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 एनीमिया : एक तिहाई आबादी में गंभीर स्वास्थ्य समस्या

 एनीमिया : एक तिहाई आबादी में गंभीर स्वास्थ्य समस्या

by डॉ. के . एन . पाण्डे
in विशेष
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एनीमिया विश्व में विशेषतया भारत जैसे विकासशील देशों में एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। हालांकि, वास्तव में इस समस्या को रोका जा सकता है और इसका सरल इलाज भी किया जा सकता है। यह मानव जाति को प्रभावित करने वाला एक अत्यंत सामान्य रोग है जो सामान्य आबादी में बीमारी और मौत के लिए जिम्मेदार है।

 दुनिया की लगभग 30 फ़ीसदी आबादी एनीमिया से पीड़ित है। विश्व में इसकी उपस्थिति की तुलना में भारत में एनीमिया की व्यापकता कहीं अधिक है। भारत में अनुमानतः  51% आबादी एनीमिया से ग्रस्त हैं जिनमें महिलाओं और बच्चों की संख्या बहुत अधिक है। एनीमिया से ज्यादातर कम आयु विशेषतया प्रजनन आयु वर्ग की महिलाएं प्रभावित होती हैं। एनीमिया से पीड़ित अधिकांश लोग निम्न और मध्यम सामाजिक-आर्थिक वर्ग के होते हैं। अर्थात समुदाय में एनीमिया की स्थिति के लिए सामाजिक आर्थिक स्तर की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इन वर्गों में विशेषतया ग्रामीण क्षेत्र के लोगों और अस्पताल में भर्ती शहरी लोगों, तथा बच्चों एवं किशोरवय लड़कियों में एनीमिया की स्थिति अधिक पाई जाती है। आम बोलचाल की भाषा में एनीमिया को खून की कमी होना कहा जाता है। इसे अरक्तता, अल्प रक्तता अथवा रक्ताल्पता के नाम से भी जाना जाता है। एनीमिया की स्थिति के लिए कई कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। इस आलेख में एनीमिया के कारणों, इसके कारण पैदा होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं और बचाव के तरीकों पर जागरूकता पैदा करने का प्रयास किया गया है।

एनीमिया की स्थिति में रक्त में हीमोग्लोबिन, हिमैटोक्रिट अथवा लाल रक्त कोशिकाओं यानी आरबीसी के स्तर सामान्य सीमा से कम हो जाते हैं। कोई व्यक्ति एनीमिया से पीड़ित है अथवा नहीं इसे जानने के लिए रक्त में इन तीनों में से किसी एक की जांच की जा सकती है परंतु एनीमिया की सटीक पहचान के लिए खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा ज्ञात करने को  वरीयता दी जाती है।

एनीमिया कई तरह का हो सकता है परंतु विकासशील देशों में पोषण से जुड़ी एनीमिया की स्थिति अधिक सामान्य पाई जाती है। पोषण से संबंधित एनीमिया मुख्यतया लौह यानि ऑयरन की कमी, फोलिक एसिड की कमी,  विटामिन बी12 की कमी अथवा इन सब की मिली जुली कमी के कारण हो सकती है। पोषण से संबंधित एनीमिया नवजात शिशुओं से लेकर वृद्धों तक में पाई जाती है। अन्य प्रकार में हीमोलाइटिक एनीमिया सम्मिलित है जो जन्मजात अथवा बाद में विकसित हो सकती है। जन्मजात कारणों में मेंब्रेन यानि कला, हीमोग्लोबिन और एंजाइम के स्तर में दोष उत्पन्न होना सम्मिलित है, जबकि बाद में विकसित होने वाली एनीमिया के पीछे प्रतिरक्षाशक्ति यानि इम्यून अथवा नाॅन-इम्यून  कारणों का हाथ हो सकता है। रक्त की मात्रा में कमी और लंबी अवधि तक रोग ग्रस्त होने की स्थितियों में भी एनीमिया उभर सकती है।

खून में लौह यानि ऑयरन  की मात्रा कम होने से माइक्रोसाइटिक एनीमिया की स्थिति उत्पन्न होती है। इस स्थिति में शरीर के अंगों और ऊतकों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती। ऑक्सीजन की कमी के पीछे शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं की मात्रा में कमी अथवा लाल रक्त कोशिकाओं में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम होने का हाथ हो सकता है। यह  हीमोग्लोबिन एक प्रोटीन होता है जो रक्त में ऑक्सीजन का परिवहन करता है। भारत में आमतौर पर और विशेषतया गर्भवती महिलाओं में पोषण से संबंधित मैक्रोसाइटिक एनीमिया  की स्थिति पाई जाती है जिसमें खून में लाल रक्त कोशिकाओं का आकार तो बड़ा होता है परंतु उनकी संख्या पर्याप्त नहीं होती। इस स्थिति के लिए रक्त में ऑयरन और फोलिक एसिड और / अथवा विटामिन बी12 की कमी का हाथ हो सकता है।

एनीमिया की व्यापकता की जांच

एनीमिया की शुरुआती जांच में रक्त में हीमोग्लोबिन के स्तर, लाल रक्त कोशिकाओं (आर बी सी), ल्यूकोसाइट यानि श्वेत रक्त कोशिकाओं (डब्ल्यू बी सी), प्लेटलेट्स, हिमैटोक्रिट (शरीर में रक्त की कुल मात्रा के प्रति    लाल रक्त कोशिकाओं की मात्रा का अनुपात, रेटीकुलोसाइट्स (केंद्रक अर्थात न्यूक्लियस रहित अपरिपक्व और लाल रक्त कोशिकाएं) की कुल संख्या मात्रा की जांच की जाती है।

एनीमिया की व्यापकता को ज्ञात करने के लिए  कई अन्य स्थितियों की भी जांच की जाती है। एनीमिया के उभरने में इन स्थितियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनमें प्रमुख हैं: सीरम में ऑयरन का स्तर, आई बी सी (टोटल ऑयरन बाइंडिंग कैपेसिटी) अर्थात लौह की कुल बंधनकारी क्षमता, बोन मैरो की जांच, मल में विशेषतया हुकवर्म जैसे हेलमिंथ्स के अंडों और सिस्ट की जांच, मल में खून की जांच, रक्त से हीमोग्लोबिन को अलग करना, सीरम में विटामिन बी12 और फोलिक एसिड के स्तर की जांच, विटामिन बी12 के अवशोषण की जांच, तथा  G-6-PD (ग्लूकोज़-6 -फास्फेट डीहाइड्रोजिनेज़) की कमी की जांच। G-6-PD जांच में लाल रक्त कोशिकाओं में G-6-PD एंज़ाइम के स्तर की जांच की जाती है।

एनीमिया के लक्षण

किसी व्यक्ति में यदि गंभीर एनीमिया की स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो उनमें निम्न लक्षण दिखाई दे सकते हैं:

  • त्वचा का रंग पीला पड़ना

  • थकान

  • कमजोरी

  • बहुत जल्दी थक जाना

  • सांस फूलना

  • बैठने अथवा लेटने के बाद खड़े होने पर रक्तचाप में गिरावट आना

  • बार बार सिर दर्द होना

  • पसीना आना

  • एकाग्रता में कमी

  • चिड़चिड़ापन

  • जीभ का लाल पढ़ना या उसमें दरारें आना

  • भूख नहीं लगना

  • किसी विशिष्ट आहार के सेवन की तीव्र इच्छा होना

 

किन व्यक्तियों को एनीमिया का अधिक खतरा है?

कुछ लोगों को एनीमिया से पीड़ित होने का बहुत अधिक खतरा होता है जिनमें शामिल हैं:

  • मासिक धर्म अवधि में महिलाएं

  • गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाएं

  • बच्चे खासकर जो निर्धारित अवधि से पूर्व पैदा हुए हों

  • वे बच्चे जिनमें यौवन की शुरुआत हो रही हो

  • शाकाहारी और वीगन आहार पर निर्भर वे लोग जो उपयुक्त मात्रा में लौहयुक्त हरी सब्जियों और अनाजों का सेवन नहीं करते। वीगन आहार लेने वाले व्यक्ति शाकाहार के अलावा मांस, मछली, अंडे यहां तक कि शहद और डेयरी उत्पाद जैसे दूध, दही, चीज, आदि का भी सेवन नहीं करते।

  • कैंसर, अमाशय में अल्सर और कुछ लंबी अवधि के रोगों से पीड़ित लोग

  • एथलीट्स, धावक खिलाड़ी, आदि।

 

एनीमिया का निदान

एनीमिया के कारणों के अनुसार इसकी पहचान कई प्रकार के परीक्षणों के माध्यम से की जा सकती है, जिन में सम्मिलित हैं:

  • प्रभावित व्यक्ति की मेडिकल हिस्ट्री यानि चिकित्सा संबंधी उसका पूर्व इतिहास जिसमें लंबी अवधि की बीमारी और नियमित रूप से सेवन की जा रही दवाइयों की जानकारी शामिल है

  • शारीरिक जांच–शरीर में एनीमिया के लक्षणों और उसके कारणों को जानकर

  • खून की जांच– इसमें खून की पूरी जांच जिनमें लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या, रक्त में ऑयरन, विटामिन बी12 और फोलेट के स्तरों की जांच के साथ-साथ गुर्दे के कार्य की जांच शामिल हैं

  • मूत्र की जांच—मूत्र में रक्त का पता लगाना

  • गैस्ट्रोस्कॉपी अथवा कोलोनोस्कोपी द्वारा जठरांत्र पथ यानि गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट में रक्त स्राव की जांच

  • बोन मैरो की बायोप्सी, और

  • मल नमूनों में खून की जांच।

 

कितना को हीमोग्लोबिन का स्तर?

जैसा कि हम जानते हैं हीमोग्लोबिन खून की लाल रक्त कोशिकाओं यानि रेड ब्लड कॉरपसल्स (आरबीसी) में एक प्रोटीन होता है जो शरीर के अंगों और ऊतकों  में ऑक्सीजन की आपूर्ति करता है और शरीर के अंगों और ऊतकों से कार्बन डाइऑक्साइड को आपके फेफड़ों तक वापस पहुंचाता है। यदि परीक्षण करने पर रक्त में हीमोग्लोबिन का स्तर सामान्य से कम पाया जाए तो इसका तात्पर्य लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या में कमी होता है जिसे एनीमिया कहां जाता है। इस स्थिति में एनीमिया विकसित होने के लिए शरीर में विटामिन की कमी, रक्तस्राव और लंबी अवधि से चले आ रहे रोग जिम्मेदार होते हैं। वहीं यदि, रक्त में हीमोग्लोबिन का स्तर सामान्य से अधिक हो तो इसके पीछे रक्त के विकार, ऊंचाई वाले क्षेत्रों यानि पर्वतीय क्षेत्रों में आवास, धूम्रपान और डिहाइड्रेशन यानि शरीर में पानी की मात्रा कम होने जैसी स्थितियां जिम्मेदार होती हैं। शरीर में हीमोग्लोबिन के स्तर को ज्ञात करने के लिए प्रति डेसी लीटर खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा (ग्राम) में मापी जाती है।

आमतौर पर रक्त में हीमोग्लोबिन की सामान्य मात्रा निम्न होनी चाहिए।

  • पुरुषों में5 से 17.5 ग्राम हीमोग्लोबिन प्रति डेसी लीटर रक्त।

  • महिलाओं में0 से 15.5 ग्राम हीमोग्लोबिन प्रति डेसी लीटर रक्त।

  • बच्चों में हीमोग्लोबिन का स्तर आयु और लिंग के अनुसार कम या ज्यादा हो सकता है।

 

एनीमिया का इलाज

एनीमिया का इलाज उसके विकसित होने के कारण और गंभीरता के आधार पर किया जाता है, आमतौर पर एनीमिया को दूर करने के लिए निम्न उपाय अपनाए जाते हैं:

  • विटामिन और खनिज पदार्थ का संपूरण–यदि इनकी कमी हो तो

  • आयरन का इंजेक्शन–यदि आयरन की मात्रा बहुत कम हो

  • विटामिन बी12 का इंजेक्शन–यदि विटामिन बी12 की कमी के कारण लाल रक्त कोशिकाओं के बनने में कमी आ रही हो तो

  • एंटीबायोटिक दवाइयां–यदि एनीमिया होने के पीछे किसी संक्रमण का हाथ हो

  • नियमित रूप से ली जाने वाली दवाइयों की खुराक अथवा रेजिमेन को बदलना–जैसे कि यदि आवश्यक हो तो सूजन को दूर करने के लिए ली जाने वाली दवाइयों यानि एंटी इन्फ्लेमेटरी ड्रग्स की खुराक बदली जा सकती है

  • यदि जरूरी हो तो रक्त आधान यानि ब्लड ट्रांसफ्यूजन

  • ऑक्सीजन थेरेपी –यह भी यदि जरूरी हो

  • असामान्य तरीके से होने वाले रक्त स्राव यानि ब्लीडिंग को रोकने के लिए सर्जरी–जैसे कि मासिक धर्म के दौरान अत्यधिक रक्त स्राव होने पर

  • गंभीर हीमोलिटिक एनीमिया की स्थिति में शल्यक्रिया द्वारा स्प्लीन यानि प्लीहा को निकालना– हीमोलिटिक एनीमिया को सिकल सेल एनीमिया भी कहते हैं। इस स्थिति में एनीमिया हीम यानि लाल रक्त कोशिकाएं टूट अथवा नष्ट हो जाती हैं। अस्थि मज्जा द्वारा उत्पादित इन लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या में कमी होने के कारण फेफड़ों से हृदय तक और फिर पूरे शरीर में ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता कमजोर पड़ जाती है।

 

एनीमिया से बचाव

कुछ तरह की एनीमिया को नहीं रोका जा सकता क्योंकि वे कोशिका निर्माण प्रक्रिया के टूटने से उत्पन्न होते हैं। हालांकि, आहार में कमी से उत्पन्न एनीमिया को कुछ निश्चित प्रकार के आहार के नियमित सेवन से दूर किया जा सकता है। आहार में डेयरी उत्पादों, गिरी, दालों, ताजे फलों और सब्ज़ियों को सम्मिलित कर एनीमिया से बचा जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति वीगन आहार का सेवन करता है तो उसे विटामिन और खनिज संपूरण के लिए अपने चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए।

 

भारत में एनीमिया रोकने के प्रयास

भारत में वर्ष 1970 में “एनीमिया नियंत्रण कार्यक्रम” की शुरुआत की गई थी और 15 वर्षों बाद स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद यानी आईसीएमआर द्वारा इस कार्यक्रम का मूल्यांकन किया गया। इस मूल्यांकन में पता चला कि यह कार्यक्रम एनीमिया की व्यापकता को रोकने में कोई खास असर नहीं डाल सका। बाद में इस कार्यक्रम की समीक्षा की गई और वर्ष 1990 में इसे “राष्ट्रीय पोषणज एनीमिया नियंत्रण कार्यक्रम” का नाम दिया गया। वर्ष 1997 में इस कार्यक्रम को पूरे देश में “प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रम” के साथ जोड़ दिया गया। अपने देश में एनीमिया के लिए कई कारणों का जिम्मेदार होना एक प्रमुख समस्या है। एनीमिया के अधिकांश मामलों में एक साथ कई कारण जिम्मेदार पाए जाते हैं। याद रहे एनीमिया यानि अरक्तता लाइलाज नहीं है। अरक्तता के लक्षणों के उभरने के साथ अपने आहार में ऑयरन और खनिज युक्त खाद्य पदार्थों को सम्मिलित कर अरक्तता से बचा जा सकता है। एनीमिया की स्थिति में उत्पन्न स्वास्थ्य समस्याओं की स्थिति में विशेषज्ञ चिकित्सक की सलाह में उपचार करके स्वयं को स्वस्थ रखा जा सकता है।

 

कृपया ध्यान दें : एनीमिया यानि अरक्तता होने की स्थिति में उपर्युक्त  विधियों द्वारा स्वयं इलाज बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए बल्कि किसी विशेषज्ञ चिकित्सक की सलाह में ही इलाज कराने की सिफारिश की जाती है।

 

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डॉ. के . एन . पाण्डे

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