कांग्रेस की वामपंथी कलाबाजी

कांग्रेस वामपंथियों की कलाबाजियों का ऐसा चित्र प्रस्तुत करती है, जो अव्यक्त चित्र याने माडर्न आर्ट की तरह होता है। तीस्ता सीतलवाड़ की गुजरात में साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ तथाकथित यात्रा और कांग्रेस पदाधिकारी शबनम आजमी का निष्पक्ष समाजसेवी बनकर घूमना इसके नमूने हैं। उनका मूल मकसद भाजपा के खिलाफ जनमत बनाना ही होता है।

गुजरात में दो ही प्रमुख राजनीतिक पार्टियां रही हैं। एक कांग्रेस और दूसरी भाजपा। वहां ठीक विधान सभा चुनाव से पहले एक बार आंदोलनजीवी तीस्ता सीतलवाड़ साम्प्रदायिक शक्तियों को राज्य में जीत ना मिले, इसलिए एक यात्रा लेकर पूरे राज्य में निकली थीं। वास्तव में वह आंदोलन नहीं कांग्रेस का चुनाव प्रचार कर रही थीं और सीधे-सीधे भाजपा और नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर उन्हें साम्प्रदायिक शक्तियां करार दे रही थीं।

कांग्रेस का वामपंथी इको सिस्टम नैरेटिव को फाइन आर्ट की तरह परोसता है। जहां अभिधा (स्पष्टोक्ति) के लिए कोई जगह नहीं है। वे 2014 से पहले कभी भाजपा का नाम नहीं लेते थे, बल्कि इसकी जगह इस्तेमाल करते थे, साम्प्रदायिक शक्तियां। ये शक्तियां कोई दस-बारह राजनीतिक दलों का समूह नहीं था। साफ है कि वे जब साम्प्रदायिक शक्तियां कहते थे, तब उनका इशारा भाजपा की ओर ही होता था।

कांग्रेस सेवा का ही परिणाम था कि एक बार आंदोलनजीवी तीस्ता के लिए रात को दो बजे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर चले गए। बावजूद इसके तीस्ता की पहचान कांग्रेसी की नहीं बल्कि एक आंदोलनजीवी की है। यही कांग्रेस के वामपंथी इको सिस्टम का फाइन आर्ट है, जहां आंदोलनजीवी शबनम हाशमी कांग्रेस पार्टी की पदाधिकारी होने के बावजूद समाज के बीच निष्पक्ष समाजसेवी बनी सालों तक घूमती रहीं।

एनडीटीवी को बचाने के लिए यीशू की प्रेरणा से एंटोनियो माइनो ने सेव टाइगर प्रोजेक्ट लांच कर दिया। टाइगर के नाम पर चैनल को सेव किया गया। वह दिन है और आज का दिन है, चैनल अपनी वफादारी से पीछे नहीं हटा। वह कांग्रेस के आईटी सेल के तौर पर ही काम करता है।

चर्चित दलित आंदोलनजीवी कांचा इलैया शेफर्ड भारत में राष्ट्रवाद के घोर आलोचक माने जाते रहे हैं। शेफर्ड साहब अमेरिकी चर्च के पैसे पर अमेरिका की यात्रा करते हैं और अमेरिकी राष्ट्रवादी संस्था के मंच पर जाकर भारतीय राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं। इस आलोचना से शेफर्ड साहब को अमेरिका की निःशुल्क यात्रा मिली और निश्तिच तौर पर थोड़ा-बहुत मानदेय भी मिला होगा। चर्च को इससे क्या हासिल हुआ?

चर्च एफसीआरए के पैसे से दुनिया में ऐसे आंदोलनजीवी खड़े करता है, जो उनके इशारे पर भारत में बयान देते रहें और उनके अनुकूल समाज में माहौल बनाते रहें अर्थात भारत की अस्थिरता में अपना योगदान देते रहें। ऐसे भारतीय एनजीओ की लंबी श्रृंखला है जो चर्च के संपर्क में रह कर अकूत धन इकट्ठा करते रहे हैं।

सुनील सरदार और जोसेफ डिसूजा एनजीओ चलाने वाले ऐसे ही दो नाम हैं। सुनील सरदार महाराष्ट्र से हैं और ट्रूथसिकर्स इंटरनेशनल के नाम से एक गैर सरकारी संस्था चलाते हैं। सुनील सरदार घोषित तौर पर धर्मांतरण के माध्यम से भारत में जीजस (यीशू) का किंगडम (राज्य) स्थापित करना चाहते हैं। चिंतक कांचा इलैया शेफर्ड, लेखिका सुजैना अरूंधति राय के संपर्क में लंबे समय से सुनील हैं।

वर्ष 2009 से दिल्ली से एक फारवर्ड प्रेस नामक अंग्रेजी-हिंदी द्वैभाषिक पत्रिका प्रकाशित हो रही है। इसकी मालिक सिल्विया मारिया फर्नाडिज कोस्का है और संपादक उसका पति आयवन कोस्का है। दोनों ही कैनेडियन नागरिक हैं। इन दोनों को ओवरसीज सिटीजनशिप ऑफ इंडिया (ओसीआई) प्राप्त है। इस पत्रिका की शिकायत मनीष ठाकुर नाम के अधिवक्ता ने न्यायायल में की। मनीष के अनुसार- ”विदेश से मनी लांड्रिंग व हवाला के जरिए धन मंगवा कर विभिन्न प्रकार की देश -विरोधी गतिविधियों में यह दंपति संलग्न हैं।”

फारवर्ड प्रेस के मालिक आयवन कोस्का ने ‘आंबेडकर का हीरो कौन?’ शीर्षक से एक लेख लिखकर पत्रिका में प्रकाशित किया है, जिसमें डॉ. आंबेडकर का अपमान किया गया है। लेख में कहा गया है कि आंबेडकर के हीरो बुद्ध, कबीर और महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक ज्योतिबा फुले नहीं थे बल्कि उनके हीरो बाइबिल में वर्णित मोजेज थे। जबकि तथ्य यह है कि स्वयं डॉ. आंबेडकर ने कभी नहीं कहा है कि मोजेज उनके हीरो थे। उन्होंने अपने कई भाषणों व लेखों में साफ तौर बताया है कि वे बुद्ध, कबीर और फुले को अपना गुरू मानते हैं तथा उनसे प्रभावित हैं। लेखक ने अपने लेख के साथ डॉ. आंबेडकर का चित्र भी प्रकाशित किया है, जिसमें डॉ.आंबेडकर को ईसाई परिधान में दिखाया गया है। वह तस्वीर कंप्यूटर की मदद से मूल तस्वीर में छेड़छाड़ करके तैयार की गई है, जिससे डॉ. आंबेडकर और उनके अनुयायियों की बौद्ध धर्म के प्रति आस्था का मजाक उड़ाया जा सके।

आयवन और सिल्विया की पत्रिका फारवर्ड प्रेस को बहुजन समाज में स्थापित नाम बनाने में कांग्रेस सरकार में माखन लाल चतुर्वेदी विवि, भोपाल के विवादित प्राध्यापक रहे दिलीप चन्द्र मंडल की अहम भूमिका रही। आयवन और सिल्विया दिलीप के अच्छे मित्रों में से हैं। दिलीप ने इनकी पत्रिका को स्थापित करने में काफी मेहनत की है। फारवर्ड प्रेस का संपादक आयवन कोस्का कैनेडा के ब्रम्पटन में स्थित ब्रमलिया बेपटिस्ट चर्च में पास्टर है। इस चर्च के पास अरबों डॉलर की संपत्ति है। इसी चर्च ने उसे ग्लोबल डिसाइपलशिप देकर भारत भेजा। भारत आने पर पहले इसने मुंबई से ईसाई धर्म का प्रचार करने वाली एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई लेकिन बाद में इसने चर्च के निर्देश पर एक राजनीतिक और सामाजिक विषयों की पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ शुरू की।

क्या हमने कभी विचार किया है कि जब कोई मामला अनुसूचित जाति, जनजाति, मुसलमान, क्रिश्चियन से जुड़ा होता है, एक खास इको सिस्टम उसके प्रचार में लग जाता है। नैरेटिव बनाने में मास्टर डिग्री हासिल किए कांग्रेसी इको सिस्टम के आंदोलनजीवी पत्रकार फौरन सक्रिय होकर किसी मुसलमान आतंकवादी को देश के अंदर निरीह स्कूल मास्टर का बेटा भी बताने लगते हैं। हिन्दुत्व तेरी कबर खुदेगी एएमयू की धरती पर, अफजल हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं जैसे नारे भी इस इको सिस्टम के दम पर देश के अंदर सुनाए जाते रहे हैं। इस तरह के इको सिस्टम वाले समूह उस नैरेटिव को बनाने में पाकिस्तान की मदद करते हैं, जिसके आधार पर वह राष्ट्रसंघ में जाकर कहता है कि मुसलमानों का संवैधनिक अधिकार खतरे में हैं।

दिल्ली सरकार ने दिल्ली दंगों में रिलीफ बांटने की जिम्मेवारी वक्फ बोर्ड को दे दी, जबकि वक्फ बोर्ड मुसलमानों की संस्था है। कांग्रेस के वामपंथी इको सिस्टम द्वारा पहले कांड खड़ा किया जाता है और फिर नैरेटिव बनाने में पूरी टीम लग जाती है।

इस संबंध में सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता कपिल मिश्रा कहते हैं- ”समस्या मुसलमानों से नहीं है, जैसा कि एक खास प्रोपगेन्डा मीडिया समूह स्थापित करने में जुटा हुआ है। सीएए के मामले ऐसे मीडिया समूह बता रहे थे कि मुसलमानों को डिटेंशन सेन्टर में भेजा जाएगा। जबकि यह झूठ था। इस झूठ का खंडन ना करने वाले वायर जैसी आंदोलनजीवी वेबसाइट असली समस्या है। जिनके झूठ पर भी देश की मुस्लिम आबादी विश्वास कर लेती है। वायर जैसी आंदोलनजीवी वेबसाइट झूठ लिखती है कि सीएए में नागरिकता जाने वाली है। जबकि सीएए नागरिकता देने का कानून है, लेने का नहीं।”

एक सफूरा जर्गर हैं जिन्हें इस आधार पर जमानत मिलीं क्योंकि वह गर्भवती हैं। वहीं एक उत्तम चन्द्र मिश्रा हैं जिनकी दंगों में दुकान जला दी गई। घर पर गोलियां चलाई गईं। इसके बाद उन्हें दंगाई बताकर हत्या के आरोप में जेल भेज दिया गया। उनकी बेटी मर गई पर उन्हें जमानत नहीं मिली।

गाजियाबाद से लौटते हुए बोर्डर पर कथित किसानों ने नेशनल हाइवे का रास्ता बंद किया हुआ है। यदि किसानों की मौजूदगी की वजह से यह रास्ता बंद हो तो समझ में आता है। वहां उपस्थित लोगों की संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक है। बावजूद इसके हाथों में डंडा लेकर रास्ता रोके हुए लोग आने जाने वालों को रास्ता देने को तैयार नहीं। यदि यह वास्तव में किसानों का आंदोलन होता तो जरूर वे लोग दूसरों का दर्द समझते और रास्ता देते। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा।

सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के खिलाफ चले मुस्लिम आंदोलन को दिल्ली अभी भूली नहीं होगी। यह आंदोलन लगातार अपनी हिंसक गतिविधियों की वजह से दिल्ली में खौफ का वातावरण पैदा करता रहा था। आंदोलन के नाम पर बहुसंख्यक आबादी की सड़क बंद करके बाहरी दिल्ली में अराजकता का माहौल पैदा करने की कोशिश की गई थी। कई लाख की आबादी का जनजीवन महीनों तक आंदोलन की वजह से अस्तव्यस्त रहा। बच्चों के स्कूल छूटे और समय पर ऑफिस न पहुंचने की वजह से कई लोगों की नौकरी गई।

किसानों के आंदोलन का दावा तो अराजनैतिक होने का है लेकिन यह दावा खोखला ही जान पड़ता है जो बार-बार साबित हो रहा है। इस कथित गैर राजनीतिक आंदोलन के नेता अब खुलकर अलग-अलग मंचों से कह रहे हैं कि हम बीजेपी के खिलाफ हैं। ऐसा कहकर वे अपनी खीज जाहिर कर रहे हैं क्योंकि उनका पंजाब-हरियाणा तक सीमित आंदोलन अब पिट चुका है। बिहार-उत्तर प्रदेश के गांवों की बात करें या फिर असम-मेघालय की वहां कांग्रेस के वामपंथी वैचारिक इको सिस्टम वाले इस आंदोलन की सुध तक लेने वाला कोई नहीं है। राहुल गांधी से लेकर जयंत चौधरी तक सभी आंदोलन के मंच पर चढ़ रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता इनकी रैलियों में भीड़ का हिस्सा बन रहे हैं। उसके बावजूद जब यह लिखा जा रहा है कि आंदोलन गैर राजनैतिक है तो यह दावा ही हास्यास्पद जान पड़ता है।

भारतीय किसान यूनियन भानु गुट के भानु प्रताप सिंह ने के अनुसार- ”दिल्ली बॉर्डर पर आंदोलन करने वालों को कांग्रेस ने खरीदा हुआ है। आंदोलनजीवियों को कांग्रेस से  फंडिंग हो रही है।”

इस कथित आंदोलन के प्रभाव की बात करें तो गुजरात में हुए छह नगर निगमों के लिए चुनाव में बीजेपी ने जीत हासिल की है। 576 में से 483 सीटें जीतकर भाजपा ने राज्य के सभी छह नगर निगमों- अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा, राजकोट, जामनगर और भावनगर में सत्ता बरकरार रखी।

मीडिया में आंदोलन का प्रचार देशव्यापी आंदोलन के तौर पर किया गया। जो सफेद झूठ साबित हुआ। इस आंदोलन का थोड़ा बहुत प्रभाव सिर्फ पंजाब और हरियाणा में दिखा। इसी का परिणाम था कि कांग्रेस अति उत्साह में आकर हरियाणा में अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ गई, जिसमें घटने की जगह बीजेपी की पांच सीटें बढ़ गईं।

 

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