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बंगाल में भाजपा का पलड़ा भारी

बंगाल में भाजपा का पलड़ा भारी

by कृष्ण्मोहन झा
in अप्रैल -२०२१, राजनीति
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पश्चिम बंगाल के चुनावी रण में ममता बनर्जी को भाजपा ने मुश्किल में डाल रखा है लेकिन भाजपा की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह अब तक ऐसा कोई चेहरा नहीं खोज पाई है जिसे वह ममता बनर्जी के सामने भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर सके।

पश्चिम बंगाल में चुनावों की घोषणा के कई माह पूर्व से ही उसने जिस तरह ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया है उसे देखते हुए यही अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा पश्चिम बंगाल का किला फतह करने की इच्छा रखती है। दरअसल पश्चिम बंगाल में गत लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली अभूतपूर्व सफलता ने पार्टी का मनोबल  इतना ऊंचा कर दिया है कि वह वर्तमान विधान सभा चुनाव के बाद राज्य की सत्ता पर भी कब्जा कर लेने का सुनहरा स्वप्न संजोकर अपनी चुनावी तैयारियां कर रही हैं।

विगत तीन वर्षों में अपने जनाधार का विस्तार करने में भाजपा को मिली शानदार सफलता अब यह संकेत दे रही है कि इस बार के विधान सभा चुनावों के नतीजे उसका यह स्वप्न साकार होने का पैगाम लेकर आ सकते हैं। यही कारण है कि राज्य में एक दशक से सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का इन चुनावों में सीधा मुकाबला भारतीय जनता पार्टी से होने जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय जनता पार्टी  के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने राज्य के मतदाताओं के दिल जीतने के लिए पूरी समर्पण भावना के साथ जो कड़ी मेहनत विगत कुछ माहों में की है वह अब फलीभूत होती दिखने लगी है। तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का भाजपा के प्रति बढ़ता आकर्षण इसी सत्य का परिचायक है।

आज स्थिति यह बन चुकी है कि तृणमूल कांग्रेस ने जिन्हें अपना प्रत्याशी घोषित किया है उनके बारे में भी यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे विधान सभा चुनावों की नामांकन तिथि तक तृणमूल कांग्रेस नहीं छोड़ेंगे। कभी तृणमूल कांग्रेस के खासमखास माने जाने वाले शुभेंदु अधिकारी से शुरू हुआ यह सिलसिला अबाध गति से अभी तक जारी है। संभवतः तृणमूल कांग्रेस का एक बहुत बड़ा वर्ग भी यह मान चुका है कि आगामी विधान सभा चुनावों के बाद राज्य में भाजपा की सरकार बनने में अब कोई संशय बाकी नहीं रह गया है। यह स्थिति पश्चिम बंगाल के मतदाताओं को भी यह सोचने के लिए विवश कर सकती है कि ममता सरकार पर जो आरोप लगाते हुए उन्होंने पार्टी छोड़ी है उन आरोपों में सच्चाई अवश्य है। ममता बनर्जी का साथ छोड़ कर भाजपा में शामिल होने वाले पार्टी के प्रमुख नेताओं की लंबी फेहरिस्त के चलते उन हस्तियों की संख्या नगण्य प्रतीत होती है जो राज्य विधान सभा का चुनाव कार्यक्रम घोषित होने के बाद ममता बनर्जी का साथ देने के लिए आगे आए हैं।

किसान संगठनों का आंदोलन दिल्ली में कमजोर पड़ चुका है। यशवंत सिन्हा और मेधा पाटकर से पश्चिम बंगाल में किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ममता बनर्जी ने राज्य के मतदाताओं में भाजपा के प्रति बढ़ते आकर्षण को खत्म करने के लिए बाहरी का जो मुद्दा उठाया था वह मुद्दा यशवंत सिन्हा और मेधा पाटकर के उनके साथ आने से कमजोर पड़ चुका है। वे यह दावा नहीं कर सकते कि कभी पश्चिम बंगाल उनकी कर्मभूमि रहा है। यशवंत सिन्हा अगर ममता बनर्जी के लिए बाहरी नहीं हैं तो भाजपा के उन नेताओं को वे बाहरी कैसे ठहरा सकतीं हैं जो राज्य में भाजपा के चुनाव अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल विधान सभा के चुनाव में मतदाताओं से भाजपा को हराने की अपील करने वाले किसान नेता सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने की अपील नहीं कर रहे हैं। इस समय देश के पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों की प्रक्रिया चल रही है परंतु ये किसान नेता अगर केवल पश्चिम बंगाल के मतदाताओं से भाजपा को हराने की अपील कर रहे हैं तो इसका मतलब ही यही है कि उन्हें राज्य के इन चुनावों में भाजपा की जीत की संभावनाएं प्रबल दिखाई दे रही हैं।

जय श्री राम के नारे के साथ प्रारंभ भाजपा का  चुनाव अभियान हिंदू मतदाताओं के ध्रुवीकरण में इतना कारगर सिद्ध हुआ है कि ममता बनर्जी को भी आखिरकार मतदाताओं को यह बताने के लिए विवश होना पड़ा कि वे भी घर से पूजा पाठ करके चुनाव प्रचार पर निकलती हैं। दरअसल ममता बनर्जी को भी अपने अल्पसंख्यक वोट बैंक पर अब यह भरोसा नहीं रह गया है कि पिछले दो विधान सभा चुनावों की भांति इस विधान सभा चुनाव में भी तृणमूल कांग्रेस को सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने में वह मददगार साबित होगा।

गौरतलब है कि पिछले चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का साथ देने वाले फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी ने इस बार इंडियन सेक्युलर फ्रंट पार्टी नामक नया राजनीतिक दल बनाकर  कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल कर लिया है। यद्यपि इस तालमेल पर कांग्रेस के अंदर भी मतभेद हैं परन्तु इसका तृणमूल कांग्रेस की जीत की संभावनाओं पर असर अवश्य पड़ सकता है। सीएए भी इस चुनाव में बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है।

मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी ने अपने पहले कार्यकाल में युवाओं, महिलाओं, अल्पसंख्यकों सहित समाज के लगभग सभी तबकों के लिए जो कल्याण कारी योजनाएं प्रारंभ कीं थीं उनका फायदा उन्हें गत विधान सभा चुनाव में मिला और वे लगातार दूसरी बार शानदार बहुमत के साथ सत्ता हासिल करने में सफल रहीं परंतु उनके दूसरे कार्यकाल में पनपे भ्रष्टाचार ने तृणमूल सरकार से जनता की दूरियां बढ़ा दीं। भाजपा ने इसी भ्रष्टाचार को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया है। भाजपा ने गत लोकसभा चुनाव में राज्य की 18सीटों पर विजय हासिल कर जो वोट बैंक तैयार किया है उसके विस्तार को रोकने में भी ममता बनर्जी सफल नहीं हो सकी हैं। आज स्थिति यह है कि भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की स्थिति में कोई दल नहीं है लेकिन ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने में कोई दल पीछे नहीं रहना चाहता। तृणमूल कांग्रेस के परंपरागत वोटों का बंटवारा निश्चित रूप से भाजपा को सत्ता की दहलीज के और निकट पहुंचाएगा।

विगत दिनों नंदीग्राम में ममता बनर्जी को जो चोट लगी उस घटना ने भाजपा को सतर्क कर दिया है। अस्पताल से छुट्टी पाने के बाद ममता बनर्जी अब व्हील चेयर पर पर बैठ कर चुनाव प्रचार कर रही हैं। तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी की चोट को साजिश का नतीजा बताकर चुनाव आयोग तक गुहार लगा आई है जहां उसकी दलील को भले ही अस्वीकार कर दिया गया परंतु भाजपा को यह चिंता तो अवश्य सता रही है कि ममता बनर्जी को लगी चोट उन्हें चुनावी लाभ पहुंचा सकती है।

भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव टिकटों के वितरण में भी बहुत सावधानी बरती है। विगत दिनों ओपीनियन पोल के नतीजों से राजनीतिक पंडित यह अनुमान लगा रहे हैं कि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस में कांटे का मुकाबला होने की स्थिति निर्मित हो चुकी है। इसलिए तृणमूल कांग्रेस ने इस आधार पर उम्मीदवारों का चयन किया है कि विजयी होने के बाद पांच साल तक वे अपनी निष्ठा न बदलें। उधर भाजपा ने केवल वही उम्मीदवार मैदान में उतारे  हैं जिनके जीतने की संभावना में शक की कोई गुंजाइश न हो। कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल के चुनावी माहौल से यही आभास होता है कि पश्चिम बंगाल के चुनावी रण में ममता बनर्जी को भाजपा ने मुश्किल में डाल रखा है लेकिन भाजपा की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह अब तक ऐसा कोई चेहरा नहीं खोज पाई है जिसे वह ममता बनर्जी के सामने भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट कर सके। बालीवुड अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती से उसने जो उम्मीदें लगा रखी थीं वे पूरी होती नहीं दिख रही हैं। फिलहाल तो सबसे अहम सवाल यह है कि नंदीग्राम में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के बागी नेता शुभेंदु अधिकारी के बीच जो मुकाबला हो रहा है उसमें बाजी किसके हाथ रहेगी। इस चुनाव क्षेत्र का परिणाम ही  है कि पश्चिम बंगाल की भावी राजनीति तय करेगा।

 

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