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भारतीयत्व की पहचान कराने वाला नेतृत्व

भारतीयत्व की पहचान कराने वाला नेतृत्व

by अमोल पेडणेकर
in जुलाई-२०२१, विशेष, सामाजिक
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लोकमान्य तिलक की उग्र राजनीति असफ़ल होने वाला रोमांटिज़्म नहीं थी। भारतीयों के मनों में भरे असंतोष को बाहर निकालने हेतु यह सब आवश्यक था, जनता को उन पर होने वाले ब्रिटिशों के अत्याचारों की जानकारी ठीक तरह से देने की आवश्यकता थी, जो लोकमान्य तिलक ने पूरी की। भारतीय जनता को इन अत्याचारों का प्रतिकार करने हेतु तैयार किया। शिव जयंती एवं गणेश उत्सव के माध्यम से भारतीयों में संघ शक्ति निर्माण की।

सन् 1857 के स्वातंत्र्य समर के असफ़ल होने के बाद देश में निराशा के बादल छा गए थे। उस घोर निराशा से भारतीयों को बाहर निकालने का महत् कार्य स्वामी विवेकानंद, योगी अरविंद, लोकमान्य तिलक जैसे महानतम व्यक्तियों ने किया। इनमें लोकमान्य तिलक का नाम सर्वप्रथम लेना होगा।

भारतीयत्व का मूल किनमें है? निश्चित ही वह आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीयता में है। भारत का निरालापन इन दोनों में निहित है। इन बातों की अनुभूति लोकमान्य तिलक को भी थी। पिछले 5 हज़ार वर्षों के इतिहास के सूक्ष्म अध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि इतने वर्षों में भारतीयों ने सतत् संघर्ष कर अपने भारतीयत्व की रक्षा की है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए लोकमान्य तिलक ने भारतीयों में जागरूकता फैलाने का काम किया। स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व करते हुए भी लोकमान्य तिलक ने भारतीय संस्कृति का पुनर्जीवन तथा संवर्धन किया है।
जब भारतीयों को अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने का प्रस्ताव पास हुआ था, उस समय मैकॉले ने अपने पिता को पत्र लिखकर सूचित किया था कि अंग्रेजी भाषा में भारतीयों को शिक्षा देने की मेरी योजना यदि सफ़ल होती है तो आगे चलकर शीघ्र ही भारत में धर्मपरिवर्तन की राह खुल जाएगी। केवल साम्राज्यवादी मनोवृति का मैकॉले ही नहीं अपितु भारत के कुछ विद्वान भी यह कहने लगे थे कि हिंदू धर्म मृतप्राय धर्म है, वह अधिक काल तक नहीं टिकेगा।

उस समय विदेश जाना, विदेशियों के साथ संबंध रखना इत्यादि पाप समझा जाता था। परदेशगमन निषिद्ध माने जाने के कारण यूरोप में बहने वाली आधुनिकता की हवा एवं अन्य घटनाओं से भारत अछूता था। इन सबका परिणाम भारतीय जनमानस पर दिखाई देता था। परन्तु, ऐसा भी नहीं था कि मैकॉले द्वारा की गई भविष्यवाणी बिल्कुल आधारहीन थी। 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष के बाद देश के सर्वसामान्य लोगों में यह नाकारात्मक भावना बलवती होती जा रही थी कि अंग्रेज अजेय हैं, उनसे मिलजुल कर रहने तथा उनके आचार-विचारों का अनुकरण करने से ही हमारा भाग्योदय हो सकता है। विद्वान भारतीयों के वैचारिक अध:पतन और अपने पराक्रमी इतिहास को भूलने के कारण हिंदू जनमानस अपना स्वाभिमान ही भूलता जा रहा था। परंतु उस समय भी ऐसा प्रतिपादन करने वाले जागृत लोग थे जो इस कल्पना को गलत ठहराते थे कि हिंदू धर्म मरणोन्मुख है या वह जल्दी ही समाप्त हो जाएगा। उनके मतानुसार हिंदुत्व स्वत: के मूलभूत सामर्थ्य पर वह टिकेगा एवं पुनर्जीवित होगा और उसके लिए आवश्यक ताकत व मार्गदर्शन भारतीयों के पास परंपरा से है। श्रेष्ठ व्यक्तियों की, संत-महंतों की, देवदूतों की अखंड मालिका इस भारतवर्ष में पुरातन काल से निर्मित होती आई है और भविष्य में भी वह निर्मित होती रहेगी। हिंदू तत्वज्ञान मरणासन्न अवस्था में है, ऐसा मानने वाले लोग बहुत बड़ी ग़लती कर रहे हैं। भारत में जन्में स्वामी विवेकानंद, योगी अरविंद, लोकमान्य तिलक जैसे महानुभावों ने इस विश्वास को सत्य कर दिखाया। मराठी काव्य सम्राट कुसुमाग्रज के शब्दों में किया गया वर्णन ‘कठोर व्यक्तित्व, निडर मराठी शान, अजेय सीना, करारा एवं प्रखर स्वभाव’ लोकमान्य तिलक के कार्यों का आंकलन करने के बाद यथार्थ प्रतीत होता है।

फल की आशा न करते हुए नि:स्वार्थ वृत्ति से कर्म करना यानि दुष्टों का प्रतिकार करना। गीता के इस संदेश की जीवित प्रतिमा थे लोकमान्य तिलक। ब्रिटिश साम्राज्य के साथ संघर्ष करते समय होने वाले अत्याचारों की परवाह उन्होंने नहीं की। किए हुए कर्मों को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्म करते रहें गीता के इस उपदेश को लोकमान्य तिलक ने अपने जीवन के अंत तक निभाया। भारतीय राजनीति और समाजनीति में सूर्य के समान प्रखरता से लोकमान्य तिलक की अंतरात्मा प्रकाशमान थी। उनके मन एवं उनके द्वारा किए गए कार्यों पर हिंदू धर्म ग्रंथों विशेषकर भगवद्गीता का विशेष प्रभाव था। गीता संन्यास मार्गी है, कर्म मार्गी है, भक्ति मार्गी है या कोई अन्य मार्गी है यह विवाद गीता के संदर्भ में उत्पन्न होते रहे हैं। इस पर अपना निश्चित मत प्रकट करने हेतु लोकमान्य तिलक ने जेल में गीता रहस्य की रचना की। उन्होंने गीता रहस्य में यह विवेचन किया कि ज्ञान-भक्ति से परिपूर्ण कर्मयोग ही गीता का सही तात्पर्य है। कर्म करने के पीछे व्यक्ति की मनोभूमिका क्या होनी चाहिए? धर्मानुसार कर्म करना चाहिए परंतु वह स्वत: के लिए न करते हुए भगवान का स्मरण करते हुए उसके द्वारा निर्मित विश्व के संवर्धन हेतु करना चाहिए, गीता यही बताती है। लोकमान्य तिलक ने अपने गीता रहस्य में यही बात प्रतिपादित की है। मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्म छोड़ना जरूरी नहीं है। यह गीता का निहितार्थ है। गीता रहस्य लिखते हुए लोकमान्य तिलक ने इस बात का समर्थन भी किया कि कर्म करते हुए व्यक्ति को कर्म के माध्यम से जन कल्याण और राष्ट्रीयता की जागृति का भी ध्यान रखना चाहिए।
लोकमान्य तिलक ने ब्रिटिशों के साथ अपने संघर्ष को गीता के तत्व ज्ञान के आधार पर नैतिक आधार दिया। ब्रिटिश सरकार से संघर्ष करते समय तिलक प्रखर संघर्षवादी थे। अपने राष्ट्रीय कार्य को, स्वतंत्रता की लड़ाई को उन्होंने गीता के कर्मयोग का आधार दिया। स्वहित त्याग कर राष्ट्रहित के मार्ग को लोकमान्य तिलक ने स्वीकार किया था। उनकी राजनीति एवं समाजनीति में भारतीय संस्कृति का अभिमान था। विदेशी साम्राज्यशाही द्वारा की गई देश की दीन हीन अवस्था का अनुभव करते समय उन्होंने अभिमानास्पद भारतीय संस्कृति के वैभव की कल्पना की। इस कल्पना के कारण राजनीति के माध्यम से भारतीय संस्कृति के वैभव को पुनर्स्थापित करने के लिए उसमें की विसंगतियां दूर करने के लिए लोकमान्य तिलक ने उग्र राजनीति का सहारा लिया। लोकमान्य तिलक की उग्र राजनीति असफ़ल होने वाला रोमांटिज़्म नहीं थी। भारतीयों के मनों में भरे असंतोष को बाहर निकालने हेतु यह सब आवश्यक था, जनता को उन पर होने वाले ब्रिटिशों के अत्याचारों की जानकारी ठीक तरह से देने की आवश्यकता थी, जो लोकमान्य तिलक ने पूरी की। भारतीय जनता को इन अत्याचारों का प्रतिकार करने हेतु तैयार किया। शिव जयंती एवं गणेश उत्सव के माध्यम से भारतीयों में संघ शक्ति निर्माण की। भारतीयों में प्रख़र देशभक्ति की ज्योति जला कर ब्रिटिश शासकों की मदांधता उतारने का काम अत्यंत धैर्य और हिम्मत से करने वाले लोकमान्य तिलक भारतीय जनता के मन में स्वतंत्रता की भावना का बीजारोपण करने वाले पहले नेता थे।

अंग्रेजी भाषा में ब्रिटिश सरकार से की गई याचना, पत्राचार और असेंबली में दिया गया भाषण यही अपना परम राष्ट्रीय कर्तव्य है, ऐसा मानने वाला भारतीय नेतृत्व लोकमान्य तिलक के नेतृत्व के सामने क्षूद्र लगने लगा। लोकमान्य तिलक का ज़ोर लोगों के असंतोष को आंदोलन में परिवर्तित करने की ओर था। गणेश उत्सव एवं शिव जयंती उत्सव मनाने हेतु उन्होंने लोगों को प्रोत्साहित एवं जागृत किया। इन उत्सवों के माध्यमों से राष्ट्रीयत्व एवं समाज को जागृत रखने का सतत् प्रयत्न लोकमान्य तिलक ने जारी रखा। इन उत्सवों के माध्यम से संगठन निर्माण तथा संगठन के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को मजबूत बनाने का उनका विचार एवं प्रयत्न था। अंग्रेज़ भारत में राज्य करने के विचार से नहीं आए थे। व्यापार करते हुए कालांतर में उन्होंने यहां की राजनीति एवं समाज का अध्ययन किया। राष्ट्र के प्रति दुर्बल भाव एवं संगठन वृत्ति का अभाव, भारतीयों की ये कमज़ोरियां उनकी नजरों से नहीं छूट सकी। इससे उन्हें ध्यान में आया कि हम अंग्रेज़ भले ही मुट्ठी भर हों फिर भी भारतीयों पर शासन कर सकते हैं। उसके बाद उन्होंने अपनी व्यापार वृत्ति छोड़कर राज्य स्थापना हेतु भारतीयों के साथ संघर्ष का मार्ग अपनाया। यह इतिहास लोकमान्य तिलक के ध्यान में आ गया था।

पत्रकारिता, शिवजयंती-गणेशोत्सव का प्रारंभ, गीता रहस्य सरीखे ग्रंथ का लेखन, भारतीयों में संगठन वृत्ति का जागरण इत्यादि से लोकमान्य तिलक ने भारतीय जनमानस को मथ दिया। मुज़फ्फरपुर में 30 अप्रैल, 1908 को बम विस्फोट हुआ। किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों के मुख्य लक्ष्य थे, परंतु वह बच गए और दो स्त्रियों की मृत्यु हो गई। इस घटना का संज्ञान लेते हुए ब्रिटिश समर्थक समाचार पत्रों ने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि भारत में देशभक्ति के कार्यक्रमों के माध्यम से अराजकता फैलाई जा रही है। इसी समय लोकमान्य तिलक ने ‘बम विस्फोट का रहस्य’ और ‘यह उपाय टिकाऊ नहीं है’ शीर्षक से संपादकीय लिखे। इन संपादकीयों के माध्यम से उन्होंने लिखा कि ब्रिटिश सरकार अपना आत्म परीक्षण करे कि भारतीयों से संवाद साधने में वे क्यों असफल रहे? इस संपादकीय के कारण ब्रिटिश सरकार नाराज़ हो गई और लोकमान्य तिलक को सरदार सभागृह से गिरफ्तार कर लिया गया। उसी समय पुणे में प्लेग की रोकथाम करते समय जनरल रेन्ड ने जनता पर जो अत्याचार किए थे, उसके कारण चाफेकर बंधुओं ने उसकी हत्या कर दी। इस हत्या के पीछे दैनिक केसरी में लोकमान्य तिलक द्वारा लिखे गए उग्र लेख जिम्मेदार हैं, ऐसा आरोप लगाकर ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्रद्रोह की धारा लगाकर लोकमान्य तिलक के विरुद्ध मुकद्दमा दायर किया। उसमें उन्हें दोषी करार देकर आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। इस मुकदमे के कारण संपूर्ण देश का ध्यान लोकमान्य तिलक की ओर आकृष्ट हुआ। लोकमान्य तिलक को मांडले जेल में भेजा गया। लोकमान्य तिलक का मांडले की जेल का जीवन एक साधना, एक तपस्या थी, ऐसा कहा जा सकता है। इस कष्टदायी समय का फल था उनके द्वारा रचित गीता रहस्य ग्रंथ! भगवद् गीता पर लिखा गया भाष्य ग्रंथ! उम्र के 16वें वर्ष में पिताजी की बीमारी के दौरान उन्हें गीता पढ़कर सुनाते हुए, श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से मनुष्य को क्या निश्चित संदेश देना चाहते हैं इसका अध्ययन उन्होंने शुरू किया। मांडले के कारागृह में साढ़े तीन माह में उन्होंने लोगों को मार्गदर्शन देने वाला यह ग्रंथ लिख कर पूर्ण किया। लोकमान्य तिलक एक क्षण भी अपने लिए नहीं जिए। भारतीय स्वतंत्रता के विचारों से अभिभूत लोकमान्य तिलक ने अपने को इस कार्य के लिए तन-मन-धन से समर्पित कर दिया। उनके हिस्से आई तीन जेल यात्राएं, उनके द्वारा भोगे गए शारीरिक क्लेश, स्वतंत्रता प्राप्ति के परम ध्येय की प्राप्ति हेतु किए गए उनके कार्यों के प्रमाण हैं।

लोकमान्य तिलक द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में स्वीकार किए गए संघर्ष की आज समीक्षा होना आवश्यक है। लोकमान्य तिलक के शतकोत्तर रौप्य महोत्सव का वर्ष अभी-अभी समाप्त हुआ है। विचार, नीति एवं कृति इन तीनों मोर्चों पर आज नए भारत का नया प्रारूप हम निश्चित कर रहे हैं। क्या ऐसे समय राष्ट्र एवं समाज की दृष्टि से मार्गदर्शक के रुप में लोकमान्य तिलक के विचारों का सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता है? केवल गणेश उत्सव एवं शिव जयंती उत्सवों के उद्गाता के रूप में लोकमान्य तिलक को याद करना उनके साथ अन्याय होगा, अमर्यादित होगा। अपने स्वराज्य की रक्षा करने में और गंवाई हुई स्वतंत्रता पुनः प्राप्त करने में असमर्थ भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता प्राप्ति के ध्येय की ज्योति जला कर उस ज्योति से दावानल प्रज्वलित करने वाले लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जनता में असंतोष के जनक थे। नए भारत की रचना करते समय लोकमान्य तिलक सरीखे समर्पित राष्ट्रभक्त के विचारों का आंकलन करना बहुत महत्वपूर्ण है। लोकमान्य तिलक द्वारा अंगीकृत राष्ट्रीय आदर्श और उनके आध्यात्मिक विचार क्या आज भी सार्थक हैं? यह प्रश्न पूछना ‘मनुष्य के लिए सूर्य प्रकाश आवश्यक है क्या? पूछने जैसा है। वर्तमान काल में मनुष्य अपनी आंतरिक दैवी शक्ति भूल रहा है। अपने द्वारा निर्मित जाति, प्रादेशिकता, पंथभेद, अराष्ट्रीयता सरीखे दुर्गुणों के वलय से समाज का कुछ वर्ग अपने आप को आवेष्ठित कर रहा है। ऐसे समय में लोकमान्य तिलक सरीखे प्रेरक व्यक्तित्व और उनके विचारों की समाज को निश्चित ही आवश्यकता है। आज पुनः राष्ट्रवाद का विरोध करने वाले समाज द्रोही लोग एकत्रित हो रहे हैं। धार्मिक संघर्षों की आग को फैलाया जा रहा है। धर्म के आधार पर भ्रम निर्माण किए जा रहे हैं। ऐसे समय में लोकमान्य तिलक के अध्यात्म और राष्ट्रीयता विषयक तत्वज्ञान का अधिकाधिक महत्व है।
लोकमान्य तिलक ने अपने मन में भारतीय स्वतंत्रता का ही एकमात्र सपना संजोया। उस स्वप्नपूर्ति हेतु ही उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। लोकमान्य तिलक ने अपने स्वप्न के माध्यम से एक ऐसे भारतीय समाज की स्थापना की जिसे अपनी शक्ति की जानकारी थी। भारतीय समाज में निहित अधिष्ठान और समाज की अंतरात्मा में निहित संगठन वृत्ति की शक्ति की जानकारी समाज को कराई। इस शक्ति का उपयोग समाज के कल्याण, देश को स्वतंत्र करने हेतु किस प्रकार किया जा सकता है इसकी अनुभूति उन्होंने समाज को कराई। आध्यात्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कार्य यह परस्पर विरोधी न होकर भारत की स्वतंत्रता हेतु परस्पर पूरक किस प्रकार है यह उन्होंने समाज को दृढ़ता से बताया। इन सबका एकत्रित परिणाम यह हुआ कि लोकमान्य तिलक द्वारा भारतीयों के मन में जो दावानल प्रज्वलित किया गया था वह ब्रिटिशों को इस देश से बाहर निकालते तक सतत् धधकता रहा।

भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का प्रारंभ करते समय मैकॉले के मन में जो उद्देश्य थे, लोकमान्य तिलक ने अपने कार्यों से उसके ठीकरे-ठीकरे कर दिए। इसी के साथ सन् 1857 के स्वातंत्र्य समर में हारने के बाद जो समाज आत्मविश्वास गंवा बैठा था, उसके मन में विश्वास की एक नई ज्योति जागृत की। स्वदेशी एवं स्वराज्य के महत्व को भारतीय समाज के गले उतारने में वे सफ़ल रहे। भारत को स्वतंत्रता मिलने तक असंतोष एवं बहिष्कार का मार्ग उन्होंने भारतीयों के सामने निर्माण किया। इन सब का एकत्रित परिणाम यह था कि भारत को मिली स्वतंत्रता। अट्ठारह सौ सत्तावन की पराजय के बाद भारतीयों के मन में आत्मचिंतन की प्रक्रिया निर्माण करने में लोकमान्य तिलक का महत्वपूर्ण योगदान है। इसी से समाज मे सामाजिक, बौद्धिक और राजनैतिक स्तर पर बड़े परिवर्तन होते गए। भारतीयों में एक प्रबोधन पर्व की शुरुआत हुई। हिंदू धर्म मरणोन्मुख है या वह जल्दी ही नष्ट हो जाएगा, इस भारत विरोधी प्रचार के बलि लोग हो रहे थे, ऐसे समय अपने मूलभूत सामर्थ्य पर भारत चिरंजीवी है, वह पुनर्जीवित होने वाला है, इसके लिए लगने वाली ताक़त तथा मार्गदर्शन और देवदूतों (संत-महात्मा) की अखंड मालिका इस देश में सनातन समय से निर्माण होती आ रही है। यह आज भी है और भविष्य में भी निर्माण होगी। इस अधिष्ठान की अनुभूति और विश्वास भारतीयों को लोकमान्य तिलक के कार्यों से हो गया है। आज भी देश के सामने अनेक प्रश्न मुंह बाए खड़े हैं। भारत न केवल स्वयं के सामर्थ्य पर टिकेगा वरन् विश्व गुरु बनने की राह पर आगे बढ़ेगा, यह हम सभी को ध्यान में रखना है। इस विश्वास को पुनः प्रस्थापित करने का श्रेय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को ही है।

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