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गिरिधर पर मोहित बिरहनी मीरा

गिरिधर पर मोहित बिरहनी मीरा

by अमोल पेडणेकर
in जून २०२१, विशेष, सामाजिक
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मीरा अत्यंत उदार मनोभावों से संपन्न भक्त थी। उसके काव्य में हठयोग साधना के संकेत मिलते हैं। भले उनके कृष्ण प्रतीकात्मक है, लेकिन कृष्ण के प्रति उनकी एकाग्रता, संसार से विमुखता, माया मोह से त्याग और आत्म चिंतन दर्शन की उत्कृष्ट लालसा है। उसने अपने समकालीन अनेक संतों एवं साधकों से सत्संग किया और उनके प्रभाव को ग्रहण करके अपने जीवन में उतारा है।

मीरा यानी भक्ति, मीरा यानी समर्पण, मीरा यानी अंतर्मन की गहरी आवाज़ से कृष्णा को पुकारना। अपनी भक्ति के माध्यम से परमात्मा को प्रसन्न करने वाले अनेक भक्तों ने भारत की परंपरा को समृद्ध किया हैं। पर मीरा की भक्ति हमें कुछ अलग ही भाती है। ऐसा कहा जाता है कि मीरा की भक्ति और पारदर्शिता ही उसको सबसे अलग करती है। मीरा कृष्णमय थी यह कोई नए सिरे से बताने वाली बात नहीं है। कभी भी, कहीं भी ना दिखने वाले परमात्मा पर स्वयं को भुला कर प्रेम करना, खुद को उसके हवाले कर देना बहुत कठिन है। इसलिए मीरा का कृष्ण के लिए समर्पण अनमोल है। मीरा के दोहे पढिए, उन्हें महसूस कीजिए। व्याकरण की दृष्टि से सोचने वाला साहित्यकार यदि मीरा के दोहों की विवेचना करने बैठे तो बहुत सारी गलतियां निकाल सकता है। लेकिन मीरा के दोहे इन नियमों में नहीं आते, वे तो उसके मन से निकले भाव हैं, काव्य हैं। इसी कारण मीरा के गीत, भजन, काव्य, दोहे आज भी सीधे मन से संवाद करते हैं। जब भी हम सुनते हैं कि ‘मीरा के प्रभु गिरिधर नागर’ या ‘मैं तो प्रेम की दीवानी’ तो आज भी ये शब्द दिल को गहराई तक छू लेते हैं। कृष्ण से असीमित प्रेम करने वाली मीरा की आकृति अपने आप नजर के सामने उभरने लगती है। मन में प्रश्न उठता है कैसी होगी मीरा? सुंदर, शांत, सुध-बुध खोई, कृष्णा में रमीं मीरा का व्यक्तित्व कैसे होगा?

प्रेम के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान है मीरा का कृष्ण प्रेम। उसके बाद प्रेम की कोई ऊंचाई नहीं। मीरा का कृष्ण प्रेम जितना ऊंचा है, उतना ही गहरा भी है। माधुर्य के सभी इंद्रधनुषी रंग उसकी कृष्ण भक्ति में प्रकट होते हैं। मीरा के किसी भी पद की कोई भी पंक्ति गुनगुनाए, हमारे मन में झंकार होने लगती है। जब स्वयं मीरा ने इस पदों को गाया होगा तो सोचो उसकी क्या स्थिति होगी। मीरा के पद आज भी इतने ताजा-तरीन लगते है कि आप उन्हें सुनकर दीवाने हुए बिना रह नहीं रहा जा सकता। मीरा के पद सीधे-साधे हैं। वह कोई कवियत्री नहीं है। कृष्ण के विरह में, कृष्ण की आस में और कृष्ण की प्यास में मीरा ने वे पद गाए हैं।

ऐसा क्या किया है मीरा ने कि इतने सालों बाद भी वह लोगों के हृदय में समाई है? इस प्रश्न पर जब हम विचार करते हैं उत्तर मिलता है कि मीरा का सब कुछ कृष्ण समर्पित है। उसकी भक्ति का मूल वहीं है, कुंजी वहीं है। मीरा ने अपनी पदों को जिस तन्मयता से रचा है, जैसे कृष्ण भक्ति में तल्लीन होकर वह नाची है, वैसा किस तपस्वी ने किया है?

मीरा को प्रभु, सांची दासी बनाओ….,
झूठे धंधों से मेरा फंदा छुड़ाओ…..

मीरा कहती है, मेरे तो गिरधर गोपाल! कृष्ण के बहुत सारे रुप हैं। यशोदा का कृष्ण, देवकी का कृष्ण, मथुरा का कृष्ण, वृंदावन का कृष्ण, द्रौपदी का कृष्ण, सुदामा का मित्र कृष्ण, अर्जुन का सखा कृष्ण, गोपियों का प्राण प्रिय कृष्ण। इतने सारे रूप? इन सभी रूपों में कृष्ण प्रकट हुए हैं। लेकिन मीरा को जो कृष्ण का रूप भाया, वह है गिरधर गोपाल। जिस कृष्ण ने पर्वत को अपनी उंगली पर उठाया है, जिन्होंने मटकियों से माखन चुराया है, जिन्होंने गोपियों की मटकियां फोडी हैं, जिन्होंने गोपियों के साथ रास रचाया है, जिसके हाथ में बांसुरी है, जिसके सिर पर मोर मुकुट है। ऐसा मनमोहक कृष्ण मीरा को भाया है।

अर्जुन को गीता सुनाने वाला कृष्ण, द्रौपदी का वस्त्रहरण रोकनेवाला कृष्ण, कौरवों का नाश करने वाला कृष्ण कभी मीरा को नहीं भाया है। युद्ध के मैदान में खड़े कृष्ण को मीरा ने कभी नहीं देखा। उसने तो वृंदावन की गलियों में रास रचाते, वृक्षों के नीचे बांसुरी बजाते कृष्ण के मनमोहक रूप से ही प्रेम किया। मीरा का कृष्ण गीता का कृष्ण नहीं है। मीरा को कृष्ण के पराक्रम में कोई रस नहीं है। मीरा को कृष्ण की आंखों में रस है, कृष्ण के शब्दों में नहीं। मीरा को कृष्ण की बांसुरी में रस है, उसके सिद्धांतों में नहीं। मीरा को कृष्ण ने क्या कहा, क्या किया उसकी कोई उत्सुकता नहीं है। अगर कृष्ण ने गीता नहीं कही होती, कौरवों का नाश नहीं किया होता तो भी मीरा कृष्ण के मनमोहक रूप पर ही गुनगुनाती। मीरा का मोह कृष्ण के व्यक्तित्व से है। मीरा का कृष्ण सीधा-साधा है। छोटे बच्चे की तरह, संगी-साथी की तरह, मित्र की तरह। ऐसा कृष्ण मीरा ने चुना है।

मीरा की कृष्ण को चुनने की कहानी भी बड़ी प्यारी है। मीरा छोटी थी जब उनके घर में एक साधु ठहरा था। उस साधु के पास कृष्ण की बड़ी प्यारी मूर्ति थी। सुबह साधु ने पूजा के लिए कृष्ण की मूर्ति निकाली। उस मूर्ति को देखते ही मीरा मचल गई। मीरा वह मूर्ति साधु से अपने लिए मांगने लगी पर साधु वह मूर्ति मीरा को देने के लिए तैयार नहीं हुआ। मीरा मूर्ति के लिए साधु से जिद करने लगी फिर भी साधु ने साफ इनकार कर दिया। मीरा की मां ने साधु को समझाया चाहे तो पैसे ले लीजिए पर यह प्रतिमा मीरा को दे दीजिए। तब साधु ने कहा ‘ये मेरे भगवान हैं, इन्हें मैं कैसे बेच सकता हूं? मूर्ति के बिना मैं नहीं रह सकता।’ इतना कह कर साधु दूसरे गांव चला गया। रात होने पर साधु सो गया। कहा जाता है तब कृष्ण उसके सपने में आए और साधु से कहने लगे कि‘आज तूने ठीक नहीं किया। जिसकी मूर्ति है, उसे दे दो।’ साधु ने कहा ‘मूर्ति मेरी है, उस लड़की की नहीं।’ सपने में आये कृष्ण ने कहा ‘वह मूर्ति उसी की है। हे साधु, तेरा मेरा संबंध औपचारिक है। तू और कोई मूर्ति ले लेना, उससे भी तेरा काम चल जाएगा। पर मीरा का संबंध मुझसे बहुत गहरा है। यह मूर्ति उसी की है, तू लौट कर उसे यह मूर्ति दे देना।’ दूसरे दिन सुबह होते-होते वह साधु मीरा के घर आया। मीरा पिछले पूरे दिन भूखी बैठी रही। कहती रही कि मूर्ति मिलेगी तो ही खाना खाऊंगी। घर वाले बड़े परेशान थे। यह सब देखकर साधु मीरा के पैरों में गिर पड़ा और कहने लगा, ‘मुझे क्षमा करो! अपने कृष्ण को संभालोे, वे तुम्हारे हैं।’ उसके बाद तो मीरा आनंद से भावविभोर होकर घंटो तक कृष्ण की मूर्ति को छाती से लगाकर नाचती रही।

एक दिन पड़ोस में किसी लड़की का विवाह था। 5 साल की मीरा अपने कृष्ण को भी साथ में लेकर वहां गई थी। उसी विवाह समारोह में मीरा ने अपनी मां से पूछा, ‘उसका विवाह हो रहा है, मेरा विवाह कब होगा?’ मीरा की मां ने मजाक में कह दिया ‘तेरा विवाह तो हो गया है न! इस कृष्ण कन्हैया से।’ मीरा ने मां की यह बात गांठ बांध ली। उसके बाद मीरा ने कृष्ण के अतिरिक्त किसी को पति के रूप में नहीं देखा। बस उसी क्षण से मीरा कृष्णमय हो गई।

मीरा की शादी बाल्यावस्था में चित्तौड़ के राणा सांगा के पुत्र भोजराज वीरा से हुई थी। कृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर चुकी मीरा को यह विवाह मन से पसंद नहीं था। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात ही एक लड़ाई में मीरा के पती भोजराज वीरगति को प्राप्त हुए। तभी से क्षणभंगुर बातों को छोड़कर मीरा ने शाश्वत सत्य की ओर अपना प्रवास शुरू किया। भोजराज की मृत्यु के बाद उसके दुख का रूपांतर भक्ति में हो गया। विरह से तप्त मन की अवस्था बयां करने वाले उसके भजन, दोहे इस बात के साक्षी हैं।

शुरू-शुरू में मीरा का कृष्ण प्रेम उसकी निजता तक सीमित था परंतु कृष्ण प्रेम में आनंदित होकर जब वह पथ पर नृत्य करने लगी, तब वह सामाजिक हो गया। परिवार वाले, समाज वाले मीरा के इस व्यवहार पर सवाल उठाने लगे। मीरा को उसके देवर ने जहर देकर मारने का प्रयास किया। एक बार तो प्रसाद में जहर मिलाकर मीरा को मारने का प्रयास किया गया। कहते हैं कि कृष्ण ने उस जहर को अमृत में रूपांतरित कर दिया। इसी तरह अनेक कथाएं बताई जाती है। कृष्ण की आराधना में मीरा किस प्रकार रम गई उसे भी पता नहीं चला। महाभारत काल में अवतार लिए कृष्ण की भक्ति में मीरा चार हजार साल बाद रमती है, ऐसी भक्ति पर उंगलियां उठाई जाती हैं, ऐसी भक्ति को कोसा जाता है। एक कलंक की दृष्टि से देखा जाता है। मीरा को जान से मारने के प्रयास होते हैं। इतना सब होने के बाद भी मीरा प्रसन्नता से मधुर हास्य के साथ कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहती है।

बाद में राजस्थान छोड़कर मीरा वृंदावन चली गई। उस समय रूप गोस्वामी उच्च कोटि के साधु माने जाते थे। मीरा ने उनसे आध्यात्मिक चर्चा करने की इच्छा व्यक्त की। ब्रह्मचारी होने के कारण रुप गोस्वामी जी ने मीरा को कहा कि वे किसी स्त्री से नहीं मिल सकते। मीरा ने जवाब में उनके लिए संदेश भेजा कि ‘केवल कृष्ण ही अखिल विश्व में पूर्ण पुरुष है।’ इसके बाद मीरा संपूर्ण उत्तर प्रदेश में कृष्ण प्रीती के भजन गाते हुए भ्रमण करती रही। उसने द्वारका में अपने जीवन के अंतिम क्षण बिताए। ऐसा कहा जाता है कि उनके देवर द्वारा मेवाड़ वापस लौट आने का निमंत्रण मीरा को मिला था। लौटने की आज्ञा लेने के लिए जब मीरा उसके गिरिधर के मंदिर में गई तो वहीं वह द्वारकाधीश की मूर्ति में विलीन हो गई।

साधु से कृष्ण की मूर्ति पाने के उस क्षण से कृष्ण की मूर्ति में विलीन हो जाने तक मीरा का संपूर्ण जीवन कृष्णमय रहा। मीरा के जीवन के संपूर्ण घटनाक्रम को जब हम देखते हैं तो राज परिवार में पैदा होने के पश्चात उसका जीवन अति संघर्षपूर्ण रहा है। राज परिवार की मर्यादा, कुल की मर्यादा, पारिवारिक संबंध, चारों ओर व्याप्त धार्मिक वातावरण, विविध संप्रदाय, पूजा, ज्ञान, वैराग्य, उपासना ,सत्संग, भक्ति, योग, विरह और दर्शन के दुर्गम मार्ग से होकर मीरा का जीवन गुजरा हुआ है। जीवन में आई समस्त परिस्थितियों के बीच से सारी शक्ति लगाकर मीरा को चलना पड़ा है। मीरा के जीवन संबंधी जो तथ्य विदित है उससे यह महसूस होता है कि मीरा को जन्म से कुशाग्र बुद्धि, चेतना और ज्ञान प्राप्त था। मीरा के पदों में उनकी अंतरवेदना, विरह भावना, भक्ति, अदम्य शक्ति और साहस को देखकर उनके महान व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है। मीरा ने उस समय समाज में व्याप्त तमाम बुराईयों, अंधविश्वासों का पुरजोर विरोध किया है। मीरा अत्यंत उदार मनोभावों से संपन्न भक्त थी। उसके काव्य में हठयोग साधना के संकेत मिलते हैं। भले उनके कृष्ण प्रतीकात्मक है, लेकिन कृष्ण के प्रति उनकी एकाग्रता, संसार से विमुखता, माया मोह से त्याग और आत्म चिंतन दर्शन की उत्कृष्ट लालसा है। उसने अपने समकालीन अनेक संतों एवं साधकों से सत्संग किया और उनके प्रभाव को ग्रहण करके अपने जीवन में उतारा है ।

मैं तो सांवरे के संग राखी
साजि सिंगार बाधि पग घुंघरू लोकलाज तज नाची।
गई कुमति, लई साधु की संगति, भगत रुप भई सांची।
गाय, गाय हरि के गुण निशदिन, काल व्याल मू बॉची।

मीरा कहती है, मैं तो कृष्ण के रंग में रंग गई हूं। वे मेरे पति है। अतः मैं विधवा नहीं सौभाग्यशालीनी हूं। इसलिए सभी श्रृंगार सजाकर, पैरों में घुंघरू बांधकर और लोक लाज को छोड़कर मैं नाचती हूं। साधुओं की संगति से मेरी बुद्धि शुद्ध हो गई है और मैं सच्ची भक्त बन गई हूं।

बसो मेरे नैन में नंदलाल।
मोहनी सूरत, सांवरी सूरत, नैना बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजत, उर वैजयंती माला।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल ।

यहां मीरा का उद्देश्य सिर्फ दृष्टांत देना नहीं है, बल्कि उनकी भक्ति और उनके व्यक्तित्व के अछूते प्रसंगों पर वह प्रकाश डालना चाहती है। वह कृष्ण को केवल पति नहीं मानती है बल्कि उसकी इसी रूप में उपासना भी करती है। मीरा अपने पति के गुणों का गान करती है। उसकी मूर्ति के सामने नाचती है। गाती है और मुग्ध होती है। कृष्ण से मिलने की उत्कट अभिलाषा व्यक्त करती है। अपने नैनों में कृष्ण को बसा लेना चाहती है, ताकि वे हर समय उनके ध्यान में प्रतिबिंबित होते रहें।

जब से मोहि नंदनंदन दृष्टि पड़यो भाई।
तब से परलोक लोक कछुना सुहाई।
मेरी उनकी प्रीति पुरानी उन बिन पल न रहाऊ।
जहां बैठाए तितली बैठा बेचे तो बिक जाऊं।

इस प्रकार मीरा का संपूर्ण काव्य उनकी कृष्ण भक्ति, कृष्ण भाव से भरे जीवन से जुड़ा हुआ है। मीरा के पदों में उनके जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव, दुख-सुख, व्यवहार क्रमश: निर्धारित हुए हैं। मीरा का काव्य उच्च कोटि की काव्य साधना है। वह प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग करती थीं। उनमें पूर्णतः कृष्ण समर्पण है। कविता करना उनका उद्देश्य नहीं था, बल्कि उनकी कृष्ण भक्ति कि सार्थकता के कारण भावनाएं अनायास ही काव्य धारा में बहने लगीं।

मीरा का गिरिधर गोपाल से सम्बंध अपनत्व का था। मीरा ने कृष्ण पर जो पद लिखे हैं उन पदों का हम जब अवलोकन करते हैं, तब हमें महसूस होता है कि उनको न कृष्ण के मुरली से शिकायत है, ना गोपियों से शिकायत है और न सखियों से शिकायत है। शिकायत है तो मात्र कृष्ण से कि वह आकर विरहिनी मीरा से मिलते क्यों नहीं? दर्शन देते क्यों नहीं?

प्रेम योगिनी मीरा की भक्ति के संबंध में कई भ्रांतियां हैं। मीरा कोई पगली, दीवानी भक्ति में डूबी स्त्री नहीं थी, उनका लालन-पालन स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर और जीवन की उठापटक से अवगत व्यक्ति के रूप में हुआ था। मीरा कृष्ण की अनन्य उपासक थी। वह प्रारंभ से कृष्ण को पति के रूप में मानती थी और अंत तक उसके आराध्य श्री कृष्ण मीरा के सर्वस्व रहे है।

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥

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