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मंदिरों पर सरकारी एकाधिकार क्यों?

मंदिरों पर सरकारी एकाधिकार क्यों?

by वेणुगोपालन
in मई - २०२१, सामाजिक
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आज अनेक हिन्दू संगठनों और अन्य धर्माचार्यों द्वारा सरकारी एकाधिकार से मंदिरों को मुक्त कराने का आन्दोलन आरंभ किया जा चुका है। जब हम मंदिरों के सम्पत्तियों से सम्बंधित कानून की बात करते हैं तो हमें यह पता चलता है कि यह काम जहां अंग्रेजों ने आरंभ किया था वहीं, देश के विभाजन के बाद यहां की लोकतांत्रिक सरकारों ने इस एकपक्षीय कानून को समाप्त करने की दिशा में कोई काम ही नहीं किया।

हमारे भारत देश में लगभग सभी राज्य सरकारों ने हजारो मंदिरों के रखरखाव और अच्छे प्रबंधन के नाम पर उनके धार्मिक और सामाजिक सरोकारों के साथ ही कोष पर एकाधिकार कर लिया है। राज्य सरकारों को हिन्दुओं के मंदिरों पर ही एकाधिकार करने की क्यों आवश्यकता पड़ी? इस पर विभिन्न विचारों को देखा जा सकता है। देखा यह गया है कि देवस्थान बोर्ड जैसे कानूनों को बनाकर राज्य सरकारें मंदिरों की आय पर डाका तो डालती हैं, परन्तु वे न तो मंदिरों की सम्पत्तियों, मन्दिरों की वास्तुकला और न ही वहां के अर्चकों और अन्य कर्मचारियों के समुचित वेतन आदि की ही व्यवस्था करती हैं।

हमारे देश में मन्दिरों की अकूत सम्पत्तियों की संरक्षा और सुरक्षा के नाम पर जिस प्रकार से व्यवस्था की जा रही है, उससे यही लगताहै कि सरकारें मंदिरों में चढ़ने वाली धनराशि और सम्पत्तियों को बेचकर जो धनराशि प्राप्त करती हैं उसका उपयोग मंदिरों के रखरखाव और वहां के अर्चकों तथा अन्य कर्मचारियों के जीवनयापन में आवश्यक मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराने और पारम्परिक पूजा अर्चना की व्यवस्था करने में नहीं किया जाता है अपितु, जिस प्रकार से उनका प्रयोग किया जा रहा है। उससे आहत होकर आज अनेक हिन्दू संगठनों और अन्य धर्माचार्यों द्वारा सरकारी एकाधिकार से मंदिरों को मुक्त कराने का आन्दोलन आरंभ किया जा चुका है। जब हम मंदिरों के सम्पत्तियों से सम्बंधित कानून की बात करते हैं तो हमें यह पता चलता है कि यह काम जहां अंग्रेजों ने आरंभ किया था वहीं, देश के विभाजन के बाद यहां की लोकतांत्रिक सरकारों ने इस एकपक्षीय कानून को समाप्त करने की दिशा में कोई काम ही नहीं किया। देश और राज्यों में किसी भी राजनैतिक दल की सरकारें रही हों, उन्होंने मंदिरों के जीर्णोद्धार और वहां की वास्तुकला को बचाने के लिए किसी भी योजना की शुरुआत नहीं की जिससे पारम्परिक सनातनी व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित किया जा सके।

दक्षिणी राज्य हों या देश के अन्य हिस्सों के राज्य, सभी में राज्य सरकारों ने मंदिरों की सम्पत्तियों और आय पर एकाधिकार तो कर लिया लेकिन मंदिरों की व्यवस्था के बारे में शुचिता का पालन नहीं किया। मंदिरों की सम्पत्तियों और चढ़ावे से होने वाली आय का उपयोग सरकारों ने विभिन्न मदों पर व्यय तो किया परन्तु जो धन प्राप्ति का मूल स्रोत था उसकी ज़रूरतों की ओर ध्यान नहीं दिया। सरकारों के एकाधिकार के प्रति हिन्दुओं के जनमानस में जो विरोध की लहर दिखाई देनी थी, वह कालांतर से ही दिखाई नहीं दी।

मंदिरों को सरकार के एकाधिकार से मुक्त करने के लिए सोशल मीडिया में षीशश ींशाश्रिश के अलावा जनजागृति के आन्दोलन का आरंभ हो गया है। यह देखा गया है कि कभी-कभी जिस आन्दोलन की शुरुआत नारों के रूप में होती है, उसे जब सही नेतृत्व मिलता है तो वह शीघ्र ही जनान्दोलन बनने लग जाता है। इसे इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है। इज़रायल बनने के पहले एक नारा का आरंभ हुआ था जिसमें वे अपनी पवित्र भूमि में अपना राष्ट्र की स्थापना की बात करते थे, जब यह नारा दिया गया था तब यदूदियों को यह नहीं पता था कि नारे से शुरु किया गया उनका आन्दोलन एक दिन उन्हें अपनी राष्ट्र की स्थापना करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। अपने देश में इसी तरह हम श्रीरामजन्म भूमि आन्दोलन की प्रक्रिया को भी देख सकते हैं। किसी को भी नहीं मालूम था कि श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पुनर्निर्माण के लिए जिसतरह से आन्दोलन की शुरुआत की गई है उससे श्रीराम जन्मभूमि के निर्माण हो ही जाएगा। यद्यपि हम इसे आज कानून की जीत बताएं, लेकिन, दशकों से चली आ रही कानूनी लड़ाई को वास्तविकता का रूप दिलाने में आन्दोलन की भूमिका की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। मंदिर वहीं बनाएंगें का नारा ही था जिसने हिन्दुओं में आन्दोलन को लम्बी अवधि तक चलाने के लिए ऊर्जा का काम किया था। आन्दोलनकारियों के समक्ष यह समस्या नहीं थी कि मंदिर की देखभाल के लिए किसी ट्रस्ट की स्थापना होगी कि नहीं, उनके मन में एक ही बात बस गई थी कि मंदिर तो श्रीराम जन्मभूमि पर पुनर्निर्मित करना ही है।

हमें यहां यह उल्लेख करने में कोई संकोच नहीं है कि स्वतंत्रता के लिए नारों के सहारे ही आन्दोलन की शुरुआत की गई थी। उस समय स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले सेनानियों ने यह नहीं सोचा था कि देश के स्वातंत्र्य के बाद किस तरह की व्यवस्था की जाएगी। उनका बस एक ही उद्देश्य था कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराना है। अब सरकारों की गुलामी से मंदिरों की मुक्ति के लिए आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की जा चुकी है। सरकारों द्वार जिस तरह से हिन्दुओं के मंदिरों की व्यवस्था को प्रशासन के हाथ में सौंप दिया गया है। उससे हिन्दुओं के पवित्र मंदिरों की दुर्दशा में ही बढ़ोतरी हुई है। तमिलनाडु में कोयम्बटूर में स्थित ईशा फाउन्डेशन के प्रमुख सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने कहा कि उच्च स्तर पर मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है, क्योंकि तमिलनाडु में पहले से ही हज़ारों मंदिर बर्बाद हो रहे हैं।

सद्गुरु ने कहा है कि देश के संविधान के अनुसार, सरकार को धार्मिक गतिविधियों में ख़ुद को शामिल करने का कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि सभी धर्म अपने अपने पूजा स्थलों का प्रबंधन करते हैं, लेकिन देश की विभिन्न राज्य सरकारों ने विशेषतः हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्त अधिनियम बनाकर हिंदू मंदिरों पर राज्य का नियंत्रण स्थापित कर दिया है। तमिलनाडु के मद्रास उच्च न्यायालय में राज्य सरकार ने स्वीकार किया है कि विभिन्न मंदिरों के लगभग 1,200 मूर्ति चित्रों (मूर्तियों) को चुरा लिया गया है।

तमिलनाडु का प्रशासन भी मानता है कि कई मंदिरों में, नकली मूर्ति चित्रों को फिर से स्थापित किया गया है। ईशा फाउंडेशन के प्रमुख ने कहा कि मंदिर केवल इमारतें नहीं हैं, बल्कि हज़ारों वर्षों से एक परंपरा की ‘आत्मा’ हैं। इसी आन्दोलन के मध्य उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने घोषणा कि उनकी सरकार राज्य के नियंत्रण से राज्य के 51 मंदिरों को मुक्त करती है। उत्तराखंड सरकार के इस निर्णय का स्वागत करतेहुए सद्गुरु ने उन सभी 3 करोड़ से अधिक लोगों और कई आध्यात्मिक और धार्मिक नेता, जो ऋीशश ढशाश्रिशी के आंदोलन के समर्थन में आगे आए उनके प्रति आभार व्यक्त किया।
ऋीशश ढशाश्रिशी आन्दोलन दक्षिणी राज्यों केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में प्रभावशाली ढंग से आगे बढ़ रहा है, परन्तु, देश के अन्य राज्यों, हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं के मंदिरों पर सरकार के एकाधिकार से मुक्त करने का आन्दोलन अभी प्रभावशाली नहीं बन सका है। इसका एक प्रमुख कारण है निजी प्रबंधन के अन्तर्गत मंदिरों की गौरवशाली परम्पराओं को संरक्षित करने के प्रश्न को उठाया जाने लगा है। हमें याद आता है कि जब श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन को आरंभ किया गया था तो उस समय भी तथाकथित सेक्युलर हिन्दुओं ने जन्मस्थान पर अस्पताल, विद्यालयों के निर्माण की बात कर आन्दोलन को निर्जीव बनाने का प्रयत्न किया था। सदियों से यही बात हिन्दू मंदिरों के सम्बंध में की जाती रही है। हिन्दुओं में वैचारिक एकता न होने के कारण ही सरकारों को उनके धार्मिक स्थलों पर एकाधिकार करने का अवसर मिलता रहा है, और आज भी है। हिन्दुओं के धार्मिक स्वातंत्र्य को लेकर चलाए गए किसी भी आन्दोलन को भटकाने के लिए उस पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाया जाने लगता है। सेक्युलर की परिभाषा को केवल हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं, उनके धार्मिक स्थलों पर सरकारी नियंत्रण में रखा जाना ही एक सहज उपाय ही माना जाने लगा है। जबकि अन्य धर्म के धार्मिक स्थलों पर सेक्युलर सरकार को नियंत्रण करने की हिम्मत ही नहीं होती है। अंग्रेजों ने जिस कानून को बनाया था, आजादी के बाद भी यह बंद नहीं हुआ है। जम्मू, असम, पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर राज्यों, केरल और आंध्र प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में हिन्दू जनसंख्यात्मक घनत्व जिस तरह से कम होता जा रहा है वह हिन्दुओं की धार्मिक विफलता को दर्शाता है। सदियों से होने वाली यह हानि आगामी पीढ़ियों के लिए संकट की स्थिति ही उत्पन्न करने वाली ही है। भारत में हिन्दुओं के लिए अकेले मंदिर ही एक शक्ति के रूप में उभर सकते हैं जो ईसाई मिशनरियों की अकूत धन शक्ति के सामने ठहर सकते हैं और इस्लामवादियों की भीड़ शक्ति के विरुद्ध प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।

इसी सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय ने पुरी (ओडिशा) में जगन्नाथ मंदिर के प्रबंधन से संबंधित जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए धार्मिक स्थलों का प्रशासन संभालने वाले सरकारी अधिकारियों पर सवाल उठाया और कहा कि मंदिर प्रशासन और प्रबंधन का काम श्रद्धालुओं को सौंपा जाना चाहिए। अदालत ने ‘मंदिर मामलों के प्रबंधन में विभिन्न राज्य सरकारों की विफलता’ पर भी चिंता व्यक्त की। उच्चतम न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों, न्यायाधीश एस. ए. बोबड़े और एस. ए.नाज़िर की पीठ ने 2014 के आदेश का हवाला देते हुए, जिसमें चिदंबरम के नटराज मंदिर के प्रशासन को तमिलनाडु सरकार के नियंत्रण से बाहर कर दिया गया था, कहा कि वह पुरी के प्रशासन के मुद्दे पर निर्णय का विचार करते हुए पुरी जगन्नाथ मंदिर के फैसले पर निर्णय सुनाएगी। जस्टिस बोबड़े, जो चिदंबरम मंदिर में आदेश पारित करने वाली पीठ का हिस्सा थे, कहा कि मुझे नहीं पता कि सरकारी अधिकारियों को मंदिर क्यों चलाना चाहिए। तमिलनाडु में, मूर्तियों की चोरी के कई मामले हैं। सरकारी अफसर क्या कर रहे हैं? ये भावनाएं धार्मिक भावनाओं से अलग हैं, अनमोल हैं।

सरकारी नियंत्रण से मंदिरों को मुक्त करने के लिए लोकसभा में भाजपा के सांसद डॉ.सत्यपाल सिंह ने लोकसभा में 22 नवम्बर, 2017को पहली बार विधेयक प्रस्तुत किया, इसके बाद दूसरी बार उन्होंने संविधान संशोधन विधेयक 2019 को प्रस्तुत किया। जिसमें धारा15,26,27,28,29,30 में संशोधन की मांग की गई, लेकिन, विधेयक पर कोई चर्चा नहीं हुई।
विधेयक में धारा 26 की चर्चा करते हुए कहा गया है कि हिंदुओं में भेदभाव की व्यापक वैध शिकायत और भावना है कि संवैधानिक प्रावधानों और न्यायिक निर्णयों के बावजूद, हिंदू मंदिरों और धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों को धर्मनिरपेक्ष राज्य द्वारा कुप्रबंधन आदि के बहाने नियंत्रण में लिया जाता है, जबकि अल्पसंख्यकों के मस्जिदों, चर्चों को संबंधित समुदायों द्वारा विशेष रूप से प्रबंधन करने की अनुमति दी जाती है, यद्यपि अनुच्छेद 26 नागरिकों के सभी वर्गों को समान रूप से अधिकार देता है।

जो भी हो ऋीशश ढशाश्रिशी के आन्दोलन ने राज्य सरकारों के सामने यह यक्ष प्रश्न तो खड़ा ही कर दिया है, अब राज्य सरकारों को यह तय करना ही होगा कि वे हिन्दुओं के मंदिरों को कितनी शीघ्रता से अपने नियंत्रण से मुक्त करती हैं। दक्षिण से आरंभ हुए ऋीशश ढशाश्रिशी आन्दोलन को पूरे देश में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन का रूप लेने में देरी नहीं लगेगी।

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