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दोबारा कभी नहीं, इजराइल की जीवनशैली बन गई

दोबारा कभी नहीं, इजराइल की जीवनशैली बन गई

by आशीष अंशू
in विशेष
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‘अपने बेटे को संभालना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि हम अभी भी स्थिति से उबर नहीं पा रहे हैं। वह अभी भी अपनी मां के फोन का इंतजार कर रहा है।’

यह कहना है 31 वर्षिय सौम्या संतोष के पति संतोष कुमार का। सौम्या पिछले नौ साल से इजरायली शहर अश्केलोन  में काम कर रही थीं। फिलीस्तीन की ओर से रॉकेट हमले में भारत के इडुकी (केरल) की रहने वाली सौम्या की भी जान चली गई। संतोष के अनुसार इजराइल पर फिलिस्तीन ने रॉकेट से हमला किया, उस हमले की शिकार संतोष हुई। हमले के समय सौम्या उसके साथ वीडियो कॉल पर बात कर रही थी। वह केरल वापस आने की बात कर रही थी। संतोष कहते हैं—  ”हमें नहीं पता था कि यह उसकी आखिरी कॉल होगी।”

फि​लिस्तीन की तरफ से किए गए हमले में  11 मई को स्थानीय समय के अनुसार रात नौ बजे तक 31 लोग मारे जा चुके हैं। गाजा पट्टी से फिलिस्तीनी आतंकियों ने 10 तारीख की शाम से ही हमला प्रारम्भ कर दिया था। उसने सैकड़ों रॉकेट दागे इजराइल को खत्म करने के लिए लेकिन इजराइल ने  हमास के हमले को पूरी तरह बेअसर कर दिया। अब जब पलट कर इजराइल ने जवाब दिया तो दुनिया भर में फि​लिस्तीन को बचाने के लिए मुसलमानों की तरफ से अभियान चल पड़ा है।

मुस्लिम समाज एक दबाव समूह की तरह काम करता है। भारत की बात करें तो सोशल मीडिया पर मौजूद विभिन्न सेलीब्रिटिज और प्रभावशाली लोगों के सोशल मीडिया पर जाकर सेव पेलेस्टाइन अभियान के लिए साथ मांगा जा रहा है। अभियान का असर यह हुआ कि कई प्रभावशाली लोगों ने लिखा भी। इस बात की अनदेखी करते हुए कि पहला हमला इजराइल पर फिलिस्तीन की तरफ से ही किया गया था। फिलिस्तीनियों के हाथों केरल की एक बहन सौम्या संतोष की निर्मम हत्या की गई। संभव है कि यह मुस्लिम दबाव समूह का असर रहा होगा कि केरल के मुख्यमंत्री सौम्या संतोष के हत्यारों की निन्दा भी नहीं कर पाए। एनडीटीवी जैसे चैनल ने शीर्षक में सौम्या के इजराइल में मरने की बात तो लिखी लेकिन उसके हत्यारे फिलिस्तीन का नाम छुपा लिया। जिसके लिए सोशल मीडिया पर चैनल की खूब कीरकीरी हुई।

पत्रकार संजय तिवारी शांडिल्य के अनुसार — ”यहूदी योद्धा कौम नहीं थी। वह व्यापारी कौम थी। येरुसलम और मदीना के यहूदी व्यापार ही तो करते थे। बल्कि उनकी इसी खासियत की वजह से उन्हें भगोड़ा और डरपोक भी कहा जाता था। व्यापारी वैसे भी लड़ाई झगड़े से दूर रहता है। हां, जो सीधे युद्ध तो नहीं करते वो साजिश करते हैं। ये गुण यहूदियों में भी मिलता है। लेकिन आज वो एक निडर योद्धा हैं। आपने कभी सोचा कि एक व्यापारी कौम को योद्धा किसने बना दिया जिसकी बहादुरी की प्रशंसा हो रही है?” इस प्रश्न का जवाब अगली पंक्ति में संजय खुद देते हैं—

”इस्लाम ने। यहूदियों में ये जो बहादुरी और निडरता दिखाई दे रही है ये इस्लाम की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है। अपने अनुभव से उन्होंने सीखा कि बिना युद्ध के आप इस्लाम से नहीं जीत सकते। आप कितना भी बचने का प्रयास करें इस्लाम अंतत: आपको युद्धक्षेत्र में खींच ही लेता है।

इसलिए यहूदियों ने अपने आप को युद्ध में निपुण किया। वो सब तरीके सीखे जिससे वो सम्मान से जिन्दा रह सकते हैं। इस तरह एक व्यापारी कौम एक बहादुर कौम बन गयी।”

संजय की बात विभिन्न देशों में उनकी उपस्थिति और कन्फ्लीक्ट को देखते हुए सच ही प्रतीत होती है। भारत में लंबे समय तक हमने जम्मू कश्मीर में पत्थरबाजी और हत्या का दौर देखा है। स्थानीय पंडितों को किस बेरहमी के साथ बाहर निकाला गया। अभी भी मुसलमान बहुल जम्मू का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है। आजादी के साथ ही मुसलमानों ने पाकिस्तान नाम से अलग देश भी ले लिया।

दे​खिए ना गाज़ा पट्टी में फिलिस्तीनी हैं, सीरियाई शरणार्थियों की खबर आपने पढ़ी ही होगी, म्यांमार से निकले रोहिंग्या जहां गए, वहां के लिए समस्या बने। तातार भी इसी श्रृंखला में एक समस्या बने। चीन के उइघर का मामला इन सबसे थोड़ा अलग इसलिए रहा क्योंकि उइघर समस्या से बड़ी नृशंसता के साथ चीन निपटा। इसी का परिणाम था कि चीन के पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में 2017 से 2019 तक जनसंख्या में बहुत तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। यहां रहने वाले लाखों उइगर मुस्लिमों पर चीन की तरफ से जुल्म ढाया जा रहा है। चीन ने जगह—जगह पर उनके लिए यातना शिविर बना रखा है। उनकी दाढ़ी हटा दी गई, नमाज पढ़ने नहीं दिया जाता, कुरआन में भी संपादन की खबर आई थी लेकिन मुस्लिम देशों की तरफ से कोई उल्लेखनीय विरोध दर्ज नहीं हुआ। छीटपुट आवाजे उठी लेकिन चीन ने उसे अधिक महत्व नहीं दिया।

उइगरों के गिरते हुए जनसंख्या के आंकड़ों पर आस्ट्रेलियन स्ट्रेट्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने अपनी पूरी रिपोर्ट दी है। इस रिपोर्ट के अनुसार शिनजियांग में रहने वाले उइगर, कजाकी और अन्य मुसलमानों की आबादी में लगभग पचास फीसदी की कमी आ गई है। कम हुई संख्या में पलायन किए हुए और मार दिए गए मुसलमानों की संख्या भी शामिल है। इतना ही नहीं जन्मदर में भी 2017 और 2018 में 43.7 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इस क्षेत्र में पिछले 71 सालों में ऐसी गिरावट पहले नहीं ​देखी । जनसंख्या में यह कमी संयुक्त राष्ट्र की अब तक की जनगणना में पहली बार देखी गई है। इसी तरह की एक रिपोर्ट 2020 में  जर्मन शोधकर्ता एडरियन जेंज की भी आई थी। 2021 में आई नई रिपोर्ट ने पिछले साल की एडरियन जेंज की रिपोर्ट पर पुष्टी की मुहर लगाई है ।

इजराइल और फिलिस्तीन की यह लड़ाई इतिहास में ईसा मसीह के जन्म के पूर्व से ही चली आ रही है। कथाओं में ईसा मसीह ने भी यहुदी परिवार में ही जन्म लिया था। वैसे ईसा मसीह के जन्म का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। बाइबल में इस बात का जिक्र है कि इजराइल का क्षेत्र प्रभू ने यहूदियों को सौंपा था। इसलिए पूरी दुनिया के यहूदी इजराइल को अपना घर मानते हैं। लंबे समय तक जब उनका कब्जा इजराइल से छुट गय तो वे बेघर रहे। यह 72 ईसा पूर्व की बात है, रोमन साम्राज्य ने यहां कब्जा कर लिया था। इस घटना को इतिहास में एक्जोडस  के नाम से याद किया जाता है।

मुसलमानों का एक वर्ग सभी प्रकार के हत्या और आतंक की कार्रवाई शामिल होकर भी अपने इको सिस्टम के दम पर खुद को बार—बार विक्टिम के तौर पर पेश करने में सफल हो जाता है। भारत में कश्मीर के तौर पर एक उदाहरण है हमारे पास। जहां कश्मीरी पंडितों की हत्या करके, डरा कर, बंदूक के दम पर जम्मू—कश्मीर से पहले भगाया और बाद में खुद को ही पूरी दुनिया के सामने पीड़ित बनाकर पेश करने लगे। यदि इतिहास में जाकर एक बार देखे तो दुनिया भर में फोबिया का कोई मारा है तो वे यहूदी है। इसके लिए एंटी सेमिटिज्म शब्द का इस्तेमाल होता रहा है।  इस पूरे सामाज के लिए चालाक और धूर्त जैसे शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक तौर पर किया जाने लगा। युरोपिय सेना की तरफ से वे लड़ने जाते तो वर्दी पर उन्हें अलग से डेविड स्टार’लगाना होता था। जिससे भीड़ में भी यहूदी सैनिक अलग से पहचान लिया जाता था।

थियोडोर हर्जल नाम के वियना में रहने वाले एक यहूदी पत्रकार ने वर्तमान इजराइल का सपना देखा।  साल 1897 की बात है जब उन्होंने स्विटजरलैंड में वर्ल्ड जायनिस्ट कांग्रेस की स्थापना की। इस संगठन को दुनिया भर के यहूदियों से चंदा मिलने लगा। संस्था के संस्थापक थियोडोर हर्जज का 1904 में निधन हो गया लेकिन इसका आंदोलन पर कोई असर नहीं पड़ा। 1904 में ब्रिटेन के सा​थ हुआ बालफोर समझौता इजराइल को पाने की दिशा में उठा एक ठोस कदम था। इसी समझौते में आटोमन साम्राज्य को परास्त करने के बाद फिलिस्तीन के क्षेत्र में एक स्वतंत्र देश मिलने की बात कही गई थी।

नए देश के लिए हुए समझौते की बात दुनिया भर में बसे यहुदियों तक पहुंची तो वे धीरे—धीरे फिलिस्तीन की तरफ आने लगे। दूसरी तरफ ब्रिटेन ने अपना किया हुआ वादा पूरा नहीं किया लेकिन इस इलाके में बसने में पूरी मदद की। संसाधन और सुविधाओं में कोई कमी नहीं की। बताया जाता है कि यहीं से फिलिस्तीन ओर इजराइल के बीच संघर्ष की शुरुआत हुई।

जब आप यहुदियों की कहानी पढ़ेंगे तो वह हिन्दुओं जैसी ही हैं। कुछ लोग यहुदियों में हिन्दुओं का भविष्य देखते हैं। यहुदियों को भी एक समय उतना ही कमजोर और दब्बु समझा जाता था, जितने 20—25 साल पहले हिन्दु हुआ करते थे। कालांतर में यहुदियों ने लड़ना सिखा। द्वितीय विश्व युद्ध में जब 60 लाख से ज्यादा यहुदियों को मौत के घाट उतार दिया गया। जिसमें 15 लाख बच्चे शामिल थे। यह उस समय की उनकी एक—तिहाई आबादी ​थी। फिर वे समझ गए कि लड़ने का कोई विकल्प नहीं है।

दूसरी तरफ यूरोप से निकल कर फिलिस्तीन में एकत्रित हो रही यहुदियों की बढ़ती जनसंख्या को वहां के लोगों ने अपने लिए खतरे के तौर पर देखा। फिर दोनो पक्षों में युद्ध स्वाभाविक था। फिर यह मामला संयुक्त राष्ट्र में पहुंचा। संयुक्त राष्ट्र ने 29 नवंबर, 1947 को द्विराष्ट सिद्धांत के तहत अपना फैसला सुना दिया। इस पूरे क्षेत्र को यहूदी और अरब देशों में बांट दिया गया। यरुशलम को अलग शहर की मान्यता मिली। यह फैसला अरब देशों को स्वीकार नहीं था।  1948 में ब्रिटेन ने इस इलाके से अपन कब्जा छोड़ दिया। उसके साथ ही 14 मई, 1948 को यहूदियों का देश इजरायल सामने आया। बावजूद इसके लड़ाई जारी रही।

60 लाख साथियों को खोने के बाद ही यहुदियों ने जीवन का सिद्धांत बना लिया— ‘Never again!’ यही उनकी जीवनशैली बन गई है – दोबारा कभी नहीं!

आज इजराइल की ताकत का लोहा पूरी दुनिया मान रही है। उच्च शिक्षा की बात हो, अच्छे विश्वविद्यालय, स्कूल की बात हो, स्वास्थ सेवाओं की बात हो, या फिर अच्छे अस्पतालों की, विज्ञान और शोध की बात हो या फिर उच्च स्तरीय तकनीक की। इजराइल सबमें आगे है। आज यह छोटा सा देश पूरी दुनिया के लिए एक प्रेरणा बन गया है।

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