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मौसम है शायराना…

मौसम है शायराना…

by संगीता जोशी
in अगस्त २०१८, साहित्य
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चाहे बारिश कितना भी तूफान मचा दें; फिर भी बारिश का हर बरस इंतजार होता है। क्योंकि, बारिश है तो जीवन है। जीवन के विविध रंग है। प्यार-मुहब्बत, गीले-शिकवे, बचपन-यौवन, यहां तक कि बूढ़ापा भी बारिश है। देखिए, शायरों ने इसे इस अंदाज में अपनी शायरी में बांधा है कि दिल बाग-बाग-महाराजबाग हो जाता है।

 

मौ सम है आशिकाना,

ऐ दिल कहीं से उनको,

ऐसे में ढूंढ लाना।

ऐसा आशिकाना मौसम हो, तो अकेले में मजा नहीं आता। सबसे आशिकाना मौसम दूसरा कौनसा हो सकता है? बारिश का मौसम ही हम सबको बहुत प्यारा लगता है। क्योंकि, वह रिमझिम के तराने लेकर आता है; किसी की याद दिलाता है। साथ-साथ रहने को दिल चाहता है। बिरहन अपने प्रेमी को वापस घर बुलाती है; उसके बगैर घर सूना-सूना सा लगता है; बिजली चमकती है तो डर लगता है, यह बस एक बहाना है, प्रेमी की बाहों में जाने का!

बिरहन कहती है–

घर आ जा, घिर आये बदरा सांवरिया;

मोरा जिया धकधक रे चमके बिजुरिया।

सूना सूना घर मोहे डंसने को आए रे;

खिड़की पे बैठे बैठे सारी रैन जाए रे

टिप टिप सुनत मैं तो भई रे बावरिया॥

ये सब तो हुए जवानी के किस्से, और फिल्मी कहानियां। शायर को जब फिल्म के लिए लिखना होता है तो वह वैसे ही गाने लिखता है, जो सिच्युएशन की मांग हो। लेकिन जब वह अपने लिए लिखता है तो वह बारिश के मौसम को अलग-अलग तरीके से अपनी शायरी में गूंथता है।

सुदर्शन फाकिर साहब ने कहा है–

ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो

भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी

मगर मुझ को लौटा दो, बचपन का सावन

वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी!

देखिए, शायर अपनी जवानी भी वापस देने को तैयार है। बदले में वह बचपन, वह सावन और कागज की कश्ती मांग रहा है। वे सुनहरे दिन एक बार चले जाते हैं तो फिर कभी नहीं आते। दिल बचपन को तरसता ही रह जाता है।

अच्छे अच्छे शायरों ने बारिश के बारे में अच्छे शेर लिखे हैं।  एक शेर यह है-

मैं कि कागज की एक कश्ती हूं

पहली बारिश ही आखिरी है मुझे।

              –तहजीब हाफी

सुदर्शन फाकिर ने जो कश्ती बचपन में पानी में छोड़ी थी, उस कश्ती की तकदीर कैसी है? शायरा तहजीब हाफी ने कश्ती को ‘परसॉनिफाय’ करके उसकी तकलीफ कहने की कोशिश की है। उस कश्ती के लिए तो पहली बारिश ही आखरी होगी, किसी ने इस बारे में सोचा है? कभी नहीं। शायर गुलजार साहब की नज्म में उन्होंने दुख जताया है कि बच्चों ने एक कागज पर कितना जुल्म ढाया है। जब तक वह सिर्फ कागज था तब वह मजे में था। लेकिन जब बच्चे ने उसे कश्ती का रूप दिया तो उस पर जिम्मेदारी आ गई किनारा ढूंढने की। प्रवाह के साथ बहते रहने की। न अपनी मर्जी की दिशा, न सागर की मंजिल पाने की कोई उम्मीद! किनारा भी शायद ही मिलता। आखिर डूबने के सिवा कुछ अलग भविष्य ही नहीं!! बारिश ऐसे जुल्म भी ढा सकती है।

तो, बारिश का हम ऐसा उदास पहलू भी देख सकते हैं।  पाकिस्तान की शायरां परवीन शाकिर कहती हैं-

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हुए

मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक हुए?

भारी बारिश में पेड़-पौधों की हालत बहुत बुरी होती है। उन्हें बारिश के सामने झुकना पड़ता है; ऊपर से टहनियां टूटती हैं; फूलों की पंखुडियां गिर जाती हैं; एक तरह उनकी हत्त्या हो जाती है। और मौसम के हाथ, खून से नहीं, लेकिन पानी से भीग जाते हैं। जो लोग दिल से बहुत संवेदनशील होते हैं उन्हें जब प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, तब उनकी आशा-आकांक्षाओं की भी ऐसी ही मृत्यु होती है, यही भाव इस शेर में व्यक्त होता है।

कोई क्या जाने हम भरी बरसात में

नज्रे–आतिश अपनी ही दिल का नगर देखा किए।

                   –फरहात शहजाद

यह शेर गौर से पढ़ने के बाद पता चलता है, कि दिल का नगर किसी ने जलाया नहीं; बल्कि प्रेमी ने खुद वह नगर अग्नि की ज्वाला में अर्पित किया है, भेंट चढ़ाया है। दिल में दुख के जो शोले भड़क उठे उसी में दिल खुद जल गया। बाहर की बरसात उसे न बुझा सकी, न बचा सकी।

जोरों की बरसात में दिल का नगर तो जल ही गया, पर–

हर पत्ती बोझिल होके गिरी,

सब शाखें झुककर टूट गईं

उस बारिश से ही फसल उजड़ी

जिस बारिश से तैयार हुई।

         –महशर बदायूनी

पीले न होते हुए भी, पत्ते भारी होकर वृक्ष से गिर गए; शाखें झुककर टूट गईं। झुककर याने नम्रता से।

शाखों ने जान लिया था कि इस तरह की बारिश के सामने उनकी एक नहीं चलनेवाली। इसलिए नम्रता से शरणागत हो गईं। जिस बारिश ने फसल उगाई थी उसी ने उसका नाश कर दिया।

एक तरफ वह चित्र था और दूसरी तरफ क्या हाल है? देखिए-

बादल को क्या खबर कि बारिश की चाह में

कितने बुलंद–ओ–बाला शजर खाक हो गए।

                   –परवीन शाकिर

यहां शजर याने पेड़ बारिश को तरस रहे हैं। बादलों का इंतजार करते-करते, इतनी गर्मी झेलनी पड़ी कि ऊंचे-ऊंचे वृक्ष  जलकर राख हो गए। सूख गए। उनमें जान ही बाकी न रही। बारिश का मतलब प्यार भी लिया जा सकता है। प्यार, मोहब्बत बहुत कम लोगों को मिलती है। जो प्यार की वृष्टि करेगा ऐसा बादल थोड़े ही लोगों के जीवन में आता है। जिसके हिस्से में सूखा बादल आएगा, वह तो प्यार मोहब्बत से वंचित ही रह जाएगा। अंततः उसका जीवन जल जाएगा।

कभी-कभी व्यक्तिगत नुकसान की जगह, सामूहिक नुकसान का भी कारण बन जाती है यह बरसात। जो बरसात दयादृष्टि से धान पैदा करती है वह अतिवृष्टि से स्वयं उगाए हुए धान को नष्ट कर देती है। इतना ही नहीं, उसकी गिरफ्त में जो कुछ आता है, वह सब कुछ बहा ले जाती है और मानवी जीवन तहस-नहस कर देती है।

दरिया चढ़ा तो पानी नशेबों में भर गया

अब के भी बारिशों में हमारा ही घर गया।

                   –इजलाल हाफी

शेर में दो शब्द आए हैं। ‘अबके भी’। मतलब है, इस बरस भी। यानी इन इलाकों में हर बरस पानी भर जाता है; और हर साल उन्हीं लोगों के घर उजड़ जाते हैं। यहां ‘भी’ शब्द का प्रयोग दूसरे मिसरे में बड़ा अर्थ भर देता है। शेर ने हमें यह भी सूचित कर दिया है, कि वहां की सरकार, उनके हालात सुधारने में नाकामयाब रही है। इसीलिए हर बरस वही तमाशा होता आ रहा है।

ऐसी कितनी भी खबरें आएं कि बारिश ने तहलका मचा रखा है; फिर भी अगले बरस हम उसी बारिश का उत्सुकता से इंतजार करते हैं। क्योंकि यही बारिश हमारा जीवन है। तकनीकी सुधार के बावजूद हम अब तक सृष्टि की कृपा पर ही निर्भर हैं। देश अमीर भी हो, तब भी बरसात की अहमियत कम नहीं हो सकती। अगर ऐसा है तो सृष्टि के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए। शायर यही बात कहता है-

दो अश्क जाने किसलिये पलकों पर आकर टिक गए

अल्ताफ की बारिश तेरी, इकराम का दरिया तेरा!

                         –इब्ने इन्शां

दो आंसू शायर की पलकों पर क्यों टिके हैं? भगवान का धन्यवाद ज्ञापन करने की इन आंसुओं की भूमिका है। यहां बारिश है ‘उस’ के करम की, दया और करुणा की। उसी की कृपा से दरिया याने नदी बहती है, उसके उपहारों की नदी। नदियों के आधार से ही तो जीवन अंकुरता है; संस्कृति फलती-फूलती है। इब्ने इन्शां का यह शेर अंधश्रद्धा फैलानेवाला बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। जो चीज आदमी के बस में नहीं, उसे चलानेवाली कोई तो शक्ति जरूर है। चाहे उसे कोई सृष्टि कहे, प्रकृति कहे, या भगवान कहे। वह शक्ति हमारी कृतज्ञता की हकदार है, यह तो मानना पड़ेगा!

चलिए, अब अंत में कुछ प्यार भरे या रोमांटिक शेर पढ़ कर खुश होते हैं।

शायर अमजद इस्लाम ‘अमजद’ कहते हैं–

पेड़ों की तरह हुस्न की बारिश में नहा लूं

बादल की तरह घिर आओ, तुम भी किसी दिन।

जैसे ये पेड़ बारिश में नहाते हैं उसी तरह मैं तुम्हारे सौंदर्य की वर्षा में नहाना चाहता हूं। तुम बादल की तरह घिर के आ जाओ। शायर ‘भीगना’ नहीं कह रहा है; वह तो नहाना चाहता है। कल्पना कीजिए, कि आनेवाला बादल पानी से (प्यार से) कितना भरपूर होना चाहिए। तभी शायर की प्यास बुझ सकती है।

तुम सामने बैठे हो तो है कैफ की बारिश

वो दिन भी थे जब आग बरसती थी घटा।

          –राणा अकबराबादी

तुम मेरे सामने हो तो आनंद है, मस्ती है, तल्लीनता है। आनंद की ये बारिश तुम्हारे अस्तित्व से हो रही है। लेकिन मैं उन दिनों को भी नहीं भूला, जब बादल मानो आग बरसते लगते थे; क्योंकि तुम साथ नहीं थीं।

अमजद की प्रेमिका आई नहीं थी; वह उसे बुला रहा था। दूसरे शेर में प्रेमिका शायर के सामने है; अब तीसरा शेर देखिए शायर क्या कह रहा है-

साथ बारिश में लिए फिरते हो उसको ‘अंजुम’

तुमने इस शहर में क्या आग लगानी है, भाई।

                   -‘अंजुम’ सलीमी 

अंजुम साहब अपनी प्रेमिका को लेकर बारिश में घूमने निकले हैं। उसका हुस्न ऐसा है कि जन्नत की याद आए। उसकी भीगी हुई सुंदरता को देखकर देखनेवाले जरूर जलेंगे। और, शहर के इतने लोग जलेंगे तो शहर में आग तो लगनेवाली ही है। इसलिए अंजुम का दोस्त (खुद अंजुम) उसे सलाह दे रहा है कि भाई, क्या इरादा है? घर पर ही बैठे रहो न! यह बारिश मामूली बारिश नहीं, मुंबई की हैा

Tags: bibliophilebookbook loverbookwormboolshindi vivekhindi vivek magazinepoemspoetpoetrystorieswriter

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