दलित राजनैतिक ‘भ्रांति’ को समझें

दलितों को शातिर राजनीतिक नेताओं द्वारा उत्पन्न ‘राजनैतिक भ्रांतियों’ से अपने को बचाना चाहिए। ….दलितों को अगर अपने हालात में सुधार करना है तो राजनैतिक जंजीरों को तोड़ना होगा। जब तक ‘राजनैतिक ठगी’ वाले विचारों को दरकिनार करके दलित स्वयं अपने सुधार के लिए तैयार नहीं होते तब तक दलितों के हालात नहीं सुधरेंगे।

भारतीय समाज विभिन्न कालखंडों से गुजरता हुआ आज जिस स्थिति तक पहुंचा हैं उसमें आशा के बिन्दु अधिक है। परंतु अनेक ऐसे बिन्दु भी हैं जो चिंता पैदा करते हैं। इस वर्ष हम भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी की 125 वी जयंती मना रहे हैं। साथ में जिन्होंने अंत्योदय का मंत्र दिया उन पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म शताब्दी वर्ष भी मना रहे है। वास्तव में इन महापुरुषों द्वारा प्रस्तुत आदर्शों के आधार पर समाज में समरसता दिखाई देनी चाहिए, परंतु ऐसा होते नहीं दिखाई दे रहा है। भारत में सर्वाधिक कष्टप्रद विषय है जाति के आधार पर हिंदुओं के बीच भेदभाव एवं अस्पृश्यता। हिंदू समाज में श्रेष्ठ दार्शनिक सिद्धांत होने के बावजूद कालप्रवाह में अनेक कुरीतियां समाज में प्रविष्ट हो गईं। इन्हीं कुरीतीयों के कारण ही हमारे शत्रुओं को हम पर शासन करने का मौका मिला, यही इतिहास है।

20 मई को ऐसी ही एक घटना ने हमारे मन में दर्द का भाव उभाड़ा है। घटना है चकराना की। उत्तराखंड की यह एक तहसील है। यहां सिलगुड देवता का मंदिर है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ है। इस शुभारंभ के अवसर पर 35 साल बाद सिलगुड देवता की पालकी लाई गई थी, जिनके दर्शन के लिए मंदिर में भारी संख्या में भक्त जुटे थे। दलित चाहते थे कि उन्हें भी मंदिर में प्रवेश मिले। पर दलितों को प्रवेश करने से मना कर दिया गया। उत्तराखंड में सैंकडों ऐसे मंदिर हैं जहां दलितों का प्रवेश वर्जित है। वहां के दलित मंदिरों में प्रवेश करने की लम्बे समय से मांग कर रहे हैं। सिलगुड मंदिर प्रवेश का विषय लेकर वहां के सांसद तरुण विजय ने परिवर्तन यात्रा का आयोजन किया था। दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने के लिए उत्तराखंड के सिलगुड मंदिर पहुंचे भाजपा सांसद तरुण विजय पर जानलेवा हमला किया गया। हमले में वे घायल हो गए।

पूरा विश्व भारत की ओर आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाने वाला और दुनिया में उभरते सितारे के रूप में देख रही है। ऐसे समय में भारत में किसी दलित को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना या दलित के प्रवेश करने पर मंदिर का शुद्धिकरण करना इत्यादि भारतीय समाज के पिछड़ेपन की निशानी है। हिंदू धर्म के ही एक समाज पर, उनके जीवन जीने के तौरतरीके पर जातिगत नियंत्रण रखना निरा पिछडापन ही है। उत्तराखंड में हुई इस घटना के कारण मन में जो दर्द उठा है, जो भावों का आंदोलन हुआ है उसे इस आलेख के माध्यम से खुला करने का प्रयास कर रहे हैं। यह घटना सिर्फ दलितों या पिछड़ों से जुड़ी नहीं है, बल्कि इससे राष्ट्रनिर्माण का भी सवाल जुड़ा है। उत्तराखंड में मंदिर प्रवेश को लेकर हुई अस्पृश्यता स्पष्ट करने वाली यह घटना अस्पृश्यता के सागर में दिखाई देने वाले हिमनग का केवल ऊपरी हिस्सा है। सम्पूर्ण देश की स्थिति पर नजर डालेंगे तो आए दिन अस्पृश्यता से जुड़ी सैकड़ों घटनाएं होती रहती हैं।

दुनिया में भारतीय संविधान की उपयोगिता के संदर्भ में चर्चा हो रही है, उस संविधान के निर्माता डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर दुनिया को श्रेष्ठ लग रहे होंगे फिर भी आए दिन हो रही अस्पृश्यता की घटनाओं के नजरिए से देखें तो भारत जातिगत व्यवस्था के क्षेत्र में असफल रहा है। यह निर्विवाद सत्य है। भारतीय लोकतंत्र का जयकारा करने की प्रवृत्ति हम भारतीयों में दिखाई दे रही है, पर इन्सान को इन्सान के नाते जीने का अधिकार भी नहीं दिया जा रहा है। जातिगत अस्पृश्यता का यह सवाल न इस घटना से शुरू होता है और ना खत्म। भारतीय समाज में लगातार इस सवालों पर बहस, आंदोलन होते आए हैं। हिंदू समाज को इन सब से मुक्त कर समस्त, सजग, सचेत, सबल, समृद्ध और स्वावलंबी समाज बनाने के लिए केरल के नारायण गुरु, संत ज्ञानेश्वर, स्वामी विवेकानंद, ऋषि अरंविद, डॉ. हेडगेवार, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर सदृश्य अनेक महापुरषों ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है। उसी के परिणाम स्वरुप आज समाज में अस्पृश्यता के संदर्भ में भविष्य के प्रति आशा दिखाती है। परंतु समाज अभी भी जितना बदलना चाहिए उतना बदला नहीं है और प्रति दिन हमें जातिभेद के आधार पर होने वाले अत्याचारों, अन्यायों और विद्रुपताओं का परिचय मिलता है।

सवाल यह है कि सैंकड़ों महापुरुषों द्वारा अपना जीवन देने के बाद भी जातिगत भेद, अस्पृश्यता का यह सिलसिला कायम क्यों है? जत्म से मृत्यु पर्यंत जातिपाति का पालन करने का जो सामाजिक रोग भारतीय समाज में गहराई तक उतरा है। इसी कारण महापुरुषों नें जातिगत अस्पृश्यता के विरोध में जागृति लाने का प्रयास तो किया है, परंतु उनके प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं रहे।

भारतीय स्वतंत्रता के बाद की स्थिति को हम देखें तो जाति अस्पृश्यता, भेदभाव यह सत्ता के करीब पहुंचने का सशक्त माध्यम बना है। इसी कारण, जाति कभी समाज से समाप्त न हो इस उद्देश्य से राजनैतिक व्यूहरचना होने लगी। सामाजिक समरसता लाने में योगदान देने के बजाय समाज में जाति के आधार पर दरार डालने का विचार जब सत्ता में बैठे नेता करते हैं तो सामाजिक समरसता का विचार और पीछे चला जाता है। जो राजनीति जाति, धर्म, पंथ या अस्मिता आधारित होती है, उसका समय के प्रवाह में बह जाने का खतरा ही अधिक होता है। दलितों को सुधारने का काम करने वाले राजनैतिक संगठन अपने हित के लिए काम कर रहे हैं। वास्तव में सत्य स्थिति यह है कि, दलित हो या अन्य जाति के नेता हो। ये लोग सत्ता में आने के बाद भला करते हैं तो केवल अपना और अपनी पार्टी का। उन्हें जाति का केवल उपयोग करना होता है केवल सत्ता के नजदीक पहुंचने वाली सीढ़ी के रूप में। सत्ता तक पहुंचने के बाद उस सीढ़ी को दरकिनार कर दिया जाता है। और जिस पिछड़े समाज के आधार पर राजनीति होती है वह पिछड़ा ही रहता है। उत्तर प्रदेश में दस साल पहले हुई राजनीति इन नारों ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार ’ की जगह ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ से स्पष्ट होती है। अपने आपको दलितों का मसीहा कहलाने वाली मायावती का यही असली रूप है। मायावती के मुख्यमंत्री काल में ऐसा कोई काम नहीं हुआ जिससे दलितों की दशा में व्यापक सुधार हुआ हो॥ दलितों के कल्याण की व्याख्या क्या है? क्या मायावती, रामदास आठवले, छगन भुजबल ऐसे गिनेचुने नेताओं के हित में ही पिछड़ों का हित है ऐसा समझना चाहिए?

ये राजनैतिक संगठन और नेता बहुत शातिर होते हैं। होली में दलितों के संग रंग खेलने, दीवाली में दिये जलाने और अस्मिता के नाम पर आंदोलन करने में दलितों के साथ रहने का दृश्य निर्माण करते हैं। जिसमें भ्रांति ही होती है। दलित इन बातों को तरक्की का हिस्सा मान लेते है। ऐसी बातों में सहभागी होते वक्त दलित भूल जाते हैं कि दलित भी जातिवादी व्यवस्था का अंग बनते जा रहे हैं। और, यही बात उनकी तरक्की में सबसे बड़ी बाधा रही है। दलितों को अगर अपने हालात में सुधार करना है तो राजनैतिक जंजीरों को तोड़ना होगा। जब तक ‘राजनैतिक ठगी’ वाले विचारों को दरकिनार करके दलित स्वयं अपने सुधार के लिए तैयार नहीं होते तब तक दलितों के हालात नहीं सुधरेंगे।

आज दलित समाज दलित नेताओं व विचारों के अपमान पर दलित संस्कृति की रक्षा हेतु मरने-मारने पर उतारू हो जाता है; परंतु डॉ. आंबेडकर के विचारों पर चलने को तैयार नहीं है। आंबेडकर जी का नाम लेते ही हमें सिर्फ उनके जातिभेद के विरोध में किए कार्य याद आते हैं। उनके जाति उन्मूलन के लिए किए संघर्ष याद आते हैं। उनके आर्थिक विचारों को न तो दलितों के बीच और न ही भारतीय जनता के बीच याद किया जाता है। राजनैतिक नेता डॉ. आंबेडकर जी के आर्थिक विचारों को दलित एवं शोषित वर्गों के बीच ले जाने का प्रयास ही नहीं करते दिखाई दे रहे हैं। आंबेेडकर जी के आर्थिक विचारों को समझ कर उन विचारों को दलित समाज में लाने के लिए पुणे में मिलिंद कांबले जोरशोर से प्रयास कर रहे हैं। जिन्होंने दलित इंडियन चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) नामक संस्था की स्थापना की है। मिलिंद कांबले डिक्की के चेअरमन हैं। कांबले आर्थिक विकास को एक क्रांतिकारी शक्ति मानते हैं। दलितों को अब दया पर नहीं जीना है, वह दलितों को ईष्या के पात्र बनाना चाहते हैं। कांबले जी का कहना है कि व्यापार पर सदियों से पारंपारिक पेशेवाली जातियों का कब्जा रहा है, जिन्होनें समाज के पिछड़े वर्ग को उस आर्थिक उद्योग क्षेत्र में उबरने नहीं दिया । डिक्की ने देशभर के लगभग 5000 दलित उद्यमियों का संगठन किया है। इनके 2000 से ज्यादा उद्यमियों का सालाना टर्नओवर 100 करोड़ रुपये से ऊपर का है। डिक्की के प्रयासों ने दलितों में अपनी हैसियत का विश्वास दिलाने में निश्चित ही एक भूमिका निभाई है। उनका कहना है कि सदियों से आर्थिक क्षेत्र में पिछड़े रहे दलितों की आर्थिक एवं व्यापारिक क्षेत्र में उपस्थिति दिखाई दे रही है। अब दलितों को आर्थिक क्षेत्र में भी अपने कर्तृत्व के झंडे गाड़ने चाहिए।

“अस्पृश्यता में बुराई नहीं है, तो फिर दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है।” इस विचार पर सोचते हुए अस्पृश्यता बुरी है और वह जड़ से खत्म होनी चाहिए। इस बात में कोई दो राय नहीं है। वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था के कारण समाज में विषमता आई है। यह बात समाज तक ले जाते समय वह दूर करने के उपायों के संदर्भ में सकारात्मक सोच रखनी अत्यंत जरुरी है। जो पुणे के मिलिंद काबले जी प्रयासों में दिखाई देती है। समाज में दलितों का सम्मान राजनैतिक गतिविधियों के अलावा अन्य माध्यमों से भी हो सकता है। इस बात का यह जीवंत उदाहरण है। जाति प्रेम पर ज्यादा बात करने के बजाय पिछड़ी जातियों के सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ऊपर उठाने के अनेकों प्रयास है। जिन्हें दलित समाज के नेताओं को समझना होगा।

ओडिशा के पुरी का मंदिर हरिजनों के लिए खुला नहीं था। जब कि गांधीजी नेपहले दिन कहा था कि ,“जगन्नाथ का मंदिर हरिजनों के लिए खुला हुआ नहीं है। और जब तक उस मंदिर में हीरजन प्रवेश निषिद्ध रहेगा तब तक उस मंदिर में जगन्नाथ ‘जगत-नाथ’ नहीं है। जिस मंदिर में हमारे दलित भाई नहीं जा सकते वहां हम नहीं जाएंगे। यह हमारा सामाजिक धर्म है।” गांधी जी के विचार समाज के सभी वर्गों में फैलना अत्यंत जरूरी है। पाखंडी व्यवस्था के तहत संचालित मंदिर व्यवस्था पर प्रहार होने जरूरी है। मूल रूप से हिंदू धर्म के ही अंग रहे दलितों का, पिछड़ों का मंदिर प्रवेश वर्जित है और जो मंदिर व्यवस्था जातिवाद से घिर गई है उस व्यवस्था पर हिंदू समाज को गंभीरता से सोचना होगा।

नारायण गुरु, संत ज्ञानेश्वर, स्वामी विवेकानंद, डॉ. आंबेडकर, डॉ. हेडगेवार, महात्मा फुले, शाहू महाराज जैसे महान पुरुषों ने अस्पृश्यता निवारण के लिए समाज में सामंजस्य बढ़ाने के लिए जो प्रयास किए हैं उन प्रयासों को असफल करने की सोच है, यह उत्तराखंड का जातिगत प्रकरण। यह समकालीन स्थिति बयां कर रही है। जाति हमारे भारतीय समाज में अदृश्य होकर भी सक्रिय है। ऊपर दिए महापुरुषो का समाज में समरसता लाने का मिशन अभी भी अधूरा है। समाज में जाति विचारों में परिवर्तन जितना होना चाहिए उतना परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा है। अपने देश में राष्ट्ररुपी देश को आत्मा की अनुभूति से महसूस करने की आवश्यता है। आत्मतत्व की अनुभूति सभी में समान रूप से देखने की दृष्टि प्रदान करती है। अब सम्पूर्ण देश एवं देश के सभी समाज को अपने से एकरूप समझने की जरुरत है। जैसे कभी स्वामी रामतीर्थ ने कहा, मैं भारत हूं। हिमालय मेरा किरीट है, गंगा मेरा वक्षस्थल, विंध्याचल मेरी मेखला, पूर्व एवं पश्चिम घाट मेरी जंघाएं, कन्याकुमारी मेरे चरण हैं और हिंद महासागर निरंतर मेरे चरणों को पखार रहा है। मैं जब बोलता हूं तब पूरा भारत बोलता है, मैं जब हंसता तो सदियों का आनंद मेरे मुख से प्रकट होता है। मैं जब रोता तो सदियों की पीड़ा घनीभूत होेकर मेरी आंखों में से टपकती है। मैं भारत हूं। यह भारत के प्रति समरसता का भाव होना बहुत जरुरी है। समरसता के विचारों का प्रयास व्यापक होना चाहिए। इसे एक आंदोलन का रूप देना होगा। आज आंबेडकर जयंती, वाल्मिकि जंयती हिंदुओं में सिर्फ वर्ग विशेष के लोग मनाते हैं। आजादी के 68 वर्षों के बाद भी 800 जातियां और 5000 उपजातियों का भारत आपस में द्वंद्व कर रहा है। फिर समाज कैसे जुड़ेगा? सम्पूर्ण विश्व भारत की ओर भविष्य की आशा की दृष्टि से देख रहा है, एैसे में हमारा अंदरूनी खोखलापन हमें भरना होगा। जातिगत समरसता का विचार हमें सामर्थ्यशाली राह पर जम कर खड़े रहने की शक्ति देगा। इसे अपनाने में ही हमारी भलाई है।
———–

Leave a Reply