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बदलाव के वाहक बनते  ग्रामीण आविष्कारक

बदलाव के वाहक बनते ग्रामीण आविष्कारक

by प्रमोद भार्गव
in जून २०२१, विज्ञान, सामाजिक
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उद्यमिता विकास के लिए कार्य-संस्कृति, अंतर-संरचना और कानून-व्यवस्था में बड़े बदलाव लाने होंगे, बल्कि युवाओं को आरक्षण आंदोलन और सरकारी या कंपनियों की नौकरी का मोह भी छोड़ना होगा। तभी युवा उद्यमियों की सोचने-विचारने की मेधा प्रखर होगी और किसी आविष्कार को साकार रूप देने के लिए कल्पना-शक्ति विकसित होगी।

दुनिया को विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान देने वाले वैज्ञानिक व आविष्कारक वास्तव में न तो बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे थे और न ही उनका विज्ञान से वास्ता था। बाबजूद कल्पना का एक सिरा पकड़कर उन्होंने मौलिक, अद्भुत व जन उपयोगी न केवल आविष्कार किए, बल्कि विज्ञान के नए विषयों की आधारशिला भी रख दी। सूक्ष्म जीवों के अध्ययन की नींव रखने वाले वैज्ञानिक एंटोनी ल्यूवेनहॉक द्वारपाल थे और लैंसों की घिसाई का काम करते थे। लियोनार्डो-द-विंची एक कलाकार थे। आइंस्टीन पेटेंट कार्यालय में लिपिक थे। न्यूटन एकांतवासी और प्रीस्टले पुरोहित थे। थॉमस अल्वा एडिसन टेलीग्राफ ऑपरेटर थे। इन्हें प्राथमिक विद्यालय से मंदबुद्धि छात्र कहकर निकाल दिया था। एडिसन ने ही बल्ब का आविष्कार किया था। इनके नाम से करीब 1000 पेटेंट थे। फैराडे जिल्दसाज तथा लेवोसिएर कर विभाग में क्लर्क थे। बिल गेट्स ने कंप्युटर की बुद्धि अर्थात साफ्टवेयर का आविष्कार तब किया था, जब विद्यार्थी जीवन में उनकी मां ने उन्हें मनोरोगी समझ लिया था, क्योंकि वे कागजों पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचकर अपनी परिकल्पना को साकार रूप में बदलने के लिए घंटों दत्तचित्त लगे रहते थे।

पुरानी कहावत है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। लेकिन नूतन आविष्कार वही लोग कर पाते हैं, जो कल्पनाशील होते हैं और ’लोग क्या कहेंगे’ इस उपहास की परवाह नहीं करते। बस वे अपने मौलिक इनोवेटिव आइडियाज को आकार देने में जुटे रहते हैं। भारत में देसी जुगाड़ का अपना एक पूरा विज्ञान और ज्ञान परंपरा हैं, बावजूद इन्हें मान्यता कम ही मिल पाती है। कुछ लोग अपनी तात्कालिक जरूरत की पूर्ति के लिए वाहनों के मूल आकार में परिवर्तन कर पेड़ पर चढ़ने वाली बाइक बना लेते हैं, तो कोई साइकिल की रफ्तार चार गुना ज्यादा कर लेता है। कोई बीज बोने वाली और बाढ़ के पानी में चलने वाली साइकिलें भी बना डालते हैं। कोई-कोई स्थानीय स्तर पर ही ऊर्जा के स्रोत और सिंचाई के पंप भी बना लेते हैं। कोरोना की महामारी ने भी नए आविष्कारों को जन्म देने का रास्ता खोला है। जम्मू-कश्मीर के बांदीपुरा निवासी मोहम्मद इस्माइल मीर ने अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी का अनुभव करते हुए ऑक्सीजन कंस्ट्रेटर ही बना डाला।

इन देशज उपलब्धियों से पता चलता है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन शालेय शिक्षा व कुशल-अकुशल की परिभाषाओं से ज्ञान को रेखांकित किए जाने की विवशता के चलते केवल कागजी काम से जुड़े डिग्रीधारी को ही ज्ञानी और परंपरागत ज्ञान आधारित कार्य प्रणाली में कौशल-दक्षता रखने वाले शिल्पकार और किसान को अज्ञानी व अकुशल ही माना जाता है। यही कारण है कि हम देशज तकनीक व स्थानीय संसाधनों से तैयार उन आविष्कारों और आविष्कारकों को सर्वथा नकार देते हैं, जो ऊर्जा, सिंचाई, मनोरंजन और खेती की वैकल्पिक प्रणालियों से जुड़े होते हैं। जबकि ये नवाचारी उद्यमी की श्रेणी में आने चाहिए। हमारे समाज में ’घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध’ कहावत खूब प्रचलित है। यह कहावत कही तो गुणी-ज्ञानी महात्माओं के संदर्भ में है, किंतु विज्ञान संबंधी नवाचारी प्रयासों के प्रसंग में भी खरी उतरती है। उपेक्षा की ऐसी ही हठवादिताओं के चलते हम उन वैज्ञानिक उपायों को स्वतंत्रता के बाद से ही लगातार नकारते चले आ रहे हैं, जो समाज को सक्षम और समृद्ध करने वाले हैं। नकार की इसी परंपरा के चलते हमने आजादी के पहले तो गुलामी जैसी प्रतिकूल परिस्थितियां होने के बावजूद रामानुजन, जगदीशचंद्र बोस, चंद्रशेखर वेंकट रमन, मेघनाद साहा और सत्येंद्रनाथ बोस जैसे गणितज्ञ व वैज्ञानिक दिए, लेकिन आजादी के बाद मौलिक आविष्कार करने वाला अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का एक भी वैज्ञानिक नहीं दे पाए? जबकि इस बीच हमारे संस्थान नई खोजों के लिए संसाधन व तकनीक के स्तर पर समृद्धशाली हुए हैं। जाहिर है हमारी ज्ञान-पद्धति में कहीं खोट है।

दुनिया में वैज्ञानिक और अभियंता पैदा करने की दृष्टि से भारत का तीसरा स्थान है। लेकिन विज्ञान सम्बंधी साहित्य सृजन में केवल पाश्चात्य लेखकों को जाना जाता है। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक आविष्कारों से ही यह साहित्य भरा पड़ा है। इस साहित्य में न तो हमारे वैज्ञानिकों की चर्चा है और न ही आविष्कारों की। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि हम खुद न अपने आविष्कारकों को प्रोत्साहित करते हैं और न ही उन्हें मान्यता देते हैं। इन प्रतिभाओं के साथ हमारा व्यवहार भी संतोषजनक नहीं होता है।

ऑक्सीजन कंस्ट्रेटर बनाने वाले इस्माइल मीर बारहवीं तक पढ़े हैं। विज्ञान और तकनीक के प्रति उनकी बचपन से ही रुचि थी। इसलिए वे तरह-तरह के उपकरण जुगाड़ से बनाते रहे हैं। हवा से स्वतः ऑक्सीजन पैदा करने वाले कंस्ट्रेटर की जो सस्ती प्रतिकृति उन्होंने बनाई है, उसकी कीमत महज 15000 रुपए है। वे स्वचालित वैंटिलेटर भी बना चुके है। लेकिन उन्हें अब तक कोई मान्यता नहीं मिली है। मीर कहते है कि उन्हें बचपन में विद्यालय से इसलिए निकाल दिया गया था, क्योंकि वे शिक्षक से प्रश्न बहुत करते थे।

कर्नाटक के एक अशिक्षित किसान गणपति भट्ट ने पेड़ पर चढ़ जाने वाली बाइक का आविष्कार करके देश के उच्च शिक्षित वैज्ञानिकों व विज्ञान संस्थाओं को हैरानी में डालने का काम कर दिया है। गणपति ने एक ऐसी अनूठी मोटरसाइकल का निर्माण किया है, जो चंद पलों और कम खर्च में नारियल एवं सुपारी के पेड़ों पर आठ मिनट में चढ़ जाती है। इस बाइक से एक लीटर पेट्रोल में 80 पेड़ों पर आसानी से चढ़ा जा सकता है। इस किसान और इस बाइक की खबर मीडिया में आने के बाद महिंद्रा एंड महिंद्रा समूह के अध्यक्ष आनंद महिंद्रा ने इस आश्चर्यजनक नवाचार के प्रति दिलचस्पी दिखाते हुए इसके डिजाइन और कार्य क्षमता की प्रशंसा की है। साथ ही वे गणपति से संपर्क कर इस बाइक के व्यावसायिक इस्तेमाल की संभावनाएं भी तलाश रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो एक अकुशल आविष्कारक को महत्व व मान्यता मिलेगी और यदि उसे इस आविष्कार के बदले में अच्छी धनराशि मिलती है तो ग्रामीण परिवेश से आने वाले अशिक्षित व अकुशल खोजी वैज्ञानिकों के नवाचार सामने आने का सिलसिला शुरू हो जाएगा।

ऐसा नहीं है कि बेकद्री के मारे गणपति और मीर जैसे नवाचारी पहली बार सामने आए हों। इसके पहले भी कई आविष्कारक सामने आए हैं, लेकिन डिग्रीधारी नहीं होने के कारण मान्यता नहीं मिली। गणपति की ही तरह उत्तर-प्रदेश के हापुड़ में रहने वाले रामपाल नाम के एक मिस्त्री ने गंदे नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा किया है। उसने यह जानकारी आला-अधिकारियों को भी दी। सराहना की बजाय उसे हर जगह मिली फटकार। लेकिन जिद के आगे किसकी चलती है। आखिकार रामपाल ने अपना घर साठ हजार रुपये में गिरवी रख दिया और गंदे पानी से ही दो सौ किलो वॉट बिजली पैदा करके दिखा दी। रामपाल का यह कारनामा किसी चमत्कार से कम नहीं है। जब पूरा देश बिजली की कमी से बेमियादी कटौती की हद तक जूझ रहा है, तब इस वैज्ञानिक उपलब्धि को उपयोगी क्यों नहीं माना जाता? जबकि इस आविष्कार के मंत्र में गंदे पानी के निस्तार के साथ बिजली की आसान उपलब्धता जुड़ी है ? इसके बाद रामपाल ने एक हेलिकॉप्टर भी बनाया। लेकिन उसकी चेतना को विकसित करने की बजाय उसे कानूनी पचड़ों में उलझा दिया गया। अपने सपनों को साकार करने के फेर में घर गिरवी रखने वाला रामपाल अब गुमनामी के अंधेरे में है।

झारखंड के जमशेदपुर के चाईबासा स्थित सुपलसाई के विलियम लेयांगी ने छह गियर की ऐसी साइकल बना दी जो एक घंटे में 54 किमी चलती है। लेयांगी दसवीं तक पढ़ा है। राजस्थान के बीकानेर के सांईसर गांव के दो भाइयों पवन व नंदकिशोर पंचारिया ने खेत में बीज बोने वाली साइकल बना डाली। यह करिश्मा इन्होंने लॉकडाउन में घर पर बैठे-बैठे कर दिखाया। अपने 15 बीघा खेत में उन्होंने इसी से बीज बोया। बिहार के वैशाली जिले में मंसूरपुर गांव के एक मामूली विद्युत उपकरण सुधारने वाले कारीगर राघव महतो ने मामूली धनराशि की लागत से सामुदायिक (कम्युनिटी) रेडियो स्टेशन का निर्माण कर डाला। और फिर उसका सफल प्रसारण भी शुरू कर दिया। 15 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में यह केन्द्र स्थानीय लोगों का मनोरंजन कर रहा है। एकाएक विश्वास नहीं होता कि इस प्रकार के प्रसारण के लिए जहां कंपनियां लाखों रुपए खर्च करती हैं, इंजीनियर व तकनीशियनों को रखती हैं, वहीं यही काम एक मामूली पढ़ा-लिखा विद्युत मिस्त्री अपनी खोज के बूते कर रहा है। लेकिन अंग्रेजों से उधार ली हमारी अकादमिक व्यवस्था ऐसी है कि विज्ञान के प्रायोगिक व्यावहारिक रूप को बढ़ावा नहीं मिलता। लिहाजा प्रसारण कंपनियां तो लाखों-करोडों कमाकर बारे-न्यारे करने में लगी हैं, लेकिन मौलिक प्रतिभा के विकास के उपाय दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते हैं।

अमेरिका की प्रसिद्ध पत्रिका ’फोर्ब्स’ ने भी भारतीय ग्रामीण आविष्कारकों को नवप्रवर्तन की प्रेरणा का मंत्र मानते हुए स्थान दिया था। दरअसल इन लोगों ने आम लोगों की जरूरतों के अनुसार स्थानीय संसाधनों से सस्ते उपकरणों का आविष्कार कर समाज व विज्ञान के क्षेत्र में ऐतिहासिक काम किया है। फोर्ब्स की सूची में दर्ज मनसुख भाई जगनी ने मोटरसाइकिल आधारित ट्रेक्टर विकसित किया है। जिसकी कीमत महज 30,000 रुपए है। केवल दो लीटर पेट्रोल में यह ट्रेक्टर आधे घंटे के भीतर एक एकड़ भूमि को जोतने की क्षमता रखता है। लघु जोत वाले किसानों के लिए यह ट्रेक्टर अत्यंत उपयोगी है। नवाचार के इन प्रयोगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। इन्हीं देशज विज्ञानसम्मत टेक्नोलॉजी की मदद से हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर तो हो ही सकते हैं, किसान और ग्रामीण को स्वावलंबी बनाने की दिशा में भी कदम उठा सकते हैं। लेकिन देश के होनहार वैज्ञानिकों पर शैक्षिक अकुशलता का ठप्पा चस्पाकर नौकरशाही इनके प्रयोगों को मान्यता मिलने की राह में प्रमुख बाधा है। इसके लिए शिक्षा प्रणाली में भी समुचित बदलाव की जरूरत है। क्योंकि हमारे यहां पढ़ाई की प्रकृति ऐसी है कि उसमें खोजने-परखने, सवाल-जवाब करने और व्यवहार के स्तर पर मैदानी प्रयोग व विश्लेषण की छूट की बजाय तथ्यों, आंकड़ों और सूचनाओं की घुट्टी पिलाई जा रही है, जो वैज्ञानिक चेतना व दृष्टि विकसित करने में बड़ा रोड़ा है। ऐसे में जब विद्यार्थी विज्ञान की उच्च शिक्षा हासिल करने लायक होता है, तब तक रटने-रटाने का सिलसिला और अंग्रेजी में दक्षता ग्रहण कर लेने का दबाव, उसकी मौलिक कल्पनाशक्ति को कुंठित कर देता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिभाओं को अवसर देने की दृष्टि से स्टार्टअप, मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रम नवाचारियों की उद्यमिता विकास के लिए शुरू किए, लेकिन उपलब्धियां कहीं दिखाई नहीं दीं? उद्यमिता विकास के लिए कार्य-संस्कृति, अंतर-संरचना और कानून-व्यवस्था में बड़े बदलाव लाने होंगे, बल्कि युवाओं को आरक्षण आंदोलन और सरकारी या कंपनियों की नौकरी का मोह भी छोड़ना होगा। तभी युवा उद्यमियों की सोचने-विचारने की मेधा प्रखर होगी और किसी आविष्कार को साकार रूप देने के लिए कल्पना-शक्ति विकसित होगी। विज्ञान के प्रायोगिक स्तर पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को मानद शैक्षिक उपाधि से नवाजने व सीधे वैज्ञानिक संस्थानों से जोड़ने के कानूनी प्रावधान भी जरूरी हैं।

शैक्षिक अवसर की समानता से दूर ऐसे माहौल में उन बालकों को सबसे ज्यादा परेशानी से जूझना होता है, जो शिक्षित और मजबूत आर्थिक हैसियत वाले परिवारों से नहीं आते। समान शिक्षा का दावा करने वाले एक लोकतांत्रिक देश में यह एक गंभीर समस्या है, जिसके समाधान तलाशने की जरूरत है। अन्यथा हमारे देश में नौ सौ से अधिक वैज्ञानिक संस्थानों और देश के सभी विश्वविद्यालयों में विज्ञान व तकनीक के अनुसंधान का काम होता है, इसके बावजूद कोई भी संस्थान स्थानीय संसाधनों से ऊर्जा के सरल उपकरण बनाने का दावा करता दिखाई नहीं देता? हां, तकनीक हस्तांतरण के लिए कुछ देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से करीब बीस हजार ऐसे समझौते जरूर किए हैं, जो अनुसंधान के मौलिक व बहुआयामी प्रयासों को ठेंगा दिखाने वाले हैं। इसलिए अब शिक्षा को संस्थागत ढांचे और किताबी ज्ञान से भी उबारने की जरूरत है, जिससे देशज नवोन्मेषी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन व सम्मान मिल सके।

Tags: hindi vivekhindi vivek magazinesubject

प्रमोद भार्गव

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