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मुसलमानों के प्रति  बदलता दुनिया का नजरिया

मुसलमानों के प्रति बदलता दुनिया का नजरिया

by प्रणय कुमार
in अप्रैल -२०२१, सामाजिक
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जर्मनी जुलाई 2020 में बुर्का और नक़ाब को विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में प्रतिबंधित कर चुका है। स्विट्जरलैंड ने अभी कुछ दिनों पूर्व ही जनमत करा बुर्का पर प्रतिबंध लगाया है। श्रीलंका ने बीते दिनों 1000 मदरसों को बंद करने के साथ-साथ बुर्के को भी प्रतिबंधित करने की घोषणा की है। ऑस्ट्रेलिया में भी इसे लेकर व्यापक विमर्श जारी है।

इस्लाम अपने उद्भव काल से ही अन्य मतावलंबियों के प्रति कट्टर एवं आक्रामक रहा है। प्रेम और सद्भाव से रहने वाले भारतीय समाज का आठवीं शताब्दी (715 ई.) में मुहम्मद बिन कासिम के रूप में पहली बार इस्लाम से सामना हुआ।

मुहम्मद बिन क़ासिम ने क्रूरता एवं बर्बरता की सारी सीमाएं लांघ दीं। उसने बच्चों, महिलाओं, निरीह प्रजाजनों, साधु-संतों पर सर्वाधिक अत्याचार ढाए। कट्टरता एवं धर्मांधता की ऐसी बर्बर एवं अमानुषिक प्रवृत्तियों से भारत पूर्व परिचित नहीं था, न ऐसे आक्रमणों के लिए तैयार ही था। फिर भी सिंध के शक्तिशाली राजा दाहिर ने सामर्थ्य भर उसका प्रतिकार किया। उनके प्रबल प्रतिकार एवं उनकी बेटियों की नीतिनिपुणता का ही परिणाम था कि मुहम्मद बिन क़ासिम भी निरापद शासन नहीं कर पाया और थोड़े ही अंतराल के बाद मारा गया।

वस्तुतः धर्माधारित शासन को जीवन का ध्येय मानने वाले भारतीय नृपतियों ने इस्लाम की कट्टर, धर्मांध, हिंसक, आक्रामक एवं एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को समझने में भारी भूल की। वे उनके साथ भारतीय परिप्रेक्ष्य में मान्य एवं पारंपरिक पद्धत्ति से ही युद्ध या संधि करते रहे। परिणाम त्रासद व विनाशकारी रहा। वस्तुतः कट्टर इस्लाम की जिहादी और ज़ुनूनी प्रकृति और प्रवृत्तियों को समझने में वे पूर्णतः विफल रहे। साथ ही अपनों की सत्ता-लिप्सा, निजी महत्वाकांक्षा, विश्वासघात उनकी हार का कारण बनता रहा। चेहरे बदलते रहे, पर आक्रमणों का क्रम निरंतर चलता रहा। हर दूसरा आक्रमणकारी पहले से अधिक क्रूरता एवं बर्बरता के साथ लोगों के मन-मस्तिष्क पर आतंक का पर्याय बन छा जाना चाहता था ताकि इस्लाम उसे अपना सबसे बड़ा नायक घोषित करे। जीत के बाद की ’माले ग़नीमत’ की लूट व लालच तो एक बड़ा उत्प्रेरक था ही, उसमें मज़हबी कट्टरता ने भी आग में घी का काम किया।

परंतु, सूचनाओं के विस्फोट एवं सिमटती वैश्विक दूरी के इस दौर में उनकी एकपक्षीय स्थापनाओं-व्याख्याओं को चुनौती मिलने लगी है। पल-पल की सूचनाओं से लैस आज की पीढ़ी उनके न चाहते हुए भी जान रही है कि संपूर्ण विश्व में इस्लाम को लेकर कुछ भयप्रद चिंताएं, आशंकाएं, अविश्वास व्याप्त हैं। कट्टर एवं आक्रामक इस्लाम को लेकर आज पूरी दुनिया असहज है। एक पंथ, एक ग्रंथ, एक प्रतीक, एक पैग़ंबर के प्रति इस्लाम की जिद और जुनून अन्य मतावलंबियों को उनसे दूर कर रही है। परिणामतः दुनिया के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक इस्लाम के नाम पर कोई-न-कोई संघर्ष, कोई-न-कोई दावे-घोषणाएं-पाबंदियां-आपत्तियां, विरोध-प्रतिरोध अविराम ज़ारी हैं।

फ्रांस ने अभी कुछ दिनों पूर्व ही ”सपोर्टिंग रिसपेक्ट फॉर द प्रिंसिपल ऑफ द रिपब्लिक” नामक क़ानून पारित कर मदरसा शिक्षा पद्धत्ति एवं मस्ज़िदों पर सरकारी लगाम लगाया है। चार्ली हेब्दो के संपादकीय कार्यालय, फिर सामाजिक विज्ञान के शिक्षक एवं चर्च में प्रार्थना कर रही ग़ैर मतावलंबी वृद्ध महिला पर किए गए मज़हबी हमले ने फ्रांसीसी सरकार को ऐसे क़ानून बनाने के लिए अंततः बाध्य कर दिया। जिस समाज ने समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व के नारे और नीति को पूरी दुनिया में बढ़ावा दिया, उसे अपने  उदार एवं शांतिप्रिय सामाजिक परिवेश को बचाए रखने के लिए यह क़दम उठाना पड़ा।

अमेरिका में तो इस्लाम को न केवल संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, अपितु बड़ी संख्या में वहां के मुसलमान स्वयं उसे छोड़ कर अन्य धर्मों को अपना रहे हैं। जो धर्म अपनी रूढ़, जड़ एवं कालबाह्य मान्यताओं के साथ दुराग्रह की सीमा तक चिपका रहेगा, नियम-निषेध को बलपूर्वक थोपेगा, समय व विज्ञान के साथ तालमेल नहीं बिठा पाएगा, सभ्य एवं आधुनिक समाज उसे पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाएगा। तर्कों, तथ्यों, देश-काल-परिस्थिति को रिवाज़ों से अधिक महत्व देने वाली नौजवान पीढ़ियों की संख्या आज पूरी दुनिया में बढ़ी है। उसी का परिणाम है कि समूची दुनिया में इस्लाम की थोपने वाली मानसिकता के विरुद्ध प्रतिरोधी स्वर के साथ-साथ उसके भीतर से सुधारवादी माँगें भी जोर पकड़ने लगी हैं।

जर्मनी जुलाई 2020 में बुर्का और नक़ाब को विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में प्रतिबंधित कर चुका है। स्विट्जरलैंड ने अभी कुछ दिनों पूर्व ही जनमत करा बुर्का पर प्रतिबंध लगाया है। श्रीलंका ने बीते दिनों 1000 मदरसों को बंद करने के साथ-साथ बुर्के को भी प्रतिबंधित करने की घोषणा की है। ऑस्ट्रेलिया में भी इसे लेकर व्यापक विमर्श जारी है। बर्मा में बिराथु के नेतृत्व में रोहिंग्याओं के प्रति जो रवैया अपनाया गया उसकी कहीं जमकर सराहना हुई तो कहीं परोक्ष-प्रत्यक्ष निंदा। पर बिराथु का यह वक्तव्य विश्व भर में सबसे अधिक साझा किया गया कि ”आप कितने भी उदार, अहिंसक, सहिष्णु एवं शांतिप्रिय क्यों न हों, पर आप पागल कुत्तों के साथ चैन से नहीं सो सकते!”

चीनी सरकार तो इस्लामिक कट्टरपंथ एवं पृथक पहचान को लेकर इतनी अधिक आशंकित, आतंकित या आक्रामक है कि शिंजियांग प्रांत में सवा करोड़ से भी अधिक उइगर मुसलमानों के विरुद्ध ’री-एजुकेशन’ के नाम पर उनके सांस्कृतिक संहार पर आमादा है। उल्लेखनीय है कि भारत में जो तथाकथित बुद्धिजीवी छिटपुट घटनाओं आदि के आधार पर ही  समय-असमय का विचार किए बिना प्रायः असहिष्णुता का राग आलापते रहते हैं, वे चीन के इस शोषण एवं अत्याचार पर पूर्णतया मौन साध जाते हैं।

प्रश्न यह है कि इस्लाम को लेकर आज संपूर्ण विश्व में भय-संदेह-अविश्वास का वातावरण क्यों है? क्या यह संभव है कि अकारण-अचानक पूरा विश्व इस्लामोफोबिया से ग्रसित हो गया हो? क्या इस्लाम के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए आतंकी संगठन केवल कपोल-कल्पना हैं या उसकी उत्पत्ति के कुछ ठोस कारण हैं? क्या वसीम रिज़वी और तारिक फ़तेह जैसे तमाम इस्लामिक स्कॉलरों की आपत्तियां बेबुनियाद हैं? तमाम जिहादी-कट्टरपंथी-इस्लामिक ताक़तों एवं संगठनों की वैश्विक सक्रियता एवं आतंक-आक्रामकता के बावजूद क्या विश्व-मानवता के प्रेमियों को मौन साधे रहना चाहिए? क्या उन्हें इस्लाम की जिहादी-कट्टरपंथी सोच और आतंकी वारदातों की मीमांसा  का भी अधिकार नहीं? क्या इन विषयों पर न्यायोचित प्रश्न पूछना भी असहिष्णुता है? यह कैसी विडंबना है कि एक ओर बार-बार चोटिल, रक्तरंजित एवं आतंक का शिकार होने वाले देश या समाज से सद्भावना, सदाशयता, सहिष्णुता की अपेक्षा की जाती है और दूसरी ओर मज़हब के नाम पर बने अनेकानेक मज़हबी-आतंकी संगठनों को बचकर निकल जाने का पार्श्व द्वार या आसान रास्ता दे दिया जाता है? और भारत में तो लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं बहुलतावादी सामाजिक संरचना के नाम पर भयावह तुष्टिकरण का यह खेल स्वतंत्रता-प्राप्ति के ठीक बाद से ही धड़ल्ले से चल रहा है।  क्या यह सत्य नहीं कि जैसे-जैसे इस्लाम में सुधार की मांग उसके भीतर और बाहर से जोर पकड़ती जा रही है, वैसे-वैसे वह अपनी पृथक पहचान के प्रति अतिरिक्त सजग या आक्रामक होता जा रहा है? क्या इसमें भी कोई दो राय है कि वह स्थानीय समाज, संस्कृति, परंपरा, मान्यता एवं जीवन-मूल्यों का अनादर करता है, बल्कि कई बार तो संकीर्णता, अनुदारता एवं घृणा की सीमा तक उनसे दूरी बनाकर रखता है? सच तो यह है कि जिन देशों-शहरों में भी मुस्लिम जनसंख्या दस-पंद्रह प्रतिशत से अधिक है, वहां उनका बड़ा वर्ग शरीयत के क़ानून लागू करने के ख़्वाब संजोता है। पुलिस-प्रशासन एवं क़ानून-व्यवस्था के प्रति असहयोग का रवैया रखता है। अपितु दुर्बल आर्थिक स्थिति के बावजूद उनका पूरा ज़ोर जनसांख्यिकीय बढ़त बनाकर ताक़त हासिल करना और समय-समय पर उनका प्रदर्शन करना होता है। जिस तब़के का बड़ा हिस्सा शिक्षा, सुविधा, चिकित्सा, पर्यावरण या विकास के तमाम आधुनिक पैमानों से अधिक महत्व जनसंख्या-वृद्धि को दे क्या उसकी सोच-समझ-सरोकार में बदलाव की अपेक्षा रखना या मांग करना अनुचित है, अस्वाभाविक है?

दुनिया के अनेक देशों की सरकारों द्वारा लिए गए निर्णय पर हल्ला-हंगामा, विरोध-प्रदर्शन करने की बजाय, यह समय की मांग है कि सभी इस्लामिक मुल्कों, विचारकों, मतावलंबियों को पृथक पहचान, कट्टरता एवं धर्मांधता को सींचने एवं बढ़ावा देने वाली सोच का परित्याग कर शांति, सह-अस्तित्व एवं सर्वधर्म समभाव की भावना को बल प्रदान करना चाहिए। यही इस्लामिक विश्व एवं अखिल मानवता के लिए भी कल्याणकारी होगा।

 

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