तानसेन न सही कानसेन तो बनें

आप जो सुन रहे हैं उसकी तरंगें, उसके बोल, उसके वाद्यों की झंकारें अगर आपके मन मस्तिष्क तक नहीं पहुंचतीं और आपको आल्हादित नहीं करतीं तो आपका संगीत सुनना व्यर्थ होगा। अत: अच्छा संगीत सुनें, तानसेन ना सही पर कानसेन जरूर बनें।

फिल्म संगीत पर अभी तक कई आलेख लिखे जा चुके हैं। कई विद्वानों, जानकारों ने अपनी-अपनी शैली में फिल्म संगीत के माधुर्य को शब्दों में प्रस्तुत किया है। पिछले कुछ दिनों में मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जिनका सम्बंध अनायास ही फिल्म संगीत से जुड गया है। मुझे संगीत की बहुत समझ है ऐसी बात बिल्कुल नहीं है परंतु फिल्म संगीत प्रेमी अवश्य हूं। अच्छे गीत सुनना, गुनगुनाना, गीतों के साथ बजने वाले वाद्यों का अभ्यास करना, गायक या गायिका किन शब्दों पर कितना जोर दे रहे हैं, उनके स्वर का उतार-चढ़ाव कहां है, इन सब बातों का निरीक्षण करना मुझे अच्छा लगता है। कई बार किसी गाने के संदर्भ में हो रही चर्चा के दौरान साथ बैठे लोग मुझसे कहते भी हैं “तुम शांति से गाना सुनो, उसका ऑपरेशन मत करो।” पर मेरे कान या कहूं मेरा मन बाज नहीं आता।

हमारे यहां संगीत को शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, सुगम संगीत आदि में वर्गीकृत किया गया है। इसके अलावा फिल्म संगीत एक ऐसा सागर है जो इन सभी प्रकार की संगीत नदियों का संगम है। भारतीय फिल्म संगीत में सभी प्रकार के संगीत की झलक मिलती है या यों कहें कि सभी प्रकार के संगीत ने फिल्म संगीत को समृद्ध किया है। पहली बोलती फिल्म आलमआरा के गाने ‘दे दे खुदा के नाम पर‘ से शुरू हुआ फिल्म संगीत का यह सफर आज तक जारी है। फिल्म संगीत का यह खजाना इतना बड़ा है कि इसे दशकों के आधार पर बांटा जाता है। हर दशक के फिल्म संगीत की अपनी विशेषता रही है।

संगीतकारों ने हर दशक में श्रोताओं को कुछ अलग देने का प्रयास किया। शंकर-जयकिशन मैलोडी किंग कहलाए तो आर.डी. बर्मन ने भारतीय संगीत में पाश्चात्य संगीत मिला कर फ्यूजन तैयार किया। ओ.पी.नैयर ने घोडे की टापों को संगीत में ढ़ाला और उस समय ‘फीमेल प्लेबैक सिंगर‘ का पर्याय बन चुकी लता मंगेशकर के साथ काम किए बिना भी एक से बढ़ कर एक गाने दिए। मदन मोहन के संगीत ने तो उनकी मृत्यु के बाद भी वीर-जारा को अमर कर दिया। अब तो संगीतकारों की बाढ़ सी आ गई है। पहले के ‘एक फिल्म एक संगीतकार’ के चलन को तोड कर आजकल एक ही फिल्म के अलग-अलग गाने अलग-अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध किए जा रहे हैं। आइटम सांग और रैप सांग का भारतीय फिल्मों में समावेश आजकल के गानों को कुछ ‘हटेला’ बना देता है।

कुछ दिन पूर्व मेरी आठ साल की बिटिया हेडफोन लगाए, कंघे को माईक की तरह थामे ऐसी ऐक्टिंग कर रही थी जैसे रैप साँग गाते समय अक्सर गायक करते हैं। कभी सिर झटकना, कभी हाथ तो कभी कंधे। वह गा नहीं रही थी इसलिए मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वह कौन सा गाना सुन रही है। जब मैंने उससे पूछा कि तुम क्या सुन रही थी? तो जोर से चिल्लाकर बोली-

“अपना टाइम आएगा”

कौन बोला मुझसे न हो पाएगा?

कौन बोला? कौन बोला?

अपना टाइम आएगा॥।

गलीबॉय फिल्म के इस गाने ने मेरी बेटी की तरह ही आज बच्चों और युवाओं पर जादू कर रखा है। गाने के बोल ‘अपना टाइम आएगा’ तो इतने ‘फेमस’ हो चुके हैं कि कई लोग इसकी चेस्ट प्रिंट टी-शर्ट, टोपी  पहने हुए दिखते हैं या बाइक पर ‘अपना टाइम आएगा’ के स्टिकर चिपका कर घूमते दिखते हैं। दरअसल ‘अपना टाइम आएगा’ यह केवल गाना नहीं रहा वरन ‘एटिट्यूड’ बन गया है। कई लोगों को गाने के बोल फूहड़ लग सकते हैं, गाना संगीत विहीन लग सकता है, परंतु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गाना यथार्थ के बहुत करीब और फिल्म में दर्शाई गई सामाजिक परिस्थिति को सीधा निशाना बनाने वाला है। सीधे शब्दों में कहें तो बिना कपड़े पहने किसी आदमी को ‘निर्वस्त्र’ कहना सुहाता है परंतु सीधे-सीधे ‘नंगा’ कह देना फूहड़ता है, हालांकि उद्देश्य दोनों का एक ही है। ऐसा ही कुछ इस गाने के साथ भी है।

बेटी से पूछने पर कि ‘तुम्हें यह गाना क्यों पसंद आया?’ उसका बालसुलभ जवाब था ‘सुनने में मस्त लगता है, डांस करने की इच्छा होने लगती है।’ उसका जवाब सही भी था। चूंकि इस गाने के बोल रोज की भाषा में प्रयोग होने वाले शब्द ही हैं और स्वरबद्धता जैसी कोई चीज भी नहीं अत: जल्दी याद हो जाता है। यह बात अलग है कि गाने का अर्थ आठ साल के बच्चे को समझने जैसा नहीं है, परंतु धुन तो शरीर के अंगों को झटकने के लिए उकसा ही देती है। इस वाकये ने मेरी ऑपरेशन करने की आदत को फिर एक बार चाबी दे दी। मैंने भी वह गाना इसलिए दोबारा-तिबारा सुना कि बेटी को उसमें क्या पसंद आया होगा? परंतु उसके बालसुलभ उत्तर के अलावा अन्य कोई उत्तर मुझे भी नहीं सूझा।

एक और ऐसा ही ‘हटेला सा’ गाना कुछ दिन पहले सुना। नौजवानों को यह गाना इसलिए ही पसंद आता है, क्योंकि यह उनके मन के भव प्रदर्शित करता है। यह उम्र ही कुछ नया करने की, गलतियां करने की और उनसे सीखने की होती है। इसलिए आज का युवा तो बिंदास अंदाज में गाता है ‘यही उमर है, कर ले रे गलती से मिस्टेक।’

अमूमन गाने वही पसंद किए जाते हैं जो सीधे दिल को छूते हैं। सुनने वाले के मन में उस वक्त क्या भाव हैं, उसका मूड कैसा है यह निर्धारित करता है कि उसे कौन सा गाना पसंद आएगा। अगर दिल खुश है तो पंजाबी ठेके वाले, फास्ट रिदम  वाले गाने पसंद आते हैं और अगर मूड खराब है तो दर्द भरे या शांत स्वर के गाने पसंद आते हैं। चूंकि बच्चे सामान्यत: खुश ही होते हैं, अत: उन्हें फास्ट रिदम के ही गाने पसंद आते हैं परंतु जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, रिदम के अलावा अन्य बातें समझने लगती हैं, आस-पास के वातावरण का मन पर प्रभाव पडने लगता है, तो पसंद बदलती जाती है। मेरी ही तरह शायद आपने भी महसूस किया होगा कि कभी-कभी तो पहले कई बार सुना हुआ गाना भी अचानक किसी दिन बहुत अच्छा लगता है। उस दिन उसके शब्द मन की गहराइयों में उतर जाते हैं और धुन अपने आप मस्तिष्क में बजने लगती है, बार-बार वही गाना सुनने का मन करता है। परंतु कभी-कभी हमेशा पसंद आने वाला गीत भी उबाऊ लगता है। यह सब मानव मन की तत्कालीन संवेदनाओं पर ही निर्भर करता है।

गर्मी से तप्त जमीन पर जब पहली बारिश की फुहारें पड़ती हैं तो मिट्टी से उठने वाली सौंधी खुशबू मन मोह लेती है। ऐसी ही एक तेज बारिश से भीगी शाम को घर में एकांत था, मेरे हाथ में कॉफी का मग था और जगजीत सिंह गा रहे थे “होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो”। अहा! क्या शाम थी। दो अंतरों के बीच में बजने वाले पियानो की धुन भी उस एकांत को चीर कर बरबस मेरा ध्यान आकर्षित कर गई।

कुछ दिन पूर्व मेरी बचपन की सहेली की बरसी थी। पिछले एक साल में मन जैसे-तैसे यह मानने को तैयार हुआ था कि वह अब इस दुनिया में नहीं है। उस दिन उसकी यादों से मन भारी था, आंखें नम थीं और अचानक किनारा फिल्म का ’‘जाने क्या सोचकर नहीं गुजरा….” गीत एफएम पर सुनाई दिया। एफएम तो एक बार वह गाना सुना कर आगे बढ़ गया परंतु मेरा मन वहीं अटक गया। ऑफिस से घर तक के सफर में मैंने कम से कम 9-10 बार वह गीत सुना। बचपन से आज तक कितनी ही बार गीत सुना है, परंतु उस दिन जितना कभी पसंद नहीं आया।

नवरात्रि में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान सोसायटी के लोगों को अंताक्षरी खिलाने की जिम्मेदारी मुझ पर थी। गानों के साउंड ट्रेक, वीडियो, फिल्म के डायलॉग आदि देख कर खेलने वालों को गाने पहचानने थे। खेल के लिए गाने चुनने की पूरी प्रक्रिया फिल्मी गानों के सागर में गोते लगाने जैसी थी। 60 के दशक से लेकर 2019 तक के सभी फिल्मी गानों में से कुल मिला कर 40 गाने चुनने थे, वे भी ऐसे जिन्हें पहचान ना न अधिक कठिन हो और न अधिक सरल। इतनी बडी कालावधि के गानों को सुनने के दौरान यह ध्यान में आया कि जैसे-जैसे समाज बदला है फिल्म संगीत में भी बदलाव आया है। एक ओर जहां ‘सरस्वतीचंद्र’ की नायिका अपने प्रेमी के सामने अपने हालात छुपाने और ससुराल की इज्जत बचाने के लिए ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस, पिया का घर प्यारा लगे‘ गाती है, वहीं आज की नायिका गाती है ‘मेरे सैंया जी से आज मैंने ब्रेकअप कर लिया’। सुन कर आश्चर्य होता है कि क्या रिश्ता टूटने का भी आनंद मनाया जा रहा है? आज भी भारतीय स्त्रियों को अगर किसी भी वजह से अपना रिश्ता तोड़ना पड़ता है तो दुख ही होता है। चाहे उस रिश्ते से उन्हें कितना ही दुख क्यों न मिला हो।

‘हिमालय की गोद में’ का नायक गाता है ‘चांद सी मेहबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था।” और आज का नायक गाता है “तेरे लिए ही तो सिग्नल तोड़ताड़ के, आया दिल्लीवाली गर्लफ्रेंड छोड़छाड़ के।” अरे! एक साथ कितनी गर्लफ्रेंड रखने का इरादा है आज के युवाओं का। बेशक इस गीत को सुन कर आपके पैर थिरकने लगेंगे ही परंतु शब्दों का जो प्रभाव मन पर होता है उससे कैसे बचेंगे? शायद आज के संगीत का मुख्य उद्देश्य ही लोगों को नचाना है। इसलिए अधिकतर गाने उसी अंदाज में बनाए जाते हैं।

एक दौर आया था जब फिल्म संगीत के साथ-साथ प्रायवेट एल्बम भी बनने लगे थे। 3-4 मिनट के इन गानों में एक छोटी सी कहानी भी सिमटी रहती थी। श्रोताओं दर्शकों ने संगीत के इस फॉर्म को भी बहुत पसंद किया था। उस समय तक इंटरनेट का जाल इतना नहीं फैला था। टीवी पर आने वाले म्यूजिक चैनलों में अकसर ये एल्बम दिखाई देते थे। आशा भोसले, अलका याज्ञिक, सोनू निगम, फाल्गुनी पाठक, अदनान सामी जैसे नामचीन गायक-गायिकाओं ने इन एल्बम्स के द्वारा भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया था। हालांकि इसी के साथ पुरानों फिल्मी गानों के रीमिक्स भी प्रस्तुत किए जा रहे थे, जो कुछ लोगों को पसंद नहीं आ रहे थे। उनके मनों में गाने की एक ही धुन बसी हुई थी, जिसके साथ छेड़छाड़ करना उन्हें नहीं भा रहा था।

परंतु उस समय की नई पीढ़ी को नए कलेवर में परोसे गए पुराने गाने भी पसंद आने लगे थे। आशा भोसले ने अपने ही गाए गाने “पर्दे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ” को रीमिक्स फार्म में भी गाया और वह सुपरहिट रहा। मेरे हिसाब से संगीत में कभी कुछ नया या पुराना नहीं होता। इसके साथ जो भी किया जाता वह केवल प्रयोग होता है और बनने वाली हर कृति नया आविष्कार होती है। हां! यह आवश्यक नहीं कि सभी लोगों को वह पसंद आए ही।

आज इंटरनेट के जमाने में लोगों के मोबाइल पर संगीत उपलब्ध है। लागभग 80% लोग कान में इयरफोन डाले कुछ न कुछ सुनते रहते हैं। परंतु क्या और क्यों सुनना चाहिए यह संज्ञान खोता जा रहा है। केवल कान में कुछ न कुछ सुनाई पड़ता रहे इसलिए संगीत सुनना या वह संगीत सुनना जो मन को प्रसन्न करे इसका विचार ही नहीं किया जाता। आयु के साथ-साथ जो परिपक्वता आती है, समाज में घटित हो रही घटनाओं की ओर देखने का जो दृष्टिकोण विकसित होता है, उसी प्रकार का दृष्टिकोण संगीत सुनने के लिए विकसित करना आवश्यक होता है। संगीत का आविष्कार और श्रोताओं की पसंद ये दोनों क्रिया-प्रतिक्रिया है। जब मधुर संगीत बनेगा तभी वह सुना जाएगा और जब श्रोता मधुर संगीत की मांग करेंगे तभी उसका आविष्कार करने की प्रेरणा संगीतकारों को मिलेगी। यहां गौर करना अनिवार्य है कि मधुर संगीत का अर्थ केवल शास्त्रीय संगीत या पुराने फिल्मों के संगीत से नहीं है। परंतु केवल नाचने के लिए या शारीरिक अंगों को झटकने के लिए संगीत सुनना भी सही नहीं है।  जिस प्रकार संगीत का आविष्कार एक साधना है उसी प्रकार संगीत सुनना भी एक प्रकार की साधना ही है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जिस प्रकार हम व्यायाम रूपी साधना करते हैं उसी प्रकार अपने मन को प्रसन्न रखने के लिए अगर संगीत सुनने की भी साधना की गई तो निश्चित ही हमारा मन:स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। आप जो सुन रहे हैं उसकी तरंगें, उसके बोल, उसके वाद्यों की झंकारें अगर आपके मन मस्तिष्क तक नहीं पहुंचतीं और आपको आल्हादित नहीं करतीं तो आपका संगीत सुनना व्यर्थ होगा। अत: अच्छा संगीत सुनें, तानसेन ना सही पर कानसेन जरूर बनें।

 

 

 

Leave a Reply