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सावरकर के कालजयी विचार

सावरकर के कालजयी विचार

by अरुण आनंद
in मई - २०२१, सामाजिक
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कभी ‘धर्मनिरपेक्षता’के नाम पर हिंदुत्व को सांप्रदायिक करार देने वाले, आज मंदिरों में जाकर माथा नवा रहे हैं। राजनीतिक दलों में स्वयं को अधिक से अधिक हिंदुत्वनिष्ठ सिद्ध करने की होड़ है। ऐसे में स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर का स्मरण आवश्यक है।

भारत अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव अगले साल मनाने जा रहा है।बहुत कम लोगों ने कल्पना की होगी कि आजादी की 75वीं वर्षगाँठ आते-आते सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व हिंदुत्व जैसे शब्द न केवल जनमानस को स्वीकार्य होंगे बल्कि वही हमारी राजनीतिक हलचलों के भी केंद्र में होंगे। कभी ‘धर्मनिरपेक्षता’के नाम पर हिंदुत्व को सांप्रदायिक करार देने वाले, आज मंदिरों में जाकर माथा नवा रहे हैं। राजनीतिक दलों में स्वयं को अधिक से अधिक हिंदुत्वनिष्ठसिद्ध करने की होड़ है। ऐसे में स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर का स्मरण आवश्यक है। बीसवीं सदी में अपने लेखनी व अपने कार्यों से उन्होंने ‘हिंदुत्व’को पुन: जनमानस में स्थापित करने के लिए उस की अवधारणा को जनता की भाषा में स्पष्ट किया, उसके विभिन्न पक्षों का विवेचन किया। उनके विचार आज और भी सामयिक हो गए हैं।

आज़ादी के बाद वामपंथी इतिहासकारों ने सावरकर के योगदान को पूरी तरह से नकार दिया। दूसरी ओर भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को एक वामपंथी कॉमरेड के रूप में स्थापित किया। लेकिन, दिलचस्प बात ये है कि सावरकर और भगत सिंह दोनों एक दूसरे के बड़े क़रीबी थे।तथ्य तो यह है कि भगत सिंह कम्युनिस्ट नहीं थे बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा थे।
कलकत्ता से निकलने वाले साप्ता हिक‘मतवाला’के 15 और 22 नवंबर,1924 के अंक में भगत सिंह द्वारा लिखित एक आलेख ‘विश्व प्रेम’के नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसमें वह कहते हैं, विश्वप्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते – वही वीर सावरकर। विश्वप्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी। यह लेख बलवंत सिंह के छद्म नाम से लिखा गया था (संदर्भ-भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़, पृष्ठ संख्या 93, पुनर्मुद्रण मई 2019, राहुल फाउंडेशन,लखनऊ)।
जिन दिनोंभगत सिंह ने यह लेख लिखा, उन दिनों सावरकर रत्नांगिरी में नज़रबंद थे। उन पर राजनीतिक गतिविधयों में भाग लेने को लेकर प्रतिबंध लगा हुआ था।

शहीद भगत सिंह ने ‘किरती’नामक प्रकाशन में मार्च,1928 से लेकर अक्टूंबर,1928 तक ‘आज़ादी की भेंट शहादतें’नाम से एक लेखमाला लिखी। अगस्त 1928 के अंक में इस लेखमाला का उद्देश्य इस रूप में बताया गया है, हमारा इरादा है कि उन जीवनियों को उसी तरह छापते हुए भी उनके आंदोलनों का क्रमश: हाल लिखें ताकि हमारे पाठक यह समझ सकें कि पंजाब में जागृति कैसे पैदा हुई और फिर काम कैसे होता रहा और किन कामों के लिए, किन विचारों के लिए, उन शहीदों ने अपने प्राण तक अर्पित कर दिए।

इसी लेखमाला में कर्ज़न वायली को मौत के घाट उतारने वाले क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा और सावरकर के बारे में लिखते हुए भगत सिंह कहते हैं, स्वदेशी आंदोलन का असर इंग्लैंड तक भी पहुंचा और जाते ही श्री सावरकर ने ‘इंडिया हाउस’नामक सभा खोल दी। मदनलाल भी उसके सदस्य बने। …एक दिन रात को श्री सावरकर और मदनलाल ढींगरा बहुत देर तक मशविरा करते रहे।अपनी जान तक दे देने की हिम्मत दिखाने की परीक्षा में मदनलाल को जमीन पर हाथ रखने के लिए कहकर सावरकर ने हाथ पर सुआ गाड़दिया, लेकिन पंजाबी वीर ने आह तक नहीं भरी।सुआ निकाल लिया गया। दोनों की आँखों में आँसू भर आये। दोनों एक-दूसरे के गले लग गए। अहा!वह समय कैसा सुंदर था। वह अश्रु कितने अमूल्य और अलभ्य थे। वह मिलाप कितना सुंदर कितना महिमामय था। हम दुनियादार क्या जानें?मौत के विचार तक से डरनेवाले हम कायर लोग क्या जानें कि देश की खातिर, कौम के लिए प्राण दे देनेवाले वे लोग कितने उंचे, कितने पवित्र और कितने पूजनीय होते है।(संदर्भ-भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, पृष्ठ संख्या 166-68, पुनर्मुद्रण मई,2019 राहुल फाउंडेशन,लखनऊ)।

प्रसिद्ध मराठी इतिहासकार य.दि. फड़के के अनुसार, भगत सिंह ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विषय में सावरकर की किताब ‘1857-स्वातंत्र्य समर’का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया था और क्रांतिकारियों में इसका प्रचार किया था। (संदर्भ-शोध सावरकरांचा, य.दि. फड़के, श्रीविद्या प्रकाशन,पुणे)।

सावरकर की एक और पुस्तक ‘हिंदूपदपादशाही’से भी भगत सिंह ने प्रेरणा ली थी। अपनी जेल डायरी में उन्हों ने इस पुस्तक से उद्धरण लिए हैं जो इस प्रकार हैं-उस बलिदान की सराहना केवल तभी की जाती है जब बलिदान वास्तविक हो या सफलता के लिए अनिवार्य रूप से अनिवार्य हो। लेकिन जो बलिदान अंततः सफलता की ओर नहीं ले जाता है, वह आत्मघाती है और इसलिए मराठा युद्धनीतिमें उसका कोई स्थान नहीं था।(हिंदूपदपादशाही,पृष्ठ् 257)-इन मराठों से लड़ते हुए हवा से लड़ रहे हैं, पानी पर पानी खींच रहे हैं। (हिंदूपदशाही, पृष्ठ 258)-वीरता के कार्य किए बिना, वीरता का प्रदर्शन किए बिना, साहस के साथ इतिहास बनाये बिना इतिहास लिखना हमारे वक्त का एक बुरा सपना है। वीरता को वास्तविकता बनाने का अवसर न मिलना हमारे लिए अफ़सोस की बात है। (हिंदूपदपादशाही, पृष्ठ 265-266)।-राजनीतिक दासता को कभी भी आसानी से उखाड़ फेंका जा सकता है। लेकिन, सांस्कृतिक वर्चस्व के बंधनों को तोड़ना मुश्किल है। (हिंदूपदपादशाही, पृष्ठ 272-273)।

हे स्वतंत्रता, जिसकी मुस्कान हम कभी नहीं छोड़ते,जाओ उन आक्रामक, मूर्खों को बताओ आपके मंदिर में एक युग से अधिक बहनेवाला रक्त प्रवाह हमारे लिए मीठा है, ज़ंज़ीरों में जकड़ीनींद से ज्यादा, थॉमस मूर की पंक्तियाँ सावरकर द्वारा उद्धत (हिंदूपदपादशाही, पृष्ठ 219)धर्मांतरित होने के बजाय मार डाले जाओ उस समय हिंदुओं के बीच यही पुकार प्रचलित थी। लेकिन, रामदास ने खड़े होकर कहा, नहीं, यह सही नहीं है। धर्मांतरित होने के बजाय मार डाले जाओ – यह काफी अच्छा है लेकिन उससे भी बेहतर है न मारे जायें और न ही धर्मांतरणकिया जाए(हिंदूपदपादशाही पृष्ठ 181-182)।

23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई। रत्नागिरि में सावरकर के घर पर हमेशा भगवा झंडा फहराया जाता था। लेकिन, भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव के बलिदान के अगले दिन उनके घर पर काला झंडा लहरा रहा था। भगत सिंह के साथियों, जैसे भगवतीचरण वोहरा आदि ने भी भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों पर सावरकर और उनके साहित्य के प्रभाव के बारे में विस्तार से लिखा है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सावरकर उन चुनिंदा महापुरूषों में से हैं, जिनके विचार समय के साथ और अधिक प्रासंगिक होते चले जाते हैं।

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