन धन का अपार नुक़सान किया; वहीं उसने घाटी की राजनीति के समीकरण भी एकदम से बदल दिए। इस बाढ़ में घाटी तो डूबी ही थी, लेकिन प्रकारान्तर से उमर अब्दुल्ला की सरकार भी डूब गई थी। पहली बार ऐसा देखा गया कि संकट के दिनों में राज्य सरकार बिल्कुल ही ग़ायब हो गई हो। इतना ही नहीं हुर्रियत के दोनों धड़ों समेत आतंकवादियों के सभी धड़े इस संकट काल में ग़ायब हो गए। इस संकट काल में या तो स्वयंसेवक संस्थान आगे आए या फिर सेना। जिस सेना को लेकर हुर्रियत सदा गालियां देती रहती थी और आतंकवादी, किशोरों को आगे करके पत्थर मारते रहते थे, वही सेना घाटी के लोगों को मौत के मुंह से बचाने के लिए अपने जवानों के प्राण ख़तरे में डाले हुए थी। नरेन्द्र मोदी ने इस संकट काल में घाटी के लोगों की जो सहायता की उसने चुनाव के मुद्दे ही बदल दिए हैं। यह पहली बार है कि चुनावों में गुड गवर्नेंस को लेकर बहस हो रही है। इसी बहस में नेशनल कान्फ्रेंस-सोनिया कांग्रेस की सरकार बुरी तरह हार रही है और नरेन्द्र मोदी का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा है। नरेन्द्र मोदी के इस भारी पड़ रहे पलड़े का घाटी में भारतीय जनता पार्टी को कितना लाभ मिल पाता है, यह देखना रुचिकर होगा। लेकिन इतना अवश्य है कि इससे लोगों का भारतीय जनता पार्टी के प्रति रुख़ अवश्य बदला है। विकास का मुद्दा घाटी में भी चुनावी मुद्दा बनता जा रहा है। यही कारण है कि कभी अलगाववादी नेता रहे सज्जाद अहमद लोन नरेन्द्र मोदी से केवल मिलते ही नहीं हैं बल्कि उनसे मिलने के बाद उनका गुणगान करते हुए भी नहीं थकते ।

दरअसल भाजपा अच्छी तरह जानती है कि जब तक उसे घाटी में थोड़ी बहुत सफलता मिल नहीं जाती तब तक अपने बलबूते सरकार बनाना संभव नहीं होगा। लेकिन घाटी में अपने लिए स्पेस बनाने के लिए उसे यह स्पेस पी.डी.पी. और नेशनल कान्फ्रेंस से ही छीननी होगी। इस कार्यसिद्धी के लिए ही पार्टी ने नई रणनीति अपनाई है। प्रथम तो घाटी के दो प्रमुख दलों पी.डी.पी. व नेशनल कान्फ्रेंस के अलावा वहां सक्रिय छोटे दलों, जिनका प्रभाव क्षेत्र एक आध ज़िले या विधान सभा क्षेत्रों तक ही सीमित है, के साथ सार्थक संवाद स्थापित किया जाए। द्वितीय यदि वे कुछ विधान सभा क्षेत्रों में जीत जाते हैं तो उनके साथ चुनाव के बाद समझौता किया जाए। पीपल्स कान्फ्रेंस के सज्जाद अहमद लोन की नरेन्द्र मोदी के साथ भेंट को इसी पृष्ठभूमि में देखना होगा। लोन के पिता को पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों ने मौत के घाट उतार दिया था। तब सज्जाद अहमद लोन ने हुर्रियत के नेता सैयद अली शाह गिलानी पर आरोप लगाया था कि उसके पिता की हत्या गिलानी ने करवाई है। कुपवाडा और हंदवाडा जिलों में लोन की पीपल्स कान्फ्रेंस का प्रभाव है।

इसके अतिरिक्त वर्तमान आज़ाद विधायक इंजीनियर रशीद की पार्टी अवामी इत्तिहाद पार्टी, हकीम यासिन की पीपल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट, ग़ुलाम हसन मीर की डेमोक्रेटिक नेशनलिसट पार्टी भी भाजपा के लिए चुनाव पूर्व या चुनाव के बाद सहायक हो सकती हैं। पी.डी.पी. और नेशनल कान्फ्रेंस के अतिरिक्त इन छोटी पार्टियों के या आज़ाद तौर पर कुछ उम्मीदवार जीतते हैं तो उनके साथ भाजपा राजनैतिक जोड़-तोड़ कर सकती है। इसके दो लाभ हो सकते हैं। पहला तो यह कि पी.डी.पी. और नेशनल कान्फ्रेंस का घाटी पर से राजनैतिक एकाधिकार समाप्त हो जाएगा, दूसरा भविष्य में घाटी में नए युवा नेतृत्व को आगे आने का अवसर प्राप्त होगा।

अपने तौर पर भी भाजपा ने इस बार केवल कश्मीर घाटी में ही नहीं बल्कि जम्मू संभाग के डोडा, रामवन, किश्तवाड इत्यादि जिलों में अच्छी संख्या में मुसलमान प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे हैं। कश्मीर घाटी में भाजपा ने हिना भट्ट को श्रीनगर की अमीराकदल सीट से टिकट दिया है। हिना भट्ट नेशनल कान्फ्रेंस के पूर्व वरिष्ठ नेता शफ़ी भट्ट की बेटी हैं। इसी प्रकार पार्टी ने हब्बा कदल की सीट से मोती क़ौल को प्रत्याशी बनाया है, जहां 16000 वोट विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं के हैं। भाजपा का भरोसा श्रीनगर के शिया समाज पर भी टिका हुआ है, जो अपने आप को मुसलमानों के हाथों सताया हुआ मानता है। ताजिया निकालने के प्रश्न पर शिया समाज का मुसलमानों से विवाद रहता है। मुसलमान ताज़िये को मूर्ति पूजा मानते हैं और उनके अनुसार मूर्ति पूजा काफ़िर का काम है। जबकि शिया समाज ताज़िये को अपनी पहचान का महत्वपूर्ण अंग मानता है। भाजपा श्रीनगर की इस प्रकार की तीन चार सीटों को अपने बलबूते जीतने की रणनीति बना कर चल रही है ।
2014 के लोकसभा चुनावों के आंकड़ों को एक बार फिर खंगाल लिया जाए तो स्थिति कुछ और स्पष्ट हो सकती है। कश्मीर घाटी में पहली बार भाजपा 1.4 प्रतिशत मत प्राप्त करने में सफल हुई है। यदि पूरे राज्य की बात की जाए तो भाजपा को 32.6 प्रतिशत मत मिले; जबकि पी.डी.पी. को 20.5 प्रतिशत मत मिले। सोनिया कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस ने मिल कर चुनाव लड़ा था और उनको 34 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। लेकिन विधान सभा के चुनाव वे अलग-अलग लड़ रहे हैं, इसलिए इस बार उनके वोटों में गिरावट आना निश्चित ही है।

यदि भाजपा अपने बलबूते जम्मू-लद्दाख की 41 सीटों में से 33-35 के बीच सीटें ले जाती है तो उसके लिए कश्मीर घाटी की छोटी पार्टियों की सहायता से अपनी सरकार बनाना आसान हो जाएगा। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि घाटी में से नेशनल कान्फ्रेंस कम से कम पन्द्रह सीटों से कम पर ही न सिमट जाए। जितनी सीटें नेशनल कान्फ्रेंस हारती जाएगी उतनी ताक़त पी.डी.पी. की बढ़ती जाएगी। तब यह पी.डी.पी. भाजपा के राजतिलक के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बन जाएगी। इसका एक ही कारगर सूत्र हो सकता है। भाजपा स्वयं अपने लिए घाटी में स्थान बनाए और उसके साथ साथ दूसरे छोटे राजनैतिक दलों के लिए घाटी में स्पेस बनाने में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहायता करे। लगता है इस बार भाजपा इसी रणनीति को अपना रही है। तभी उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ जम्मू कश्मीर में मिशन 44+ की घोषणा की है।

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डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

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