आंतरिक मोर्चे पर भी जीते सैनिक

भारत में संत और साध्वी की ही तरह सेना को भी आदर, सम्मान और बहुत हद तक पवित्रतता की भावना से देखा जाता है। ऐसा इसलिए है कि सेना देश की रक्षा करती है। सैनिक सरहदों की सुरक्षा के लिए अपनी जान कुरबान कर देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं्। जो देश-समाज की रक्षा का व्रती होगा उसके प्रति आदर, सम्मान और पवित्रता की भावना होगी ही। सैनिकों का विशेष महत्व इसलिए भी है, क्योंकि वे पूरे साल अत्यंत विषम परिस्थितियों में दुश्मनों से संघर्ष करते हैं, हताहत होते हैं, घायल होते हैं, और कई बार कम अवधि की नौकरी के बाद सेवानिवृत्त कर दिए जाते हैं। देश की सेना, लम्बे अरसे से सिर्फ सरहदों की सुरक्षा के लिए ही नहीं लड़ रही है, बल्कि अपनी स्वयं की समस्याओं के लिए भी जंग लड़ती आई है। सेवारत सैनिकों और सेवानिवृत्त सैनिकों की समस्याएं अलग-अलग हैं्।

गौरतलब है कि भारतीय सेनाएं अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों और कम सुविधाओं में अपनी सेवाएं देती हैं। उसे सरहदों की सुरक्षा के साथ-साथ अनेक आपदा-प्रबंधन कार्यों में भी लगाया जाता है। चाहे मोर्चा कोई भी हो- आंतरिक या बाह्य सैनिक हमेशा डटे रहते हैं। इतना सब होने के बावजूद भी देश की राजनीति, नौकरशाही और बाबूवर्ग सैनिकों के प्रति न्यायपूर्ण दृष्टि नहीं रखता, बल्कि उपेक्षा और भेदभावपूर्ण व्यवहार करता रहा है। वे पहले तो भरसक इंकार करते हैं, वह नहीं कर सकते तो भरसक देरी करते हैं।

उल्लेखनीय है कि भारत के पूर्व सैनिक ‘वन रैंक, वन पेंशन’ की मांग वर्षों से करते रहे हैं। इसका सामान्य मतलब यह है कि सेवानिवृत्त सैनिक, जो एक ही रैंक से सेवानिवृत्त हुए हैं, एक समान पेंशन चाहते हैं। वे इसकी मांग़ वर्षों से करते आ रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर पिछली सरकारों का टालू रवैया रहा है। यूपीए सरकार ने लगभग एक दशक के अपने शासनकाल में इस मुद्दे को दबाए रखा। लेकिन भाजपा ने पिछले चुनाव में पूर्व सैनिकों को समाधान का भरोसा दिलाया था। लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के १५ महीनों बाद इस मुद्दे पर कुछ सार्थक प्रयास न होते देख सैनिकों को लगने लगा कि शायद मोदी सरकार भी यूपीए सरकार की तरह वन रैंक, वन पेंशन से मुंह मोड़ रही है।

यह मामला चार दशकों से सकारात्मक निर्णय की बांट जोह रहा था। पूर्व सैनिक आश्वासन नहीं, निर्णय चाहते थे। सिर्फ आश्वासनों से उनका मोहभंग हो गया था। उन्होंने आंदोलन का रास्ता अख्तियार किया। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि पूर्व सैनिक, जिनमें १९६५ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बहादुर सिपाही भी थे, उस युद्ध की ५०वीं सालगिरह पर सरकार के समारोहों का बहिष्कार कर रहे थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण था। इस मुद्दे पर सरकार के ही दो मंत्रालयों – रक्षा और वित्त में दो-राय सबसे बड़ी बाधा बन गई थी। हालांकि यह सुखद रहा कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की पहल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थन और प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के सकारात्मक रवैए के कारण पूर्व सैनिकों की मांगें वित्त मंत्रालय ने भी मान लीं। सैनिकों की वर्षों से लम्बित मांग पूरी हुई।

यहां यह समझना जरूरी है कि अर्धसैनिक बल और पुलिस के मुकाबले पूर्व सैनिकों की संख्या अधिक क्यों है। एक सवाल यह भी उठाया जाता है कि पूर्व सैनिकों की ही तरह अगर अर्धसैनिक और पुलिस बल भी समान पेंशन की मांग करने लगे तो क्या होगा। दरअसल देश में सैनिकों और अर्धसैनिक-पुलिस बल की नियुक्ति, सेवा अवधि और सेवानिवृत्ति की प्रक्रिया, सेवा शर्तों और सुविधाओं में काफी अंतर है। चूंकि सेना के लिए कम उम्र के युवाओं का चयन किया जाता है और ३४-३५ साल की उम्र में काफी संख्या में रिटायर भी हो जाते हैं। जबकि अर्धसैनिक-पुलिस बल के जवानों की सेवानिवृत्ति की आयु अमूमन ६० साल होती है। हर साल सेना से करीब ५० से ६० हजार जवान रिटायर हो जाते हैं। देशभर में पूर्व सैनिकों की तादाद करीब २५ लाख है। वेतन आयोगों के निर्णयों को समान रूप से लागू नहीं करने के कारण भी पहले और बाद में रिटायर हुए सैनिकों के साथ भेदभाव होता रहा है। इसके बावजूद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सेना के जवानों में किसी तरह का असंतोष, अविश्वास और हताशा पूरी सुरक्षा व्यवस्था को खतरे में डाल सकती है। यही कारण रहा कि आर्थिक बोझ और नौकरशाही की अनिच्छा के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सैनिकों के पक्ष में दबाव बनाया। वन रैंक वन पेंशन के निर्णय से निश्चित ही सेना में विश्वास और उत्साह का माहौल बनेगा। न सिर्फ पूर्व सैनिक, बल्कि उनके परिवार के सदस्य भी हर्षित-पुलकित होंगे।
वित्त मंत्रालय के ताजा अनुमान के मुताबिक, वन रैंक, वन पेंशन के अंतर्गत वित्त वर्ष २०१६ में १६,००० करोड़ रु. का वित्तीय बोझ बजट पर आ सकता है। रक्षा मंत्री के अनुसार इस योजना पर सालाना ८से १० हजार करोड़ का व्यय अनुमानित है। पूर्व सैनिकों की मांग थी कि १ अप्रैल, २०१४ से यह योजना छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के साथ लागू की जाए। सरकार ने यह मान लिया है। पेंशन राशि का भुगतान चार किश्तों में किया जाएगा। हालांकि शहीदों के परिवारों को रकम एकमुश्त दी जाएगी। प्रत्येक पांच साल में इसकी समीक्षा की जाएगी।

उल्लेखनीय है, वन रैंक वन पेंशन योजना को आजादी के बाद सैनिकों के लिए सब से बड़े निर्णय के रूप में देखा जा रहा है। निश्चित ही यह सैनिकों की आंतरिक मोर्चेपर एक महत्वपूर्ण विजय है। इसका असर सम्पूर्ण सैन्य और सामरिक परिवेश पर होना तय है। युवाओं में सेना में भर्ती के प्रति उत्साह का वातावरण बनेगा। देशभक्ति और राष्ट्र्वाद सम्मानित और पुरस्कृत समझी जाएगी। मोदी सरकार ने कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद सैनिकों के प्रति साहसिक कदम उठाया है। इसे चारों ये ओर सराहना मिल रही है। सरकार के इस निर्णय के प्रति सिर्फ सेना में ही नहीं, अपितु नागरिकों में भी सकारात्मक सन्देश गया है। चूंकि वन रैंक वन पेंशन के लिए अतिरिक्त राशि का प्रावधान नागरिकों से प्राप्त धन से ही होगा, इसलिए देश की जनता में भी स्वाभाविक रूप से देशभक्ति और सैनिक परिवारों के प्रति सद्भाव की भावना का प्रकटीकरण होगा।

वन रैंक वन पेंशन की मांग अर्धसैनिक बल के जवान भी दबी आवाज में करने लगे हैं। यह बात भी सत्य है और किसी से छिपी नहीं है कि नक्सलवादी हों या आतंकवादी- सरहद हो या आतंरिक क्षेत्र, अर्द्धसैनिक बल ठीक उसी तरह लड़ते हैं जैसे सेना के जवान। मिसाल के तौर पर अगर आइटीबीपी के जवान १८ हजार फुट पर सेना के जवानों के साथ सरहद की रखवाली करते हैं तो गर्मियों में तपते रेगिस्तान में भी बीएसएफ सरहद पर डटी रहती है। लेकिन अर्धसैनिक बल के जवान सुविधाओं में पीछे रह जाते हैं। यह भी जगजाहिर है कि केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल और सीमा सुरक्षा बल के जवान भी आंतरिक सुरक्षा या सीमा सुरक्षा के लिए अपनी जान की कीमत अदा कर करते हैं। उनकी भूमिका सेना से कहीं भी कमतर नहीं होती। वे कश्मीर में आतंकियों और छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में नक्सलियों से अपनी जान की परवाह न कर लोगों की हिफाजत करते हैं। आने वाले समय में निश्चित तौर पर वन रैंक वन पेंशन का दायरा बढ़ाने की जरूरत होगी। सरकार को इस दिशा में अभी से सजग रहना होगा।

देशभक्ति और राष्ट्रवाद को अर्थ के तराजू पर नहीं तौला जा सकता। सुरक्षा की कोई भी कीमत देशभक्त नागरिक चुकाने को तैयार है। यह भी सच है कि आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की चुनौतियां दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं्। इस चुनौती का सामना सुरक्षा बलों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ नागरिकों, विशेषकर युवाओं में सतर्कता, सावधानी, उत्साह, विश्वास, भरोसा और सहभागिता की भावना में वृद्धि के साथ ही किया जा सकता है। जिस प्रकार से स्वच्छता अभियान के लिए नागरिकों ने आर्थिक अधिभार को स्वीकार किया है, उसी प्रकार सुरक्षा की चुनौती का सामना करने के लिए सभी नागरिकों को प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिका निर्वहन के लिए भी तैयार रहना होगा। सुरक्षा अधिभार से देश की जनता को गुरेज नहीं होना चाहिए। सैन्य सम्बन्धी मामलों के लिए धन की व्यवस्था में नागरिकों को बढ़-चढ़कर भागीदारी करने की आवश्यकता है। देश के सैनिक उत्साहित होंगे और पूर्व सैनिक अपने परिवारों के साथ संतुष्ट होंगे तभी देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा सुदृढ़ रहेगी।
मो. : ९४२५०१४२६०

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